अमेरिका के चुनाव परिणाम जिस समय आ रहे हैं, उस वक्त दुनिया में चरम राष्ट्रवाद की हवाएं बह रही हैं। पर क्यों? यह क्रिया की प्रतिक्रिया भी है। फ्रांस में जो हो रहा है, उसने विचार के नए दरवाजे खोले हैं। समझदारी के उदाहरण भी हमारे सामने हैं। गत 15 मार्च को न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च शहर की दो मस्जिदों में हुए हत्याकांड ने दो तरह के संदेश एकसाथ दुनिया को दिए। इस घटना ने गोरे आतंकवाद के नए खतरे की ओर दुनिया का ध्यान खींचा था, वहीं न्यूजीलैंड की प्रधानमंत्री जैसिंडा अर्डर्न ने जिस तरह से अपने देश की मुस्लिम आबादी को भरोसा दिलाया, उसकी दुनियाभर में तारीफ हुई।
दुनिया में ह्वाइट सुप्रीमैसिस्टों और नव-नाजियों के हमले बढ़े हैं। अमेरिका में 9/11 के बाद हाल के वर्षों में इस्लामी कट्टरपंथियों के हमले कम हो गए हैं और मुसलमानों तथा एशियाई मूल के दूसरे लोगों पर हमले बढ़ गए हैं। यूरोप में पिछले कुछ दशकों से शरणार्थियों के विरोध में अभियान चल रहा है। ‘मुसलमान और अश्वेत लोग हमलावर हैं और वे हमारे हक मार रहे हैं।’ इस किस्म की बातें अब बहुत ज्यादा बढ़ गईं हैं। पिछले साल श्रीलंका में हुए सीरियल विस्फोटों के बाद ऐसे सवाल वहाँ भी उठाए जा रहे हैं।
न्यूयॉर्क पर हुए
हमले के बाद ऐसी बातें बढ़ीं और पिछले दो-तीन वर्षों में इराक़ और सीरिया में
इस्लामिक स्टेट के उदय और यूरोप में आई करीब 20 लाख शरणार्थियों की बाढ़ से
कड़वाहट और ज्यादा बढ़ गई है। इसका फायदा दक्षिणपंथी राजनीति उठा रही है। इटली और
ऑस्ट्रिया में धुर दक्षिणपंथी सरकारें सत्ता में आईं हैं। फ्रांस में दो साल बाद
चुनाव होने वाले हैं और वहाँ की धुर दक्षिणपंथी पार्टी का सामना करने की राष्ट्रपति
इमैनुएल मैक्रों के सामने चुनौती है। चेक गणराज्य, डेनमार्क, फिनलैंड, फ्रांस, जर्मनी, यूनान, हंगरी, इटली, नीदरलैंड्स, स्वीडन और स्विट्जरलैंड
में दक्षिणपंथी पार्टियाँ सिर उठा रहीं हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि नई पीढ़ी
इनमें शामिल हो रही है।
अमेरिका की
आंतरिक राजनीति में भी दक्षिणपंथी प्रतिक्रिया देखने को मिल रही है। सन 2008 में
बराक ओबामा के राष्ट्रपति बनने के बाद से गोरों की नफरतें और बढ़ीं। देश के
अश्वेतों में बड़ी संख्या मुसलमानों की भी है। ट्रम्प के उदय के पीछे एक भावना यह
भी है। यूरोप के दक्षिणपंथी खुद को अमेरिका के दक्षिणपंथियों के साथ जोड़कर देखते
हैं। अमेरिका में ‘आइडेंटिटी एवरोपा’ नाम का संगठन तेजी से बढ़ रहा है। अमेरिकी
सेना के भीतर भी गोरों और अश्वेतों के बीच तनाव की खबरें हैं। ह्वाइट सुप्रीमेसी
के पक्ष में अक्सर नारे और बैनर-पोस्टर लगाए जाने की खबरें आती हैं।
कट्टरपंथ का
वैश्वीकरण हुआ है। क्यों कोई समाज कट्टरपंथी रास्ते पर बढ़ता है? क्यों हम पहचान के सवालों को लेकर एक-दूसरे की जान लेने पर
उतारू हो जाते हैं? तकनीक और साधनों ने विचारधाराओं को वैश्विक मंच
प्रदान किए हैं। इसी पृष्ठभूमि में अमेरिका में भी ध्रुवीकरण बढ़ा
है। मूल रूप से देहाती इलाकों में रहने वाले गोरे, हिस्पानी, क्यूबाई और लैटिन
अमेरिकी देशों के यूरोपीय मूल के ज्यादातर लोग रिपब्लिकन पार्टी के साथ हैं और
अश्वेत, एशियाई तथा अफ्रीकी मूल के नागरिक डेमोक्रेट्स के साथ हैं। इस ध्रुवीकरण
के पीछे आर्थिक कारण भी हैं। गोरे लोग बेरोजगार हो रहे हैं। उन्हें लगता है कि
उनके रोजगार चीन खा रहा है।
ट्रंप ने अपनी बातों से अमेरिकी समाज का ध्रुवीकरण किया है,
पर कम पढ़े-लिखे गोरों की भावनाओं को भी समझने का काम किया। यदि डेमोक्रेट्स की
सरकार आई, तो उसे अब अमेरिकी हितों का ध्यान भी रखना होगा। ट्रंप की पराजय का मतलब
यह नहीं है कि वे भावनाएं खत्म हो गई हैं, जो उनके समर्थन में खड़ी थीं। यदि उनकी
उपेक्षा होगी, तो वे और शिद्दत के साथ सामने आएंगी।
हाल के वर्षों में मुस्लिम समुदाय डेमोक्रेट्स का कोर वोटर
बना है। बहरहाल चुनाव पूरा होने के बाद मतदान के सांख्यिकीय-विश्लेषण से पता लगेगा
कि इस चुनाव का अमेरिकी सामाजिक जीवन पर क्या प्रभाव पड़ा है। यह डेटा मतदाताओं की
जातीय संरचना, आयु लिंग और निवास के इलाके से जुड़ा होगा। उससे पता लगेगा कि
अमेरिका का कौन सा समुदाय किस तरफ है। इसमे दो राय नहीं कि कोरोना इस वक्त देश की
बड़ी समस्या है, पर कोरोना के बावजूद ट्रंप के खिलाफ कोई लहर नहीं बनी।
ध्रुवीकरण देश की राजनीति के लिए हितकर नहीं है। ट्रंप ने
अपनी राजनीति की शुरुआत ‘अमेरिका फर्स्ट’ के नारे के साथ की थी। इसके
आर्थिक निहितार्थ ज्यादा हैं। गोरे नागरिकों को लगता है कि उनकी नौकरियाँ जा रही
हैं, जिनका फायदा चीन जैसे देशों ने उठाया है। ट्रंप के नेतृत्व में अमेरिकी
अर्थव्यवस्था में सुधार भी हुआ है। दूसरी तरफ उनके प्रशासन ने वैश्विक जिम्मेदारियों
से हाथ खींचना शुरू कर दिया है। सीरिया और अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी
के पीछे ट्रंप का यही सिद्धांत काम कर रहा था।
अमेरिका में नागरिकों के बीच जातीय-विद्वेष पहले भी रहा है,
पर पिछले कुछ वर्षों में काफी बढ़ गया है। हाल में हुए ‘ब्लैक लाइव्स मैटर’ आंदोलन ने इस कटुता को बढ़ाया है। जैसी लूट उस दौरान
हुई, उसे देखकर बहुत से नागरिकों ने खामोशी से अपने गुस्से को पी लिया था। बिडेन
यदि जीते, तो यह केवल राजनीतिक सफलता होगी। इसे नैतिक सफलता नहीं कह सकते। उन्हें
अमेरिका के उन तमाम नागरिकों को भी अपने साथ रखना होगा, जो ट्रंप का समर्थन कर रहे
थे।
बुनियादी तौर पर ट्रंप राजनीतिक नेता नहीं हैं। यह बात उनके
पक्ष में भी जाती है और खिलाफ भी जाती है। वे किसी भी समय कुछ भी बोल सकते हैं। वे
ट्वीट के माध्यम से बड़ी-बड़ी बातें कह जाते थे। इससे उनकी छवि मुँहफट व्यक्ति की
बनी है। मँजे हुए राजनेता काफी सोच-समझकर बोलते हैं। जनता का एक तबका मुँहफट होता
है। उसे गोल-मोल के बजाय साफ बातें पसंद आती हैं। ऐसे में जब ट्रंप का मजाक उड़ाया
जाता था, तब उनके समर्थक वर्ग के मन में गुस्सा पैदा होता था। ट्रंप ने अमेरिकी
मीडिया की हमेशा आलोचना की। और शायद इसीलिए मीडिया भी उनके खिलाफ है।
ट्रंप के खिलाफ जो बात सबसे ज्यादा सामने आती है, वह
वृहत्तर नीतियों के संदर्भ में नहीं है। बल्कि यह है कि राष्ट्रपति जैसे पद पर
बैठे व्यक्ति को कैसा व्यवहार करना चाहिए। शालीनता उनसे दूर रहती है और सनक हावी।
उनकी मुद्रा अक्सर धौंस भरी होती है। उन्होंने अपने तमाम सहयोगियों को हाथों-हाथ
हटा दिया। दूसरे वे झूठ का सहारा लेते हैं। मतदान के दौरान भी ऐसा देखने को मिला।
कोरोना जैसी महामारी के असर को उन्होंने मानने से ही इनकार कर दिया। डॉ एंथनी फाउची जैसे अपने ही विशेषज्ञों की सलाह को उन्होंने नहीं माना। अक्सर वे बचकाना हरकतें
करते देखे जाते हैं।
No comments:
Post a Comment