अथर्ववेद कहता
है, "धरती माँ, जो कुछ भी तुमसे
लूँगा, वह उतना ही होगा जितना तू
फिर से पैदा कर सके। तेरी जीवन-शक्ति पर कभी आघात नहीं करूँगा।" मनु स्मृति
कहती है, “जब पाप बढ़ता है तो धरती काँपने लगती है।” प्रकृति हमारी संरक्षक है, पर तभी तक जब तक हम
उसका आदर करें। भूकम्प, बाढ़ और सूखा हमारे असंतुलित आचरण की परिणति हैं। अकुशल,
अनुशासनहीन, अवैज्ञानिक और अंधविश्वासी समाज प्रकृति के कोप का शिकार बनता है।
प्रकृति के करवट लेने से जीव-जगत पर संकट आता है, पर वह हमेशा इतना भयावह नहीं
होता। भूकम्प को रोका नहीं जा सकता, पर उससे होने वाले नुकसान को सीमित किया जा
सकता है।