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Sunday, April 11, 2021

क्या था ऑपरेशन गुलमर्ग?

 


।।चार।।

अगस्त 1947 में विभाजन के पहले ही कश्मीर के भविष्य को लेकर विमर्श शुरू हो गया था। कांग्रेस की इच्छा थी कि कश्मीर का भारत में विलय हो और मुस्लिम लीग का कहना था कि रियासत में रहने वाले ज्यादातर मुसलमान हैं, इसलिए उसे पाकिस्तान का हिस्सा बनना चाहिए। तमाम तरह के विमर्श के बावजूद महाराजा हरिसिंह अक्तूबर के तीसरे सप्ताह तक फैसला नहीं कर पाए। फिर जब स्थितियाँ उनके नियंत्रण से बाहर हो गईं, तब उन्होंने भारत में विलय का फैसला किया। उन परिस्थितियों पर विस्तार से हम किसी और जगह पर विचार करेंगे, पर यहाँ कम से कम तीन घटनाओं का उल्लेख करने की जरूरत है। 1.जम्मू में मुसलमानों की हत्या. 2.गिलगित-बल्तिस्तान में महाराजा के मुसलमान सैनिकों की बगावत और 3.पश्चिम से कबायलियों का कश्मीर पर हमला।

हाल में मेरी इस सीरीज के दूसरे भाग को जब मैंने फेसबुक पर डाला, तब एक मित्र ने बीबीसी की एक रिपोर्ट के हवाले से लिखा, कुछ लोग सवाल उठाते हैं कि पाकिस्तान से आने वाले ये कबायली हमलावर थे या वे मुसलमानों की हिफ़ाज़त के लिए आए थे? जम्मू-कश्मीर में मुसलमान बहुसंख्यक थे, जबकि उसके शासक महाराजा हरि सिंह हिंदू थे। 1930 के बाद से अधिकारों के लिए मुसलमानों के आंदोलनों में बढ़ोतरी हुई। अगस्त 1947 में देश के बंटवारे के बाद भी यह रियासत हिंसा की आग से बच नहीं पाई… जम्मू में हिंदू अपने मुसलमान पड़ोसियों के ख़िलाफ़ हो गए। कश्मीर सरकार में वरिष्ठ पदों पर रह चुके इतिहासकार डॉ. अब्दुल अहद बताते हैं कि पश्तून कबायली पाकिस्तान से मदद के लिए आए थे, हालांकि उसमें कुछ 'दुष्ट लोग' भी शामिल थे।… उधर, प्रोफ़ेसर सिद्दीक़ वाहिद इस बात पर सहमत होते हैं कि पाकिस्तानी कबायलियों का हमला जम्मू में जारी अशांति का जवाब था।

ऑस्ट्रेलिया के लेखक क्रिस्टोफर स्नेडेन ने अपनी किताब कश्मीर द अनरिटन हिस्ट्री में भी इस बात को लिखा है। हालांकि उनकी वह किताब मूलतः पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के बारे में है, पर उन्होंने किताब की शुरुआत में ही लिखा है कि इस सिलसिले में प्राप्त ज्यादातर विवरणों में बताया जाता है कि पाकिस्तान से आए पश्तून कबायलियों ने स्थिति को बिगाड़ा, इस किताब में बताया गया है कि जम्मू के लोगों ने इसकी शुरुआत की। विभाजन के बाद जम्मू के इलाके में तीन काम हुए। पहला था, पश्चिमी जम्मू प्रांत के पुंछ इलाके में मुसलमानों ने महाराजा हरिसिंह के खिलाफ बगावत शुरू की। दूसरे, पूरे जम्मू-प्रांत में साम्प्रदायिक हिंसा शुरू हो गई, तीसरे पश्चिमी जम्मू क्षेत्र में बागियों ने एक इलाके पर कब्जा करके उसे आज़ाद जम्मू-कश्मीर के नाम से स्वतंत्र क्षेत्र घोषित कर दिया। पूरी रियासत साम्प्रदायिक टुकड़ों में बँटने लगी। यह सब 26 अक्तूबर, 1947 के पहले हुआ और लगने लगा कि पूरे जम्मू-कश्मीर को किसी एक देश के साथ मिलाने का फैसला लागू करना सम्भव नहीं होगा। इस घटनाक्रम पर भी हम आगे जाकर विचार करेंगे, पर पहले उस ऑपरेशन गुलमर्ग का विवरण देते हैं, जिसका उल्लेख पिछले आलेख में किया था।   

Friday, April 9, 2021

पाकिस्तान का कश्मीर पर पहला हमला अर्थात ‘ऑपरेशन गुलमर्ग’

 


।।तीन।।

कश्मीर का विलय हो या नहीं हो और वह स्वतंत्र रहे या किसी के साथ जाए, इन दुविधाओं के कारण महाराजा हरिसिंह ने स्वतंत्रता के तीन दिन पहले 12 अगस्त 1947 को दोनों देशों के सामने एक स्टैंडस्टिल समझौते का प्रस्ताव रखा। पाकिस्तान ने इस समझौते पर दस्तखत कर दिए, पर भारत ने नहीं किए। भारत इसपर ज्यादा विचार चाहता था और इसके लिए उसने महाराजा को दिल्ली आकर बातचीत करने का सुझाव दिया। वीपी मेनन ने लिखा है, पाकिस्तान ने स्टैंडस्टिल समझौते पर दस्तखत कर दिए थे, पर हम इसके निहितार्थ पर विचार करना चाहते थे। हमने रियासत को अकेला ही रहने दिया …। भारत सरकार की तत्काल कश्मीर में बहुत ज्यादा दिलचस्पी नहीं थी। राज्य के सामने अपनी कई तरह की समस्याएं थीं। सच पूछो तो हमारे हाथ भी घिरे हुए थे। कश्मीर के बारे में सोचने का वक्त ही कहाँ था।1

उधर पाकिस्तान ने स्टैंडस्टिल समझौते पर दस्तखत करने के बावजूद कुछ समय बाद ही जम्मू-कश्मीर की आर्थिक और संचार से जुड़ी नाकेबंदी कर दी। हर तरह की आवश्यक सामग्री खाद्यान्न, नमक, पेट्रोल वगैरह की सप्लाई रोक दी गई। उधर भारत कश्मीर के महाराजा से इस बाबत कोई विचार-विमर्श कर पाता, हमला शुरू हो गया। परिस्थितियाँ तेजी से बदल गईं।

24 अक्तूबर, 1947 को गवर्नर जनरल और स्याम के विदेशमंत्री नई दिल्ली में पंडित जवाहर लाल नेहरू के घर पर रात्रिभोज के लिए आ रहे थे। लॉर्ड माउंटबेटन को पंडित नेहरू ने बताया कि खबरें मिली हैं कि कश्मीर पर पश्चिमोत्तर पाकिस्तान के कबायलियों ने हमला कर दिया है। स्थिति की गम्भीरता को समझते हुए लॉर्ड माउंटबेटन ने अगली सुबह 11 बजे डिफेंस कमेटी की विशेष बैठक बुला ली। वहाँ भारतीय सेना के कमांडर-इन-चीफ की आधिकारिक रिपोर्ट भी आ चुकी थी, जिन्हें पाकिस्तानी सेना के रावलपिंडी स्थित हैडक्वार्टर्स ने जानकारी दी थी, तीन दिन पहले पश्चिम से करीब 5000 कबायलियों ने कश्मीर में प्रवेश किया है और श्रीनगर की ओर बढ़ते हुए उन्होंने मुजफ्फराबाद शहर में लूटपाट और आगज़नी की है।2 सन 1947 में पाकिस्तानी हमले की यह पहली रिपोर्ट थी।

Thursday, April 8, 2021

कश्मीर समस्या का जन्म कैसे हुआ?


।।दो।। 
अविभाजित भारत में 562 देशी रजवाड़े थे। कश्मीर भी अंग्रेजी राज के अधीन था, पर उसकी स्थिति एक प्रत्यक्ष उपनिवेश जैसी थी और 15 अगस्त 1947 को वह भी स्वतंत्र हो गया। देशी रजवाड़ों के सामने विकल्प था कि वे भारत को चुनें या पाकिस्तान को। देश को जिस भारत अधिनियम के तहत स्वतंत्रता मिली थी, उसकी मंशा थी कि कोई भी रियासत स्वतंत्र देश के रूप में न रहे। बहरहाल कश्मीर राज के मन में असमंजस था।

इंडियन इंडिपेंडेंस एक्ट 1947 के तहत 15 अगस्त 1947 को जम्मू कश्मीर पर भी अंग्रेज सरकार का आधिपत्य (सुज़रेंटी) समाप्त हो गया। महाराजा के मन में संशय था कि यदि हम भारत में शामिल हुए, तो राज्य की बहुसंख्यक मुस्लिम आबादी को यह बात पसंद नहीं आएगी और यदि पाकिस्तान में विलय करेंगे, तो हिंदू और सिख नागरिकों को दिक्कत होगी। 11 अगस्त को उन्होंने अपने प्रधानमंत्री रामचंद्र काक को बर्खास्त कर दिया। काक ने स्वतंत्र रहने का सुझाव दिया था। इससे पर्यवेक्षकों को लगा कि महाराजा का झुकाव भारत की ओर है।

पाकिस्तान ने कश्मीर के महाराजा को कई तरह से मनाने का प्रयास किया कि वे पकिस्तान में विलय को स्वीकार कर लें। स्वतंत्रता के ठीक पहले जुलाई 1947 में मोहम्मद अली जिन्ना ने महाराजा को पत्र लिखकर कहा कि उन्हें हर तरह की सुविधा दी जाएगी। जिन्ना की मुस्लिम लीग ने रामचंद्र काक से भी सम्पर्क बनाया था। बहरहाल महाराजा ने भारत और पाकिस्तान के साथ स्टैंडस्टिल समझौते की पेशकश की। यानी यथास्थिति बनी रहे। भारत ने इस पेशकश पर कोई फैसला नहीं किया, पर पाकिस्तान ने महाराजा की सरकार के साथ स्टैंडस्टिल समझौता कर लिया। पर उसने समझौते का अनुपालन किया नहीं, बल्कि आगे जाकर कश्मीर की नाकेबंदी कर दी और वहाँ पाकिस्तान की ओर से जाने वाली रसद की आपूर्ति रोक दी।

Wednesday, April 7, 2021

क्या था मुशर्रफ का चार-सूत्री समझौता फॉर्मूला?

 


।।एक।।
भारत-पाकिस्तान रिश्तों पर जमी बर्फ के पिघलने की सम्भावनाओं को लेकर जब हाल में हलचल थी, तब पिछले पाँच दशक में इस दिशा में हुए प्रयासों को लेकर कुछ बातें सामने आई थीं। इनमें शिमला समझौते का जिक्र भी होता है। यह समझौता विफल होने के कगार पर था कि अचानक ज़ुल्फिकार अली भुट्टो के बीच कुछ बात हुई और समझौते के आसार बन गए देश के अनेक पर्यवेक्षकों का मत है कि भारत ने शिमला समझौता करके गलती की।

भारत-पाकिस्तान के समझौता-प्रयासों की पृष्ठभूमि पर नजर डालने की जरूरत है। कश्मीर के विवाद को लेकर हमें 1947 में वापस जाना पड़ेगा, पर कुछ बातें शिमला समझौते से भी समझी जा सकती हैं। इन बातों के लिए कई लेख लिखने होंगे। पर सबसे पहले मैं चार-सूत्री समझौते की पेशकश और फिर उसके खटाई में पड़ जाने की पृष्ठभूमि पर कुछ लिखूँगा।

पाकिस्तान के पूर्व विदेशमंत्री खुर्शीद महमूद कसूरी ने अपनी किताब ‘नीदर ए हॉक नॉर ए डव’ में लिखा है कि परवेज़ मुशर्रफ और मनमोहन सिंह के कार्यकाल में दोनों देशों के बीच कश्मीर पर चार-सूत्री समझौता होने जा रहा था, जिससे इस समस्या का स्थायी समाधान हो जाता। इस समझौते की पृष्ठभूमि अटल बिहारी वाजपेयी और परवेज़ मुशर्रफ के आगरा शिखर सम्मेलन में ही तैयार हो गई थी। कहा तो यह भी जाता है कि आगरा में ही दस्तखत हो जाते, पर वह समझौता हुआ नहीं।

बताया जाता है कि मई 2014 में जब नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री पद का कार्यभार संभाला था, तब मनमोहन सिंह ने एक फाइल उन्हें सौंपी थी, जिसमें उस चार-सूत्री समझौते से जुड़े विवरण थे। पाकिस्तानी अखबार डॉन ने हाल में कसूरी का लिखा इस आशय का एक लेख भी प्रकाशित किया है। कसूरी के अनुसार इस चार-सूत्री समझौते की पेशकश की थी। इस समझौते के 11 या 12 महत्वपूर्ण कारक थे, जिनकी शुरुआत कश्मीर के प्रमुख शहरों के विसैन्यीकरण और नियंत्रण रेखा पर न्यूनतम सैनिक उपस्थिति से होती।

Thursday, October 15, 2020

क्या हम पाकिस्तानी हरकतों को भूल जाएं?

 

फ्राइडे टाइम्स से साभार

इमरान खान के सुरक्षा सलाहकार मोईद युसुफ के भारतीय पत्रकार करन थापर से साक्षात्कार को न तो भारतीय मीडिया ने महत्व दिया और न भारत सरकार ने। इस खबर को सबसे ज्यादा महत्व पाकिस्तानी मीडिया में मिला। इसके अलावा भारत के कश्मीरी अखबारों में इस इंटरव्यू का उल्लेख हुआ है। अंतरराष्ट्रीय मीडिया में अल जजीरा के अलावा किसी उल्लेखनीय प्लेटफॉर्म पर यह खबर देखने को नहीं मिली।

सोशल मीडिया पर जरूर इसका उल्लेख हुआ है, पर ज्यादातर पाकिस्तानी हैंडलों के मार्फत। रेडिट पाकिस्तान में मोईद युसुफ की तारीफ से जुड़ी कुछ टिप्पणियाँ देखने को मिली हैं। पाकिस्तानी अखबारों में सम्पादकीय टिप्पणियाँ भी जरूर होंगी। मैंने डॉन की टिप्पणी को देखा है, जिसमें वही घिसी-पिटी बातें हैं, जो अक्सर पाकिस्तान से सुनाई पड़ती हैं। इनमें सबसे ज्यादा महत्व इस बात को दिया गया है कि भारत ने पाकिस्तान से बातचीत की पेशकश की है। गुरुवार को भारतीय विदेश विभाग के प्रवक्ता ने इस बात को स्पष्ट कर दिया कि भारत की ओर से ऐसा कोई संदेश नहीं भेजा गया है। 

मान लिया कि ऐसी कोई पेशकश है भी तो यह कम से कम औपचारिक रूप से नहीं है। यदि यह बैकरूम गतिविधि है, तो मोईद साहब ने इसकी खबर देने की जरूरत क्यों समझी? यह किसी संभावना को खत्म करने की कोशिश तो नहीं है? इस बात को कैसे भुलाया जा सकता है कि नवाज शरीफ ने बातचीत के पेशकश की थी, जिसमें पाकिस्तानी सेना ने न केवल अड़ंगा लगाया, बल्कि नवाज शरीफ के खिलाफ इमरान खान को खड़ा किया। इस वक्त उनका कठपुतली नरेश राजनीतिक संकट में है और लगता यही है कि इस खबर के बहाने पाकिस्तानी जनता का ध्यान कहीं और ले जाने की कोशिश है। फिर भी मोईद साहब की बातों पर गौर करने की जरूरत भी है।

अबतक क्या हुआ?

द वायर ने इस इंटरव्यू का वीडियो जारी करने के पहले करन थापर का लिखा एक कर्टेन रेज़र जारी किया था, जिसमें पहला वाक्य था कि पाकिस्तानी एनएसए ने यह रहस्योद्घाटन किया है कि भारत ने पाकिस्तान से बातचीत की पेशकश की है। साथ ही यह भी कहा कि हम तो बात तभी करेंगे, जब कश्मीरियों को तीसरे पक्ष के रूप में शामिल किया जाएगा। यहाँ यह याद दिलाना बेहतर होगा कि 2014 में जब नवाज शरीफ नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में आए थे, तब उन्होंने कश्मीरी प्रतिनिधियों से बात नहीं की थी। उसके बाद सुषमा स्वराज और सरताज अजीज की प्रस्तावित बात इसीलिए नहीं हो पाई थी, क्योंकि सरताज अजीज कश्मीरियों से बात करने के बाद ही उस वार्ता में शामिल होना चाहते थे।

Saturday, September 21, 2019

कश्मीर अब रास्ता क्या है?


जम्मू कश्मीर में पाबंदियों को लगे 47-48 दिन हो गए हैं और लगता नहीं कि निर्बाध आवागमन और इंटरनेट जैसी संचार सुविधाएं जल्द वापस होंगी। सरकार पहले दिन से दावा कर रही है कि हालात सामान्य हैं, और विरोधी भी पहले ही दिन से कह रहे हैं कि सामान्य नहीं हैं। उनकी माँग है कि सारे प्रतिबंध हटाए जाएं और जिन लोगों को हिरासत में लिया गया है, उन्हें छोड़ा जाए। एक तबका है, जो प्रतिबंधों को उचित मानता है और जिसकी नजर में सरकार की रीति-नीति सही है। दूसरा इसके ठीक उलट है। मीडिया कवरेज दो विपरीत तस्वीरें पेश कर रही है। बड़ी संख्या में भारतीय पत्रकार सरकारी सूत्रों के हवाले हैं, दूसरी तरफ ज्यादातर विदेशी पत्रकारों को सरकारी दावों में छिद्र ही छिद्र नजर आते हैं। ऐसे विवरणों की कमी हैं, जिन्हें निष्पक्ष कहा जा सके। पत्रकार भी पोलराइज़्ड हैं।
इस एकतरफा दृष्टिकोण के पीछे तमाम कारण हैं, पर सबसे बड़ा कारण राजनीतिक है। दूसरा है असमंजस। इस समस्या को काफी लोग दो कालखंड में देखते हैं। सन 2014 के पहले और उसके बाद। देश के भीतर ही नहीं वैश्विक मंच पर भी यही बात लागू होती है। वॉशिंगटन पोस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स और  इकोनॉमिस्ट से लेकर फॉरेन पॉलिसी जैसे जर्नल नरेंद्र मोदी के आगमन के पहले से ही उनके आलोचक हैं। सरकार कहती है कि हम बड़ी हिंसा को टालने के लिए धीरे-धीरे ही प्रतिबंधों को हटाएंगे, तो उसे देखने वाले अपने चश्मे से देखते हैं। विदेशी मीडिया कवरेज को लेकर भारतीय नागरिकों का बड़ा तबका नाराज है।
आवेशों की आँधियाँ
माहौल लगातार तनावपूर्ण है। कोई यह समझने की कोशिश नहीं कर रहा है कि हालात को कैसे ठीक किया जाए और आगे का रास्ता क्या है। इस वक्त दो बातों पर ध्यान देने की जरूरत है। एक, अगले महीने जम्मू कश्मीर को केंद्र शासित क्षेत्र बनना है। उससे पहले का प्रक्रियाएं कैसे पूरी होंगी। और दूसरी बात है कि इसके आगे क्या? कश्मीर समस्या का स्थायी समाधान यह तो नहीं है, तो फिर आगे क्या? भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में आवेशों के तूफान चलते ही रहते है। कोई नई बात नहीं है। भावनाओं के इन बवंडरों के केंद्र में कश्मीर है। विभाजन का यह अनसुलझा सवाल, दोनों देशों के सामान्य रिश्तों में भी बाधक है।
सवाल है कि 72 साल में इस समस्या का समाधान क्यों नहीं हो पाया? अनुच्छेद 370 के निष्प्रभावी होने के बाद तमाम एकबारगी बड़ी संख्या में लोगों ने समर्थन किया, पर जैसाकि होता है, इस फैसले के विरोधियों ने भी कुछ देर से ही सही मोर्चा संभाल लिया है। भारतीय जनता का बहुमत 370 को हटाने के पक्ष में नजर आता है। इसकी बड़ी वजह यह भी है कि इसे बनाए रखने के पक्षधर यह नहीं बता पाते हैं कि यह अनुच्छेद इतना ही महत्वपूर्ण था, तब कश्मीर में अशांति क्यों पैदा हुई?
 पिछले 72 साल में वहाँ हालात लगातार बिगड़े ही हैं। सन 1947 में पाकिस्तानी कबायलियों ने कश्मीर में जिस किस्म के अत्याचार किए थे, उन्हें देखते हुए पाकिस्तान के प्रति सहानुभूति नहीं होनी चाहिए थी। सन 1965 में जब अयूब खां ने हजारों रज़ाकारों को ट्रेनिंग देकर कश्मीर में भेजा, तो उन्हें विश्वास था कि कश्मीरी जनता उन्हें हाथों हाथ लेगी, पर ऐसा नहीं हुआ। सन 1971 की लड़ाई में भी नहीं हुआ। पिछले 72 साल में क्या हुआ, जो आज हालात बदले हुए नजर आते हैं? ऐसा केवल दिल्ली में बीजेपी की सरकार के कारण नहीं हुआ है। पत्थर मार आंदोलन तो 2010 में शुरू हो गया था।

Thursday, September 12, 2019

कितने तमाचे खाएगा पाकिस्तान?


संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश के बयान से पाकिस्तान के मुँह पर जोर का तमाचा लहा है। अनुच्छेद 370 को निष्प्रभावी बनाए जाने के बाद से भारतीय राजनय की दिलचस्पी इस मामले पर ठंडा पानी डालने और जम्मू कश्मीर में हालात सामान्य बनाने में है, वहीं पाकिस्तान की कोशिश है कि इसपर वितंडा खड़ा किया जाए और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसे उठाया जाए। उसका प्रयास है कि कश्मीर की घाटी में हालात सामान्य न होने पाएं। इसी कोशिश में उसने एक तरफ अपने जेहादी संगठनों को उकसाया है, वहीं अपने राजनयिकों को दुनिया की राजधानियों में भेजा है।
पाकिस्तान ने जिनीवा स्थित संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद की बैठक में इस मामले को उठाकर जो कोशिश की थी वह बेकार साबित हुई है। एक दिन बाद ही संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेश के बयान से पाकिस्तान को निराश होना पड़ा है। गुटेरेश का कहना है कि जम्मू-कश्मीर का मसला भारत-पाकिस्तान आपस में बातचीत कर सुलझाएं। उन्होंने इस मसले पर मध्यस्थता करने से इनकार कर दिया है। अब इस महीने की 27 तारीख को संयुक्त राष्ट्र महासभा में दोनों देशों के प्रधानमंत्रियों के भाषण होंगे। उसके बाद पाकिस्तान को हंगामा खड़ा करने का कोई बड़ा मौका नहीं मिलेगा। वह इसके बाद क्या करेगा?

Saturday, September 7, 2019

सुरक्षा परिषद क्यों नहीं करा पाई कश्मीर समस्या का समाधान?


अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी से राष्ट्रपति पद के प्रत्याशी बनने की रेस में शामिल रह चुके वरिष्ठ सीनेटर बर्नी सैंडर्स ने पिछले हफ्ते कहा कि कश्मीर के हालात को लेकर उन्हें चिंता है। अमेरिकी मुसलमानों की संस्था इस्लामिक सोसायटी ऑफ़ नॉर्थ अमेरिका के 56वें अधिवेशन में उन्होंने यह भी कहा कि अमेरिकी सरकार को इस मसले के समाधान के लिए संयुक्त राष्ट्र प्रस्ताव का समर्थन में खुलकर समर्थन करना चाहिए। हालांकि बर्न सैंडर्स की अमेरिकी राजनीति में कोई खास हैसियत नहीं है और यह भी लगता है कि वे मुसलमानों के बीच अपना वोट बैंक तैयार करने के लिए ऐसा बोल रहे हैं, पर उनकी दो बातें ऐसी हैं, जो अमेरिकी राजनीति की मुख्यधारा को अपील करती हैं।
इनमें से एक है कश्मीर में अमेरिकी मध्यस्थता या हस्तक्षेप का सुझाव और दूसरी कश्मीर समस्या का समाधान सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के तहत करने की। पाकिस्तानी नेता भी बार-बार कहते हैं कि इस समस्या का समाधान सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों के तहत करना चाहिए। यानी कि कश्मीर में जनमत संग्रह कराना चाहिए। आज सत्तर साल बाद हम यह बात क्यों सुन रहे हैं? सन 1949 में ही समस्या का समाधान क्यों नहीं हो गया? भारत इस मामले को सुरक्षा परिषद में संरा चार्टर के अनुच्छेद 35 के तहत ले गया था। जो प्रस्ताव पास हुए थे, उनसे भारत की सहमति थी। वे बाध्यकारी भी नहीं थे। अलबत्ता दो बातों पर आज भी विचार करने की जरूरत है कि तब समाधान क्यों नहीं हुआ और इस मामले में सुरक्षा परिषद की भूमिका क्या रही है?
प्रस्ताव के बाद प्रस्ताव
सन 1948 से 1971 तक सुरक्षा परिषद ने 18 प्रस्ताव भारत और पाकिस्तान के रिश्तों को लेकर पास किए हैं। इनमें प्रस्ताव संख्या 303 और 307 सन 1971 के युद्ध के संदर्भ में पास किए गए थे। उससे पहले पाँच प्रस्ताव 209, 210, 211, 214 और 215 सन 1965 के युद्ध के संदर्भ में थे। प्रस्ताव 123 और 126 सन 1956-57 के हैं, जो इस इलाके में शांति बनाए रखने के प्रयास से जुड़े थे। वस्तुतः प्रस्ताव 38, 39 और 47 ही सबसे महत्वपूर्ण हैं, जिनमें सबसे महत्वपूर्ण है प्रस्ताव 47 जिसमें जनमत संग्रह की व्यवस्था बताई गई थी।

Tuesday, June 27, 2017

कश्मीर पर इंटरनेट सामग्री

कश्मीर को लेकर हाल में इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री को मैने एक जगह सूचीबद्ध किया है। यदि आपकी दिलचस्पी इस संग्रह को और बेहतर बनाने में है तो आप इसके कमेंट सेक्शन में लिंक लगा सकते हैं। मैं उन्हें मुख्य आलेख में लगा दूँगा।






Kashmir Questions By AG Noorani

Kashmir talks: Reality & Myth

Post cold war US Policy on Kashmir

Security Council Resolution 47

मुशर्रफ ने कहा, हमने जनमत संग्रह के प्रस्ताव से किनारा कर लिया है
AG Noorani

Arundhati Roy


Kashmir : The unwritten history

Guardian's report on BalochistanCurfew without end


Three generations of Azadi