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Monday, May 30, 2022

पत्रकारिता और उसकी साख को बचाने की जरूरत


हिन्दी अख़बार के 196 साल पूरे हो गए। हर साल हम हिन्दी पत्रकारिता दिवस मनाकर रस्म अदा करते हैं। हमें पता है कि कानपुर से कोलकाता गए किन्हीं पं. जुगल किशोर शुक्ल ने ‘उदंत मार्तंड’ अख़बार शुरू किया था। यह अख़बार बंद क्यों हुआ, उसके बाद के अख़बार किस तरह निकले, इन अखबारों की और पत्रकारों की भूमिका जीवन और समाज में क्या थी, इस बातों पर अध्ययन नहीं हुए। आजादी के पहले और आजादी के बाद उनकी भूमिका में क्या बदलाव आया, इसपर भी रोशनी नहीं पड़ी। आज ऐसे शोधों की जरूरत है, क्योंकि पत्रकारिता का एक महत्वपूर्ण दौर खत्म होने के बाद एक और महत्वपूर्ण दौर शुरू हो रहा है।

अख़बारों से अवकाश लेने के कुछ साल पहले और उसके बाद हुए अनुभवों ने मेरी कुछ अवधारणाओं को बुनियादी तौर पर बदला है। सत्तर का दशक शुरू होते वक्त जब मैंने इसमें प्रवेश किया था, तब मन रूमानियत से भरा था। जेब में पैसा नहीं था, पर लगता था कि दुनिया की नब्ज पर मेरा हाथ है। रात के दो बजे साइकिल उठाकर घर जाते समय ऐसा लगता था कि जो जानकारी मुझे है वह हरेक के पास नहीं है। हम दुनिया को शिखर पर बैठकर देख रहे थे। हमसे जो भी मिलता उसे जब पता लगता कि मैं पत्रकार हूँ तो वह प्रशंसा-भाव से देखता था। उस दौर में पत्रकार होते ही काफी कम थे। बहुत कम शहरों से अखबार निकलते थे। टीवी था ही नहीं। सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने के पहले या इंटरवल में फिल्म्स डिवीजन के समाचार वृत्त दिखाए जाते थे, जिनमें महीनों पुरानी घटनाओं की कवरेज होती थी। विजुअल मीडिया का मतलब तब कुछ नहीं था।

शहरों से शुरुआत

पर हम शहरों तक सीमित थे। कस्बों में कुछ अंशकालिक संवाददाता होते थे, जो अक्सर शहर के प्रतिष्ठित वकील, अध्यापक, समाज-सेवी होते थे। आज उनकी जगह पूर्णकालिक लोग आ गए हैं। रॉबिन जेफ्री की किताब ‘इंडियाज़ न्यूज़पेपर रिवॉल्यूशन’ सन 2000 में प्रकाशित हुई थी। इक्कीसवीं सदी के प्रवेश द्वार पर आकर किसी ने संजीदगी के साथ भारतीय भाषाओं के अखबारों की ख़ैर-ख़बर ली। पिछले दो दशक में हिन्दी पत्रकारिता ने काफी तेजी से कदम बढ़ाए। मीडिया हाउसों की सम्पदा बढ़ी और पत्रकारों का रसूख।

इंडियन एक्सप्रेस की पावरलिस्ट में मीडिया से जुड़े नाम कुछ साल पहले आने लगे थे। शुरूआती नाम मालिकों के थे। फिर एंकरों के नाम जुड़े। अब हिन्दी एंकरों को भी जगह मिलने लगी है। पर मेरा व्यक्तिगत अनुभव है कि पत्रकारों को लेकर जिस ‘प्रशंसा-भाव’ का जिक्र मैंने पहले किया है, वह कम होने लगा है।

नया लोकतंत्र

रॉबिन जेफ्री ने किताब की शुरुआत करते हुए इस बात की ओर इशारा किया कि अखबारी क्रांति ने एक नए किस्म के लोकतंत्र को जन्म दिया है। उन्होंने 1993 में मद्रास एक्सप्रेस से आंध्र प्रदेश की अपनी एक यात्रा का जिक्र किया है। उनका एक सहयात्री एक पुलिस इंस्पेक्टर था। बातों-बातों में अखबारों की जिक्र हुआ तो पुलिस वाले ने कहा, अखबारों ने हमारा काम मुश्किल कर दिया है। पहले गाँव में पुलिस जाती थी तो गाँव वाले डरते थे। पर अब नहीं डरते। बीस साल पहले वह बात नहीं थी। तब सबसे नजदीकी तेलुगु अख़बार तकरीबन 300 किलोमीटर दूर विजयवाड़ा से आता था। सन 1973 में ईनाडु का जन्म भी नहीं हुआ था, पर 1993 में उस इंस्पेक्टर के हल्के में तिरुपति और अनंतपुर से अख़बार के संस्करण निकलते थे।

Friday, May 30, 2014

हिंदी पत्रकारिता की साख बचाने का सवाल

188 साल की हिंदी पत्रकारिता का खोया-पाया, बता रहे हैं प्रमोद जोशी

प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
हिंदी से जुड़े मसले, पत्रकारिता से जुड़े सवाल और हिंदी पत्रकारिता की चुनौतियां किसी एक मोड़ पर जाकर मिलती हैं। कई प्रकार के अंतर्विरोधों ने हमें घेरा है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह कारोबार जिस लिहाज से बढ़ा है उस कदर पत्रकारिता की गुणवत्ता नहीं सुधरी। मीडिया संस्थान कारोबारी हितों को लेकर बेहद संवेदनशील हैं, पर पाठकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभा नहीं पाते हैं। इस बिजनेस में परम्परागत मीडिया हाउसों के मुकाबले चिटफंड कंपनियां, बिल्डर, शिक्षा के तिज़ारती और योग-आश्रमों तथा मठों से जुड़े लोग शामिल होने को उतावले हैं, जिनका उद्देश्य जल्दी पैसा कमाने के अलावा राजनीति और प्रशासन के बीच रसूख कायम करना है। हिंदी का मीडिया स्थानीय स्तर पर छुटभैया राजनीति के साथ तालमेल करता हुआ विकसित हुआ है।
हाल के वर्षों में अखबारों पर राजनीतिक झुकाव, जातीय-साम्प्रदायिक संकीर्णता और मसाला-मस्ती बेचने का आरोप है। उन्होंने गम्भीर विमर्श को त्याग कर सनसनी फैलाना शुरू कर दिया है। उनके संवाद संकलन में खोज-पड़ताल, विश्लेषण और सामाजिक प्रश्नों की कमी होती जा रही है। निष्पक्ष और स्वतंत्र टिप्पणियों का अभाव है, बल्कि अक्सर वह महत्वपूर्ण प्रश्नों पर अपनी राय नहीं देता। जीवन, समाज, राजनीति और प्रशासन पर उसका प्रभाव यानी साख कम हो रही है। मेधावी नौजवानों को हम इस व्यवसाय से जोड़ने में विफल हैं।
हिंदी का पहला अखबार 1826 में निकला और एक साल बाद ही बन्द हो गया। कानपुर से कलकत्ता गए पंडित जुगल किशोर शुक्ल के मन में इस बात को लेकर तड़प थी कि बांग्ला और फारसी में अखबार है। हिंदी वालों के हित के हेत में कुछ होना चाहिए। इस बात को 188 साल हो गए। हम ‘उदंत मार्तंड’ के प्रकाशन का हर साल समारोह मनाते हुए यह भूल जाते हैं कि वह अखबार बंद इसलिए हुआ क्योंकि उसे चलाने लायक समर्थन नहीं मिला। पं जुगल किशोर शुक्ल ने बड़ी कड़वाहट के साथ अपने पाठकों और संरक्षकों को कोसते हुए उसे बंद करने की घोषणा की थी। आज इस कारोबार में पैसे की कमी नहीं है। पर पाठक से कनेक्ट कम हो रहा है।

Tuesday, August 6, 2013

हिन्दी अखबार कैसा हो और क्यों हो?

नवभारत टाइम्स के लखनऊ संस्करण में मेरी दिलचस्पी इस कारण भी है, क्योंकि यह देश के सबसे बड़े प्रकाशन समूह का हिन्दी अखबार है। एक समय तक दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया से भी ज्यादा प्रसारित होता था। नब्बे के दशक में इसकी कीमत घटाकर एक रुपया कर देने के बाद दिल्ली में अंग्रेजी अखबार पढ़ने वाले पाठक बड़ी संख्या में इसकी ओर आकृष्ट हुए। उसके बाद इसके मनोरंजन परिशिष्टों ने युवा पीढ़ी का ध्यान खींचा। मुझे याद है सन 1998 में मेरी एकबार अमर उजाला के तत्कालीन प्रमुख अतुल माहेश्वरी से काफी लम्बी मुलाकात हुई। वे समीर जैन की व्यावसायिक समझ की बेहद प्रशंसा कर रहे थे।

Sunday, July 21, 2013

हिन्दी के मीडिया महारथी


शनिवार की रात कनॉट प्लेस के होटल पार्क में समाचार फॉर मीडिया के मीडिया महारथी समारोह में जाने का मौका मिला। एक्सचेंज फॉर मीडिया मूलतः कारोबारी संस्था है और वह मीडिया के बिजनेस पक्ष से जुड़े मसलों पर सामग्री प्रकाशित करती है। हिन्दी के पत्रकारों के बारे में उन्हें सोचने की जरूरत इसलिए हुई होगी, क्योंकि हिन्दी अखबारों का अभी कारोबारी विस्तार हो रहा है। बात को रखने के लिए आदर्शों के रेशमी रूमाल की जरूरत भी होती है, इसलिए इस संस्था के प्रमुख ने वह सब कहा, जो ऐसे मौके पर कहा जाता है। हिन्दी पत्रकारिता को 'समृद्ध' करने में जिन समकालीन पत्रकारों की भूमिका है, इसे लेकर एक राय बनाना आसान नहीं है इसलिए उस पर चर्चा करना व्यर्थ है। पर भूमिका और समृद्ध करना जैसे शब्दों के माने क्या हैं, यही स्पष्ट करने में काफी समय लगेगा। अलबत्ता यह कार्यक्रम दो-तीन कारणों से मनोरंजक लगा। इसमें उस पाखंड का पूरा नजारा था, जिसने मीडिया जगत को लपेट रखा है।

Tuesday, March 1, 2011

बजट के अखबार

बज़ट का दिन मीडिया को खेलने का मौका देता है और अपनी समझदारी साबित करने का अवसर भी। आज के   अखबारों को देखें तो दोनों प्रवृत्तियाँ देखने को मिलेंगी। बेहतर संचार के लिए ज़रूरी है कि जटिल बातों को समझाने के लिए आसान रूपकों और रूपांकन की मदद ली जाए। कुछ साल पहले इकोनॉमिक टाइम्स ने डिजाइन और रूपकों का सहारा लेना शुरू किया था. उनकी देखा-देखी तमाम अखबार इस दौड़ में कूद पड़े। हालांकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पास तमाम साधन हैं, पर वहाँ भी खेल पर जोर ज्यादा है बात को समझाने पर कम। अंग्रेजी के चैनल सेलेब्रिटी टाइप के लोगों और राजनैतिक दलों के प्रतिनिधियों को मंच देते हुए ज्यादा नज़र आते हैं, दर्शक  को यह कम बताते हैं कि बजट का मतलब क्या है। टाइम्स ऑफ इंडिया की परम्परा बजट को बेहतर ढंग से कवर करने की है। 


एक ज़माने में हिन्दी अखबार का लोकप्रिय शीर्षक होता था 'अमीरों को पालकी, गरीबों को झुनझुना'। सामान्य व्यक्ति यही सुनना चाहता है। अंग्रेजी अखबार पढ़ने वालों की समझदारी का स्तर बेहतर है। साथ ही वे व्यवस्था से ज्यादा जुड़े हैं। उनके लिए लिखने वाले बेहतर होम वर्क के साथ काम करते हैं। दोनों मीडिया में विसंगतियाँ हैं। 

Wednesday, February 23, 2011

बीबीसी हिन्दी रेडियो को बचाने की अपील


बीबीसी की हिन्दी सेवा को बचाने के प्रयास कई तरफ से हो रहे हैं। एक ताज़ा प्रयास है लंदन के अखबार गार्डियन में छपा पत्र जिसपर भारत के कुछ प्रतिष्ठित नागरिकों के हस्ताक्षर हैं। बीबीसी की हिन्दी सेवा को देश के गाँवों तक में सुना जाता है। तमाम महत्वपूर्ण अवसरों पर यह सेवा हमारी जनता की खबरों का स्रोत बनी। इसकी हमें हमेशा ज़रूरत रहेगी।

Sunday, January 23, 2011

हमारे मीडिया का प्रभाव


1983 में राजेन्द्र माथुर ने टाइम्स ऑफ इंडिया में हिन्दी के दैनिक अखबारों की पत्रकारिता पर तीन लेखों की सीरीज़ में इस बात पर ज़ोर दिया था कि हिन्दी के पत्रकार को हिन्दी के शिखर राजनेता की संगत उस तरह नहीं मिली थी जिस तरह की वैचारिक संगत बंगाल के या दूसरी अन्य भारतीय भाषाओं के साहित्यकारों- पत्रकारों को मिली थी। आज़ादी से पहले या उसके बाद प्रेमचंद, गणेश शंकर विद्यार्थी या राहुल बारपुते को नेहरू जी की संगत नहीं मिली।