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Friday, July 5, 2024

बाबा-संस्कृति का विद्रूप

चित्र मीडिया विजिल से साभार

बाबाओं और संतों से जुड़े सवाल एकतरफा नहीं हैं। या तो हम इन्हें सिरे से खारिज करते हैं या गुणगान की अति करते हैं। यह हमारे अर्ध-आधुनिक समाज की समस्या है
, जो केवल बाबाओं-संतों तक सीमित नहीं है बल्कि जीवन के हर क्षेत्र में है और खासतौर से इसे हम राजनीति के हरेक खेमे में देख सकते हैं। संतों का आज मतलब वही नहीं है, जो कभी कबीर, रैदास, दादू दयाल, मलूकदास, गुरुनानक वगैरह के साथ जुड़ा था। और ज्यादातर लोग आज संतों के पास अपनी समस्याओं के समाधान से जुड़े अंधविश्वासों से प्रेरित होकर जाते हैं, सामाजिक कल्याण के लिए नहीं।

यह केवल हिंदुओं तक सीमित नहीं है। चमत्कारी और भूत-प्रेतों के इलाज के नाम पर दूसरे धर्मावलंबियों को भी इसके दायरे में आप देख सकते हैं। एक ओर आस्था और अंधविश्वास हैं और दूसरी ओर जीवन को अतार्किक मशीनी तरीके से देखने वाली ‘प्रगतिशीलता’ का विद्रूप है। लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से यह विसंगति पल्लवित हुई और मीडिया ने इसे पुष्पित होने का मौका दिया। दोनों मनुष्य के विकास की देन हैं।

वैश्विक बाजारवाद और आधुनिक विज्ञानवाद के दौर में परंपरागत धार्मिकता को धीरे-धीरे खत्म होना चाहिए, पर हो इसके विपरीत रहा है। धार्मिक आडंबर (अंग्रेजी में कहें तो रिलीजियोसिटी) बढ़ रहे हैं। चुनाव-प्रणाली सांप्रदायिक पहचान के मध्य-युगीन मूल्यों को भड़का रही है। अचानक दुनिया में धार्मिक पहचान के रूप में पहनावे की भूमिका बढ़ी है।