Thursday, March 30, 2023

सोमवार को चेन्नई में दिखाई पड़ेगी विरोधी दलों की एकता

साभार सतीश आचार्य का पुराना कार्टून

कर्नाटक विधानसभा के चुनाव की घोषणा होने और राहुल गांधी की लोकसभा सदस्यता जाने के साथ विरोधी दलों की एकता के प्रयासों में फिर से तेजी आ गई है। सोमवार 3 अप्रेल को तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने 16 विरोधी दलों की बैठक बुलाई है। जिन दलों को निमंत्रण दिया गया है, उनमें बीजू जनता दल और वाईएसआर कांग्रेस भी शामिल है। वे आएंगे या नहीं इसे लेकर कयास हैं। ये दोनों दल अभी तक विरोधी दलों के किसी भी गठबंधन में शामिल होने से बचते रहे हैं।

वाईएसआर कांग्रेस ने गुरुवार को कहा भी है कि हमें बुलाया नहीं गया है और हम शामिल भी नहीं होंगे। बीजद ने भी बैठक में भाग लेने के बारे में कुछ भी नहीं कहा है। अलबत्ता इस सम्मेलन के आयोजनकर्ताओं का कहना है कि बीजद के राज्यसभा मुख्य सचेतक सस्मित पात्रा बैठक में शामिल होंगे। विरोधी दलों के नेता यह भी मानते हैं कि ये दोनों दल एनडीए के करीब रहते हैं। इंडियन एक्सप्रेस की खबर के अनुसार जब सस्मित पात्रा से संपर्क किया गया, तो उन्होंने कहा कि मैं कह नहीं सकता कि बीजद इस बैठक में शामिल होगा या नहीं। मेरे पास इसमें हिस्सा लेने के बारे में कोई जानकारी नहीं है।

एकता के सूत्र

बहरहाल बैठक के आयोजकों के अनुसार डीएमके की इस बैठक में शामिल होने के लिए कांग्रेस, जेएमएम, राजद, जेडीयू, तृणमूल कांग्रेस, सपा, वाईएसआरसीपी, बीजद, नेकां, बीआरएस, कम्युनिस्ट पार्टी, माकपा, राकांपा, आम आदमी पार्टी, आईयूएमएल, एमडीएमके को आमंत्रित किया गया है। अब पहली बार मोदी विरोध के नाम पर ही सही कम से कम 14 या 15 दल अब एक साथ बैठने को तैयार नज़र आ रहे हैं।

छत्तीसगढ़ का लोकलुभावन बजट

गत 6 मार्च को छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने ‘गढ़बो नवा छत्तीसगढ़’ के आप्त-वाक्य के साथ वर्ष 2023-24 के लिए एक लाख 21 हज़ार 500 करोड़ रुपए का बजट प्रस्तुत किया। यह बजट इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह राज्य कृषि एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर आधारित ‘छत्तीसगढ़ मॉडल’ को स्थापित करना चाहता है। इस साल राज्य में विधानसभा चुनाव भी हैं। इस दृष्टि से तमाम लोकलुभावन योजनाओं की भी इसमें भरमार है। खासतौर से बेरोजगारों को 2500 रुपये महीने क बेरोजगारी भत्त की घोषणा। इस योजना की घोषणा मुख्यमंत्री भूपेश बघेल गणतंत्र दिवस पर कर चुके थे। बजट में केवल उसे औपचारिक रूप दिया गया है।

वित्तीय दृष्टि से राज्य आरामदेह स्थिति में है। राज्य के स्वयं की राजस्व प्राप्तियों को बढ़ाने की दिशा में किए जा रहे प्रयासों का परिणाम सकारात्मक रहा है। इस वर्ष राज्य के स्वयं के राजस्व में 26 प्रतिशत की वृद्धि अनुमानित है। एक और उपलब्धि यह है कि पूर्ववर्ती सरकार द्वारा राज्य के विकास कार्यों हेतु वर्ष 2012-13 से निरंतर बाजार ऋण लिया जा रहा था। विगत तीन वर्षों में कुशल वित्तीय प्रबंधन अपनाते हुए वर्ष 2022-23 में सरकार ने अब तक बाजार ऋण नहीं लिया है।

आर्थिक संवृद्धि

बजट में शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के लिए कई प्रकार की घोषणाएं की गई हैं, जिनमें खासतौर से स्वास्थ्य, शिक्षा और इंफ्रास्ट्रक्चर पर जोर है। हालांकि अर्थव्यवस्था का विकास देश के सभी इलाकों में हुआ है, पर छत्तीसगढ़ उन राज्यों में शामिल है, जिनका विकास अपेक्षाकृत तेज है। मध्य प्रदेश से अलग होकर छत्तीसगढ़ 1 नवम्बर 2000 को अस्तित्व में आया था। तत्कालीन मुख्यमंत्री अजीत जोगी ने 2001 में जो पहला बजट पेश किया था, वह साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए का था। संशोधित अनुमानों को जोड़ने के बाद वह 5,705 करोड़ रुपए का हो गया था। इस साल यह एक लाख 12 हजार करोड़ रूपये का है। 22 साल में इसका आकार करीब 22 गुना हो गया है।

Wednesday, March 29, 2023

पश्चिम एशिया में ‘डी-अमेरिकनाइज़ेशन?’

KAL's Cartoon इकोनॉमिस्ट से साभार

देस-परदेश

बुधवार 22 मार्च को चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने रूस की अपनी यात्रा का समापन किया और अमेरिका की हिंद-प्रशांत रणनीति का मुकाबला करने के लिए एक नई रणनीति की शुरुआत की. उन्होंने रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ ‘समान, खुली और समावेशी सुरक्षा-प्रणाली’ बनाने का संकल्प करते हुए अमेरिका और उसके सहयोगी देशों के खिलाफ नए मोर्चे की शुरुआत की है.

गत 10 मार्च को सऊदी अरब और ईरान के बीच समझौता कराते हुए चीन ने दो संदेश दिए हैं. एक, चीन महत्वपूर्ण और जिम्मेदार शक्ति है और दूसरे यह कि वह अमेरिका के दबाव में आने वाला नहीं है. चीन ने पश्चिम एशिया में हस्तक्षेप करके अपने आपको शांति-स्थापित करने वाले देश के रूप में स्थापित किया है. साथ ही अमेरिका की छवि झगड़े कराने वाले देश के रूप में बनी है. इसे पश्चिम एशिया में डी-अमेरिकनाइज़ेशनकी शुरुआत कहा जा रहा है.

15 अगस्त, 2021 को जब तालिबान ने काबुल पर कब्ज़ा किया था, तब भी ऐसा ही कहा गया था. जब तक वैश्विक अर्थव्यवस्था पश्चिमी फ्री-मार्केट की अवधारणा से जुड़ी है और संरा और विश्व बैंक जैसी संस्थाएं कारगर हैं, तब तक यह मान लेना आसान नहीं है कि अमेरिका का वर्चस्व खत्म हो जाएगा. अलबत्ता पश्चिम एशिया के घटनाक्रम ने सोचने-विचारने के लिए कुछ नए तथ्य उपलब्ध कराए हैं.

ईरान का प्रतिरोध

अमेरिका के मुख्य प्रतिस्पर्धी के रूप में चीन का नाम लिया जा रहा है, पर हमें ईरान के प्रतिरोध पर भी ध्यान देना चाहिए. ईरान ने चार बातें साफ की हैं. एक, अरब देशों के साथ रिश्तों को सुधारने में उसे दिक्कत नहीं हैं. वह चीन पर भरोसा करता है. उसे अमेरिका पर भरोसा कत्तई नहीं है. चौथी, यूक्रेन युद्ध में वह रूस का समर्थक है. इसके प्रमाण हैं ईरान में बने सैकड़ों कामिकाज़े ड्रोन, जिनके अवशेष यूक्रेन के नागरिक इलाकों में मिले हैं.

इन सब बातों के अलावा वह अपने नाभिकीय कार्यक्रम को अमेरिका-समर्थित विश्व-व्यवस्था के हवाले करने को तैयार नहीं है. अब स्थिति यह है कि ईरान में हिजाब को लेकर चल रहे आंदोलन के खिलाफ सरकारी कार्रवाई छठे महीने में प्रवेश कर गई है. दूसरी तरफ मार्च के तीसरे हफ्ते में ईरान, चीन और रूस की नौसेनाओं ने ओमान की खाड़ी में संयुक्त युद्धाभ्यास किया है, जिससे आप अपने निष्कर्ष खुद निकाल सकते हैं.

Sunday, March 26, 2023

खालिस्तानी आंदोलन के खतरे


भारत सरकार और पंजाब सरकार ने खालिस्तानी आंदोलन के खिलाफ हालांकि कार्रवाई शुरू की है, पर लगता है कि इसमें कुछ देर की गई है। दो-तीन साल से जिस बात की सुगबुगाहट थी, वह खुलकर सामने आ रहा है। दिल्ली की सीमा पर एक साल तक चले किसान-आंदोलन के दौरान सोशल मीडिया पर खालिस्तान समर्थक सक्रिय हुए थे। 26 जनवरी, 2021 को लालकिले के द्वार तोड़कर जब भीड़ ने अपना झंडा फहराया था, तब मसले की गंभीरता की आशंका व्यक्त की गई थी। उन्हीं दिनों टूलकिट-प्रकरण उछला, जिसे सबसे पहले स्वीडिश जलवायु कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग ने सोशल मीडिया पर शेयर किया था। किसान आंदोलन शुरू होने के पहले ही पंजाब में पाकिस्तान से भेजे गए ड्रोनों की मदद से हथियार गिराने की घटनाएं हुई थीं। कनाडा स्थित कुछ समूहों ने सन 2018 से ‘रेफरेंडम-2020’ नाम से एक अभियान शुरू किया था, जिसके लक्ष्य बहुत खतरनाक हैं। हालांकि यह रेफरेंडम सफल नहीं हुआ, पर इससे साबित हुआ कि दुनिया में भारत-विरोधी गतिविधियाँ चल रही हैं। उन्हें जब भारत के भीतर समर्थन नहीं मिला, तो बाहर से अपने आदमी को प्लांट किया। इन बातों का सकारात्मक पक्ष यह है कि सिख समुदाय ने इन प्रवृत्तियों का विरोध  किया है।

अमृतपाल की भरती

इन बातों का संदर्भ अमृतपाल सिंह के नेतृत्व में हुई घटनाएं और फिर उसकी गिरफ्तारी की कोशिशों से जुड़ा है। पंजाब के पूर्व सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह ने 1 सितंबर 2022 को एक सभा के दौरान अमृतपाल सिंह पर सवाल उठाए थे। उन्होंने कहा कि अमृतपाल दुबई से आया है और उसका पूरा परिवार दुबई में है। ऐसे में उसे भारत किसने भेजा? इसका पता लगाना पंजाब की आप सरकार की जिम्मेदारी है। अमृतपाल की अगुआई में उसके हजारों समर्थकों ने गत 23 फरवरी को अमृतसर के अजनाला थाने पर जिस तरह से हमला किया था, उसके बाद उनके इरादों को लेकर कोई संशय नहीं रह गया था। अमृतपाल दुबई में ट्रक ड्राइवर था। उसे पाकिस्तानी आईएसआई ने भारत में गड़बड़ी फैलाने के लिए तैयार किया। वे चाहते हैं कि पंजाब की नई पीढ़ी के मन में उन्माद भरा जाए, ताकि एकबार फिर से देश में अराजकता की लहर फैले जैसी अस्सी के दशक में पंजाब में चले खालिस्तानी आंदोलन के दौरान फैली थी। उसकी परिणति 1984 के ऑपरेशन ब्लूस्टार और इंदिरा गांधी की हत्या के रूप में देखने को मिली थी। उन परिघटनाओं से पैदा हुआ गर्द-गुबार छँट ही रहा था कि भारत की एकता से ईर्ष्या रखने वालों ने दूसरी योजनाओं पर काम शुरू कर दिया।

सीमा पर हरकतें

भारतीय खुफिया एजेंसियों का कहना है कि पाकिस्तान से सक्रिय आतंकी ग्रुप सोशल मीडिया में काफी एक्टिव है और वे युवाओं को बरगला कर आतंकी संगठन में शामिल होने के लिए मना रहे हैं। इन संगठनों का इस्तेमाल जम्मू-कश्मीर में आतंकी गतिविधियों को बढ़ाने के लिए किया जा सकता है। इस काम में पंजाब और कश्मीर के उन अपराधियों को भी शामिल किया जा रहा है, जो नशे का अवैध कारोबार करते हैं। हाल में पंजाब से सटी पाकिस्तानी सीमा आईएसआई  की गतिविधियों में इजाफा देखने को मिल रहा है। पाक रेंजर्स और आईएसआई की मदद से सीमा के नजदीक कई जगहों पर भारत में ड्रग्स और हथियार भेजने के लिए स्मगलरों और आतंकियों को ड्रोन्स मुहैया कराए गए हैं। फ़िरोज़पुर और अमृतसर के बीच कई पाकिस्तानी ड्रोन-गतिविधि काफी बढ़ गई है। पाकिस्तान की तरफ से सुरक्षा एजेंसियों को चकमा देने के लिए डमी ड्रोन्स का सहारा भी लिया जा रहा है।

Saturday, March 25, 2023

भारतीय भाषाओं का मीडिया और शब्द चयन


हाल में प्रकाशित डॉ सुरेश पंत की किताब 'शब्दों के साथ-साथ'  को पढ़ते हुए मेरे मन में तमाम पुरानी बातें कौंधती चली गई हैं। एक अरसे से मैं भाषा को लेकर एक किताब लिखने का विचार करता रहा हूँ। संभव है मैं उसे तैयार कर पाऊं। मैं भाषा-विज्ञानी नहीं हूँ। केवल भाषा को बरतने वाला हूँ। विचार को ज्यादा बड़े फलक पर व्यक्त करने के पहले अपने ब्लॉग पर मैं स्फुट विचार व्यक्त करता रहा हूँ। हिंदी को लेकर भी 20-25 से ज्यादा लेख मैंने ब्लॉग में लिखे हैं। काफी बातें मेरी डायरियों में दर्ज हैं, जिन्हें मैं समय-समय पर लिखता रहा हूँ।

हाल में जब मध्य प्रदेश सरकार ने मेडिकल पुस्तकों को हिंदी में प्रकाशित किया, तब मैंने कुछ लेख लिखे थे और उन्हें आगे बढ़ाने का विचार किया। इसके लिए मैंने फलस्तीन, इसरायल, अरबी और अफ्रीका की भाषाओं में मेडिकल पढ़ाई से जुड़े प्रश्नों पर नोट्स तैयार किए। पर जब उस मसले को राजनीति ने घेर लिया, तब मैंने अपना हाथ रोक लिया। पढ़ने वाले यह समझने की कोशिश करने लगते हैं कि मैं संघी हूँ, कांग्रेसी हूँ, लोहियाइट हूँ, लाल झंडा हूँ या आंबेडकरवादी? काफी लोगों ने इन शब्दों के परिधान पहन रखे हैं। और वे दुनिया को इसी नज़र से देखना चाहते हैं। जब किताब लिखूँगा, तब इस विषय पर भी लिखूँगा। तकनीकी शब्दावली और आम-फहम भाषा से जुड़े मसले भी मेरी दृष्टि में हैं। एक बड़ा रोचक मसला हिंदी-उर्दू का है। दोनों की लिपियों का अंतर उन्हें अलग करता है, पर क्या आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस की मौखिक भाषा में दोनों के फर्क को मिटाया जा सकता है? बहरहाल।  

मैं केवल हिंदी-नज़रिए से नहीं देखता। मेरी नज़र भाषा और खासतौर से भारतीय भाषाओं पर है। लेखक और पत्रकार के रूप में भारतीय भाषाओं के विस्तार का सबसे सकारात्मक पक्ष यह है कि हम कतार में सबसे पीछे खड़े व्यक्ति तक उसकी भाषा में बात पहुँचा सकते हैं। ऐसे में दो-तीन बातों को ध्यान में रखना होता है। एक, हमारा दर्शक या श्रोता कौन है? उसका भाषा-ज्ञान किस स्तर का है? केवल उसके ज्ञान की बात ही नहीं है बल्कि देखना यह भी होगा कि वह जिस क्षेत्र का निवासी है, वहाँ के मुहावरे और लोकोक्तियों का हमें ज्ञान है या नहीं।

पाठक से सीखें

यह दोतरफा प्रक्रिया है। हमें भी अपने लक्ष्य से सीखना है। खासतौर से तब, जब संवाद लोकभाषा में हो। इसके विपरीत अपेक्षाकृत नगरीय क्षेत्र में मानक-भाषा का इस्तेमाल करने का प्रयास करना चाहिए। लोकभाषा से लालित्य आता हो, तब तो ठीक है, अन्यथा किसी दूसरे क्षेत्र के लोक-प्रयोग कई बार दर्शक और श्रोता को समझ में नहीं आते।

पाकिस्तान में इन दिनों आटे का संकट है। दोनों देशों में दाल-आटे का भाव आम आदमी की दशा पर रोशनी डालता है। भारतीय भूखंड में आटे की व्याप्ति पर डॉ पंत की किताब में अच्छी जानकारी पढ़ने को मिली। आटा संस्कृत आर्द (जोर से दबाना) और प्राकृत अट्ट से व्युत्पन्न हुआ है। अर्थ है किसी अनाज का चूरा, पिसान, बुकनी, पाउडर। कई तरह का चूर्ण बेचने वाला कहलाया परचूनी या परचूनिया। आटा के लिए फारसी शब्द है आद, जो संस्कृत के आर्द का प्रतिरूप लगता है। गुजराती में आटो, कश्मीरी में ओटू, मराठी में आट के अलावा पीठ शब्द भी चलता है, जो पिष्ट या पिसा हुआ से बना है। हिंदी में पिट्ठी या पीठी भी पीसी हुई दाल है। नेपाली में पीठो, कन्नड़ में अट्टसु, पंजाबी, बांग्ला और ओडिया में भी आटा, पर तमिष और मलयाळम में इन सबसे अलग है मावु।

Friday, March 24, 2023

पानी पर कब्जे की लड़ाई या सहयोग?


जनवरी के महीने में जब भारत ने पाकिस्तान को सिंधु जलसंधि पर संशोधन का सुझाव देते हुए एक नोटिस दिया था, तभी स्पष्ट हो गया था कि यह एक नए राजनीतिक टकराव का प्रस्थान-बिंदु है. सिंधु जलसंधि दुनिया के सबसे उदार जल-समझौतों में से एक है. भारत ने सिंधु नदी से संबद्ध छह नदियों के पानी का पाकिस्तान को उदारता के साथ इस्तेमाल करने का मौका दिया है. अब जब भारत ने इस संधि के तहत अपने हिस्से के पानी के इस्तेमाल का फैसला किया, तो पाकिस्तान ने आपत्ति दर्ज करा दी.

माना जाता है कि कभी तीसरा विश्वयुद्ध हुआ, तो पानी को लेकर होगा. जीवन की उत्पत्ति जल में हुई है. पानी के बिना जीवन संभव नहीं, इसीलिए कहते हैं ‘जल ही जीवन है.’ जल दिवस 22 मार्च को मनाया जाता है. इसके पहले 14 मार्च को दुनिया में एक्शन फॉर रिवर्स दिवस मनाया गया है. नदियाँ पेयजल उपलब्ध कराती हैं, खेती में सहायक हैं और ऊर्जा भी प्रदान करती हैं.

इन दिवसों का उद्देश्य विश्व के सभी देशों में स्वच्छ एवं सुरक्षित जल की उपलब्धता सुनिश्चित कराना है. साथ ही जल संरक्षण के महत्व पर भी ध्यान केंद्रित करना है. दुनिया यदि चाहती है कि 2030 तक हर किसी तक स्वच्छ पेयजल और साफ़-सफ़ाई की पहुँच सुनिश्चित हो, जिसके लिए एसडीजी-6 लक्ष्य को प्राप्त करना है, तो हमें चार गुना तेज़ी से काम करना होगा.

चीन का नियंत्रण

हाल के वर्षों में चीन का एक बड़ी आर्थिक-सामरिक शक्ति के रूप में उदय हुआ है. जल संसाधनों की दृष्टि से भी वह महत्वपूर्ण शक्ति है. दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में बहने वाली सात महत्वपूर्ण नदियों पर चीन का प्रत्यक्ष या परोक्ष नियंत्रण है. ये नदियाँ हैं सिंधु, गंगा, ब्रह्मपुत्र, इरावदी, सलवीन, यांगत्जी और मीकांग. ये नदियां भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार, लाओस और वियतनाम से होकर गुजरती हैं.

पिछले साल, पाकिस्तान और नाइजीरिया में आई बाढ़, या अमेजन और ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग से पता लगता है कि पानी का संकट हमारे जीवन को पूरी तरह उलट देगा. हमारे स्वास्थ्य, हमारी सुरक्षा, हमारे भोजन और हमारे पर्यावरण को ख़तरे में डाल देगा.

Wednesday, March 22, 2023

इस माहौल में क्या भारत-पाक वार्ता संभव है?


 देस-परदेश

पाकिस्तान अपने आर्थिक-संकट और आंतरिक राजनीतिक-विवादों में उलझा हुआ है, पर बीच-बीच में भारत-पाकिस्तान बातचीत शुरू होने की सुगबुगाहट सुनाई पड़ती है. ऐसा पिछले साल अप्रेल में हुए सत्ता परिवर्तन के बाद से चल रहा है. पाकिस्तान के आंतरिक राजनीतिक टकराव के दौरान भी कई बार यह बात सुनाई पड़ी है कि भारत के साथ रिश्ते सुधारने चाहिए.

पाकिस्तान में यह मानने वाले भी हैं कि भारत के साथ कारोबारी रिश्तों को कायम करना देशहित में है. खासतौर से जब अमेरिका और ईयू में मंदी है, तब भारत के साथ कारोबारी संबंध बनाने से पाकिस्तान की गिरती दशा को सुधारा जा सकता है. कुछ लोग यह भी कह रहे हैं कि 2019 में व्यापारिक-रिश्तों को तोड़ना गलत था.

भारत-पाकिस्तान रिश्तों की गाड़ी ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलती है. किसी भी क्षण जबर्दस्त झटका लगता है और सब कुछ बिखर जाता है. फिर भी एक आस बँधी रहती है कि शायद अब कुछ सकारात्मक हो. दूसरी तरफ पाकिस्तान में एक पूरा प्रतिष्ठान भारत-विरोध के नाम पर खड़ा है. उसका मूल स्वर है ‘कश्मीर बनेगा पाकिस्तान.’ कश्मीर के मामले पर पूरा देश बेहद ऊँचे तापमान पर गर्म रहता है.

Sunday, March 19, 2023

कब तक चलेगा संसदीय गतिरोध?


संसद के दोनों सदनों में पूरे सप्ताह गतिरोध जारी रहा। जिस तरह के हालात हैं, उन्हें देखते हुए लगता नहीं कि सोमवार को भी स्थिति में सुधार होगा। कांग्रेस के नेतृत्व में विरोधी दल अडाणी-हिंडनबर्ग विवाद में जेपीसी की मांग पर अडिग हैं। दूसरी तरफ राहुल गांधी के बयानों को बीजेपी राष्ट्रीय-अपमान का विषय और विदेशी जमीन से भारतीय संप्रभुता पर हमला बता रही है। वह चाहती है कि लंदन में कही गई अपनी बातों पर राहुल गांधी माफी माँगें। लगता यह भी है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ही इस गतिरोध को जारी रखना चाहते हैं। 

इस गतिरोध के ज्यादातर प्रसंग 2024 के चुनाव में दोनों तरफ के तीरों का काम करेंगे। गृहमंत्री अमित शाह ने शुक्रवार को कहा कि विपक्ष वार्ता के लिए आगे आए तो गतिरोध को दूर किया जा सकता है। दोनों पक्ष लोकसभा अध्यक्ष के साथ बैठें। उन्हें दो कदम आगे आना चाहिए और हम उससे भी दो कदम आगे बढ़ाएंगे, तब संसद चलेगी। उन्होंने इसके बाद कहा, आप केवल संवाददाता सम्मेलन कीजिए और कुछ न कीजिए, ऐसा नहीं चलता।

दोनों तरफ से हंगामा

हंगामा दोनों तरफ से है। ऐसा कम होता है, जब सत्तापक्ष गतिरोध पैदा करे। खबर यह भी है कि बीजेपी लंदन की टिप्पणी के लिए राहुल गांधी को सदन से निलंबित या निष्कासित करने पर भी विचार कर रही है। यह गंभीर बात है, पर ऐसा क्यों सोचा जा रहा है? इससे तो राहुल गांधी का राजनीतिक कद बढ़ेगा? एक धारणा है कि विरोधी दलों का मुख्य चेहरा राहुल गांधी को बनाने से बीजेपी को लाभ है, क्योंकि इससे विपक्ष में बिखराव होगा। दूसरे बीजेपी खुद को राष्ट्रवाद की ध्वजवाहक और कांग्रेस को राष्ट्रवाद-विरोधी साबित करने में सफल होगी। राष्ट्रवाद के प्रश्न पर बीजेपी खुद को उत्पीड़ित साबित करती है। 2019 में पुलवामा कांड के बाद ऐसा ही हुआ। राहुल पर ध्यान केंद्रित करने से अडाणी प्रसंग से भी ध्यान हटेगा। देखना यह भी होगा कि कांग्रेस पार्टी अडाणी-हिंडनबर्ग मामले को कितनी दूर तक ले जाएगी?  इससे लगता है कि संसदीय गतिरोध दोनों पक्षों के लिए उपयोगी है। दोनों पार्टियों ने शुक्रवार और शनिवार को अगले सप्ताह की गतिविधियों और रणनीतियों पर विचार किया है। इस ब्रेक के बाद यह देखना रोचक होगा कि गतिरोध आगे बढ़ेगा या मामला सुलझेगा।

मोदी बनाम राहुल

कानून मंत्री किरण रिजिजू का यह बयान ध्यान देने योग्य है किदेश से जुड़ा कोई मसला हम सब के लिए चिंता का विषय है…अगर कोई देश का अपमान करेगा तो हम इसे सहन नहीं कर सकते।’ उधर कांग्रेस के राज्यसभा के सांसद के सी वेणुगोपाल ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ गरिमा हनन से संबंधित कार्रवाई करने की मांग की है। वेणुगोपाल ने कहा कि प्रधानमंत्री ने संसद में राहुल और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के खिलाफ अपमानजनक और असंसदीय भाषा का इस्तेमाल किया है। राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव पर चर्चा के दौरान प्रधानमंत्री ने परिवार औरनेहरू नाम का जो उल्लेख किया था, उसे पार्टी ने उठाया है। बहरहाल कांग्रेस पार्टी के पास संसद में लड़ने की सीमित शक्ति है, वह इस मामले को सड़क पर ले जाएगी। राजनीतिक दृष्टि से बीजेपी भी चाहेगी कि मामला मोदी बनाम राहुल गांधीबनकर उभरे।  

Friday, March 17, 2023

इमरान की गिरफ्तारी होने या नहीं होने से खत्म नहीं होगा पाकिस्तान का राजनीतिक-संकट


हालांकि पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान फिलहाल गिरफ्तारी से बचे हुए हैं, पर लगता है कि तोशाखाना केस में वे घिर जाएंगे. इस्लामाबाद हाईकोर्ट ने उनके गिरफ्तारी वारंट पर फ़ैसला सुरक्षित रख लिया है, जिसका मतलब है कि अदालत ने इस मामले में फौरन रिलीफ नहीं दी है. लाहौर हाई कोर्ट ने पहले गुरुवार सुबह 10 बजे तक ज़मान पार्क में पुलिस-कार्रवाई पर रोक लगाई और फिर उसे एक दिन के लिए और बढ़ा दिया. इससे फिलहाल टकराव रुक गया है, पर राजनीतिक-संकट कम नहीं हुआ है. वस्तुतः गिरफ्तारी हुई, तो एक नया संकट शुरू होगा. और नहीं हुई, तो एक नज़ीर बनेगी, जो देश की कानून-व्यवस्था के लिए सवाल खड़े करेगी. उधर तोशाखाना केस की सुनवाई कर रहे जज ने कहा है कि इमरान अदालत में हाजिर हो जाएं, तो गिरफ्तारी वारंट वापस हो जाएगा.

पाकिस्तान के वर्तमान राजनीतिक-आर्थिक और सामरिक संकटों का हल तभी संभव है, जब वहाँ की राजनीतिक-शक्तियाँ एक पेज पर आएं. ताजा खबर है कि प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने इसकी पेशकश की है, और इमरान ने कहा है कि देशहित में मैं किसी से भी बात करने को तैयार हूँ। फिर भी इसकी कल्पना अभी नहीं की जा सकती है. सरकार और इमरान के राष्ट्रीय-संवाद के बीच तमाम अवरोध हैं। बहरहाल जो टकराव चल रहा है, उसे किसी तार्किक परिणति तक पहुँचना होगा. इस संकट की वजह से अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष का बेलआउट पैकेट खटाई में पड़ा हुआ है.

आर्थिक-संकट

पाकिस्तान की कोशिश है कि अमेरिका की मदद से मुद्राकोष के रुख में कुछ नरमी आए. पिछले हफ्ते देश के वित्त सचिव हमीद याकूब शेख ने कहा था कि पैकेज की घोषणा अब कुछ दिन के भीतर ही हो जाएगी. यह बात पिछले कई हफ्तों से कही जा रही है. मुद्राकोष देश की वित्तीय और खासतौर से राजनीतिक-स्थिति को लेकर आश्वस्त नहीं है. दूसरी तरफ ऐसी अफवाहें उड़ाई जा रही हैं कि आईएमएफ ने देश के नाभिकीय-मिसाइल कार्यक्रम को रोकने की शर्त भी लगाई है. इसपर सरकार ने सफाई भी दी है.

Thursday, March 16, 2023

सऊदी-ईरान समझौता और पश्चिम एशिया में चीन की बढ़ती भूमिका

 


देस-परदेश

इस्लामिक देशों में सऊदी अरब और ईरान के बीच पुरानी प्रतिद्वंदिता है. उसके पीछे ऐतिहासिक कारण भी हैं. पिछले कुछ वर्षों से यह इतनी कटु हो गई थी कि दोनों देशों ने आपसी राजनयिक-संबंध भी तोड़ लिए थे. अब ये रिश्ते चीन की मध्यस्थता में फिर से कायम होने जा रहे हैं. इस्लामिक देशों की एकता और सहयोग की दृष्टि से तथा आने वाले समय की वैश्विक-राजनीति की दृष्टि से यह समझौता महत्वपूर्ण साबित होने वाला है.

बेशक दोनों देशों के दूतावास अगले दो महीनों के भीतर काम करने लगेंगे, पर यह सब जितना आसान समझा जा रहा है, उतना आसान भी नहीं है. इसीलिए इसे लागू करने के लिए दो महीने का समय रखा गया है, ताकि सभी जटिलताओं को सुलझा लिया जाए.  

चीन की भूमिका

दोनों देशों के बीच चार दिन की बातचीत के बाद इस बात की घोषणा होने पर पर्यवेक्षकों को हैरत उतनी नहीं हुई, जितनी इसमें चीन की भूमिका को लेकर विस्मय पैदा हुआ है. क्या चीन अब वैश्विक-डिप्लोमेसी में ज्यादा बड़ी भूमिका निभाने जा रहा है? चीनी अखबार ग्लोबल टाइम्स ने इसे चीन के ग्लोबल सिक्योरिटी इनीशिएटिव (जीएसआई) की देन बताया है.

पिछले सात दशकों से पश्चिम एशिया में अमेरिका ही सबसे बड़ी भूमिका निभाता रहा है. यह पहला मौका है, जब इस भूमिका में चीन सामने आया है. ऐसी बैठक कराने में अमेरिका सबसे समर्थ है, पर ईरान के साथ उसके रिश्ते अच्छे नहीं हैं. फिर भी पश्चिमी पर्यवेक्षक मानते हैं कि संबंध-सुधार की इस प्रक्रिया के पीछे भी अमेरिकी सहमति है, क्योंकि वह पश्चिम एशिया में इसरायल-फलस्तीन झगड़े का निपटारा कराने के लिए ज़मीन तैयार कर रहा है.

 

अमेरिकी रज़ामंदी

अमेरिका ने समझौते का स्वागत किया है. ह्वाइट हाउस की प्रवक्ता केरिन जीन-पियरे ने कहा कि यमन में युद्ध रोकने की किसी भी कोशिश का अमेरिका समर्थन करता है. उन्होंने कहा कि राष्ट्रपति बाइडन ने जुलाई में इस इलाक़े में तनाव कम करने की कोशिश और राजनयिक रिश्तों को मज़बूत करने के कदमों को अमेरिकी विदेश नीति की बुनियाद बताया था. खाड़ी क्षेत्र में तनाव कम करना अमेरिका की प्राथमिकता है हम इस समझौते का समर्थन करते हैं.

दूसरे नज़रिए से देखें, तो यह परिघटना अमेरिका को परेशान करने वाली होनी चाहिए, क्योंकि इससे ईरान को अलग-थलग करने की उसकी कोशिश को धक्का लगेगा. इसके पीछे कौन सी ताकत है और किसकी क्या भूमिका है, इसे स्पष्ट होने में भी कुछ समय लगेगा.

कड़वाहट की वज़ह

2016 में प्रतिष्ठित शिया धर्म गुरु निम्र अल-निम्र सहित 47 लोगों को आतंकवाद के आरोपों में सऊदी अरब में फाँसी दिए जाने के बाद ईरान और सऊदी रिश्ते खराब हो गए. इसके कारण जब भीड़ ने तेहरान स्थित सऊदी दूतावास पर हमला बोला, तो राजनयिक रिश्ते भी टूट गए. इसके बाद रिश्ते बिगड़ते ही गए और 2019 ईरान में बने ड्रोनों ने जब सऊदी तोल-शोधक कारखानों पर हमले किए तो और बिगड़ गए.

इन दोनों देशों की प्रतिद्वंदिता का असर लेबनान, सीरिया, इराक़ और यमन समेत पश्चिम एशिया के कई देशों और समाजों पर पड़ रहा है. इस इलाके में चल रहे सशस्त्र-आंदोलनों में इन देशों के समर्थन से सक्रिय गुटों की भूमिका है. अभी तक अमेरिका और इसरायल की इन रिश्तों को बनाने और बिगाड़ने में भूमिका थी, पर पिछले कुछ समय से चीन और रूस की गतिविधियाँ भी इस इलाके में बढ़ी हैं. इस लिहाज से ताज़ा घटनाक्रम महत्वपूर्ण है.

प्रयासों की पृष्ठभूमि

गत 10 मार्च को ईरान की सुप्रीम नेशनल सिक्योरिटी काउंसिल के सेक्रेटरी अली शमखानी और सऊदी सुरक्षा सलाहकार मुसाद बिन मुहम्मद अल-ऐबान की बैठक अप्रत्याशित घटना नहीं थी, क्योंकि पिछले कुछ समय से ऐसी खबरें हवा में हैं कि दोनों के बीच अनौपचारिक स्तर पर बातचीत होने लगी है. हैरत इस बैठक के स्थान को लेकर है, जो पश्चिम एशिया के किसी देश में न होकर चीन में था, जिसकी अब तक पश्चिम की राजनीति में बड़ी भूमिका नहीं थी.

Tuesday, March 14, 2023

शब्दों से एक रोचक मुलाकात

अस्सी के दशक में कभी लखनऊ में रंजीत कपूर के निर्देशन में मैंने बेगम का तकिया नाटक देखा था। तब तक मुझे तकिया शब्द का मतलब सिरहाने लगाने वाला तकिया ही समझ में आता था। मसलन भरोसा करना, फ़क़ीर का आवास, क़ब्रिस्तान और छज्जे में रोक के लिए लगाई गई पत्थर की पटिया, जिसे अंग्रेजी में पैरापीट कहते हैं वगैरह। शब्दों का यह अर्थ-वैविध्य देश-काल के साथ तय होता है। जहाँ शब्द गढ़ा गया या जहाँ से और जब होकर गुज़रा। वक्त के साथ यह भी पता लगा कि शब्दों के मतलब बदलते भी जाते हैं। हाल में प्रकाशित डॉ सुरेश पंत की किताब 'शब्दों के साथ-साथ' को हाथ में लेते ही शब्दों से मुलाकात के कुछ पुराने प्रसंग याद आते चले गए।  

व्यक्तिगत रूप से मेरी मुलाकात शब्दों और उनके बनते-बिगड़ते रूपों के साथ अखबार की नौकरी के दौरान हुई। एक समय तक भाषा की ढलाई और गढ़ाई का काम अखबारों में ही हुआ था। कई साल तक मैंने कादम्बिनी में ज्ञानकोश नाम से एक कॉलम लिखा, जिसमें पाठक कई बार शब्दों का खास मतलब भी पूछते थे। नहीं भी पूछते, तब भी शब्द-संदर्भ निकल ही आते थे। एकबार किसी ने साबुन के बारे में पूछा, तो उसके जन्म की तलाश में मैंने दूसरे स्रोतों के अलावा अजित वडनेरकर के ब्लॉग शब्दों का सफर की मदद ली। 1993 में मैंने कुछ समय के लिए जयपुर के नवभारत टाइम्स में काम किया, तो एक दिन वहाँ अजित जी से मुलाकात भी हुई थी। शायद वे उस समय कोटा में अखबार के संवाददाता थे। पर मुझे उनके कृतित्व का पता अखबारी कॉलम से काफी बाद में लगा।

Sunday, March 12, 2023

विदेश में राहुल का भारतीय-लोकतंत्र पर प्रहार


हाल में ब्रिटेन-यात्रा के दौरान राहुल गांधी के बयानों की ओर देश का ध्यान गया है। वे क्या कहना चाहते हैं और क्यों? सबसे बड़ा सवाल है कि क्या उनकी बातों से कांग्रेस पार्टी की छवि बेहतर बनाने में मदद मिलेगी? इन बातों का ब्रिटिश समाज से क्या लेना-देना है और भारत का मतदाता क्या उनसे सहमत है? उम्मीद थी कि भारत-जोड़ो यात्रा के बाद वे परिपक्व हो चुके होंगे और अब नए सिरे से अपनी बात रखेंगे। पर उनके पास वही पुराना मोदी-मंत्र है और अपनी बात कहने का विदेशी-मंच। क्या उन्हें भारत में कोई ऐसी जगह नजर नहीं आई, जहाँ से वे अपनी बात कह सकें? वे किसे संबोधित कर रहे हैं, भारतीयों को या विदेशियों को? दस दिन के अपने प्रवास में राहुल गांधी ने कैंब्रिज विश्वविद्यालय के एक बिजनेस स्कूल और ब्रिटिश संसद में एक कार्यक्रम को संबोधित किया, भारतवंशियों से भेंट की, ब्रिटेन में रहने वाले भारतीय पत्रकारों के एक संगठन की संवाददाता सम्मेलन को संबोधित किया और चैथम हाउस में हुई एक बातचीत में भाग लिया। कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के वक्तव्य में उन्होंने लोकतंत्र, फ्री प्रेस और पेगासस आदि पर अपने विचार रखे। उन्होंने भारत की केंद्र-सरकार पर लोकतंत्र के मूल ढांचे पर हमला करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि लोकतंत्र के लिए जो संस्थागत ढांचा चाहिए जैसे संसद, स्वतंत्र प्रेस और न्यायपालिका… इन सभी पर अंकुश लग रहा है। मेरे खिलाफ कई आपराधिक मामले दर्ज हैं, जो किसी भी परिस्थिति में आपराधिक मामले नहीं हैं। जब आप मीडिया और लोकतांत्रिक ढांचे पर इस प्रकार का हमला करते हैं तो विरोधियों के लिए लोगों के साथ संवाद करना बहुत मुश्किल हो जाता है।

प्रश्न और प्रति-प्रश्न

राहुल गांधी के इन वक्तव्यों से कुछ सवाल खड़े हुए हैं। उन्होंने विदेश जाकर भारतीय-व्यवस्था की जो आलोचना की है, उसे क्या सामान्य राजनीतिक-आलोचना माना जाए? देश के प्रमुख विरोधी-दल के नेता से उम्मीद यही की जाती है कि वह व्यवस्था-दोषों पर रोशनी डाले। आलोचना व्यवस्था की है, तो वे अमेरिका और ब्रिटेन से किस प्रकार का हस्तक्षेप चाहते हैं? अपने देश में पराजित-पार्टी अपनी विफलता का ठीकरा सत्ताधारी दल पर क्यों फोड़ना चाहती है? क्या यह सच नहीं कि 2014 के चुनाव के पहले से ही ब्रिटिश अखबार गार्डियन में उन्हीं लोगों के पत्र और लेख छपने लगे थे, जो आज राहुल गांधी के कार्यक्रमों के पीछे हैं? ऐसी ही आलोचना क्या ब्रिटेन के राजनेता भारत आकर अपनी व्यवस्था की कर सकते हैं? बेशक उनकी व्यवस्थाएं हमारी व्यवस्था से बेहतर हैं, पर आलोचना तो उनकी भी होती है। वहाँ भी सत्तापक्ष और विपक्ष के रिश्ते  खराब रहते हैं, पर राजनीतिक-संवाद का तरीका हमारे तरीके से फर्क है। ब्रिटिश या अमेरिकी राजनेता भारत में आकर अपनी व्यवस्था की आलोचना कर भी लें, पर क्या चीन, रूस, तुर्की, सऊदी अरब, ईरान के राजनेता अपने शासन की आलोचना करके वापस अपने देश में सुरक्षित जा सकते हैं, जिनके साथ अब भारत की तुलना की जा रही है? क्या ये बातें औपनिवेशिक ब्रिटिश-धारणा को सही साबित कर रही हैं कि भारत अपने लोकतंत्र का निर्वाह नहीं कर पाएगा?  भारत में फासिज्म है, तो राहुल गांधी इतनी आसानी से अपनी बात कैसे कह पा रहे हैं? यदि उनकी घेराबंदी इतनी जबर्दस्त है, तो वे अपनी भारत-जोड़ो यात्रा को सफलता के साथ किस प्रकार पूरा कर पाए? क्या भारतीय मीडिया में राहुल गांधी और कांग्रेस के समर्थन और नरेंद्र मोदी की आलोचना में लेखों का प्रकाशन संभव नहीं है?

परिपक्व राहुल

इन कार्यक्रमों को आयोजित करने वाले मानते हैं कि इन कार्यक्रमों से केवल भारत की राजनीति से जुड़े प्रश्नों पर बहस खड़ी होगी, बल्कि दोनों देशों के सांस्कृतिक, सामाजिक और कारोबारी रिश्तों को भी बढ़ावा मिलेगा, जिसमें वहाँ रहने वाले भारतवंशी सेतु का काम करेंगे। उनके समर्थक मानते हैं कि राहुल गांधी ने अपनी परिपक्वता के झंडे गाड़ दिए हैं और उनके आलोचक मानते हैं कि उनकी सारी बातें गोल-मोल, अटपटी और अबूझ पहेली जैसी रही है। उनसे जो नीतिगत सवाल पूछे गए, उनके जवाबों को लेकर भी काफी चर्चा है। खासतौर से जब उनसे पूछा गया कि यदि उनकी सरकार आई, तो उनकी विदेश-नीति में नया क्या होगा, तो उन्होंने जो जवाब दिया, वह काफी लोगों को समझ में नहीं आया। ब्रिटेन जाकर वे चीन की तारीफ क्यों कर रहे हैं? भारत को राज्यों का संघ बताकर वे क्या साबित करना चाहते हैं? वे पिछले एक साल में कम से कम तीन बार कह चुके हैं कि भारत राष्ट्र नहीं है, केवल राज्यों का संघ है। संविधान के पहले अनुच्छेद में यह लिखा गया है तो इससे क्या भारत का राष्ट्र-राज्य होना खारिज हो गया? ऐसा है, तो प्रस्तावना में 'राष्ट्र की एकता अखंडता सुनिश्चित करने वाली बंधुता' का क्या मतलब है? हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य क्या था? भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस क्या है? क्या राज्यों ने भारत का गठन किया है जैसे संयुक्त राज्य अमेरिका का गठन हुआ था? 

देश के इन राज्यों और नागरिकों के बीच हजारों साल से संवाद चलता रहा है। हमारा समाज गतिशील है। तीर्थयात्राओं और साधुओं की यात्राओं के मार्फत यह संवाद चलता रहा है। विविधता के बीच यही हमारी एकता का प्रमाण है। राहुल के विरोधी मानते हैं कि उनकी इस यात्रा के पीछे, पश्चिमी-देशों के भीतर सक्रिय भारत-विरोधी लॉबी है, जिसका जिक्र हाल में अमेरिकी रिसर्च कंपनी हिंडनबर्ग की रिपोर्ट और अमेरिकी पूँजीपति जॉर्ज सोरोस के बयानों के कारण हुआ था। क्या इसे भारतीय राजनीति में पश्चिमी हस्तक्षेप का हिस्सा माना जाए? क्या इन कार्यक्रमों से राहुल गांधी की साख बढ़ी है?

Saturday, March 11, 2023

चीन पर काबू पाने की कोशिशें

 देस-परदेश

अमेरिका-चीन और भारत-2, इस आलेख की पहली किस्त पढ़ें यहाँ


नब्बे के दशक के वैश्वीकरण का सबसे बड़ा फायदा चीन को मिला. पश्चिमी देशों के पूँजी निवेश के कारण उसकी अर्थव्यवस्था का तेज विस्तार हुआ. पश्चिम को शुरुआती वर्षों में चीन का उदय अपने पक्ष में जाता नज़र आता था, पर ऐसा हुआ नहीं. सामरिक और आर्थिक, दोनों मोर्चों पर चीन आज पश्चिम के सबसे बड़े प्रतिस्पर्धी के रूप में उभर कर आया है. असली टकराव अब अमेरिका और चीन के बीच है.

हाल में जी-20 की बैठक में भाग लेने आए रूसी विदेशमंत्री सर्गेई लावरोव ने कहा कि हम भारत और चीन की दोस्ती चाहते हैं. रूस, भारत और चीन के विदेशमंत्री इस साल त्रिपक्षीय समूह की बैठक के लिए मिलेंगे, पर भारत सरकार के सूत्रों का कहना है कि जब तक उत्तरी सीमा की स्थिति में सुधार नहीं होगा, भारत ऐसी किसी बैठक में भाग नहीं लेगा. आरआईसी (रूस, भारत, चीन) के विदेशमंत्री पिछली बार नवंबर 2021 में वर्चुअल माध्यम से मिले थे. फरवरी 2022 में यूक्रेन युद्ध की शुरुआत के बाद से नहीं मिले हैं. लावरोव जो भी कहें भारत और चीन की प्रतिस्पर्धा आकाश में लिखी दिखाई पड़ती है. रूस और चीन के हित भी टकराते हैं, पर आज वे दिखाई पड़ नहीं रहे हैं.

अमेरिकी रुख

भारत और अमेरिका आज जितने करीबी नज़र आ रहे हैं, उतने अतीत में नहीं थे. 1971 में बांग्लादेश-युद्ध के दौरान अमेरिका की दिलचस्पी चीन से दोस्ती गाँठने की थी, ताकि वह रूस को संतुलित करने वाली ताकत बने. पर चीन अब भस्मासुर बन चुका है. बांग्लादेश की मुक्ति सामान्य लड़ाई नहीं थी. उस मौके पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के नाम जो खुला पत्र लिखा था, उसे फिर से पढ़ने की जरूरत है.

उस दौरान अमेरिकी पत्रकारों ने अपने नेतृत्व की इस बात के लिए आलोचना भी की थी कि भारत को रूस के साथ जाने को मजबूर होना पड़ा. विदेशमंत्री एस जयशंकर ने गत 10 अक्तूबर को ऑस्ट्रेलिया में एक प्रेस-वार्ता के दौरान कहा कि हमारे पास रूसी सैनिक साजो-सामान होने की वजह है, पश्चिमी देशों की नीति. पश्चिमी देशों ने हमें रूस की ओर धकेला.

1998 में भारत के एटमी परीक्षण के फौरन बाद पाकिस्तान ने भी एटमी परीक्षण किया. दुनिया जानती थी कि पाकिस्तानी एटम बम वस्तुतः चीनी मदद से तैयार हुआ है. उस दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को एक पत्र लिखा, ‘हमारी सीमा पर एटमी ताकत से लैस एक देश बैठा है, जो 1962 में हमला कर भी चुका है… इस देश ने हमारे एक और पड़ोसी को एटमी ताकत बनने में मदद की है.’ कहा जाता है कि अमेरिकी प्रशासन ने इस पत्र को सोच-समझकर लीक किया. यह अमेरिकी नीति में बदलाव का प्रस्थान-बिंदु था.

चीन पर नकेल

अमेरिका अब उस प्रक्रिया को उलटना चाहता है, जिसके कारण चीन का आर्थिक महाविस्तार हुआ है. सवाल है कि क्या उसे सफलता मिलेगी? हिंद-प्रशांत क्षेत्र में क्वाड एक कदम है. उधर अमेरिका के दबाव में दिसंबर 2020 में हुआ यूरोपियन यूनियन और चीन का कांप्रिहैंसिव एग्रीमेंट ऑन इनवेस्टमेंट (सीएआई) खटाई में पड़ गया. इस निवेश समझौते (सीएआई) पर सहमति सात साल तक चली बातचीत के बाद जाकर बनी थी. इसमें व्यवस्था थी कि ईयू और चीन की कंपनियां एक दूसरे के यहां आसानी से निवेश कर पाएंगी.

Thursday, March 9, 2023

चीन को काबू करने की कोशिशें और भारत

 देस-परदेश

अमेरिका-चीन और भारत-1

ताज़ा खबर है कि चीन ने इस साल 5 फीसदी संवृद्धि का लक्ष्य तय किया है, जो पिछले 35 वर्षों का सबसे नीचा स्तर है. चीनी संसद में प्रधानमंत्री ली ख छ्यांग ने अपने कार्यकाल के अंतिम दिन यह घोषणा की है. सन 1978 में जबसे चीन ने अपनी अर्थव्यवस्था को खोला है उसकी संवृद्धि औसतन नौ फीसदी तक रही है, पर अब उसमें ठहराव आ रहा है.

इसके पीछे सबसे बड़ा कारण है तीन साल तक चली कोविड-19 महामारी. उधर तरफ अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी खेमे की कोशिश है कि चीन के आर्थिक और सैनिक विस्तार पर किसी तरह से रोक लगाई जाए. जिस तरह पहले अमेरिका ने सोवियत संघ को काबू में करने की कोशिशें की थीं, अब उसी तर्ज पर वह चीन को काबू करने का प्रयास कर रहा है.

क्या अमेरिका अपने इस प्रयास में सफल होगा? बड़ी संख्या में पर्यवेक्षक मानते हैं कि इसमें देर हो चुकी है. चीन अब अमेरिका के दबाव में आने वाला नहीं है. अब शीतयुद्ध की तरह दुनिया की अर्थव्यवस्था दो भागों में विभाजित नहीं है. वह आपस में जुड़ी हुई है. वह एक-ध्रुवीय भी नहीं है, पर अब दो-ध्रुवीय भी नहीं रहेगी, जैसी कि चीनी मनोकामना है.

दुनिया अब बहुध्रुवीय होने जा रही है. इसमें एक बड़ी भूमिका भारत की होगी. यह भूमिका केवल दुनिया को बहुध्रुवीय बनाने वाली ही नहीं है, बल्कि विश्व-व्यवस्था में संतुलन स्थापित करने की है. पर उसके पहले हमें चीन की जवाबी ताकत बनना होगा.

जी-20 की बैठकें

पिछले कुछ वर्षों में पश्चिमी देशों की चीन-विरोधी रणनीति ने धीरे-धीरे अपनी जगह बनाई है. इसमें सबसे बड़ी भूमिका पिछले साल यूक्रेन पर हुए रूसी सैनिक हस्तक्षेप ने निभाई है. यूक्रेन में रूसी हठ के पीछे चीन का हाथ नज़र आने लगा है. पिछले हफ्ते भारत में हुई जी-20 की दो मंत्रिस्तरीय बैठकों में वैश्विक-राजनीति का यह टकराव खुलकर सामने आया. बेंगलुरु में वित्तमंत्रियों और केंद्रीय बैंकों के गवर्नरों तथा दिल्ली में विदेशमंत्रियों की बैठक, विश्व-व्यवस्था पर कोई आमराय बनाए बगैर ही संपन्न हो गईं.

हालांकि भारतीय-नजरिए में औपचारिक बदलाव नहीं है, पर इस घटनाक्रम का दूरगामी असर होगा, जिसके संकेत मिलने लगे हैं. नवंबर में जी-20 का शिखर सम्मेलन जब होगा, तब ज्यादा बड़ी चुनौतियाँ सामने आएंगी. जी-20 की बैठकों के फौरन बाद शुक्रवार को दिल्ली में हुई क्वॉड विदेशमंत्रियों की बैठक से इस मसले के अंतर्विरोध और ज्यादा खुलकर सामने आए हैं.

कांग्रेस के फैसले, मर्जी परिवार की


राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा और कांग्रेस के नवा रायपुर-अधिवेशन को जोड़कर देखें, तो लगता है कि विचारधारा, संगठन और चुनावी रणनीति की दृष्टि से पार्टी नया कुछ गढ़ना नहीं चाहती है। वह राहुल गांधी सिद्धांतपर चल रही है, जो 2019 के चुनाव के पहले तय हुआ था। पार्टी के कार्यक्रमों पर नजर डालें, तो 2019 के घोषणापत्र के न्याय कार्यक्रम की कार्बन कॉपी हैं। इसमें न्यूनतम आय और स्वास्थ्य के सार्वभौमिक अधिकार को भी शामिल किया गया है। तब और अब में फर्क केवल इतना है कि पार्टी अध्यक्ष अब मल्लिकार्जुन खड़गे हैं, जिनकी अपनी कोई लाइन नहीं है। संयोग से परिणाम वसे नहीं आए, जिनका दावा किया जा रहा है, तो जिम्मेदारी खड़गे साहब ले ही लेंगे।  

कार्यक्रमों पर नज़र डालें, तो दिखाई पड़ेगा कि पार्टी ने बीजेपी के कार्यक्रमों की तर्ज पर ही अपने कार्यक्रम बनाए हैं। नयापन कोई नहीं है। इस महाधिवेशन से दो-तीन बातें और स्पष्ट हुई हैं। कांग्रेस अब सोनिया गांधी से बाद की राहुल-प्रियंका पीढ़ी के पूरे नियंत्रण में है। अधिवेशन में जो भी फैसले हुए, वे परिवार की मर्जी को व्यक्त करते हैं। पार्टी में पिछली पीढ़ी के ज्यादातर नेता या तो किनारे कर दिए गए हैं या राहुल की शरण में चले गए हैं। जी-23 जैसे ग्रुप का दबाव खत्म है।

दूसरी तरफ राहुल-सिद्धांत की विसंगतियाँ भी कायम हैं। राहुल ने खुद को ‘सत्याग्रही’ और भाजपा को ‘सत्ताग्रही’ बताया। नौ साल सत्ता से बाहर रहना उनकी व्यथा है। दूसरी तरफ पार्टी का अहंकार बढ़ा है। वह विरोधी दलों से कह रही है कि हमारे साथ आना है, तो हमारे नेतृत्व को स्वीकार करो। बगैर किसी चुनावी सफलता के उसका ऐसा मान लेना आश्चर्यजनक है। सवाल है कि गुजरात में मिली जबर्दस्त हार के बावजूद पार्टी के गौरव-गान के पीछे कोई कारण है या सब कुछ हवा-हवाई है?  पार्टी मान कर चल रही है कि राहुल गांधी का कद बढ़ा है। उनकी भारत-जोड़ो यात्रा ने चमत्कार कर दिया है। छोटे से लेकर बड़े नेताओं तक ने भारत-जोड़ो जैसा यशोगान किया, वह रोचक है।  

यात्रा की राजनीति

हालांकि यात्रा को पार्टी के कार्यक्रम के रूप में शुरू नहीं किया गया था और उसे राजनीतिक कार्यक्रम बताया भी नहीं गया था, पर पार्टी यह भी मानती है कि इस यात्रा ने पार्टी में प्राण फूँक दिए हैं और अब ऐसे ही कार्यक्रम और चलाए जाएंगे, ताकि राहुल गांधी के ही शब्दों में उनकी तपस्या के कारण पैदा हुआ उत्साह भंग न होने पाए। तपस्या बंद नहीं होनी चाहिए। जयराम रमेश ने फौरन ही पासीघाट (अरुणाचल) से पोरबंदर (गुजरात) की पूर्व से पश्चिम यात्रा की घोषणा भी कर दी है, जो जून या नवंबर में आयोजित की जाएगी। यह यात्रा उतने बड़े स्तर पर नहीं होगी और पदयात्रा के साथ दूसरे माध्यमों से भी हो सकती है।

बहरहाल यात्रा की राजनीति ही अब कांग्रेस का रणनीति है। उनकी समझ से बीजेपी के राष्ट्रवाद का जवाब। बीजेपी पर हमला करने के लिए कांग्रेस ने वर्तमान चीनी-घुसपैठ के राजनीतिकरण और 1962 में चीनी-आक्रमण के दौरान तैयार हुई राष्ट्रीय-चेतना का श्रेय लेने की रणनीति तैयार की है। नरेंद्र मोदी के मेक इन इंडिया औरआत्मनिर्भर भारत जैसे कार्यक्रमों की देखादेखी अधिवेशन में पारित एक प्रस्ताव में कहा गया है कि देश के उत्पादों के बढ़ावा देने का समय आ गया है। इसके लिए मझोले और छोटे उद्योगों, छोटे कारोबारियों को संरक्षण देने तथा जीएसटी को सरल बनाने की जरूरत है।