अब से दस साल पहले तुर्की एक प्रगतिशील देश था। भूमध्य सागर क्षेत्र और पश्चिम एशिया और खासतौर से मुस्लिम देशों में उसकी विदेश-नीति की बहुत तारीफ होती थी। दस साल पहले उसके तत्कालीन विदेशमंत्री अहमत दावुतुगोलू ने पड़ोसी देशों के साथ ‘जीरो प्रॉब्लम्स’ नीति पर चलने की बात कही थी। आज यह देश पड़ोसियों के साथ जीरो फ्रेंडली रह गया है। वह अफगानिस्तान से लेकर फलस्तीन तक की समस्याओं के समाधान में मध्यस्थ बनता जा रहा था। यहाँ तक कि अमेरिका और ईरान के रिश्तों को सुधारने का जिम्मा भी तुर्की ने अपने ऊपर ले लिया था। पर अब सीरिया, लीबिया और आर्मेनिया-अजरबैजान के झगड़े तक में तुर्की ने हिस्सा लेना शुरू कर दिया है।
सबसे बड़ी बात है
कि तुर्की संकीर्ण कट्टरपंथी सांप्रदायिक शब्दावली का इस्तेमाल कर रहा है। हाल में
फ्रांस में हुए हत्याकांडों के बाद उसके राष्ट्रपति एर्दोगान ने इस्लामोफोबिया को
लेकर जैसी बातें कहीं, वे ध्यान खींचती हैं।
एर्दोगान ने मुस्लिम देशों से कहा कि वे फ्रांसीसी सामान का बहिष्कार करें। मैक्रों
पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा, ‘फ्रांस की बागडोर जिनके
हाथों में है वह राह भटक गए हैं।’
लगता नहीं है यह वही तुर्की है, जिसे बीसवीं सदी में अतातुर्क कमाल पाशा ने आधुनिक देश बना दिया था, जो धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था का हामी था। तुर्की की नई विदेश नीति पश्चिम विरोधी है। शायद उसका आकलन है कि पश्चिमी देशों का प्रभाव घट रहा है और उसे चीन और रूस जैसे देशों के साथ अपने ताल्लुकात बढ़ाने चाहिए। तुर्की के व्यवहार से ऐसा भी लगता है कि इस्लामी देशों की बची-खुची एकता समाप्त हो रही है।
अभी तक मुस्लिम
देशों का नेतृत्व सऊदी अरब के पास था, पर अब तुर्की और ईरान
अपनी अलग पहचान बना रहे हैं और वे चीन के करीब जाते नजर आ रहे हैं। पिछले साल
संयुक्त राष्ट्र महासभा में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान के धुआँधार भाषण
के पीछे इस नए बनते गठजोड़ की अनुगूँज भी थी। फिर 18 से 21 दिसम्बर के बीच मलेशिया की राजधानी क्वालालम्पुर में हुए
इस्लामिक देशों के सम्मेलन ने सऊदी वर्चस्व को चुनौती दी थी, जो अब और ज्यादा मुखर होकर सामने आई है।
क्वालालम्पुर में
तुर्की, ईरान और मलेशिया ने इस नए गठजोड़ की बुनियाद
डाली थी। इसके पीछे पाकिस्तान का भी हाथ था,
पर सऊदी अरब के
दबाव में पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान उस सम्मेलन में नहीं गए। मलेशिया के
तत्कालीन प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने क्वालालम्पुर सम्मेलन के एक दिन पहले कहा
कि हमारा इरादा न तो कोई नया ब्लॉक बनाने का है और न हमारी सामर्थ्य नया ब्लॉक
बनाने की है, फिर भी यह बात बार-बार कही जा रही है कि
इस्लामी देशों का नया ब्लॉक तैयार हो रहा है।
यह नया ब्लॉक
पूरी तरह इस्लामी देशों का ब्लॉक होगा या नहीं,
अभी कहना मुश्किल
है। फिलहाल लगता है कि उसमें तुर्की और ईरान दो महत्वपूर्ण देश होंगे। इसका
नेतृत्व चीन करेगा और इसमें रूस भी शामिल होगा,
तो इसे इस्लामिक
ब्लॉक कहना उचित नहीं होगा। चीन, रूस, पाकिस्तान और ईरान की
भौगोलिक स्थितियाँ भावी राजनीति की दिशा तय करेंगी। यही बात भारत, अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया, वियतनाम वगैरह पर लागू होगी।
तुर्की की नई
विदेश नीति ने 2015 से आकार लेना शुरू किया है। इसकी शुरुआत तब
हुई जब पहली बार सत्तारूढ़ एके पार्टी को संसद में कुर्दिश पीपुल्स डेमोक्रेटिक
पार्टी की वजह अपना बहुमत खोना पड़ा। बहुमत हासिल करने के लिए एर्दोगान ने
दक्षिणपंथी और वामपंथी दोनों ही तरह के राष्ट्रवादी नेताओं के साथ हाथ मिलाया।
इसके बाद 2016 में वहाँ उनका तख्ता-पलट
करने की कोशिश की, जो नाकाम रही। इससे एर्दोगान का आत्मविश्वास और
बढ़ा।
एर्दोगान का आरोप
था कि सत्ता-पलट की कोशिश धर्म प्रचारक फ़तहुल्लाह गुलेन की अगुवाई में की गई थी।
इस्लामी धर्मगुरू फ़तहुल्लाह गुलेन के तुर्की में लाखों अनुयायी हैं। वे नब्बे के
दशक से अमेरिका के पेंसिल्वेनिया में रह रहे हैं। तख्ता-पलट में शामिल होने के
संदेह में करीब 300 लोगों की हत्या हुई और 60 हज़ार के आसपास सरकारी
कर्मचारियों को या तो जेल में डाला गया या
बर्खास्त किया गया है। इसमें सेना के जवान और न्यायपालिका के लोग भी शामिल थे।
सन 1947 में स्वतंत्रता के बाद पाकिस्तान के साथ राजनयिक सम्बंध
कायम करने वाले शुरुआती देशों में तुर्की भी था। सन 1974 में सायप्रस-अभियान में पाकिस्तान ने तुर्की का समर्थन
किया था। अस्सी के दशक तक दोनों देश पश्चिमी नेतृत्व वाले सेंटो के सदस्य थे। इस
समय चीन के बाद पाकिस्तानी सेना के शस्त्रास्त्र और उपकरण तुर्की की सहायता से ही
विकसित किए जा रहे हैं। पाकिस्तान के एफ-16 विमानों को अपग्रेड
तुर्की ने किया है। संयुक्त राष्ट्र में दोनों पारस्परिक सहयोग-समर्थन निभाते हैं।
यह सब अनायास
नहीं होता। सन 1997 में तुर्की की पहल पर इस्लामिक देशों के जिस
डेवलपिंग-8 या डी-8 ग्रुप का गठन किया गया, उसमें इस गठजोड़ की लकीरें खिंचती हुई देखी जा सकती हैं। इस
ग्रुप में बांग्लादेश, मिस्र, नाइजीरिया, इंडोनेशिया, ईरान, मलेशिया, पाकिस्तान और तुर्की शामिल हैं। यह वैश्विक सहयोग संगठन है।
इसकी रूपरेखा क्षेत्रीय नहीं है, पर दो बातें स्पष्ट हैं।
यह इस्लामिक देशों का संगठन है। इसकी अवधारणा तुर्की से आई है, इसमें अरब देश नहीं हैं।
कश्मीर मामले में
पाकिस्तान को तुर्की का पूरा समर्थन है। समर्थन तो सऊदी अरब और ओआईसी का भी है, पर पिछले कुछ वर्षों से इस्लामी ब्लॉक ने भारत के प्रति
नरमी बरती है। ओआईसी विदेश मंत्रियों के उद्घाटन सत्र में पिछले साल भारत को
आमंत्रित किया गया। भारत की तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज इस सत्र में
‘गेस्ट ऑफ ऑनर’ के तौर पर शरीक हुईं। विरोध में पाक विदेश मंत्री शाह महमूद
क़ुरैशी ने सम्मेलन में हिस्सा नहीं लिया। भारत की उस प्रतीकात्मक उपस्थिति और
पाकिस्तान की अनुपस्थिति से कहानी स्पष्ट होती है।
अरब देश अपनी
अर्थव्यवस्था को पेट्रोलियम-दौर से बाहर निकाल रहे हैं। इस कोशिश में वे भारत को
भी सहयोगी के रूप में देख रहे हैं। फिर भी तमाम बातें अस्पष्ट हैं। जी-20 सम्मेलन के दौरान सऊदी अरब के शाह और एर्दोगान की टेलीफोन पर वार्ता से लगता है कि दोनों के बीच संवाद भी है। उधर एक तरफ रूस से तुर्की
एस-400 हवाई सुरक्षा प्रणाली खरीद रहा है, जिसके कारण अमेरिका उससे नाराज
है, वहीं आर्मेनिया के खिलाफ वह अजरबैजान का साथ दे
रहा है, जिसमें रूस आर्मेनिया के साथ है। अंतर्विरोध
बढ़े, तो भविष्य में उसे नेटो छोड़ना होगा।
हाल के वर्षों
में तुर्की ने लीबिया के गृहयुद्ध में हस्तक्षेप किया। अमेरिकी सेना के हटने के
बाद सीरिया में पैर फैलाए और कुर्दों के खिलाफ कार्रवाई की। क़तर, सोमालिया और अफ़ग़ानिस्तान में भी तुर्की की किसी न किसी
रूप में मौजूदगी है। वहीं बाल्कन क्षेत्र में भी उसने शांति सेना तैनात कर रखी है।
उस्मानिया सल्तनत के बाद वैश्विक पैमाने पर तुर्की की मौजूदा सैन्य कार्रवाई सबसे
महंगी मुहिम है।
तुर्की जहाँ भी
हाथ-पैर फैला रहा है, उसमें वह अपना आर्थिक लाभ
भी देख रहा है। लीबिया के पुनर्निर्माण में करीब 18 अरब डॉलर के
ठेके वह पाने की उम्मीद रखता है। इसी तरह भूमध्य सागर में तेल और गैस की खोज से
उसे आर्थिक मदद की उम्मीदें हैं। अजरबैजान को वह हथियार बेच ही रहा है। पाकिस्तान
के साथ भी उसने पोत निर्माण और हेलिकॉप्टर तथा अन्य फौजी साजो-सामान की योजनाएं
बनाई हैं।
हालांकि यूरोपियन
यूनियन के साथ उसके रिश्ते बिगड़े नहीं हैं,
पर फ्रांस ने ईयू
से माँग की है कि तुर्की पर आर्थिक पाबंदियाँ लगाई जाएं। ईयू ने इस वक्त कुछ
पाबंदियाँ लगा रखी हैं, जो 12 नवंबर 2021 तक बढ़ा दी गई हैं। उधर
अमेरिका ने तुर्की को एफ-35 विमानों की बिक्री करने
से इनकार कर दिया है। इतना होने के बाद भी उसे अभी नेटो से निकालने की कार्रवाई
नहीं हुई है।
हालांकि अजरबैजान
और आर्मेनिया के युद्ध में रूस ने तुर्की की आलोचना की है, पर एर्दोगान पुतिन के खिलाफ कड़वी भाषा का इस्तेमाल नहीं
करते हैं। उनके अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप के साथ भी रिश्ते अच्छे रहे हैं। अब
देखना होगा कि अमेरिका के नए प्रशासन के साथ उनके रिश्ते कैसे रहते हैं। जो बिडेन
ने अपने भाषणों में कहा है कि मैं तुर्की में विपक्षी नेतृत्व का समर्थन करूँगा।
संकेत है कि वे रूस और चीन के साथ अपने रिश्तों को बेहतर बनाने का प्रयास करेंगे।
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