यह बैठक भले ही बुलाई नीतीश कुमार ने है, पर उन्हें ममता बनर्जी ने प्रेरित किया है। विरोधी दलों की एकता पर सभी दलों की सिद्धांततः सहमति है, पर नीतीश कुमार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल और के चंद्रशेखर राव के दृष्टिकोण कुछ अलग हैं। चंद्रशेखर राव तो इस बैठक में शामिल ही नहीं हो रहे हैं। सब जानते हैं कि तेलंगाना में उनका मुकाबला कांग्रेस पार्टी से है।
Thursday, June 22, 2023
विरोधी-एकता को लेकर पटना की बैठक के पहले उठते सवाल
Monday, June 5, 2023
विरोधी-एकता के असमंजस
आगामी 12 जून को पटना में प्रस्तावित विरोधी दलों की एकता-बैठक एक बार फिर से स्थगित हो गई है। हालांकि इसकी अगली तारीख तय नहीं है, पर संभावना है कि अब यह बैठक 23 जून को हो सकती है। इसका स्थान भी पटना के बजाय कहीं और हो सकता है। इसे शिमला में भी किया जा सकता है। कांग्रेस पहले से 23 जून की बात कह रही थी, पर जेडीयू ने 12 जून की घोषणा कर दी थी।
विरोधी-एकता की एक परीक्षा संसद के मॉनसून सत्र
में होगी, जब दिल्ली की प्रशासनिक व्यवस्था से जुड़े अध्यादेश का स्थान लेने वाला विधेयक
पेश किया जाएगा। बहरहाल 12 जून की बैठक में शामिल होने के लिए 16 पार्टियों ने
सहमति दी थी, जिनमें आम आदमी पार्टी भी शामिल है। इस बैठक को लेकर नीतीश कुमार के
अलावा अरविंद केजरीवाल, ममता बनर्जी, उद्धव ठाकरे, शरद पवार इसे लेकर काफी
उत्साहित हैं।
हिंदी बेल्ट
ममता बनर्जी ने एक वीडियो जारी करके पटना आने और बैठक में शामिल होने का बयान भी दिया है। ममता बनर्जी ने कहा कि पटना में होने वाली विपक्ष की एकता की बैठक से हिंदी बेल्ट में बेहतर असर होगा। हालांकि ममता ने इस बात को खुलकर नहीं कहा है, पर जो बातें सामने आ रही हैं, उनसे संकेत मिलता है कि उन्होंने ही नीतीश कुमार को सलाह दी थी कि आप अपनी तरफ से पहल करें। 12 जून की बैठक उसी पहल का परिणाम थी। ममता बनर्जी सत्तर के दशक में जय प्रकाश नारायण की पहल का इस सिलसिले में उदाहरण देती हैं।
Thursday, August 11, 2022
नीतीश को पीएम-प्रत्याशी बनाने और राष्ट्रीय गठबंधन के दावों के पीछे जल्दबाजी है
सतीश आचार्य का एक पुराना कार्टून |
बिहार में सरकार बन जाने के बाद दो सवाल खड़े हुए हैं। स्वाभाविक रूप से पहला सवाल होना चाहिए था कि क्या नई सरकार, पिछली सरकार से बेहतर साबित होगी? आश्चर्यजनक रूप से यह दूसरा सवाल बन गया है। उसकी जगह पहला सवाल है कि क्या नीतीश कुमार 2024 के चुनाव में प्रधानमंत्री पद के लिए विरोधी दलों के सर्वमान्य प्रत्याशी होंगे? सर्वमान्य का एक मतलब यह भी है कि क्या बिहार का महागठबंधन विरोधी दलों का राष्ट्रीय महागठबंधन बनेगा? जैसा कि प्रशांत किशोर मानते हैं कि यह परिघटना राज्य-केंद्रित है, इससे 2024 के चुनाव को लेकर राष्ट्रीय-निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते हैं।
मनोबल बढ़ेगा
बेशक बिहार के परिदृश्य से विरोधी दलों का
मनोबल ऊँचा होगा। इसे विरोधी महागठबंधन का प्रस्थान-बिंदु भी मान सकते हैं, पर
उसके लिए थोड़ा इंतजार करना होगा। अभी हम उत्साह देख रहे हैं। नई सरकार से कुछ लोग
निराश भी होंगे। उन अंतर्विरोधों को सामने आने दीजिए। मीडिया में अभी से खबरें हैं कि तेजस्वी बेहतर मुख्यमंत्री साबित होते। बिहार की राजनीति जाति और
संप्रदाय-केंद्रित है। राज्य में सौ से ज्यादा अति-पिछड़े वर्ग हैं, जिनका नेतृत्व
विकसित हो रहा है। इन नए नेताओं की मनोकामना का अनुमान अभी नहीं लगाया जा सकता है।
बीजेपी अकेली
महागठबंधन के समर्थक इस बात से खुश हैं कि सात
दलों के उनके गठबंधन के सामने बीजेपी
अकेली है। कौन जाने कुछ महीनों बाद बीजेपी के साथ कुछ दल आ जाएं। बहुत ज्यादा
दलों के गठजोड़ के जोखिम भी हैं। अभी यह भी देखना होगा कि जेडीयू और राजद के
रिश्ते किस प्रकार के रहेंगे। जेडीयू के भीतर के हालचाल भी पता लगने चाहिए। गठबंधन
जब बनता है, तब जो उत्साहवर्धक बातें की जाती हैं, उनके व्यावहारिक-प्रतिफलन का
इंतजार भी करना चाहिए।
जल्दबाजी
पहली नज़र में लगता है कि नीतीश कुमार को पीएम
प्रत्याशी बनाने और महागठबंधन को राष्ट्रीय मोर्चा की शक्ल देने की कोशिश जल्दबाजी
में की जा रही है। इसकी घोषणा राष्ट्रीय जनता दल या जेडीयू कैसे कर सकते हैं? दोनों की राष्ट्रीय राजनीति में क्या भूमिका है? नीतीश
कुमार ने खुलकर कभी नहीं कहा कि मैं प्रधानमंत्री पद का दावेदार बनना चाहता हूँ,
पर 10 अगस्त को उन्होंने शपथ लेने के बाद यह कहकर एक नई पहेली पेश कर दी कि मैं
2024 के बाद मुख्यमंत्री पद पर नहीं रहूँगा।
चौबीस या पच्चीस?
बिहार विधानसभा के चुनाव तो 2025 में होने हैं,
2024 में नहीं। लोकसभा चुनाव नहीं, तो 2024 से उनका आशय और क्या हो सकता है? नीतीश कुमार को पीएम मैटीरियल के तौर पर स्थापित करने की कोशिश बरसों
पहले से की जा रही है। 2013 में जब नरेंद्र मोदी का नाम बीजेपी के नेता के रूप में
लाने की कोशिश की जा रही थी, तब नीतीश कुमार ने उनका विरोध करते हुए कहा था कि देश
का प्रधानमंत्री धर्म-निरपेक्ष और उदारवादी होना चाहिए। एक तरह से 2014 में उन्होंने
खुद को मोदी के बराबर खड़ा करने की कोशिश की थी, पर वे सफल नहीं हुए। इसके लिए
राष्ट्रीय-स्तर पर जो वजन चाहिए, वह उनके पास नहीं था।
कितनी मनोकामनाएं?
नीतीश की छवि अच्छे प्रशासक की भी है, पर अच्छा
प्रशासक होना पीएम पद का प्रत्याशी नहीं बनाता। उसके लिए राजनीतिक-प्रभाव और
विरोधी दलों के बीच सहमति की जरूरत होगी। नीतीश कुमार 2024 के चुनाव में कितने
प्रत्याशियों को जिताकर लोकसभा में ला सकेंगे? पीएम-प्रत्याशी
बनने की मनोकामना कुछ और नेताओं के मन में है। उन सबके बीच एक सर्वसम्मत प्रत्याशी
का नाम तय करने की प्रक्रिया काफी जटिल होगी। उसमें सबसे बड़ी भूमिका कांग्रेस की
होगी, क्योंकि बीजेपी के बाद वह अकेली पार्टी है, जिसकी उपस्थिति देशभर में है।
कांग्रेस का महत्व
हालांकि कांग्रेस के सांसदों की संख्या छोटी
है, पर उसकी राष्ट्रीय उपस्थिति बीजेपी से भी बेहतर है। पीएम-प्रत्याशी तो बाद की
बात है, पहले देखना होगा कि क्या विरोधी दलों का कोई ऐसा मोर्चा बनना संभव है,
जिसमें कांग्रेस, एनसीपी, तृणमूल, सीपीएम, सीपीआई, सीपीएमएल, राजद, जेडीयू, सपा,
बसपा, टीआरएस, तेदेपा वगैरह-वगैरह हों?
Wednesday, August 10, 2022
अब किस दिशा में जाएगी बिहार की राजनीति?
तेलंगाना टुडे में सुरेंद्र का कार्टून
काफी समय से चर्चा थी कि नीतीश कुमार एक बार
फिर पाला बदलेंगे, पर शायद उन्हें सही मौके और ऐसे ट्रिगर की तलाश थी, जिसे लेकर
वे अपना रास्ता बदलते। यों इसकी संभावना काफी पहले से व्यक्त की जा रही थी। जब जेडीयू
के अंदर आरसीपी सिंह पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा, तब इसकी पुष्टि होने लगी। उसके
पहले बिहार विधानसभा के शताब्दी समारोह के निमंत्रण पत्र में नीतीश कुमार का नाम नहीं
डाला गया, तब भी इस बात का इशारा मिला था कि टूटने की घड़ी करीब है।
बहरहाल बदलाव हो चुका है, इसलिए ज्यादा बड़ा
सवाल है कि राज्य की राजनीति अब किस दिशा में बढ़ेगी? क्या
तेजस्वी यादव और उनकी पार्टी ज्यादा समझदार हुई है? कांग्रेस
की भूमिका क्या होगी? शेष छोटे दलों का व्यवहार कैसा रहेगा वगैरह?
पीएम मैटीरियल
क्या नीतीश कुमार 2024 में प्रधानमंत्री पद के
लिए विरोधी दलों के प्रत्याशी बनकर उभरना चाहते हैं?
राहुल गांधी, ममता बनर्जी, केसीआर और अरविंद
केजरीवाल की मनोकामना भी शायद यही है। बहरहाल आरसीपी सिंह ने दो ऐसी बातें कहीं जो नीतीश
के कट्टर विरोधी भी नहीं करते। उन्होंने कहा, "नीतीश
कुमार कभी प्रधानमंत्री नहीं बन सकते, सात जनम तक नहीं।"
यह भी कि, "जनता दल यूनाइटेड डूबता जहाज़ है। आप
लोग तैयार रहिए।" इन बातों से भी नीतीश कुमार को निजी तौर चोट लगी।
मंगलवार की शाम एक पत्रकार ने प्रधानमंत्री पद
के प्रत्याशी से जुड़ा सवाल किया, तो नीतीश ने कहा, नो कमेंट। 2014 से कहा जा रहा
है कि नीतीश कुमार में पीएम मैटीरियल है। जेडीयू संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष उपेंद्र
कुशवाहा ने इस बार भी गठबंधन से अलग होने से पहले प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि
नीतीश कुमार में प्रधानमंत्री बनने के तमाम गुण हैं।
नीतीश कुमार को नज़दीक से जानने वाले कई नेताओं
ने तसदीक की है कि प्रधानमंत्री पद की चर्चा होने पर नीतीश खुश होते हैं। आरसीपी
सिंह तो उनके बहुत क़रीब रहे हैं। वे उनके मनोभावों को समझते हैं। बीजेपी के राज्यसभा
सांसद सुशील मोदी ने ट्वीट किया, यह सरासर सफ़ेद झूठ है कि भाजपा ने
बिना नीतीश जी की सहमति के आरसीपी को मंत्री बनाया था। यह भी झूठ है कि जेडीयू को बीजेपी
तोड़ना चाहती थी। बल्कि जेडीयू ही तोड़ने का बहाना खोज रही थी।
क्षेत्रीय दलों का भविष्य
उधर 31 जुलाई को बीजेपी के अध्यक्ष जेपी नड्डा ने
कहा कि आने वाले दिनों में सभी
क्षेत्रीय दल ख़त्म हो जाएंगे। फिर जिस तरह से महाराष्ट्र में बीजेपी ने
शिवसेना को तोड़ा, उसे लेकर भी नीतीश कुमार सशंकित थे। 2020 के विधानसभा चुनाव में
जेडीयू को प्राप्त सीटों में भारी गिरावट भी एक इशारा था। ऊपर कही गई ज्यादातर
बातें निजी या पार्टी के हितों को लेकर हैं, जो वास्तविकता है। पर राजनीति पर
विचारधारा का कवच चढ़ा हुआ है, जिसका जिक्र अब हो रहा है। यूनिफॉर्म सिविल कोड और
तीन तलाक़ जैसे मुद्दों पर और हाल में अग्निवीर कार्यक्रम को लेकर भी उनका
दृष्टिकोण बीजेपी के नजरिए से अलग था। जातीय जनगणना को लेकर भी नीतीश कुमार का रास्ता
अलग था।
नई ऊर्जा
माना जा रहा है कि इस उलटफेर से विरोधी पार्टियों
में नई ऊर्जा देखने को मिलेगी। करीब-करीब ऐसी ही बात 2015 में जब पहली बार महागठबंधन
बना तब कही गई थी। हालांकि उस ऊर्जा की हवा नीतीश कुमार ने ही 2017 में निकाल दी।
उसके बाद 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में राहुल गांधी और अखिलेश यादव की
जोड़ी भी विफल रही। पर 2018 में कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद जेडीएस और कांग्रेस
की सरकार बन गई, तब एकबार फिर ऊर्जा नजर आने लगी। पर वह ऊर्जा ज्यादा देर चली
नहीं। सवाल है कि क्या अब लालू
और नीतीश की जोड़ी सफल होगी? इसका जवाब नई सरकार
के पहले छह महीनों में मिलेगा। महागठबंधन लंबे समय तक बना रहा और उसके भीतर टकराव
नहीं हुआ, तो बिहार की राजनीति में बदलाव होगा। पर इसकी विपरीत प्रतिक्रिया भी
होगी।
मित्र-विहीन
भाजपा
तेजस्वी यादव ने कहा है कि हिंदी पट्टी वाले
राज्यों में बीजेपी का अब कोई भी अलायंस पार्टनर नहीं बचा। उन्होंने कहा, बीजेपी किसी भी राज्य में अपने विस्तार के लिए क्षेत्रीय पार्टियों
का इस्तेमाल करती है, फिर उन्हीं पार्टियों को ख़त्म करने के
मिशन में जुट जाती है। बिहार में भी यही करने की कोशिश हो रही थी। राजनीति में ऐसा
ही होता है। बीजेपी का विस्तार होगा तो किसकी कीमत पर? उत्तर
प्रदेश में मुलायम सिंह ने सपा का विस्तार किया तो गायब कौन हुआ? कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी।
बिहार में भी दो दशक पहले बीजेपी की ताकत क्या
थी और आज क्या है? पार्टनर एक-दूसरे के करीब आते हैं, तो अपने हित
के लिए आते हैं। नीतीश कुमार और बीजेपी एक-दूसरे के करीब अपने हितों के लिए आए थे।
और आज नीतीश कुमार राजद के पास गए हैं, तो इसलिए कि वे 2024 और उससे आगे की
राजनीति में खड़े रह सकें।
ताकत बढ़ी
बीजेपी के समर्थक मानते हैं कि फौरी तौर पर
राज्य में धक्का जरूर लगा है, पर दीर्घकालीन दृष्टि से बीजेपी के लिए यह फ़ायदे की
बात है। बीजेपी खेमे में 2020 के चुनाव परिणाम को लेकर नाराज़गी थी
कि जेडीयू को 122 सीटें नहीं दी गई होती, तो बीजेपी अकेले दम पर सरकार बना सकती थी। देखना यह है कि बिहार की
जातीय संरचना में अब बीजेपी क्या करती है। नीतीश कुमार के कारण कुर्मी वोट का एक
आधार उसके साथ था। इसके अलावा अति-पिछड़े वोटर भी एनडीए के साथ थे। क्या पार्टी
बिहार के जातीय-समूहों के बीच से नए नेतृत्व को खोज पाएगी? इसका
जवाब मिलने में भी कम से कम छह महीने लगेंगे।
Tuesday, August 9, 2022
बिहार में एक अध्याय खत्म, दूसरा शुरू
बिहार में भाजपा और जेडीयू का गठबंधन अंततः टूट गया है। नीतीश कुमार ने राज्यपाल फागू चौहान को मुलाकात करके अपना इस्तीफा सौंप दिया और अब कल वे नई सरकार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेंगे। गवर्नर हाउस से निकल कर वे तेजस्वी यादव के घर पहुँचे। फिर तेजस्वी के साथ दुबारा राज्यपाल से मुलाकात करने गए और 164 विधायकों का समर्थन-पत्र सौंपा। इस प्रकार राज्य में एक राज्नीतिक अध्याय खत्म हुआ और दूसरा शुरू हो गया है। कांग्रेस विधायक शकील अहमद खान ने कहा है कि नीतीश कुमार महागठबंधन के मुख्यमंत्री होंगे। सब कुछ तय हो गया है। इसका मतलब है कि इसकी बातचीत कुछ दिन पहले से चल रही थी।
किसे क्या मिलेगा?
हालांकि कहा जा रहा है कि महागठबंधन वैचारिक
लड़ाई का हिस्सा है। इसका सरकार बनाने या गिराने से वास्ता नहीं है, पर नई सरकार का
गठन होने के पहले ही मीडिया में खबरें चल रही हैं कि किसे कौन सा मंत्रालय मिलेगा।
मसलन खबर है कि तेजस्वी यादव ने गृह मंत्रालय की मांग की है। गृह मंत्रालय अभी तक
नीतीश के पास है।
अभी तक खामोशी से इंतजार कर रहे बीजेपी के खेमे की खबर है कि पार्टी के कोर ग्रुप की बैठक आज शाम तारकिशोर प्रसाद के आवास पर हुई। अब कुछ समय तक राज्य की राजनीति में नए गठबंधन और नई सरकार से जुड़े मसले हावी रहेंगे। फिलहाल दिलचस्पी का विषय यह है कि नीतीश कुमार ने बीजेपी का साथ क्यों छोड़ा और क्या राजद और कांग्रेस के साथ उनकी ठीक से निभ पाएगी या नहीं।
बिहार का धुँधला परिदृश्य
बिहार का राजनीतिक-परिदृश्य अभी तक अस्पष्ट है। राज्य के ज्यादातर दलों के पास गठबंधनों के इतने अच्छे-बुरे अनुभव हैं कि वे सावधानी से कदम बढ़ा रहे हैं। सत्ता-समीकरण इसबार बदले तो वे काफी दूर तक जाएंगे। नहीं बदले, तो उनमें कुछ बुनियादी बदलाव होंगे। पर सबसे महत्वपूर्ण यह देखना होगा कि नीतीश कुमार ने परिस्थितियों का आकलन किस प्रकार किया है और बीजेपी की योजना क्या है। राज्य में जो हो रहा है, उसका स्रोत कहाँ है वगैरह।
हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने कहा है कि हमारा
गठबंधन दुरुस्त है, पर नीतीश कुमार को समझाने उसका कोई वरिष्ठ नेता इसबार पटना
नहीं गया है। जो भी बातें हैं, वह या तो फोन पर हो रही हैं या दिल्ली और पटना में
बैठे नेताओं के मार्फत। इस प्रसंग से जुड़े ज्यादातर दलों की बैठकें चल रही हैं। सब
इस बात का इंतजार कर रहे हैं कि नीतीश कुमार की अगली घोषणा क्या होगी।
जेडीयू ने बीजेपी से अलग होने का साफ संकेत दे दिया है। इस संकेत का मतलब क्या है? क्या यह फौरी तौर पर धमकी है या दृढ़-निश्चय? क्या उन्हें राजद और कांग्रेस के साथ मिलकर जाने में अपना बेहतर भविष्य दिखाई पड़ रहा है या वे केंद्रीय-मंत्रिमंडल में बेहतर भागीदारी चाहते हैं? क्या बीजेपी के रणनीतिकार नीतीश कुमार की भंगिमाओं को सही पढ़ पा रहे हैं या वे ये वे अंधेरे में हैं?
Monday, August 8, 2022
बिहार की नई राजनीतिक पहेली
बिहार में जेडीयू और बीजेपी गठबंधन की दरार अब साफ दिखाई पड़ रही है। रविवार 7 अगस्त को नीतीश कुमार के नीति आयोग की बैठक में नहीं गए और सोमवार को जेडीयू ने आरोप लगाया है कि नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ साज़िश रची जा रही है। इस विवाद के शुरू होने के साथ ही दोनों पार्टियों के लोकसभा चुनाव साथ में लड़ने को लेकर भी सवाल खड़े हो गए थे। बिहार में विधानसभा चुनाव 2025 में होंगे, पर तबतक गठबंधन चलेगा या नहीं, यह सवाल खड़ा हो रहा है। इस समय राज्य के राजनीतिक-गठबंधन के टूटने को लेकर कयास जरूर है, पर यह टूट आसान नहीं लग रही है। अभी यह स्पष्ट नहीं है कि टूट चाहता कौन है।
भाजपा और जदयू के बीच दूरी बढ़ने की शुरुआत कुछ
महीने पहले हुई थी। जाति आधारित जनगणना के मुद्दे पर नीतीश कुमार भाजपा से अलग-थलग
नजर आए और उन्होंने विपक्षी दलों के साथ जाति आधारित जनगणना की मांग की। कुछ महीने
पूर्व नीतीश पीएम की कोरोना पर बुलाई गई बैठक से दूर रहे। हाल में पूर्व
राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद के सम्मान में दिए गए भोज, राष्ट्रपति
द्रौपदी मुर्मू के शपथ ग्रहण समारोह से भी दूरी बनाई। इससे पहले गृह मंत्री अमित
शाह की ओर से बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक से दूरी बनाने के बाद अब नीति आयोग
की बैठक से भी दूर रहे।
सोनिया गांधी से बात
ताजा विवाद जेडीयू के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष
आरसीपी सिंह पर बेहिसाब संपत्ति और अनियमितताओं के आरोपों से शुरू हुआ है और आज
खबरें हैं कि नीतीश कुमार ने सोनिया गांधी से फोन पर बात की है। मीडिया में खबरें
हैं कि पिछले 15 दिनों में उनकी एकबार नहीं तीन बार सोनिया गांधी बात हुई है। मंगलवार
को राजद और जदयू ने विधानमंडल दल की बैठक बुलाई है। पहले राजद और फिर जदयू की बैठक
होगी।
जेडीयू ने शनिवार को आरसीपी सिंह को कारण बताओ
नोटिस भेजा था, जिसके बाद आरसीपी सिंह ने पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया। आरसीपी सिंह
ने कहा कि जेडीयू डूबता हुआ जहाज़ है, हमारे जितने
साथी हैं वे जल्द ही कूद जाएँगे और जहाज़ जल्दी डूब जाएगा। आरसीपी सिंह जेडीयू से
एकमात्र नेता थे, जो पार्टी की ओर से केंद्र में मंत्री बने थे, जिसके लिए नीतीश
कुमार की सहमति नहीं थी।
इस बार जेडीयू ने उन्हें राज्यसभा का टिकट नहीं दिया और वे मंत्री भी नहीं रहे। आरसीपी सिंह के बयान पर जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजीव रंजन सिंह उर्फ़ ललन सिंह ने रविवार को कहा, ''जदयू डूबता हुआ जहाज़ नहीं, बल्कि दौड़ता हुआ जहाज़ है और आने वाले समय में पता लग जाएगा। कुछ लोग उस जहाज़ में छेद करना चाहते थे। नीतीश कुमार ने ऐसे षड्यंत्रकारियों को पहचान लिया।
Wednesday, November 11, 2020
बिहार चुनाव के निहितार्थ
बिहार के चुनाव परिणामों पर डेटा-आधारित विश्लेषण कुछ समय बाद सामने आएंगे। महत्वपूर्ण राजनीति शास्त्रियों की टिप्पणियाँ भी कुछ समय बाद पढ़ने को मिलेंगी, पर आज (यानी 11 नवंबर 2020) की सुबह इंडियन एक्सप्रेस में परिणामों के समाचार के साथ चार बातों ने मेरा ध्यान खींचा। ये चार बातें चार अलग-अलग पहलुओं से जुड़ी हैं। पहला है तेजस्वी यादव पर वंदिता मिश्रा का विवेचन, दूसरे कांग्रेसी रणनीति पर मनोज जीसी की टिप्पणी, तीसरे बीजेपी की भावी रणनीति पर सुहास पालशीकर का विश्लेषण और चौथा एक्सप्रेस का बिहार के भविष्य को लेकर संपादकीय। किसी एक चुनाव के तमाम निहितार्थ हो सकते हैं। पता नहीं हमारे समाज-विज्ञानी अलग-अलग चुनावों के दौरान होने वाली गतिविधियों के सामाजिक प्रभावों का अध्ययन करते हैं या नहीं, पर मुझे लगता है कि बिहार के बदलते समाज का अध्ययन करने के लिए यह समय अच्छा होता है। बहरहाल इन चारों को विस्तार से आप एक्सप्रेस में जाकर पढ़ें। मैंने सबके लिंक साथ में दिए हैं। अलबत्ता हरेक बात का हिंदी में संक्षिप्त विवरण भी दे रहा हूँ. ताकि संदर्भ स्पष्ट रहे।
वंदिता मिश्रा ने लिखा है कि बिहारी अंदाज में लमसम (Lumpsum) में कहें, तो एक या दो बातें कही जा सकती हैं। एक नीतीश कुमार का पराभव। मुख्यमंत्री के रूप में उनकी वापसी हो सकती है और नहीं भी हो सकती है, पर वे वही नीतीश कुमार नहीं होंगे। वे अब 2010 के सड़क-पुल-स्कूली लड़कियों के साइकिल हीरो नहीं हैं, जिसने राज्य में व्यवस्था को फिर से कायम किया था। वे 2015 के सुशासन बाबू भी नहीं हैं, जिसकी दीप्ति कम हो गई थी, फिर भी जिसे काम करने वाला नेता माना जाता था। यह वह राज्य है जहाँ लालू राज ने विकास को पीछे धकेल दिया था, जिसका नारा था-सामाजिक न्याय बनाम विकास।