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Saturday, December 15, 2018

कांग्रेस के सामने खड़ी चुनौतियाँ

जीत के फौरन बाद तीन राज्यों में मुख्यमंत्रियों के चयन को लेकर पैदा हुआ असमंजस कुछ सवाल खड़े करता है. कांग्रेस एक नए बयानिया (नैरेटिव) के साथ वापसी करना चाहती है. राहुल गांधी अनुशासित और नवोन्मेषी राजनीति को बढ़ावा देना चाहते हैं. ऐसा कैसे होगा? क्या इसे उस राजनीति का नमूना मानें? तीनों राज्यों में मुख्यमंत्रियों के नाम को लेकर पार्टी कार्यकर्ता सड़कों पर उतर आए. समर्थन में नारेबाजी अनोखी बात नहीं है, पर यहाँ तो नौबत आगज़नी, वाहनों की तोड़फोड़ और सड़क जाम तक आ गई. प्रत्याशियों को अपने-अपने समर्थकों को समझाने के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेना पड़ा. कार्यकर्ताओं तक की बात भी नहीं है. लगता है कि नेतृत्व ने भी अपना होमवर्क ठीक से नहीं किया है.
इन पंक्तियों के प्रकाशित होने तक संभव है असमंजस दूर हो गए हों, पर अब जो सवाल सामने आएंगे, वे दूसरे असमंजसों को जन्म देंगे. सरकार का गठन असंतोषों का बड़ा कारण बनता है, यहाँ भी बनेगा. नेताओं के व्यक्तिगत रिश्ते, परिवार से नजदीकी, प्रशासनिक अनुभव, कार्यकर्ताओं से जुड़ाव, पार्टी के कोष में योगदान कर पाने और 2019 के लोकसभा चुनाव का अपने इलाके में बेहतर संचालन कर पाने की क्षमता वगैरह की अब परीक्षा होगी. 
कांग्रेस कार्यकर्ताओं को यह बात ध्यान में रखनी चाहिए कि राजस्थान और मध्य प्रदेश दोनों राज्यों में सकल वोट प्रतिशत के मामले में बीजेपी और कांग्रेस की लगभग बराबरी है. लोकसभा चुनाव में एक या दो फीसदी वोट की गिरावट से ही कहानी कुछ से कुछ हो सकती है. यदि वे सरकार के गठन के साथ ही अराजक व्यवहार का प्रदर्शन करेंगे, तो उनकी छवि खराब होगी. 

Wednesday, December 12, 2018

बीजेपी की उतरती कलई


इन चुनाव परिणामों का बीजेपी और कांग्रेस दोनों के लिए एक ही संदेश है. वक्त है अब भी बदल जाओ. पर फटकार बीजेपी के नाम है. उत्तर के तीनों राज्यों में उसकी कलई उतर गई है. दक्षिण और पूर्वोत्तर में भी कुछ मिला नहीं. उसने खोया ही खोया है. बेशक छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान तीनों में एंटी-इनकम्बैंसी थी, पर पार्टी ने बचने के लिए जिस हिन्दुत्व का सहारा लिया, वह कत्तई कारगर साबित नहीं हुआ. संघ का कुशल-कारगर संगठन और अमित शाह की शतरंजी-योजनाएं फेल हो गईं.

सबसे बड़ी और शर्मनाक हार छत्तीसगढ़ में हुई, जो बीजेपी का आदर्श राज्य हुआ करता था. उसकी तरह 5 साल की एंटी इनकम्बैंसी मध्य प्रदेश में भी थी, पर शिवराज सिंह चौहान को श्रेय जाता है कि उन्होंने शर्मनाक हार को बचाकर उसे काँटे की टक्कर बनाया. दोनों पार्टियों का वोट प्रतिशत तकरीबन बराबर है. रमन सिंह और वसुंधरा राजे ऐसा करने में विफल रहे. छत्तीसगढ़ और राजस्थान दोनों राज्यों में बीजेपी के वोट प्रतिशत में आठ-आठ फीसदी की गिरावट आई है.

Tuesday, August 14, 2018

विरोधी-एकता के दुर्ग में दरार

राज्यसभा के उपसभापति चुनाव में पड़े वोटों के आधार पर राजनीति शास्त्र के शोधछात्र राहुल वर्मा का 2019 के चुनाव में बनने वाले सम्भावित गठबंधनों का अनुमान
राज्यसभा के उप-सभापति पद के चुनाव ने एकबारगी विरोधी दलों के अंतर्विरोधों को उजागर किया है। एनडीए प्रत्याशी हरिवंश की जीत इतनी आसानी से हो जाएगी, इसका अनुमान पहले से नहीं था। पिछले चार साल से विरोधी दल बीजेपी को केवल राज्यसभा में ही परेशान करने में सफल थे। पिछले कुछ समय से बीजेपी की स्थिति राज्यसभा में बेहतर हुई है, पर इतनी बेहतर वह फिर भी नहीं थी कि उसका प्रत्याशी आसानी से चुनाव जीत जाता। पिछले महीने लोकसभा में अविश्वास प्रस्ताव पर एनडीए की जीत के बाद यह दूसरी जीत उसका आत्मविश्वास बढ़ाएगी।

कांग्रेस समेत विरोधी दलों की रणनीति अलग-अलग राज्यों में संयुक्त प्रत्याशी खड़े करने की है, ताकि बीजेपी-विरोधी वोट बँटने न पाएं। यह रणनीति उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक और एक हद तक महाराष्ट्र में अब भी कारगर है, पर उसके जिरह-बख्तरों की दरारें भी नजर आने लगी हैं। साफ है सत्तारूढ़ दल ने इस चुनाव को कुछ समय के लिए टालकर बीजू जनता दल और टीआरएस के साथ विचार-विमर्श पूरा कर लिया। यह विमर्श केवल राज्यसभा के उप-सभापति चुनाव तक सीमित नहीं है। अब यह 2019 के चुनाव तक जाएगा। कांग्रेस ने इस चुनाव को या तो महत्व नहीं दिया या उसे भरोसा था कि यह चुनाव इस सत्र में नहीं होगा। कांग्रेस के दो सांसदों का वोट न देना भी उसके असमंजस को बढ़ाने वाला है।

Sunday, May 20, 2018

कर्नाटक में हासिल क्या हुआ?

येदियुरप्पा की पराजय के बाद सवाल है कि क्या कर्नाटक-चुनाव की तार्किक परिणति यही थी? एचडी कुमारस्वामी की सरकार बन जाने के बाद क्या मान लिया जाए कि कर्नाटक की जनता उन्हें राज्य की सत्ता सौंपना चाहती थी?  इस सवाल का जवाब मिलने में कुछ समय लगेगा, क्योंकि राजनीति में तात्कालिक परिणाम ही अंतिम नहीं होते।


बीजेपी की दृष्टि से देखें तो कांग्रेस और जेडीएस का गठबंधन अपवित्र है। येदियुरप्पा ने कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों से अंतरात्मा की आवाज पर समर्थन माँगा था, जिसमें विफल रहने के बाद उन्होंने इस्तीफा दे दिया। उधर कांग्रेस-जेडीएस के नज़रिए से देखें, तो दो धर्मनिरपेक्ष दलों ने साम्प्रदायिक भाजपा को रोकने के लिए गठबंधन किया। यह राजनीति अब से लेकर 2019 के चुनाव तक चलेगी। बीजेपी के विरोधी दल एक साथ आएंगे।


उपरोक्त दोनों दृष्टिकोणों के अंतर्विरोध हैं। बीजेपी का पास स्पष्ट बहुमत नहीं था। निर्दलीयों और अन्य दलों के सदस्यों की संख्या इतनी नहीं थी कि बहुमत बन पाता। ऐसे में सरकार बनाने का दावा करने की कोई जरूरत नहीं थी। अंतरात्मा की जिस आवाज पर वे कांग्रेस और जेडीएस के विधायकों को तोड़ने की उम्मीद कर रहे थे, वह संविधान-विरोधी है। संविधान की दसवीं अनुसूची का वह उल्लंघन होता। दल-बदल कानून अब ऐसी तोड़-फोड़ की इजाजत नहीं देता। कांग्रेस और जेडीएस ने समझौता कर लिया था, तो राज्यपाल को उन्हें ही बुलाना चाहिए था। बेशक अपने विवेकाधीन अधिकार के अंतर्गत वे सबसे बड़े दल को भी बुला सकते हैं, पर येदियुरप्पा सरकार के बहुमत पाने की कोई सम्भावना थी ही नहीं। ऐसे में सुप्रीम कोर्ट का हस्तक्षेप सही हुआ।


कर्नाटक के बहाने राज्यपाल, स्पीकर और सुप्रीम कोर्ट की भूमिकाओं को लेकर, जो विचार-विमर्श शुरू हुआ है, वह इस पूरे घटनाक्रम की उपलब्धि है। कांग्रेस की याचिका पर अदालत में अब सुनवाई होगी और सम्भव है कि ऐसी परिस्थिति में राज्यपालों के पास उपलब्ध विकल्पों पर रोशनी पड़ेगी कि संविधान की मंशा क्या है। हमने ब्रिटिश संसदीय पद्धति को अपनाया जरूर है, पर उसकी भावना को भूल चुके हैं। राज्यपालों और पीठासीन अधिकारियों की राजनीतिक भूमिका को लेकर सवाल उठते रहे हैं। कर्नाटक के राज्यपाल पहले नहीं हैं, जिनपर राजनीतिक तरफदारी का आरोप लगा है। सन 1952 से लेकर अबतक अनेक मौके आए हैं, जब यह भूमिका खुलकर सामने आई है।


विधायिका के पीठासीन अधिकारियों के मामले में आदर्श स्थिति यह होती है कि वे अपना दल छोड़ें। आदर्श संसदीय व्यवस्था में जब स्पीकर चुनाव लड़े तो किसी राजनीतिक दल को उसके खिलाफ प्रत्याशी खड़ा नहीं करना चाहिए। हमारी संसद में चर्चा के दौरान जो अराजकता होती है, वह भी आदर्शों से मेल नहीं खाती। कर्नाटक प्रकरण हमें इन सवालों पर विचार करने का मौका दे रहा है। कर्नाटक का यह चुनाव सारे देश की निगाहों में था। इसके पहले शायद ही दक्षिण के किसी राज्य की राजनीति पर पूरे देश की इतनी गहरी निगाहें रहीं हों। इस चुनाव की यह उपलब्धि है। मेरा यह आलेख दैनिक हरिभूमि में प्रकाशित हुआ है। इसका यह इंट्रो मैंने 20 मई की सुबह लिखा है। इस प्रसंग को ज्यादा बड़े फलक पर देखने का मौका अब आएगा। 
हमें कोशिश करनी चाहिए कि यथा सम्भव तटस्थ रहकर देखें कि इस चुनाव में हमने क्या खोया और क्या पाया। राजनीतिक शब्दावली में हमारे यहाँ काफी प्रचलित शब्द है जनादेश। तो कर्नाटक में जनादेश क्या था? कौन जीता और कौन हारा? चूंकि किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, तो किसी की जीत नहीं है। पर क्या हार भी किसी की नहीं हुई? चुनाव में विजेता की चर्चा होती है, हारने वाले की चर्चा भी तो होनी चाहिए। गठबंधन की सरकार बनी, पर यह चुनाव बाद का गठबंधन है। 

Wednesday, May 16, 2018

हाथी निकला, पूँछ रह गई

टी-20 क्रिकेट की तरह आखिरी ओवर में कहानी बदल गई. कर्नाटक के चुनाव परिणाम जब क्लाइमैक्स पर पहुँच रहे थे तभी उलट-फेर हो गया. बीजेपी सबसे बड़ी पार्टी बनने में तो सफल हो गई, पर बहुमत से पाँच छह सीटें दूर रहने की वजह से पिछड़ गई. उसके पास कोई विकल्प नहीं बचा. पहले से अनुमान था जेडीएस किंगमेकरबनेगी. अब कोई पेच पैदा नहीं हुआ तो एचडी कुमारस्वामी के नेतृत्व में कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनेगी. कुमारस्वामी ने अपना दावा भी पेश कर दिया है. उधर येदियुरप्पा का भी दावा है. राज्यपाल के पास सबसे बड़े दल को बुलाने का विकल्प है, पर कुमारस्वामी बहुमत दिखा रहे हैं, तो सम्भव है कि उन्हें ही बुलाया जाए.  

फिलहाल बैकफुट पर है भाजपा

कर्नाटक चुनाव ने एक साथ कई विसंगतियों को जन्म दिया है। कांग्रेस पार्टी चुनाव हारने के बाद सत्ता पर काबिज रहना चाहती है। तीसरे नम्बर पर रहने के बाद भी एचडी कुमारस्वामी अपने सिर पर ताज चाहते हैं। जैसे कभी मधु कोड़ा थे, उसी तरह वे भी कांग्रेस के रहमोकरम पर मुख्यमंत्री पद की शोभा बढ़ाएंगे। कांग्रेस बाहर से राज करेगी या भीतर से, यह सब अभी तय नहीं है।  

मंगलवार की दोपहर लगने लगा कि बीजेपी न केवल सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है, बल्कि बहुमत के करीब पहुँच रही है. तभी सस्पेंस थ्रिलर की तरह कहानी में पेच आने लगा। उधर कांग्रेस हाईकमान ने बड़ी तेजी से कुमारस्वामी को बिना शर्त समर्थन देने का फैसला किया। सोनिया गांधी ने एचडी देवेगौडा से बात की और शाम होने से पहले राज्यपाल के नाम चिट्ठी भेज दी गई। इस तेज घटनाक्रम के कारण बीजेपी बैकफुट पर आ गई। 

Sunday, May 13, 2018

राहुल गांधी का पहला इम्तहान

कर्नाटक की रैलियों में नरेन्द्र मोदी ने कहा कि इस चुनाव के बाद कांग्रेस पीपीपी (पंजाब, पुदुच्चेरी और परिवार) पार्टी बनकर रह जाएगी। उधर राहुल गांधी ने कहा, हम मुद्दों पर चुनाव लड़ रहे हैं और राज्य में अपनी जीत को लेकर आश्वस्त हैं। दो दिन बाद पता चलेगा कि किसकी बात सच है। बीजेपी के मुकाबले यह चुनाव कांग्रेस के लिए न केवल प्रतिष्ठा का बल्कि जीवन-मरण का सवाल है। कांग्रेस को अपनी 2013 की जीत को बरकरार रख पाई, तभी साल के अंत में चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में सिर उठाकर खड़ी हो सकेगी।

2014 के लोकसभा चुनाव के बाद से कांग्रेस के सिर पर पराजय का साया है। बेशक उसने इस बीच पंजाब में जीत हासिल की है, पर एक दर्जन से ज्यादा राज्यों से हाथ धोया है। सन 2015 में बिहार के महागठबंधन को चुनाव में मिली सफलता पिछले साल हाथ से जाती रही। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन के बावजूद पार्टी सात सीटों पर सिमट गई। पिछले साल गुजरात के चुनाव में पार्टी तैयारी से उतरी थी, पर सफलता नहीं मिली। 

Friday, May 11, 2018

कर्नाटक में त्रिशंकु विधानसभा का सीन


दो महीने पहले जब कर्नाटक विधानसभा चुनाव का बिगुल बजना शुरू हुआ था, तब लगता था कि मुकाबला कांग्रेस और बीजेपी के बीच है। पर अब लगता है कि जेडीएस को कमजोर आँकना ठीक नहीं होगा। चुनावी सर्वेक्षण अब धीरे-धीरे त्रिशंकु विधानसभा बनने की सम्भावना जताने लगे हैं। ज्यादातर विश्लेषक भी यही मानते हैं। इसका मतलब है कि वहाँ का सीन चुनाव परिणाम के बाद रोचक होगा।

त्रिशंकु विधानसभा हुई तब बाजी किसके हाथ लगेगी? विश्लेषकों की राय में कांग्रेस पार्टी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरेगी, पर जरूरी नहीं कि वह सरकार बनाने की स्थिति में हो। वह सबसे बड़ी पार्टी बनने में कामयाब होगी, तो इसकी वजह राहुल गांधी या सोनिया गांधी की रैलियाँ नहीं हैं, बल्कि मुख्यमंत्री सिद्धारमैया की चतुर राजनीति है। माना जा रहा है कि देश में मोदी को टक्कर देने की हिम्मत सिद्धारमैया ने ही दिखाई है। प्रचार के दौरान सिद्धारमैया अपना मुकाबला येदियुरप्पा से नहीं, मोदी से बता रहे हैं।  

इतना होने के बाद भी विश्वास नहीं होता कि बीजेपी के अध्यक्ष अमित शाह का चुनाव-मैनेजमेंट आसानी से व्यर्थ होगा। सच है कि इस चुनाव ने बीजेपी को बैकफुट पर पहुँचा दिया है। कांग्रेस अपने संगठनात्मक दोषों को दूर करके राहुल गांधी के नेतृत्व में खड़ी हो रही है। गुजरात में बीजेपी जीती, पर कांग्रेसी डेंट लगने के बाद। केन्द्र के खिलाफ एंटी इनकम्बैंसी भी बढ़ रही है। कर्नाटक के बाद अब बीजेपी को राजस्थान, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश की चिंता करनी होगी। 

Wednesday, May 9, 2018

संशय में कर्नाटक का मुस्लिम वोट


कर्नाटक विधानसभा के चुनाव में लिंगायत और वोक्कालिगा वोट के अलावा जिस बड़े वोट आधार पर विश्लेषकों की निगाहें हैं, वह है मुसलमान। मुसलमान किसके साथ जाएगा? अलीगढ़ में जब मुहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर को लेकर घमासान मचा है, उसी वक्त कर्नाटक में कांग्रेस यह साबित करने की कोशिश में है कि वह मुसलमानों की सच्चे हितैषी है। पर कांग्रेस इस वोट को लेकर पूरी तरह आश्वस्त नहीं है। उसे डर है कि मुसलमानों का वोट कहीं बँट न जाए। इस वोट को लेकर उसका मुकाबला एचडी देवेगौडा की जेडीएस से है। कर्नाटक की सभाओं में राहुल गांधी मुसलमानों से कह रहे हैं कि जेडीएस बीजेपी की बी टीम है, उससे बचकर रहना।
कर्नाटक में दलित और मुस्लिम वोट कुल मिलाकर 30 फीसदी के आसपास है। इसमें 13-14 फीसदी वोट मुसलमानों का है। जेडीएस ने मायावती की बहुजन समाज पार्टी और असदुद्दीन ओवेसी की ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहाद-उल-मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) के साथ गठबंधन किया है। सवाल है कि क्या जेडीएस इस वोट बैंक का लाभ उठा पाएगी?

Saturday, May 5, 2018

वोट मुसलमान का, सियासत किसी और की...

कर्नाटक विधानसभा चुनावों के प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी ने पहले तो एचडी देवगौड़ा की तारीफ की और फिर अगले ही रोज कहा कि जेडीएस को वोट देने का मतलब है वोट की बरबादी। क्या उनके इन उल्टे-सीधे बयानों के पीछे कोई गहरी राजनीति है? वे वोटर को बहका रहे हैं या अपने प्रतिस्पर्धियों को? क्या बीजेपी और जेडीएस का कोई छिपा समझौता है? क्या बीजेपी ने कांग्रेस को हराने के लिए जेडीएस को ढाल बनाया है? भारतीय राजनीति में सोशल इंजीनियरी का स्वांग तबतक चलेगा, जबतक वोटर को अपने हितों की समझ नहीं होगी। मुसलमान वोटर पर भी यही बात लागू होती है।
कर्नाटक की सोशल इंजीनियरी उत्तर भारत के राज्यों से भी ज्यादा जटिल है। ऐसे में देवेगौडा की तारीफ या आलोचना मात्र से कुछ फीसदी वोट इधर से उधर हो जाए, तो हैरत नहीं होनी चाहिए। इस इंजीनियरी में सिद्धरमैया और अमित शाह में से किसका दिमाग सफल होगा, इसका पता चुनाव परिणाम आने पर लगेगा। इतना समझ में आ रहा है कि बीजेपी की कोशिश है कि दलितों और मुसलमानों के एकमुश्त वोट कांग्रेस को मिलने न पाएं। इसमें जेडीएस मददगार होगी।
सोशल इंजीनियरी का स्वांग
क्या जेडीएस खुद को चारे की तरह इस्तेमाल होने देगी? उसका बीएसपी और असदुद्दीन ओवेसी की एआईएमआईएम के साथ समझौता है और उसका अपना भी वोट-आधार है। उसके गणित को भी समझना होगा। सन 2015 में जबसे ओवेसी बिहार में चुनाव लड़ने गए हैं, उनकी साख घटी है। माना जाता है कि वे कांग्रेस को मिलने वाला मुसलमान वोट काटने के लिए जाते हैं।
राज्य में दलित और मुसलमान दो सबसे बड़े सामाजिक वर्ग हैं। ये दोनों एक साथ आ जाएं, तो बड़ी ताकत बन सकते हैं, पर क्या ऐसा सम्भव है? प्रश्न है कि दलित और मुसलमान क्या टैक्टिकल वोटिंग करेंगे? दलित ध्रुवीकरण अभी राज्य में नहीं है, पर मुसलमान वोट सामान्यतः बीजेपी को हराने वाली पार्टी को जाता है। सिद्धरमैया भी चाहते हैं कि बीजेपी और जेडीएस का याराना नजर आए। इससे मुसलमानों की जेडीएस से दूरी बढ़ेगी। हाल में कांग्रेस ने जेडीएस के कुछ मुस्लिम नेताओं को अपनी तरफ तोड़ा भी है।

Sunday, April 29, 2018

कर्नाटक-चुनाव के राष्ट्रीय निहितार्थ


कर्नाटक विधानसभा चुनाव के लिए नाम वापसी के बाद अब मुकाबले साफ हो गए हैं। वहाँ दो नहीं तीन राजनीतिक शक्तियाँ मुकाबले में हैं। कांग्रेस, बीजेपी और जेडीएस। जेडीएस के साथ बहुजन समाज पार्टी भी चुनाव मैदान में है, जिसके 18 प्रत्याशी मैदान में है। जेडीएस और बसपा-गठबंधन के निहितार्थ चुनाव परिणाम आने के बाद बेहतर समझ में आएंगे, क्योंकि मुकाबला केवल उन 18 सीटों पर ही महत्वपूर्ण नहीं होगा, जहाँ बसपा चुनाव लड़ रही है। कर्नाटक में दलित-वोटरों की संख्या सबसे ज्यादा है, तकरीबन उतनी ही, जितनी उत्तर प्रदेश में है। कई मानों में कर्नाटक की सामाजिक-संरचना उत्तर प्रदेश जैसी है। बीएसपी वहाँ प्रवेश करना चाहती है।

राज्य में ही नहीं राष्ट्रीय राजनीति में अबकी बार बीजेपी के हिन्दुत्व की परीक्षा है। दक्षिण भारत के इस हिस्से में अतीत में काफी धर्मांतरण हुआ है। खाड़ी देशों में रोजगार के कारण यहाँ का मुस्लिम-समुदाय समृद्ध है। राज्य में तीन राजनीतिक शक्तियों के कारण चुनाव-परिणामों को लेकर संदेह है कि वह किसी एक पक्ष में जाएंगे भी या नहीं। राष्ट्रीय राजनीति के लिहाज से ये चुनाव कांग्रेस और बीजेपी दोनों के लिए जीवन और मरण का सवाल बने हुए हैं। यह चुनाव इस साल राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनाव परिणामों को प्रभावित ही नहीं करेगा, बल्कि सन 2019 के लोकसभा चुनाव के लिए भी महत्वपूर्ण साबित होगा। बीजेपी जीती तो तीनों हिन्दी राज्यों में बीजेपी के चुनाव-प्रचार में जान पड़ेगी। नहीं जीती तो सम्भव है कि लोकसभा चुनाव समय से पहले हो जाएं।

Monday, February 26, 2018

पूर्वोत्तर में जागीं बीजेपी की हसरतें

सन 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी के सामने जिन महत्वपूर्ण परीक्षाओं को पास करने की चुनौती है, उनमें से एक के परिणाम इस हफ्ते देखने को मिलेंगे। यह परीक्षा है पूर्वोत्तर में प्रवेश की। सन 2016 में असम के विधानसभा चुनाव में मिली सफलता ने बीजेपी के लिए पूर्वोत्तर का दरवाजा खोला था, जिसे अब वह तार्किक परिणति तक पहुँचाना चाहेगी। पिछले लोकसभा चुनाव में बड़ी सफलता पाने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी का विस्तार पूरे देश में नहीं है। दक्षिण भारत में उसकी आंशिक पहुँच है और पूर्वोत्तर में असम को छोड़ शेष राज्यों में उसकी मौजूदगी लगभग शून्य थी। असम, मणिपुर और अरुणाचल में सफलता हासिल करने के बाद पार्टी के हौसले बुलंद हैं। इस साल पूर्वोत्तर के चार राज्य चुनाव की कतार में हैं। त्रिपुरा, मेघालय और नगालैंड में इस महीने चुनाव हो रहे हैं। मिजोरम में साल के अंत में होगें।
त्रिपुरा में 18 फरवरी को वोट पड़ चुके हैं। अब 27 को शेष दो राज्यों में वोट पड़ेंगे। ईसाई बहुल इन दोनों राज्यों में भाजपा की असल परीक्षा है। तीनों के परिणाम 3 मार्च को घोषित होंगे। पहली बार पूर्वोत्तर की राजनीति पर देश की गहरी निगाहें हैं। वजह है वाममोर्चा और कांग्रेस के सामने खड़ा खतरा और बीजेपी का प्रवेश। इन तीनों या चारों राज्यों के विधानसभा चुनाव आगामी लोकसभा चुनाव की बुनियाद तैयार करेंगे। तीनों राज्यों में बीजेपी का हिन्दुत्व-एजेंडा ढका-छिपा है। नगालैंड में उसने जिस पार्टी के साथ गठबंधन किया है, वह ईसाई पहचान पर लड़ रही है।

Tuesday, January 2, 2018

2018 के विधानसभा चुनाव

चुनाव की राजनीति के लिहाज से 2019 का साल तो महत्वपूर्ण है, पर उसके पहले 2018 भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। साल की शुरुआत नगालैंड, त्रिपुरा, मेघालय और कर्नाटक के चुनावों से होगी। इसके बाद मिजोरम और भाजपा शासित तीन महत्वपूर्ण राज्यों छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में विधानसभा चुनाव होंगे। इन आठ में से पूर्वोत्तर के चार राज्यों को छोड़ दें, तो शेष चारों राज्यों की भूमिका 2019 के लोकसभा चुनाव में भी काफी बड़ी होगी। इनमें से तीन राज्यों में बीजेपी की सरकार है और एक में कांग्रेस की। एक तरफ अमित शाह इन सबमें अपनी जीत का दावा कर रहे हैं, वहीं राहुल गांधी के नेतृत्व में सक्रिय हुई कांग्रेस भी अपनी स्थिति को बेहतर बनाने की कोशिश करेगी।

आठ विधानसभाओं के इन चुनावों के अलावा इस साल राज्यसभा के चुनाव भी राष्ट्रीय राजनीति को बड़ा मोड़ देंगे। एक नजर डालें इन चुनावों पर।

कर्नाटक
कर्नाटक विधानसभा का कार्यकाल 28 मई 2018 तक है। आशा है कि इस राज्य में अप्रेल में चुनाव होंगे। 225-सदस्यों वाली विधानसभा के चुनाव का कार्यक्रम फरवरी-मार्च में घोषित हो सकता है। इस वक्त राज्य में कांग्रेस के पास 123 सीटें हैं और बीजेपी के पास 44। पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवेगौडा की पार्टी जनता दल (सेक्युलर) के पास 32 सीटें हैं। पिछले चुनाव में इस पार्टी को 40 सीटें मिली थीं, पर इसके आठ विधायकों की सदस्यता निलंबित कर दी गई।

मध्य प्रदेश

मध्य प्रदेश विधानसभा का कार्यकाल 7 जनवरी 2019 तक है। इसका मतलब है कि यहाँ दिसम्बर 2018 तक चुनाव पूरे हो जाएंगे। राज्य में विधानसभा की 230 सीटें हैं। पिछले चुनाव में यहाँ से बीजेपी के 165 सदस्य चुनकर आए और कांग्रेस के 57। शिवराज चौहान लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री पद पर चुनकर आए थे। इस राज्य में कांग्रेस और बीजेपी की सीधी टक्कर है।

राजस्थान

राजस्थान विधानसभा का कार्यकाल 20 जनवरी 2019 तक है। यानी यहाँ भी दिसम्बर के अंत तक चुनाव हो जाएंगे। राज्य विधानसभा में 200 सीटें हैं। सन 2013 के चुनाव में यहाँ से बीजेपी को 163 सीटें मिलीं थीं। कांग्रेस को केवल 23 सीटें मिलीं। उसके पहले राज्य में कांग्रेस की सरकार थी। कांग्रेस कोशिश करेगी कि वह फिर से जीतकर सत्ता में आए।

छत्तीसगढ़

छत्तीगढ़ विधानसभा का कार्यकाल 5 जनवरी 2019 तक है। यहाँ भी दिसम्बर 2018 में चुनाव होंगे। यहाँ के मुख्यमंत्री लगातार चौथी बार मुख्यमंत्री बनने की कोशिश करेंगे। यहाँ से विधानसभा के 90 सदस्य चुने जाते हैं। सन 2013 के चुनाव में यहाँ बीजेपी को 50 सीटें मिलीं और कांग्रेस को 39। इस राज्य में भी काँटे का मुकाबला है और कांग्रेस सत्ता पर आने की कोशिश करेगी।

नगालैंड

नगालौंड विधानसभा का कार्यकाल 13 मार्च 2018 तक है। यहाँ फरवरी में चुनाव होने की सम्भावना है। इसका मतलब है कि अब किसी भी वक्त यहाँ के चुनाव कार्यक्रम की घोषणा हो सकती है। राज्य में नगालैंड पीपुल्स फ्रंट (NPF) की सरकार है। यहाँ की विधानसभा में कुल 60 सीटें हैं। सन 2013 के चुनाव में NPF को 37 सीटें मिली थीं। कांग्रेस को 8 और बीजेपी को 2 सीटें मिली थीं। अब बीजेपी इस राज्य में अपनी स्थिति सुधारना चाहती है।

मेघालय

मेघालय विधानसभा का कार्यकाल 6 मार्च 2013 तक है। यहाँ भी फरवरी 2018 में चुनाव होने की सम्भावना है। यहाँ की विधानसभा में भी 60 सीटें हैं। यहाँ मुकुल संगमा के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार है। सन 2013 के चुनाव में कांग्रेस को यहाँ से 29 सीटें मिली थीं, 13 निर्दलीय सदस्य भी जीते थे। बीजेपी इस राज्य पर कब्जा करना चाहती है।

त्रिपुरा

त्रिपुरा सीपीएम का गढ़ रहा है। सन 2013 में यहाँ लगातार पाँचवीं बार वाममोर्चा को जीत मिली थी। यहाँ विधानसभा में 60 सीटें हैं। सन 2013 में यहाँ सीपीएम को 49 सीटें मिली थीं। यहाँ के मुख्यमंत्री माणिक सरकार की छवि अच्छी है। इस राज्य में कांग्रेस पार्टी अपनी स्थिति बेहतर करने की कोशिश करेगी।

मिजोरम

मिजोरम विधानसभा का कार्यकाल 15 दिसम्बर 2018 तक है। इसका मतलब है कि यहाँ चुनाव इस साल नवम्बर के अंत तक हो सकते हैं। यहाँ विधानसभा की कुल 40 सीटें हैं। सन 2013 के चुनाव में यहाँ से कांग्रेस को 34 सीटें मिलीं थीं। दूसरे नम्बर की पार्टी मिजो नेशनल फ्रंट थी, जिसे 5 और मिजो फीपुल्स कांफ्रेंस को एक सीट मिली। राज्य में बीजेपी ने अपनी गतिविधियाँ बढ़ाईं हैं। यहाँ मारालैंड डेमोक्रेटिक फ्रंट का भाजपा में विलय हो जाने के बाद पार्टी संगठन बन गया है। बीजेपी की योजना पूर्वोत्तर के राज्यों में अपनी पहुँच बढ़ाने की है। इस लिहाज से यह चुनाव महत्वपूर्ण होगा।