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Wednesday, November 8, 2017

नोटबंदी के सभी पहलुओं को पढ़ना चाहिए


करेंट सा झटका 


इस साल अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार शिकागो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर रिचर्ड एच थेलर को दिया गया है. उनका ज्यादातर काम सामान्य लोगों के आर्थिक फैसलों को लेकर है. अक्सर लोगों के फैसले आर्थिक सिद्धांत पर खरे नहीं होते. उन्हें रास्ता बताना पड़ता है. इसे अंग्रेजी में नज कहते हैं. इंगित या आश्वस्त करना. पिछले साल जब नरेन्द्र मोदी ने नोटबंदी की घोषणा की, तब प्रो थेलर ने इस कदम का स्वागत किया था. जब उन्हें पता लगा कि 2000 रुपये का नोट शुरू किया जा रहा है, तो उन्होंने कहा, यह गलत है. नोटबंदी को सही या गलत साबित करने वाले लोग इस बात के दोनों मतलब निकाल रहे हैं.


सौ साल पहले हुई बोल्शेविक क्रांति को लेकर आज भी अपने-अपने निष्कर्ष हैं.  वैसे ही निष्कर्ष नोटबंदी को लेकर हैं. वैश्विक इतिहास का यह अपने किस्म का सबसे बड़ा और जोखिमों के कारण सबसे बोल्ड फैसला था. अरुण शौरी कहते हैं कि बोल्ड फैसला आत्महत्या का भी होता है. पर यह आत्महत्या नहीं थी. हमारी अर्थव्यवस्था जीवित है. पचास दिन में हालात काबू में नहीं आए, पर आए. 

Sunday, December 18, 2016

नोटबंदी के बाद अब क्या हो?

नरेंद्र मोदी कोई बड़ा काम करना चाहते हैं। ऐसा उनकी शैली से पता लगता है। नोटबंदी का उनका फैसला बताता है कि इसके पीछे पूरी व्यवस्था के साथ व्यापक विमर्श नहीं किया गया होगा। विचार-विमर्श हुआ होता तो शायद दिक्कतें इस कदर नहीं होतीं। इसमें बरती गई गोपनीयता का क्या मतलब है अभी यह भी समझ में नहीं आया है। यह भी दिखाई पड़ रहा है कि अर्थ-व्यवस्था की गति इससे धीमी होगी और छोटे कामगारों को दिक्कतें होंगी। पर ये दोनों बातें लंबे समय की नहीं हैं। हालांकि अभी आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं, पर अनुमान है कि दो से तीन लाख करोड़ रुपए तक की राशि एकाउंटिंग में आएगी। वास्तव में ऐसा होने के बाद ही बात करनी चाहिए। यदि ऐसा हुआ तो भविष्य में राजस्व में काफी वृद्धि होगी। इसके साथ ही दबाव में या समय की जरूरत को देखते हुए डिजिटाइजेशन की प्रक्रिया तेज होगी। डिजिटाइजेशन भी व्यवस्था को पारदर्शी बनाने में मददगार होगा। 
इस नोटबंदी ने व्यवस्था पर हावी ताकतों पर से भी पर्दा उठाया है। वकीलों, चार्टर एकाउंटेंटों, बैंक अफसरों, हवाला कारोबारियों, बिल्डरों, सर्राफों और कुल मिलाकर राजनेताओं की पकड़ और पहुँच का पता भी इस दौरान लगा है। भविष्य की व्यवस्था में इन बातों से बचने के रास्ते भी खोजने होंगे। व्यवस्था के दोष खुलते हैं तो उसे ठीक करने के रास्ते भी बनते हैं। ऐसा नहीं है कि अंधेर पूरी तरह अंधेर ही बना रहे। राजनीतिक दलों, धार्मिक ट्रस्टों और इसी प्रकार की संस्थाओं को मिली छूटों के बारे में ध्यान देने की जरूरत है। हम लोग शिकायतें बहुत करते हैं, पर जब संसदीय समितियाँ किसी सवाल पर आपकी राय माँगती हैं, तब आगे नहीं आते। फेसबुक और ट्विटर पर गालियाँ देते हैं। व्यवस्था में नागरिक की भागीदारी होगी तो अंधेर इतना आसान नहीं होगा। बाढ़ के वक्त नदी का पानी गंदला होता है, पर कुछ समय बाद वह साफ भी होता है। बदलाव की धारा का श्रेय केवल मोदी को नहीं दिया जाना चाहिए। यूपीए सरकार ने सन 2009 के बाद उदारीकरण की गति को धीमा कर दिया था। मोदी सरकार ने यूपीए के छोड़े कामों को ही पूरा करना शुरू किया है। उसकी हिम्मत भी दिखाई है। पर सच यह है कि हमारी राजनीति उदारीकरण को मुद्दा बना नहीं पाई है। 

शीत सत्र भी पूरी तरह धुल गया। लोकसभा ने मुकर्रर समय में से केवल 15 फीसदी और राज्यसभा ने 18 फीसदी काम किया। लोकसभा में 07 घंटे और राज्यसभा में 101 घंटे शोरगुल की भेंट चढ़े। राज्यसभा में प्रश्नोत्तर काल के लिए सूचीबद्ध 330 प्रश्नों में से केवल दो का जवाब मौखिक रूप से दिया जा सका। लोकसभा में केवल 11 फीसदी सूचीबद्ध सवालों के जवाब मौखिक रूप से दिए जा सके। संसदीय कर्म के सारे मानकों पर यह सत्र विफल रहा। वह भी ऐसे मौके पर जब देश अपने नेताओं का मुँह जोह रहा था कि वे रास्ता बताएं।

Friday, December 16, 2016

नोटबंदी पर बहस से दोनों पक्ष भाग रहे हैं

सरकार और विपक्ष किन सवालों को लेकर एक-दूसरे से पंजा लड़ा रहे हैं?

देश नोटबंदी की वजह से परेशान है. दूसरी ओर एक के बाद एक कई जगहों से लाखों-करोड़ों के नोट बिल्डरों, दलालों और हवाला कारोबारियों के पास से मिल रहे हैं. तब सवाल उठता है कि सरकार और विपक्ष किन सवालों को लेकर एक-दूसरे से पंजा लड़ा रहे हैं?

नोटबंदी का फैसला अपनी जगह है, बैंकिंग प्रणाली कौन से गुल खिला रही है? वह कौन सी राजनीति है, जो जनता के सवालों से ऊपर चली गई है? अब सुनाई पड़ रहा है कि कांग्रेस बजट सत्र जल्द बुलाने का विरोध भी करेगी. दरअसल राजनीति की वरीयताएं वही नहीं हैं, जो जनता की हैं.

कांग्रेस बजट सत्र जल्द बुलाने का विरोध कर सकती है, क्योंकि चुनाव की घोषणा होने के बाद आदर्श आचार संहिता लागू हो जाएगी, जिससे सरकार के पास कई तरह की घोषणाएं करने का मौका नहीं बचेगा. 

हाल में सरकार ने संकेत किया है कि नोटबंदी के कारण आयकर की दरों में कमी की जा सकती है. सवाल नोटबंदी की अच्छाई या बुराई का नहीं, उसकी राजनीति का है.