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Friday, August 16, 2013

प्रधानमंत्री बनाम मोदी पर मीडिया

प्रधानमंत्री के राष्ट्र के नाम संदेश के जवाब में नरेन्द्र मोदी के भाषण के बारे में अखबारों की कवरेज में खासी विविधता है। स्वतंत्रता दिवस का अवकाश होने के कारण देश के कई इलाकों में अखबार नहीं निकले, इसलिए उस स्तर पर कवरेज नहीं हुई जितनी सामान्य दिनों में होती है। दो-तीन बातें मुझे समझ में आईं जिनका विवरण मैं देना चाहता हूँ।

1. इस विषय पर सम्पादकीय टिप्पणी केवल अंग्रेजी के कुछ अखबारों में देखने को मिली। हिन्दी के अखबार ऐसे विषयों पर सम्पादकीय लिखने से बचते हैं, जिनमें राजनीतिक जोखिम हो।

2. हिन्दी के अखबारों ने पेज एक पर खबर देने में भी सावधानी बरती है। अलबत्ता नवभारत टाइम्स और हिन्दुस्तान ने लगभग एक जैसे शीर्षक के साथ खबर दी है। नवभारत टाइम्स की लीड है 'अटैक कर घिर गए मोदी।' हिन्दुस्तान में लीड के साथ जुड़ी खबर है 'पीएम पर टिप्पणी करके चौतरफा घिर गए मोदी।' दैनिक जागरण की लीड है 'जश्न के मौके पर सियासी जंग।'इन सभी अखबारों ने प्रधानमंत्री के संबोधन पर औपचारिक सम्पादकीय हैं।

3. बिजनेस दैनिक मिंट की लीड का शीर्षक है, 'Study in contrast/ I-day speeches set stage for 2014' मुम्बई के डीएनए की नीति सम्पादकीय पेज छापने की नहीं है। उसने दोनों के वक्तव्यों को आमने-सामने रखकर एक ग्रैफिक दिया है।



Tuesday, February 19, 2013

इंटरनेट सेंसरशिप


ग्वालियर की एक अदालत के आदेश पर कार्रवाई करते हुए सरकार ने उन 78 यूआरएल को ब्लाक करने के आदेश जारी किए जिनमें आईआईपीएम या फिर उनके निदेशक अरिन्दम चौधरी के बारे में कुछ अभद्र कहा सुना गया था। चीन में इंटरनेट सेंसरशिप चलती है, पर भारत में हाल के दिनों में इसे लेकर विमर्श चल रहा है। आईआईपीएम का तर्क अपनी जगह है कि यदि कोई किसी के भी बारे में अपनी राय व्यक्त करने को स्वतंत्र है तो किसी को अपने बारे में कुछ भी लिखे गए को स्वीकार करने या न करने की आजादी भी है। पिछली 14 फरवरी को ग्वालियर की एक अदालत के आदेश के बाद डीओटी की कम्प्यूटर इमरजंसी रिस्पांस टीम ने कार्रवाई भी कर दी। मीडियानामा नामक एक वेबसाइट ने उन सभी यूआरएल की लिस्ट भी प्रसारित कर दी जिन्हें ब्लाक किया जा रहा है। रोचक बात यह है कि जिन यूआरएल को ब्लाक करने की लिस्ट जारी की गई है उसमें यूजीसी की वेबसाइट का एक पन्ना भी शामिल है। हालांकि इस वक्त यूजीसी साइट का वह पन्ना विजिबल है जिसके ब्लाक करने की खबर कही गई थी। ऐसे कुछ और पन्ने भी देखे जा सकते हैं। ब्लाक लिस्ट में रीडिफ, आउटलुक, कैरेवान, इंडियन एक्सप्रेस के भी कुछ पन्ने शामिल हैं जिसमें आईआईपीएम के बारे में कथित 'गलत जानकारी' दी गई थी। इन वैबसाइटों में से कुछ का कहना है कि उनके पन्ने ब्लॉक करने के पहले कोई सूचना नहीं दी गई। 

इंटरनेट पर विवादित सामग्री के प्रकाशन को लेकर धीरे-धीरे मामले सामने आएंगे, पर आश्चर्य इस बात का है कि भारतीय मीडिया में इस सवाल पर चर्चा बहुत क्षीण है। कम से कम हिन्दी अखबारों के सम्पादकों को तो लगता है कि इसकी भनक भी नहीं हैं, हालांकि लगभग सभी में अपने आप को यंगिस्तान के पहलवान साबित करने की होड़ लगी है। वस्तुतः यह अभिव्यक्ति के अधिकार और व्यवसाय चलाने की स्वतंत्रता के अंतर्विरोधों को उजागर करने का मामला है और जनता के सामने सारे तथ्य आने चाहिए। पर जैसा कि पहले होता रहा है मीडिया अपने मामलों पर विमर्श में पीछे रहता है। 18 फरवरी के हिन्दू के ऑपएड पेज पर वासुदेव मुकंठ और अनुज श्रीवास का लेख प्रकाशित हुआ। आज हिन्दू और इंडियन एक्सप्रेस ने इस मसले पर सम्पादकीय भी लिखे हैं। हिन्दू में Think beyond censorship शीर्षक सम्पादकीय में इटरनेट ब्लॉक करने की तकनीकी खामियों की ओर इशारा किया गया है। हिन्दू के सम्पादकीय अंशः-

 That bruising lesson must have been learnt by all actors involved in the blocking of over 70 web pages containing content critical of the Indian Institute of Planning and Management, an agency that widely advertises a variety of study courses and degrees. The online community has responded with a counter-offensive against the institution on a devastating scale, and called attention worldwide to precisely what the institute wanted purged. Moreover, the episode proves once again that the Information Technology Act is a handy censorship tool. Although the order to the Department of Telecommunications to block the web pages was issued by a Gwalior court, it is flawed, because no opportunity was provided to the websites to enter a defence. It is shocking that the court saw merit in the plaintiff’s plea to block a page of the University Grants Commission, the highest body regulating the general university system, simply because it declared that within the meaning of the UGC Act, IIPM is not a university, and does not have the right to confer or grant degrees. पूरा पढ़ें

इंडियन एक्सप्रेस

Block games
IIPM case highlights the inept way information is blocked online

Defamation is a serious business, and quick legal recourse is everyone’s due. That said, the IIPM case has revealed the bluntness of the instrument — the way IT legislation can be misused to blank out important public information, like the UGC’s notice. Courts are meant to use interim injunctions only in extraordinary situations, because of the way they can chill free speech. What’s more, this blocking was done silently, without offering the websites a chance to explain their side of the story, without even informing them. If the IIPM’s partner was hoping that all unflattering references would be quietly effaced, he would have realised his mistake by now. As tends to happen on the internet in response to clumsy attempts at suppression, that material has now sprouted all around, as publications and individuals defiantly reposted the content. The hacker collective, Anonymous India, targeted the IIPM for a while. On Twitter, Minister of State for HRD Shashi Tharoor flagged the UGC-blocking news to his counterpart in the communications ministry, Milind Deora. This kind of selective filtering of websites, and the pressure on intermediaries to remove “offensive” content, has come to characterise the official approach in recent years. The IIPM case is still unfolding in court, but it has revealed how, by default, the internet regulation regime appears to be set against free expression. पूरा पढ़ें

20 फरवरी 2013 के हिन्दू में प्रकाशित अपर्णा विश्वनाथन के लेख का अंश। पूरा लेख यहाँ पढ़ें

On February 6, 2013, Sanjay Chaudhary was arrested under section 66A of the Information Technology (IT) Act for posting ‘objectionable comments and caricatures’ of Prime Minister Manmohan Singh, Union Minister Kapil Sibal and Samajwadi Party president Mulayam Singh Yadav on his Facebook wall.

This arrest follows numerous others over the past few months for political speech through social media: Manoj Oswal for having caused ‘inconvenience’ to relatives of Nationalist Congress Party chief Sharad Pawar for allegations made on his website; Jadavpur University Professor Ambikesh Mahapatra for a political cartoon about West Bengal Chief Minister Mamata Banerjee; businessman Ravi Srinivasan in Puducherry for an allegedly defamatory tweet against the son of Union Finance Minister P. Chidambaram; two Air India employees, who were jailed for 12 days for allegedly defamatory remarks on Facebook and Orkut against a trade union leader and a politician; Aseem Trivedi, accused of violation of the IT Act for drawing cartoons lampooning Parliament and the Constitution to depict its ineffectiveness. However, the incident that rocked the nation was the arrest last November of two young women, Shaheen Dadha and her friend Renu Srinivasan, for a comment posted on Facebook that questioned the shutdown of Mumbai following the demise of Shiv Sena Supremo Bal Thackeray. The girls were arrested under Section 66A(a) of the IT Act for allegedly sending a ‘grossly offensive’ and ‘menacing’ message through a communication device.


कुछ यूआरएल जो बंद किए गए। पूरी सूची यहाँ देखें
http://bitly.com/bundles/maheshmurthy/5
http://www.consumercourt.in/other-product-services/114783-fraud-done-iipm-delhi.html
http://akosha.com/IIPM-complaints-98.html
http://www.consumercourt.nic.in/other-department/88450-fraud-iipm-bangalore-campus.html
कुछ वे यूआरएल जो अभी देखे जा सकते हैं
http://www.iipmfraud.com/
http://www.fakingnews.com/2011/07/iipm-appoints-poonam-pandey-as-their-brand-ambassador/
http://harishc.blogspot.in/2011/06/caravan-iipm-article.html
http://www.indianexpress.com/news/court-asks-iipm-ugc-to-clarify-on-affiliation/676123/
http://kafila.org/2011/06/22/arindam-chaudhuri-silchar/

Call me ugly but don't attack my business: Arindam Caudhari


Thursday, February 17, 2011

प्रधानमंत्री के टीवी शो पर अखबारों की राय






हालांकि शो टीवी मीडिया का था पर प्रतिक्रियाएं अखबारों की माने रखतीं हैं। आज के अखबारों पर ध्यान दें प्रतिक्रयाएं एक जैसी नहीं हैं। कुछ अखबारों को प्रधानमंत्री की बात खबर ज्यादा लगी विचारणीय कम। टाइम्स ऑफ इंडिया का चलन है कि खबरों के साथ भी विचार लगा देता है, पर उसने प्रधानमंत्री के सम्पादक सम्मेलन पर टिप्पणी करना ठीक नहीं समझा। और सम्पादकीय पेज का खात्मा करने वाले डीएनए को आज यह पेज 1 पर सम्पादकीय लिखने लायक मौका लगा। हिन्दू ने परम्परा के अनुरूप इसपर शालीनता के साथ आलोचना से भरपूर सम्पादकीय लिखा। कोलकाता के टेलीग्राफ ने सम्पादकीय नहीं लिखा, पर मानिनी चटर्जी की खबर सम्पादकीय जैसी ही थी। हिन्दी में खास उल्लेखनीय कुछ नहीं था। पढ़ें अखबारों की राय

Friday, October 1, 2010

अयोध्या फैसले पर अखबारों की राय







फैसले के बाद

अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय का बहुप्रतीक्षित फैसला आ गया और कहीं कुछ अप्रिय नहीं घटित हुआ। यह देश की जनता के संयम की जीत है और इसके लिए उसे बधाई मिलनी चाहिए, लेकिन संयम का यह प्रदर्शन भविष्य में भी होना चाहिए-न केवल अयोध्या विवाद के संदर्भ में, बल्कि अन्यमामलों में भी। वस्तुत: यही वह उपाय है जो भारत को सबल बनाएगा। चूंकि उच्च न्यायालय के फैसले को उच्चतम न्यायालय में चुनौती देने की घोषणा कर दी गई है और यह अपेक्षा के अनुरूप भी है इसलिए अब निगाहें शीर्ष अदालत पर होंगी। बावजूद इसके उच्च न्यायालय के फैसले की अपने-अपने हिसाब से व्याख्या होना स्वाभाविक है और वह होगी भी-इसलिए और भी अधिक, क्योंकि फैसले के बिंदु ही ऐसे हैं। उदाहरणस्वरूप यह बिंदु कि जब गिराया गया ढांचा मंदिर के स्थान पर बना था तो फिर एक तिहाई हिस्सा मुस्लिम संगठनों को देने का क्या आधार है, लेकिन यह ध्यान रहे कि इस बिंदु पर तीनों न्यायाधीश एकमत नहीं। हां, जिस एक बिंदु पर वे एकमत हैं वह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि जहां रामलला की मूर्तियां स्थापित हैं वह राम जन्म स्थान है। तीनों न्यायाधीशों के इस एक बिंदु पर एकमत होने से जहां हिंदू संगठनों का दावा सशक्त हुआ है वहीं मुस्लिम संगठनों को भी उच्चतम न्यायालय जाकर अपनी बात कहने का एक आधार मिला है, लेकिन जब तक अंतिम निर्णय नहीं आ जाता तब तक ऐसे किसी निष्कर्ष पर पहुंचने का कोई मतलब नहीं कि इस पक्ष की जीत अथवा उस पक्ष की हार हुई। ऐसे किसी निष्कर्ष पर न पहुंचने का एक प्रमुख कारण यह है कि उच्च न्यायालय का फैसला अंतिम नहीं है। यह भविष्य के गर्भ में है कि उच्च न्यायालय के फैसले पर उच्चतम न्यायालय का क्या निर्णय होगा, लेकिन यह अपेक्षा अवश्य की जाती है कि इस मसले पर अब वैसी देर न हो जैसी उच्च न्यायालय के स्तर पर हुई। एक अपेक्षा राजनीतिक दलों से भी है कि वे वैसी परिस्थितियां पैदा करने से बचें जैसी उच्च न्यायालय के फैसले को लेकर की गईं। यह ठीक नहीं होगा कि जब उच्चतम न्यायालय के निर्णय की बारी आए तो देश इसी तरह अनिष्ट की आशंका से घिर जाए। ऐसे परिदृश्य से बचने के प्रयास अभी से होने चाहिए और इसका एक बेहतर तरीका है-नए सिरे से आपसी सहमति से विवाद का हल निकालने की कोशिश। इसमें संदेह नहीं कि उच्च न्यायालय के फैसले के बाद विवादित स्थल पर भव्य राम मंदिर निर्माण के आकांक्षी हिंदू संगठनों को बल मिला है, लेकिन यह सही समय है जब दोनों पक्ष ऐसा माहौल बनाने की कोशिश करें जिससे विवाद का हल सुलह-समझौते से निकल आए। चंद दिन पहले तक ऐसी राह नहीं नजर आ रही थी, लेकिन बदली परिस्थितियों में उसे आसानी से खोजा जा सकता है। इसके लिए दोनों ही पक्षों को सक्रियता दिखानी होगी, क्योंकि ताली एक हाथ से नहीं बज सकती। यदि हमारे राजनेता और धर्माचार्य अयोध्या विवाद का समाधान जीत-हार के पलड़े में जाए बगैर करना चाहते हैं तो उन्हें इसके लिए पूरा जोर लगा देना चाहिए कि अयोध्या मसले का समाधान दोनों पक्षों की सहमति से निकल आए। ऐसा समाधान राष्ट्र में शांति-सद्भाव सुनिश्चित करने में कहीं अधिक सहायक होगा।

Friday, September 24, 2010

अयोध्या

कॉमनवैल्थ खेल के समांतर अयोध्या का मसला काफी रोचक हो गया है। सुप्रीम कोर्ट ने फैसला टाल दिया है। इससे कुछ लोगों ने राहत की साँस ली है और कुछ ने कहा है कि इतने साल बाद फैसले की घड़ी आने पर दो-चार दिन टाल देने से कोई समझौता हो जाएगा क्या? बहरहाल आज के सभी अखबारों ने इस विषय पर सम्पादकीय लिखने की ज़रूरत नहीं समझी है। कहा जा सकता है कि वे लिखते भी तो क्या लिखते। 


अंग्रेजी में हिन्दू और इंडियन एक्सप्रेस ने इस विषय पर टिप्पणी की है। टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स ने नहीं की। हिन्दी में जागरण, अमर उजाला और हिन्दुस्तान ने टिप्पणी की है। भास्कर और नवभारत टाइम्स ने नहीं की। संयोग से तीनों का शीर्षक एक ही है। ऐसा शीर्षक को रोचक बनाने के लिए या आसानी से उपलब्ध एक शीर्षक का इस्तेमाल करने के लिए किया गया है। 




एक रुका हुआ फैसला
अयोध्या विवाद पर इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ की ओर से 24 सितंबर को आने वाले फैसले को लेकर जैसा तनावपूर्ण माहौल बना दिया गया था उसे देखते हुए उच्चतम न्यायालय का हस्तक्षेप तात्कालिक राहत देने वाला है। वैसे तो उच्चतम न्यायालय ने हाईकोर्ट के निर्णय सुनाने पर एक सप्ताह की ही रोक लगाई है, लेकिन देखना यह होगा कि वह सुलह-समझौते की अर्जी पर 28 सितंबर को क्या फैसला देता है? उसका फैसला कुछ भी हो, फिलहाल अयोध्या विवाद का समाधान आपसी सहमति से निकलने के आसार नजर नहीं आते। सुलह का मौका देने की गुहार लगाते हुए अदालत का दरवाजा खटखटाने वाले याचिकाकर्ता को छोड़ दिया जाए तो न तो वादी-प्रतिवादी आपसी सहमति के रास्ते पर चलने को तैयार दिखते हैं और न ही प्रमुख राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक संगठन। राष्ट्रहित में इससे बेहतर और कुछ नहीं हो सकता कि अयोध्या विवाद को आपसी बातचीत के माध्यम से हल किया जाए, लेकिन यह निराशाजनक है कि इसके लिए किसी भी स्तर पर ठोस प्रयास नहीं हो रहे हैं। क्या यह उम्मीद की जाए कि उच्चतम न्यायालय के हस्तक्षेप ने जो अवसर प्रदान किया है उसका उपयोग करने के लिए वे लोग आगे आएंगे जो अयोध्या विवाद का समाधान परस्पर सहमति से खोजने के लिए उपयुक्त माहौल बनाने में सहायक हो सकते हैं? यदि दोनों पक्षों के धर्माचार्य और प्रमुख राजनीतिक दल इस दिशा में कदम उठाएं तो अभीष्ट की पूर्ति हो सकती है। यह सही है कि अतीत में ऐसे जो प्रयास हुए वे नाकाम रहे, लेकिन आखिर और अधिक निष्ठा के साथ एक और कोशिश करने में क्या हर्ज है? यह विचित्र है कि जो लोग ऐसी कोशिश कर सकते हैं उनमें से ही अनेक 24 सितंबर के फैसले को लेकर गैर जिम्मेदाराना बयान दे रहे हैं। ऐसे राजनेता एक ओर शांति-सद्भाव बनाए रखने का आग्रह कर रहे हैं और दूसरी ओर अपने बयानों के जरिये ऐसा माहौल रच रहे जैसे 24 सितंबर को आसमान टूटने जा रहा हो। परिणाम यह हुआ कि देश के कुछ हिस्सों में दहशत पैदा हो गई। कुछ राज्यों में तो स्कूलों में छुट्टी करने की तैयारी कर ली गई थी। इसमें दो राय नहीं कि पूरा देश अयोध्या विवाद पर उच्च न्यायालय का अभिमत जानने को उत्सुक है, लेकिन धीरे-धीरे इस उत्सुकता में आशंका घुल गई। इसके लिए चाहे जो जिम्मेदार हो, 24 सितंबर के फैसले को लेकर जैसे माहौल का निर्माणकिया गया उससे एक परिपक्व राष्ट्र की हमारी छवि को धक्का लगा है। यह आश्चर्यजनक है कि जब यह स्पष्ट था कि उच्च न्यायालय का फैसला अंतिम नहीं होगा तब भी आम जनता के बीच यह संदेश क्यों जाने दिया गया कि अयोध्या मामले में कोई निर्णायक फैसला होने जा रहा है। जिन परिस्थितियों में अयोध्या विवाद पर उच्च न्यायालय का फैसला रुका वे सुरक्षा तैयारियों को विस्तार देने वाली हैं। चूंकि उच्च न्यायालय की ओर से फैसला सुनाने वाले तीन में से एक न्यायाधीश एक अक्टूबर को सेवानिवृत्त हो रहे हैं इसलिए उच्चतम न्यायालय का यह हस्तक्षेप फैसला टलने का कारण भी बन सकता है। यदि अयोध्या विवाद पर सुलह की कोशिश भी नहीं होती और उच्च न्यायालय का फैसला भी लंबे समय के लिए टलता है तो आम जनता खुद को ठगा हुआ महसूस कर सकती है।

Monday, May 24, 2010

क्या हमें विचार और ज्ञान की ज़रूरत नहीं?



प्रमोद जोशी
इस महीने भारतीय सिविल सेवा परीक्षा के परिणाम आने के बाद एनडीटीवी के अंग्रेजी चैनल ने पंजाब की एक सफल प्रतियोगी संदीप कौर से बात प्रसारित की। संदीप कौर के पिता चौथी श्रेणी के कर्मचारी हैं। यह सफलता बेटी की लगन और पिता के समर्थन की प्रेरणादायक कहानी है। जिस इलाके में स्त्री-पुरुष अनुपात बहुत खराब है और जहाँ से बालिका भ्रूण हत्या की खबरें बहुत ज्यादा आती हैं, उम्मीद है वहां संदीप कौर समाज के सामने नया आदर्श पेश करेगी। पंजाब सरकार ने इस दिशा में पहल भी की है।
संदीप कौर ने यह परीक्षा बगैर किसी कोचिंग के पास की। उसने एक बात और मार्के की कही। वह कहती हैं कि मेरी तैयारी का सबसे महत्वपूर्ण तत्व था दैनिक अखबार द हिन्दू को नियमित रूप से पढ़ना। संदीप के पिता या चचेरा भाई घर से करीब 20 किमी दूर खरड़ कस्बे से हिन्दू खरीद कर लाते थे। रोज़ अखबार नहीं मिलता था, तो अखबार का एजेंट उसके लिए दो-तीन दिन का अखबार अपने पास रखता था। संदीप का कहना है कि मैने हिन्दू के सम्पादकीय पेज पर छपे सारे लेख पढ़े हैं। इसके अलावा अखबार के ओपीनियन सेक्शन की सारी सामग्री भी पढ़ी। इस अखबार में करेंट अफेयर्स, नेशनल और इंटरनेशनल डेवलपमेंट की प्रॉपर इनसाइट मिलती है।
संदीप कौर का हिन्दू पढ़ना व्यक्तिगत पसंद का मामला है, पर पत्रकारिता को लेकर ज़ेहन में एक-दो बातें आतीं हैं। प्रतियोगिताओं की तैयारी करने वालों को हिन्दू पढ़ना पसंद है। इस अखबार में ही राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय खबरों को उचित पृष्ठभूमि के साथ छापा जाता है। बीस साल पहले दूसरे अंग्रेजी अखबार भी इसी तरह पढ़े जाते थे। पर अब शायद हिन्दू ही इस काम के लिए बचा है। इस बात का क्या पत्रकारिता से कोई रिश्ता है? कुछ समय पहले तक अखबार देश-काल का दर्पण होता था। पिछले दो दशक में सारे नहीं तो बड़ी संख्या में अखबारों ने टेबलॉयड अखबारों की सनसनी को अंगीकार कर लिया। एक ने किया तो दूसरे ने उसकी नकल की। बड़ी से बड़ी खबरें मिस होने पर भी अखबारों को शर्मिन्दगी नहीं होती। सामान्य खबरें और उनके फॉलोअप छापना अखबारों की प्राथमिकता में शामिल नहीं।
हिन्दू के बारे में दो-तीन बातें ऐसी हैं, जिन्हें सब मानते हैं। एक खबरों का वज़न तय करने का उसका परम्परागत ढंग है। यह अखबार सनसनी में भरोसा नहीं करता। उसकी एक राजनैतिक लाइन है, जिसे हम नापसंद कर सकते हैं। पर खबरें लिखते वक्त वह पत्रकारीय मर्यादाओं का पालन करता है। रेप विक्टिम का नाम नहीं छापना है, तो हिन्दू उसका पालन करता है। उसकी डिज़ाइन बहुत आकर्षक न लगती हो, पर वह विषय को पाठक पर आरोपित भी नहीं करती। खेल, विज्ञान, विदेशी मामलों से लेकर लोकल खबरों तक उसकी खबरें ऑब्जेक्टिविटी की परिभाषा पर खरी उतरतीं हैं। उसकी फेयरनेस पर आँच आने के भी एकाध मौके आए हैं। खासतौर से बंगाल में सिंगूर की हिंसा के दौरान उसकी कवरेज में एक पक्ष नज़र आया। यह उसकी नीति है। और किसी अखबार को उसका हक होता है। उसकी इस नीति और विचारधारा की आलोचना की जा सकती है, पर उसके सम्पादकीय और ऑप-एडिट पेज की गुणवत्ता के बारे में दो राय नहीं हो सकतीं।
इस लेख को शुरू करते वक्त मेरा उद्देश्य हिन्दू की प्रशंसा करना नहीं था। मैं दो-तीन बातों को हाइलाइट करना चाहता था। उसमें एक तो यह बात कि कुछ साल पहले तक अखबारों में अपने व्यवसाय को लेकर भी सामग्री पढ़ने को मिल जाती थी। मसलन जस्टिस गजेन्द्र गडकर की अध्यक्षता में बने पहले प्रेस आयोग की सिफारिश थी कि पत्र उद्योग को शेष उद्योग से डिलिंक किया जाय। यह विषय अखबारों के सम्पादकीय पेज पर भी उपस्थित था। आज का मीडिया अपने कारोबार के बारे में डिसकस करने को तैयार नहीं। इसलिए पेड न्यूज़ का मामला जब आया तब पी साईंनाथ के लेखों के लिए सिर्फ हिन्दू में ही जगह थी। ऐसा उसकी ओनरशिप के कारण हुआ। बेशक इंडियन एक्सप्रेस, टेलिग्राफ और टाइम्स ऑफ इंडिया का कवरेज स्तर आज भी काफी अच्छा है, पर कारोबार के मामले में उनपर पक्का यकीन नहीं किया जा सकता।
अखबारों के सम्पादकीय पेज और सम्पादकीय के बारे में भी सोचने का ज़माना शायद गया। यह सब मैं अंग्रेज़ी के अच्छे अखबारों के संदर्भ में कह रहा हूँ। हिन्दी अखबारों की बात अभी नहीं है। किसी ने कहा कि डीएवीपी की शर्त है कि सम्पादकीय होना चाहिए, वर्ना इसकी ज़रूरत ही क्या है। वास्तव में ज़रूरत नहीं है। जब जेब में विचार ही नहीं है, तब चेहरे पर विचारक की मुद्रा बनाने की ज़रूरत भी नहीं होनी चाहिए। संदीप कौर को एडिट पेज की ज़रूरत इसलिए थी क्योंकि सिविल सेवा परीक्षा के जनरल स्टडीज़ में करेंट अफेयर्स के सवाल पूछे जाते हैं। आज कौन बनेगा करोड़पति जैसा कोई कार्यक्रम भी नहीं है, जो लोगों को सामान्य ज्ञान की ज़रूरत हो। वास्तव में प्रथमिकता हमारी रोजी से तय होती है और हमारी रोजी में ज्ञान की ज़रूरत नहीं रह गई है।
किसी ने सलाह दी कि अखबार में विचार के पेज का मतलब क्या है। आप समाचार दीजिए पाठक अपने विचार बना लेगा। यों भी एडिट पेज को चार-छह फीसदी लोग ही पढ़ते हैं। बात सच है, पर हम अपने आसपास देखें। हमें ओपीनियन लीडर्स की ज़रूरत होती है। ऐसा न होता तो चैनलों पर सनसनीखेज खबर आते ही उसका विश्लेषण करने वालों की ज़रूरत महसूस होने लगती है। हाँ यह भी सही है कि मरे हुए विचार, पिटा-पिटाए तरीके से पेश करके हम विचार की बेइज्जती करते हैं। ऐसा क्यों है और रास्ता क्या है? इसका उत्तर देने के बजाय हम विचार की अवधारणा को ही त्याग देंगे, तो जो शून्य पैदा होगा वह खौफनाक होगा।
हिन्दी अखबार की सबसे बड़ी ज़रूरत पृष्ठभूमि देने की है। हमारा पाठक जानना चाहता है। उसे ज़मीन से आसमान तक की बातों की ज़रूरत है। हम उसे फैशन परेड की तस्वीरें, पार्टियां, मस्ती वगैरह पेश कर रहे हैं। यह सब भी ठीक है, पर उसके पहले बुनियादी ज्ञान की ज़रूरत है। संदीप कौर को कोई हिन्दी अखबार पसंद क्यों नहीं था? इसकी एक वजह यह भी है कि कोई हिन्दी अखबार हिन्दू जैसा बनना नहीं चाहता। हिन्दी में ज्ञान से जुड़ी बातें अधकचरा और अविश्वसनीय होतीं हैं। ज़रूरत इस बात की है कि हम युवा पत्रकारों को ज्ञान और विचार के लिए तैयार करें। चूंकि इस काम को प्रफेशनल ढंग से नहीं किया गया है इसलिए विचार की डोर एक्टिविस्ट्स के हाथों चली गई है। उनके पास विचार तो हैं, पर किसी एक संगठन या विचार से जुड़े हुए। वे अपने प्रतिस्पर्धी विचार को दबाना चाहते हैं। बहरहाल इस रास्ते पर सोचना चाहे। सम्पादकीय पेज पर फिल्मी कलाकारों के या सेलेब्रिटीज़ के लेख छापकर पाठकों का ध्यान तो खींचा जा सकता है, पर एक समझदार समाज की रचना नहीं हो सकती। पता नहीं समझदार समाज की रचना अखबार की जिम्मेदारी है भी या नहीं।