Showing posts with label भारत-अमेरिका. Show all posts
Showing posts with label भारत-अमेरिका. Show all posts

Tuesday, November 21, 2023

भारत-अमेरिका रिश्तों की अगली पायदान


भारत और अमेरिका के बीच हाल में हुई टू प्लस टू वार्ता आपसी मुद्दों से ज्यादा वैश्विक-घटनाक्रम के लिहाज से ज्यादा महत्वपूर्ण साबित हुई, फिर भी रक्षा-सहयोग और आतंकवाद से जुड़े कुछ मुद्दों ने खासतौर से ध्यान खींचा है।  कनाडा में खालिस्तानी आतंकियों को मिल रहे समर्थन के संदर्भ में भारत ने अपना पक्ष दृढ़ता से रखा, वहीं रक्षा-तकनीक में सहयोग को लेकर कुछ संदेह व्यक्त किए जा रहे हैं।

इन बातों को जून के महीने में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका-यात्रा के दौरान किए गए फैसलों की रोशनी में भी देखना होगा, क्योंकि ज्यादातर बातें उस दौरान तय किए गए कार्यक्रमों से जुड़ी हैं। गज़ा में चल रहा युद्ध और भारत-कनाडा टकराव अपेक्षाकृत बाद का घटनाक्रम है, पर उनसे दोनों देशों के रिश्तों पर कोई विपरीत प्रभाव नहीं पड़ा है। दोनों परिघटनाएं प्रत्यक्ष नहीं, तो परोक्ष रूप में पहले से चल रही थीं।  

Thursday, September 28, 2023

भारत-कनाडा रिश्ते और अमेरिका की भूमिका

ग्लोबल टाइम्स में कार्टून

भारत-कनाडा रिश्तों में बढ़ती तपिश अब भारत और अमेरिका के रिश्तों पर भी पड़ेगी। भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर इस समय अमेरिका में हैं। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र महासभा की सालाना बैठक में परोक्ष रूप से कनाडा और पश्चिमी देशों के पाखंड का उल्लेख करते हुए कहा है कि हर बात की एक पृष्ठभूमि भी होती है। उसे भी समझें। वस्तुतः पश्चिमी देश हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के आरोपों का जिक्र तो कर रहे हैं, पर इन देशों में चल रही भारत-विरोधी गतिविधियों का उल्लेख नहीं कर रहे हैं।

आज जयशंकर की मुलाकात अमेरिका के विदेशमंत्री एंटनी ब्लिंकन से होगी। जयशंकर ने कहा है कि हमारी नीति इस किस्म की हत्याएं कराने की नहीं है। हमारे सामने ठोस तथ्य रखे जाएंगे, तभी हम कुछ कह पाएंगे। उधर अमेरिकी प्रवक्ता ने कहा है कि हमने अपना रुख स्पष्ट कर दिया है। बहरहाल लगता यह है कि अमेरिका अपनी चीन-विरोधी रणनीति में भारत का इस्तेमाल करना चाहता है, पर इस मामले में अमेरिकी इंटेलिजेंस ने ही कनाडा को कुछ जानकारियाँ दी हैं। सवाल है कि क्या अमेरिका डबल गेम खेल रहा है? यह कहा जा रहा है कि जी-20 की बैठक के दौरान अमेरिका ने भी नरेंद्र मोदी के सामने निज्जर का मामला उठाया था।

दूसरी तरफ इन दिनों चीनी मीडिया लगातार अमेरिकी पाखंड का उल्लेख कर रहा है। चीन के सरकारी मीडिया ग्लोबल टाइम्स ने चार रिपोर्टें (एक, दो, तीन और चार) इस आशय की जारी की हैं, जिनमें भारत-कनाडा प्रकरण के बहाने अमेरिका के पाखंड का जिक्र किया गया है। 

Sunday, June 25, 2023

भारत-अमेरिका रिश्तों का सूर्योदय


प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका की राजकीय-यात्रा और उसके बाद मिस्र की यात्रा का महत्व केवल इन दोनों देशों के साथ रिश्तों में सुधार ही नहीं है, बल्कि वैश्विक-मंच पर भारत के आगमन को रेखांकित करना भी है। वर्तमान अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन का भारत को लेकर दृष्टिकोण नया नहीं है। उन्होंने पहले सीनेट की विदेशी मामलों की समिति के अध्यक्ष के रूप में और बाद में जब वे बराक ओबामा के कार्यकाल में उपराष्ट्रपति थे, अमेरिका की भारत-समर्थक नीतियों को आगे बढ़ाया। उपराष्ट्रपति बनने के काफी पहले सन 2006 में उन्होंने कहा था, ‘मेरा सपना है कि सन 2020 में अमेरिका और भारत दुनिया में दो निकटतम मित्र देश बनें।’ उन्होंने ही कहा था कि भारत-अमेरिकी रिश्ते इक्कीसवीं सदी को दिशा प्रदान करेंगे। इस यात्रा के दौरान जो समझौते हुए हैं, वे केवल सामरिक-संबंधों को आगे बढ़ाने वाले ही नहीं हैं, बल्कि अंतरिक्ष-अनुसंधान, क्वांटम कंप्यूटिंग, सेमी-कंडक्टर और एडवांस्ड आर्टिफीशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में नए दरवाजे खोलने जा रहे हैं। कुशल भारतीय कामगारों के लिए वीज़ा नियमों में ढील दी जा रही है। अमेरिका असाधारण स्तर के तकनीकी-हस्तांतरण के लिए तैयार हुआ है, वहीं आर्टेमिस समझौते में शामिल होकर भारत अब बड़े स्तर पर अंतरिक्ष अनुसंधान में शामिल होने जा रहा है। भारत के समानव गगनयान के रवाना होने के पहले या बाद में भारतीय अंतरिक्ष-यात्री किसी अमेरिकी कार्यक्रम में शामिल होकर अंतरराष्ट्रीय स्पेस स्टेशन (आईएसएस) पर काम करें। अमेरिका के साथ 11 देशों के खनिज-सुरक्षा सहयोग में शामिल होने के व्यापक निहितार्थ हैं। इस क्षेत्र में चीन की इज़ारेदारी खत्म करने के लिए यह सहयोग बेहद महत्वपूर्ण है। रूस और चीन के साथ भारत के भविष्य के रिश्तों की दिशा भी स्पष्ट होने जा रही है। भारत में अल्पसंख्यकों और मानवाधिकार से जुड़े कुछ सवालों पर भी इस दौरान चर्चा हुई और प्रधानमंत्री मोदी ने पैदा की गई गलतफहमियों को भी दूर किया।

स्टेट-विज़िट

यह तीसरा मौका था, जब भारत के किसी नेता को अमेरिका की आधिकारिक-यात्रा यानी स्टेट-विज़िटपर बुलाया गया था। अमेरिका को चीन के बरक्स संतुलन बनाने के लिए भारत की जरूरत है। भारत को भी बदलती अमेरिकी तकनीक, पूँजी और राजनयिक-समर्थन चाहिए। अमेरिका अकेला नहीं है, उसके साथ कनाडा, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और यूरोप के कई देश हैं। जिस प्रकार के समझौते अमेरिका में हुए हैं, वे एक दिन में नहीं होते। उनकी लंबी पृष्ठभूमि होती है। प्रधानमंत्री की यात्रा के कुछ दिन पहले अमेरिकी रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन भारत आए थे। उनके साथ बातचीत के बाद काफी सौदों की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी। जनवरी में भारत के रक्षा सलाहकार अजित डोभाल और अमेरिकी रक्षा सलाहकार जेक सुलीवन ने इनीशिएटिव फॉर क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजी (आईसेट) को लॉन्च किया था। पश्चिमी देश इस बात को महसूस कर रहे हैं कि भारत की रूस पर निर्भरता इसलिए भी बढ़ी, क्योंकि उन्होंने भारत की उपेक्षा की। इस यात्रा के ठीक पहले भारत और जर्मनी के बीच छह पनडुब्बियों के निर्माण पर सहमति बनी। भारत के दौरे पर आए जर्मन रक्षामंत्री बोरिस पिस्टोरियस ने कहा कि भारत का रूसी हथियारों पर निर्भर रहना जर्मनी के हित में नहीं है।

रिश्तों की पृष्ठभूमि

भारत-अमेरिका रिश्तों के संदर्भ में बीसवीं और इक्कीसवीं सदी का संधिकाल तीन महत्वपूर्ण कारणों से याद रखा जाएगा। पहला, भारत का नाभिकीय परीक्षण, दूसरा करगिल प्रकरण और तीसरे भारत और अमेरिका के बीच लंबी वार्ताएं। सबसे मुश्किल काम था नाभिकीय परीक्षण के बाद भारत को वैश्विक राजनीति की मुख्यधारा में वापस लाना। नाभिकीय परीक्षण करके भारत ने निर्भीक विदेश-नीति की दिशा में सबसे बड़ा कदम अवश्य उठाया था, पर उस कदम के जोखिम भी बहुत बड़े थे। ऐसे नाजुक मौके में तूफान में फँसी नैया को किनारे लाने का एक विकल्प था कि अमेरिका से रिश्तों को सुधारा जाए। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राष्ट्रपति बिल क्लिंटन को एक पत्र लिखा, हमारी सीमा पर एटमी ताकत से लैस एक देश बैठा है, जो 1962 में हमला कर भी चुका है। हालांकि उसके साथ हमारे रिश्ते सुधरे हैं, पर अविश्वास का माहौल है। इस देश ने हमारे एक और पड़ोसी को एटमी ताकत बनने में मदद की है। अमेरिका भी व्यापक फलक पर सोच रहा था, तभी तो उसने उस पत्र को सोच-समझकर लीक किया।

Wednesday, June 21, 2023

भारत-अमेरिका सहयोग की लंबी छलाँग

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 20 से 25 जून तक अमेरिका और मिस्र की यात्रा पर जा रहे हैं. यह यात्रा अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण है, और उसके व्यापक राजनयिक निहितार्थ हैं. यह तीसरा मौका है, जब भारत के किसी नेता को अमेरिका की आधिकारिक-यात्रा यानी स्टेट-विज़िटपर बुलाया गया है.

इस यात्रा को अलग-अलग नज़रियों से देखा जा रहा है. सबसे ज्यादा विवेचन सामरिक-संबंधों को लेकर किया जा रहा है. अमेरिका कुछ ऐसी सैन्य-तकनीकें भारत को देने पर सहमत हुआ है, जो वह किसी को देता नहीं है. कोई देश अपनी उच्चस्तरीय रक्षा तकनीक किसी को देता नहीं है. अमेरिका ने भी ऐसी तकनीक किसी को दी नहीं है, पर बात केवल इतनी नहीं है. यात्रा के दौरान कारोबारी रिश्तों से जुड़ी घोषणाएं भी हो सकती हैं.

सहयोग की नई ऊँचाई

इक्कीसवीं सदी के पिछले 23 वर्षों में भारत-अमेरिका रिश्तों में क्रमबद्धता है. उसी श्रृंखला में यह यात्रा रिश्तों को एक नई ऊँचाई पर ले जाएगी. आमतौर पर माना जा रहा है कि अमेरिका को चीन के बरक्स संतुलन बनाने के लिए भारत की जरूरत है. दूसरी तरफ भारत को भी बदलती वैश्विक-परिस्थितियों में अमेरिकी तकनीक, पूँजी और राजनयिक-समर्थन की जरूरत है.

प्रधानमंत्री की यात्रा के कुछ दिन पहले अमेरिकी रक्षामंत्री लॉयड ऑस्टिन भारत आए थे. अनुमान है कि उनके साथ बातचीत के बाद काफी सौदों की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी है. इसी साल जनवरी में भारत के रक्षा सलाहकार अजित डोभाल और अमेरिकी रक्षा सलाहकार जेक सुलीवन ने इनीशिएटिव फॉर क्रिटिकल एंड इमर्जिंग टेक्नोलॉजी (आईसेट) को लॉन्च किया था. तकनीकी सहयोग के लिहाज से यह बेहद महत्वपूर्ण पहल है.

भारत की रक्षा खरीद परिषद ने गत 15 जून को जनरल एटॉमिक्स से 30 प्रिडेटर ड्रोन खरीद के सौदे को स्वीकृति दे दी. इन 30 में से 14 नौसेना को मिलेंगे. हिंद महासागर में भारत की बढ़ती भूमिका के मद्देनज़र यह खरीद काफी महत्वपूर्ण है. नौसेना ने 2020 में दो एमक्यू-9ए ड्रोन पट्टे पर लिए थे, जिन्होंने पिछले साल तक 10 हजार घंटों की उड़ानें भर ली थीं.

मोदी की यात्रा के दौरान संभावित सामरिक-सौदों के अनुमान भारत की रक्षा-खरीद परिषद के फैसलों से लगाए जा सकते हैं. कुछ सौदों का अनुमान लगाया नहीं जा सकता, क्योंकि उनके साथ गोपनीयता की शर्तें होती हैं. अलबत्ता लड़ाकू जेट विमानों के लिए जनरल इलेक्ट्रिक इंजनों के भारत में निर्माण का समझौता उल्लेखनीय होगा.

भारत को विमानवाहक पोतों पर तैनात करने के लिए लड़ाकू विमानों की जरूरत है, जो रूसी मिग-29के की जगह लेंगे. इसके लिए फ्रांसीसी राफेल और अमेरिका के एफ/ए-18 सुपर हॉर्नेट के परीक्षण हो चुके हैं. देखना होगा कि दोनों में से कौन से विमान का चयन होता है.

भारत के लड़ाकू विमान कार्यक्रम में एक बाधा स्वदेशी हाई थ्रस्ट जेट इंजन कावेरी के विकास में आए अवरोधों ने पैदा की है. जीई के इंजन को तेजस मार्क-2 में लगाया जाएगा और दो इंजन वाले पाँचवीं पीढ़ी के विमान एडवांस मीडियम कॉम्बैट एयरक्राफ्ट (एम्का) में भी जीई के इंजनों का इस्तेमाल होगा.

सबसे बड़ी जरूरत रक्षा उद्योग में आत्मनिर्भरता से जुड़ी है. इस दौरान भारत अपने कावेरी इंजन का उत्तरोत्तर विकास करेगा. इसके साथ ही फ्रांस के सैफ्रान और ब्रिटेन के रॉल्स रॉयस के साथ भी जेट इंजन विकास की बातें चल रही हैं.

पश्चिमी देश अब इस बात को महसूस कर रहे हैं कि भारत की रूस पर निर्भरता इसलिए भी बढ़ी, क्योंकि हमने उसकी उपेक्षा की. ताजा खबर है कि भारत और जर्मनी के बीच छह पनडुब्बियों के निर्माण का समझौता होने जा रहा है. हाल में भारत के दौरे पर आए जर्मन रक्षामंत्री बोरिस पिस्टोरियस ने  डॉयचे वेले (जर्मन रेडियो) को दिए इंटरव्यू में कहा कि भारत का रूसी हथियारों पर निर्भर रहना जर्मनी के हित में नहीं है.

Wednesday, October 12, 2022

जयशंकर ने कहा, पश्चिम ने हमें रूस की ओर धकेला


भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर ने हाल में अपनी अमेरिका-यात्रा के दौरान कुछ कड़ी बातें सही थीं। वे बातें अनायास नहीं थीं। पृष्ठभूमि में जरूर कुछ चल रहा था, जिसपर से परदा धीरे-धीरे हट रहा है। यूक्रेन पर रूसी हमले को लेकर भारतीय नीति से अमेरिका और यूरोप के देशों की अप्रसन्नता इसके पीछे एक बड़ा कारण है। अमेरिका ने पाकिस्तान को एफ-16 विमानों के लिए उपकरणों को सप्लाई करके इसे प्रकट कर दिया और अब जर्मन विदेशमंत्री के एक बयान से इस बात की पुष्टि भी हुई है।

अमेरिका और जर्मन सरकारों की प्रतिक्रियाओं को लेकर भारतीय विदेशमंत्री ने गत सोमवार और मंगलवार को फिर करारे जवाब दिए हैं। उन्होंने सोमवार 10 अक्तूबर को ऑस्ट्रेलिया में एक प्रेस-वार्ता को दौरान कहा कि हमारे पास रूसी सैनिक साजो-सामान होने की वजह है पश्चिमी देशों की नीति।

स्वतंत्र विदेश-नीति

अपनी विदेश-नीति की स्वतंत्रता को साबित करने के लिए भारत लगातार ऐसे वक्तव्य दे रहा है, जिनसे महाशक्तियों की नीतियों पर प्रहार भी होता है। उदाहरण के लिए भारत ने संयुक्त राष्ट्र महासभा में रूस यूक्रेन युद्ध से जुड़े एक ड्राफ्ट पर पब्लिक वोटिंग के पक्ष में मतदान किया है। यह ड्राफ्ट यूक्रेन के चार क्षेत्रों को मॉस्को द्वारा अपना हिस्सा बना लिए जाने की निंदा से जुड़ा है। इस प्रस्ताव पर भारत समेत 100 से ज्यादा देशों ने सार्वजनिक रूप से मतदान करने के पक्ष में वोट दिया है, जबकि रूस इस मसले पर सीक्रेट वोटिंग कराने की मांग कर रहा था।

जयशंकर ने यह भी साफ कहा कि आम नागरिकों की जान लेना भारत को किसी भी तरह स्वीकार नहीं है। उन्होंने रूस और यूक्रेन, दोनों से आपसी टकराव को कूटनीति व वार्ता के जरिए सुलझाने की राह पर लौटने की सलाह दी है।

भारत इससे पहले यूक्रेन युद्ध को लेकर संरा महासभा या सुरक्षा परिषद में पेश होने वाले प्रस्तावों पर वोटिंग के दौरान अनुपस्थित होता रहा है। इस बार भी निंदा प्रस्ताव के मसौदे पर मतदान को लेकर भारत ने अपना रुख स्पष्ट नहीं किया था। विदेश मंत्री जयशंकर ने कहा था कि यह विवेक और नीति का मामला है, हम अपना वोट किसे देंगे, यह पहले से नहीं बता सकते। हालांकि विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने सोमवार को ही कहा था कि रूस-यूक्रेन के बीच तनाव घटाने वाले सभी प्रयासों का समर्थन करने के लिए भारत हमेशा तैयार है।

पश्चिम की नीतियाँ

एस जयशंकर ने सोमवार को ऑस्ट्रेलिया में कहा कि पश्चिमी देशों ने दक्षिण एशिया में एक सैनिक तानाशाही को सहयोगी बनाया था। दशकों तक भारत को कोई भी पश्चिमी देश हथियार नहीं देता था। ऑस्ट्रेलिया के विदेश मंत्री पेनी वॉन्ग के साथ प्रेस-वार्ता में जयशंकर ने कहा कि रूस के साथ रिश्तों के कारण भारत के हित बेहतर ढंग से निभाए जा सके।

Monday, April 18, 2022

दक्षिण एशिया में उम्मीदों की सरगर्मी


इस हफ्ते तीन ऐसी घटनाएं हुई हैं, जिनसे भारत की विदेश-नीति और भू-राजनीति पर असर पड़ेगा। सोमवार को भारत और अमेरिका के बीच चौथी 'टू प्लस टू' मंत्रिस्तरीय बैठक हुई, की, जिसमें यूक्रेन सहित वैश्विक-घटनाचक्र पर बातचीत हुई। पर सबसे गम्भीर चर्चा रूस के बरक्स भारत-अमेरिका रिश्तों, पर हुई। इसके अलावा पाकिस्तान में हुए राजनीतिक बदलाव और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में चीनी गतिविधियों के निहितार्थ को समझना होगा। धीरे-धीरे एक बात साफ होती जा रही है कि यूक्रेन के विवाद का जल्द समाधान होने वाला नहीं है। अमेरिका के नेतृत्व में पश्चिमी देश अब रूस को निर्णायक रूप से दूसरे दर्जे की ताकत बनाने पर उतारू हैं। भारत क्या रूस को अपना विश्वस्त मित्र मानकर चलता रहेगा? व्यावहारिक सच यह है कि वह अब चीन का जूनियर सहयोगी है।

स्वतंत्र विदेश-नीति

यूक्रेन के युद्ध ने कुछ बुनियादी सवाल खड़े किए हैं, जिनमें ऊर्जा से जुड़ी सुरक्षा सबसे प्रमुख हैं। हम किधर खड़े हैं? रूस के साथ, या अमेरिका के? किसी के साथ नहीं, तब इस टकराव से आग से खुद को बचाएंगे कैसे? स्वतंत्र विदेश-नीति के लिए मजबूत अर्थव्यवस्था और सामरिक-शक्ति की जरूरत है। क्या हम पर्याप्त मजबूत हैं? गुरुवार 7 अप्रेल को संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहकर भारत ने अपनी तटस्थता का परिचय जरूर दिया, पर प्रकारांतर से यह वोट रूस-विरोधी है।

भारत समेत 58 देश संयुक्त राष्ट्र महासभा के आपात सत्र में हुए मतदान से अनुपस्थित रहे। इनमें दक्षिण एशिया के सभी देश थे। म्यांमार ने अमेरिकी-प्रस्ताव का समर्थन किया, जबकि उसे चीन के करीब माना जाता है। रूस का निलंबन बता रहा है कि वैश्विक मंच पर रूस-चीन गठजोड़ की जमीन कमज़ोर है।

हिन्द महासागर में चीन

हिन्द महासागर में चीनी उपस्थिति बढ़ती जा रही है। म्यांमार में सैनिक-शासकों से हमने नरमी बरती, पर फायदा चीन ने उठाया। इसकी एक वजह है कि सैनिक-शासकों के प्रति अमेरिकी रुख कड़ा है। बांग्लादेश के साथ हमारे रिश्ते सुधरे हैं, पर सैनिक साजो-सामान और इंफ्रास्ट्रक्चर में चीन उसका मुख्य-सहयोगी है। अफगानिस्तान में तालिबान का राज कायम होने के बाद वहाँ भी चीन ने पैर पसारे हैं। पाकिस्तान के वर्तमान राजनीतिक-गतिरोध के पीछे जितनी आंतरिक राजनीति की भूमिका है, उतनी ही अमेरिका के बरक्स रूस-चीन गठजोड़ के ताकतवर होने की है।

दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के साथ निरंतर टकराव के कारण भारत ने दक्षेस के स्थान पर बंगाल की खाड़ी से जुड़े पाँच देशों के संगठन बिम्स्टेक पर ध्यान देना शुरू किया है। हाल में विदेशमंत्री एस जयशंकर बिम्स्टेक के कार्यक्रम के सिलसिले में श्रीलंका के दौरे पर भी गए, और मदद की पेशकश की। श्रीलंका के आर्थिक-संकट के पीछे कुछ भूमिका नीतियों की है और कुछ परिस्थितियों की। महामारी के कारण श्रीलंका का पर्यटन उद्योग बैठ गया है। उसे रास्ते पर लाने के लिए केवल भारत की सहायता से काम नहीं चलेगा। इसके लिए उसे अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के पास जाना होगा।

भारत को हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में सामरिक-शक्ति को बढ़ाने की जरूरत है, वहीं अपने पड़ोस में चीनी-प्रभाव को रोकने की चुनौती है। पड़ोस में भारत-विरोधी भावनाएं एक अर्से से पनप रही हैं। पिछले कई महीनों से मालदीव में ‘इंडिया आउट’ अभियान चल रहा है, जिसपर हमारे देश के मीडिया का ध्यान नहीं है। बांग्लादेश में सरकार काफी हद तक भारत के साथ सम्बंध बनाकर रखती है, पर चीन के साथ उसके रिश्ते काफी आगे जा चुके हैं।

इतिहास का बोझ

अफगानिस्तान में सत्ता-परिवर्तन के बाद भारतीय-डिप्लोमेसी में फिर से कदम बढ़ाए हैं। वहाँ की स्थिति स्पष्ट होने में कुछ समय लगेगा। बहुत कुछ चीन-अफगानिस्तान-पाकिस्तान रिश्तों पर भी निर्भर करेगा। इतना स्पष्ट है कि अंततः अफगानिस्तान-पाकिस्तान रिश्तों में खलिश पैदा होगी, जिसका लाभ भारत को मिलेगा। ऐसा कब होगा, पता नहीं। भारत को नेपाल और भूटान के साथ अपने रिश्तों को बेहतर आधार देना होगा, क्योंकि इन दोनों देशों में चीन की घुसपैठ बढ़ रही है।

दक्षिण एशिया का इतिहास भी रह-रहकर बोलता है। शक्तिशाली-भारत की पड़ोसी देशों के बीच नकारात्मक छवि बनाई गई है। मालदीव और बांग्लादेश का एक तबका भारत को हिन्दू-देश के रूप में देखता है। पाकिस्तान की पूरी व्यवस्था ही ऐसा मानती है। इन देशों में प्रचार किया जाता है कि भारत में मुसलमान दूसरे दर्ज़े के नागरिक हैं। श्रीलंका में भारत को बौद्ध धर्म विरोधी हिन्दू-व्यवस्था माना जाता है। हिन्दू-बहुल नेपाल में भी भारत-विरोधी भावनाएं बहती हैं। वहाँ मधेशियों, श्रीलंका में तमिलों और बांग्लादेश में हिन्दुओं को भारत-हितैषी माना जाता है। दूसरी तरफ चीन ने इन देशों को बेल्ट रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) और इंफ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश का लालच दिया है। पाकिस्तान और चीन ने भारत-विरोधी भावनाओं को बढ़ाने में कसर नहीं छोड़ी है।

पाकिस्तान में बदलाव

पाकिस्तान में सत्ता-परिवर्तन हो गया है। नए प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ ने भारत के साथ रिश्ते बेहतर बनाने की बात कही है, साथ ही कश्मीर के मसले का उल्लेख भी किया है। नवाज शरीफ के दौर में भारत-पाकिस्तान बातचीत शुरू होने के आसार बने थे। जनवरी 2016 में दोनों देशों के विदेश-सचिवों की बातचीत के ठीक पहले पठानकोट कांड हो गया। उसके बाद से रिश्ते बिगड़ते ही गए हैं। यह भी पिछले कुछ समय से पाकिस्तानी सेना के दृष्टिकोण में बदलाव आया है। फिलहाल हमें इंतजार करना होगा कि वहाँ की राजनीति किस रास्ते पर जाती है। अच्छी बात यह है कि पिछले साल नियंत्रण-रेखा पर गोलाबारी रोकने का समझौता अभी तक कारगर है।

दक्षिण एशिया का हित इस बात में है कि यहाँ के देशों को बीच आपसी-व्यापार और आर्थिक-गतिविधियाँ बढ़ें। भारत और पाकिस्तान का टकराव ऐसा होने से रोकता है। संकीर्ण धार्मिक-भावनाएं वास्तविक समस्याओं पर हावी हैं। पाकिस्तान के राजनीतिक-परिवर्तन से बड़ी उम्मीदें भले ही न बाँधें, पर इतनी उम्मीद जरूर रखनी चाहिए कि समझदारी की कुछ हवा बहे, ताकि ज़िन्दगी कुछ आसान और बेहतर बने। 

नवजीवन में प्रकाशित

Tuesday, May 25, 2021

भारत-अमेरिका रिश्तों में मजबूती का दौर


विदेशमंत्री एस जयशंकर रविवार को अमेरिका के दौरे पर पहुंचे। इस दौरान वे संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंतोनियो गुटेरेश से आज सुबह (भारतीय समय से शाम) मुलाकात करेंगे और उसके बाद वॉशिंगटन डीजी जाएंगे जहां अमेरिकी विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन से उनकी भेंट होगी। इस साल जनवरी में राष्ट्रपति जो बाइडेन के कार्यभार संभालने के बाद भारत के किसी वरिष्ठ मंत्री का अमेरिका का यह पहला दौरा है। 1 जनवरी 2021 को भारत के संरा सुरक्षा का सदस्य बनने के बाद जयशंकर का पहला दौरा है। दौरे का समापन 28 मई को होगा।

भारत-चीन सम्बन्धों में आती गिरावट, पश्चिम एशिया में पैदा हुई गर्मी, अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी और भारत-पाकिस्तान रिश्तों को लेकर कई तरह के कयासों के मद्देनज़र यह दौरा काफी महत्वपूर्ण है। इन बातों के अलावा वैश्विक महामारी और खासतौर से वैक्सीन वितरण भी इस यात्रा के दौरान महत्वपूर्ण विषय होगा। शायद सबसे महत्वपूर्ण कारोबारी मसले होंगे, जिनपर आमतौर पर सबसे कम चर्चा होती है।

कुल मिलाकर भारत-अमेरिका के बीच द्विपक्षीय, क्षेत्रीय और वैश्विक रिश्तों का यह सबसे महत्वपूर्ण दौर है। चतुष्कोणीय सुरक्षा-व्यवस्था यानी क्वॉड ने एकसाथ तीनों आयामों पर रोशनी डाली है। दोनों देशों के बीच जो नई ऊर्जा पैदा हुई है, उसके व्यावहारिक अर्थ अब स्पष्ट होंगे। विदेशी मामलों के विशेषज्ञ सी राजा मोहन ने आज के इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है कि अभी तक उपरोक्त तीन विषयों को अलग-अलग देखा जाता था।

भारत की वैश्विक अभिलाषाओं के खुलने और राष्ट्रपति जो बाइडेन द्वारा ट्रंप प्रशासन के एकतरफा नजरिए को दरकिनार करने के कारण ये तीनों मसले करीब आ गए हैं। दूसरी तरफ वैश्विक मामलों में पश्चिम के विरोध की भारतीय नीति अब अतीत की बात हो गई है। अब हम यूरोपियन गठबंधन और अमेरिका के साथ हैं।

Friday, March 26, 2021

अमेरिका के करीब क्यों गया भारत?


काफी समय तक लगता था कि भारतीय विदेश-नीति की नैया रूस और अमेरिका के बीच संतुलन बैठाने के फेर में डगमग हो रही है। अब पहली बार लग रहा है कि हमारा झुकाव अमेरिका की तरफ है। विदेशी मामलों को लेकर भारत में ज्यादातर पाँच देशों के इर्द-गिर्द बातें होती हैं। एक, पाकिस्तान, दूसरा चीन, फिर अमेरिका, रूस और ब्रिटेन। पिछले कुछ वर्षों से फ्रांस इस सूची में छठे देश के रूप में जुड़ा है। हाल में क्वाड समूह की शक्ल साफ होते-होते इसमें जापान और ऑस्ट्रेलिया के नाम भी शामिल हो गए हैं।

लम्बे अरसे तक हम गुट-निरपेक्षता की राह चलते रहे, पर उस राह में भी हमारा झुकाव रूस की ओर था। सच यह है कि भारत की विदेश-नीति स्वतंत्र थी और भविष्य में भी स्वतंत्र ही रहेगी। अपने हितों के बरक्स हमें फैसले करने ही चाहिए। अमेरिका के साथ जो विशेष रिश्ते बने हैं, उनके पीछे वैश्विक घटनाक्रम है। पिछले साल 'बेसिक एक्सचेंज एंड कोऑपरेशन एग्रीमेंट फॉर जियो-स्पेशियल कोऑपरेशन’(बेका) समझौता होने के बाद ये रिश्ते ठोस बुनियाद पर खड़े हो गए हैं। अमेरिका अपने रक्षा सहयोगियों के साथ चार बुनियादी समझौते करता है। भारत के साथ ये चारों समझौते हो चुके हैं।