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Saturday, September 5, 2020

तीन, तेरह में घिरा देश

इस साल फरवरी में जब कोरोना के संक्रमण की खबरें मीडिया में आईं, उसके पहले देश का सालाना बजट आ चुका था। तब हमारी चिंता थी आसन्न मंदी की। इस बीच कोरोना प्रकट हुआ। मार्च के महीने में पहले लॉकडाउन के समय पहला सवाल था कि अर्थव्यवस्था का क्या होगा? पहला लॉकडाउन खत्म होते-होते लद्दाख में चीनी हरकतों की खबरें आने लगीं और उसके बाद तीनों समस्याएं आपस में गड्ड-मड्ड हो गईं। तीनों ने तकरीबन एक ही समय पर सिर उठाया। तीनों पर काबू पाने के लिए हमें कम से कम अगले तीन महीनों के घटनाक्रम पर नजर रखनी होगी।

इन तीनों के साथ मोदी सरकार की प्रतिष्ठा भी जुड़ी है। तीनों को लेकर तेरह तरह की तजवीजें हैं। भारत के विश्लेषकों से लेकर विदेशी पर्यवेक्षक तक की निगाहें इन तीनों पर हैं। पिछले कुछ दिन से भारत में हर रोज़ कोरोना संक्रमण के 75 हज़ार से ज्यादा नए मामले सामने आ रहे हैं। नए मामलों की दैनिक संख्या में संख्या भारत में सबसे आगे है। इस हफ्ते जैसे ही यह खबर आई कि वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था में 23.9 फीसदी का संकुचन हुआ है, तो आलोचकों को लगा कि चौपट पर सवा चौपट। मोदी विरोधियों की बाँछें खिली हुईं हैं। गोया कि यह उनकी उपलब्धि है। इसमें हैरत क्या बात है?  शटडाउन का परिणाम तो यह आना ही था। पर आगे सुरंग अंधी नहीं है। रोशनी भी नजर आ रही है।  इन तीनों पर जीत हासिल करने का मतलब है, बहुत बड़ी उपलब्धि।

Sunday, May 17, 2020

हम जरूर होंगे कामयाब


पिछले मंगलवार को राष्ट्र के नाम अपने संबोधन के माध्यम से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक पुरानी बहस को एक नए नाम से फिर से शुरू कर दिया है। उन्होंने कहा कि कोविड-19 संकट ने हमें स्थानीय उत्पादन और सप्लाई चेन के महत्व से परिचित कराया है। अब समय आ गया है कि हम आत्मनिर्भरता के महत्व को स्वीकार करें। उनका नया नारा है वोकल फॉर लोकल। प्रधानमंत्री ने अपने इस संदेश में बीस लाख करोड़ रुपये के एक पैकेज की घोषणा की, जिसका विवरण वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने चार दिनों में दिया।

क्या यह पैकेज पर्याप्त है, उपयोगी है और क्या हम इसके सहारे डांवांडोल नैया को मँझधार से निकाल पाएंगे? ऐसे तमाम सवाल हैं, पर बुनियादी सवाल है कि क्या हम इस आपदा की घड़ी को अवसर में बदल पाएंगे, जैसाकि प्रधानमंत्री कह रहे हैं? क्या वैश्विक मंच पर भारत के उदय का समय आ गया है? दुनिया एक बड़े बदलाव के चौराहे पर खड़ी है। चीन की आर्थिक प्रगति का रथ अब ढलान पर है। कुछ लोग पूँजीवादी व्यवस्था का ही मृत्यु लेख लिख रहे हैं। अमेरिकी अर्थव्यवस्था का भी ह्रास हो रहा है। इस बीच जापान ने घोषणा की है कि बड़ी संख्या में उसकी कम्पनियाँ चीन में अपना निवेश खत्म करेंगी। चीन में सबसे ज्यादा जापानी कम्पनियों की सहायक इकाइयाँ लगी हैं। अमेरिकी कम्पनियाँ भी चीन से हटना चाहती हैं। सवाल है कि क्या यह निवेश भारत आएगा? जिस तरह सत्तर के दशक में चीन ने दुनिया की पूँजी को अपने यहाँ निमंत्रण दिया, क्या वैसा ही भारत के साथ अब होगा?