मैं करीब पचास साल से हिन्दी अखबारों से जुड़ा हूँ। 1970 के आसपास मैने कार्टून बनाने शुरू किए, जो लखनऊ के स्वतंत्र भारत में छपे। मेरा पहला लेख भी स्वतंत्र भारत के सम्पादकीय पेज पर तभी छपा। उसका विषय था 18 वर्षीय मताधिकार। उन दिनों मताधिकार की उम्र 18 साल करने की बहस चल रही थी। इस लेख के लिए मैने कई दिन ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी में बैठकर सामग्री जुटाई कि किस-किस देश में 18 साल के लोगों को वोट देने का अधिकार है। पढ़ते-पढ़ते मुझे जानकारी मिली कि स्विट्ज़रलैंड में तो महिलाओं को वोट देने का अधिकार नहीं है। यह अधिकार उसी साल 1971 में मिला। विश्वविद्यालय की पढ़ाई के मुकाबले इस किस्म की पढ़ाई मुझे रोचक लगी। उन दिनों मेरा पूरा दिन ब्रिटिश काउंसिल लाइब्रेरी या अमेरिकन लाइब्रेरी, अमीरुद्दौला लाइब्रेरी, नरेन्द्रदेव लाइब्रेरी और अमीनाबाद की गंगा प्रसाद वर्मा लाइब्रेरी में बीत जाता था। राजनाति शास्त्र विभाग में एमए की एक या दो क्लास सुबह निपटाने के बाद दिनभर खाली मिलता था। मेरे सारे काम अकेले होते थे।
एमए के पहले साल में हमारी कक्षाएं सम्भवतः सितम्बर 1971 के पहले हफ्ते में शुरू हुईं थीं। क्लास शुरू होने के पहले लखनऊ में जबर्दस्त बाढ़ आई। हजरतगंज की सड़क पर घुटनों से ज्यादा ऊँचा पानी भर गया। जीपीओ तक नावें चल रहीं थी। बहरहाल युनिवर्सिटी जाकर मुझे अच्छा लगा। सबसे ज्यादा अच्छा लगा टैगोर लाइब्रेरी को देखकर।
युनिवर्सिटी में हालांकि मेरे कुछ दोस्त थे, पर मैं शायद किसी का सबसे अच्छा दोस्त नहीं था। राजनीति शास्त्र विभाग में मैं जब आया तो कान्यकुब्ज कॉलेज के मेरे साथी राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने भी प्रवेश लिया। क्लास में टीचर के ठीक बराबर वाली सीट हम दोनों ने हासिल की। पहले, दूसरे या तीसरे दिन मेरी मुलाकात चंद्र नाथ सिंह से हुई। चंद्र नाथ बलरामपुर हॉस्टल में रहते थे। उनके साथ मैं उनके कमरे पर भी गया। मुझे जल्द ही समझ में आने लगा कि इनकी दिलचस्पी राजनीति शास्त्र से ज्यादा राजनीति करने में है। चंद्र नाथ ने बड़ी जल्दी विभागाध्यक्ष प्राण नाथ मसलदान तक बना ली थी, जो उस दौर में देश के सबसे प्रतिष्ठित राजनीति शास्त्रियों में गिने जाते थे। कई साल बाद चंद्र नाथ प्रतापगढ़ के मछली शहर से समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी के रूप में लोकसभा चुनाव भी जीते। उसके पहले उन्होंने बाराबंकी के एक डिग्री कॉलेज में कुछ समय के लिए पढ़ाया भी था। दूसरी तरफ उन्होंने मजदूर संगठनों में सक्रिय हिस्सेदारी शुरू कर दी थी। बहरहाल युनिवर्सिटी में वे मेरे शुरुआती दोस्त होने के बावजूद ज्यादा समय तक मेरे करीबी दोस्त नहीं बने रहे। बल्कि हालात ऐसे बने कि मैं उनके प्रतिस्पर्धी ग्रुप के करीब आ गया। यों भी एमए के पहले साल में राजेन्द्र प्रसाद सिंह मेरे सबसे करीबी दोस्त थे, जो कान्यकुब्ज कॉलेज में भी मेरे सबसे करीबी दोस्त थे। पर उनकी दिलचस्पी पढ़ाई जारी रखने में नहीं थी। उनका चयन रेलवे के सहायक स्टेशन मास्टर पद के लिए हो गया। इस बीच पहले साल की परीक्षाएं हुईं।
अशोक जी उन्ही दिनों दिल्ली से भारतीय सूचना सेवा से निवृत्त होकर लखनऊ आए थे। यह 1971 या 1972 की बात है। मैने स्वतंत्र भारत के सम्पादक को पत्र लिखा कि मैं आपके लिए कार्टून और भारतीय संदर्भ की चित्रकथा बनाना चाहता हूँ। इस पर अखबार के समाचार सम्पादक चन्द्रोदय दीक्षित का पत्र आया कि किसी रोज दफ्तर आकर मिलो। मैं स्वतंत्र भारत के दफ्तर गया जहाँ चन्द्रोदय जी ने अशोक जी से मुलाकात कराई। वहाँ पता लगा कि पत्र अशोकजी ने ही चंद्रोदय जी से लिखवाया था। इसके बाद मैं नियमित रूप से स्वतंत्र भारत आने लगा। अखबार की रविवारीय पत्रिका में 'सचित्र विचित्र' नाम से एक फीचर नियमित रूप से छपने लगा। यह रिप्लीज़ बिलीव इट ऑर नॉट (Repley's Believe it or not) की नकल थी, पर उसके विषय ज्यादातर भारतीय थे और उनके साथ रेखांकन मेरे थे।
उन दिनों स्वतंत्र भारत के सम्पादकीय विभाग का दफ्तर पायनियर लिमिटेड की बिल्डिंग के एकदम दाएं कोने पर तीसरी मंजिल में था।। दूसरी मंजिल पर प्रबंधन से जुड़े दफ्तर थे। पायनियर का सम्पादकीय विभाग बल्डिंग के दूसरे किनारे पर था। पायनियर प्रेस की इस बिल्डिंग को दुनिया के मशहूर आर्किटेक्ट Walter Burley Griffin ने डिजाइन किया था। उनके बारे में मैं आगे लिखूँगा। सिर्फ यहाँ संदर्भवश इस बात का उल्लेख करना चाहूँगा कि नवम्बर 2014 में अपनी ऑस्ट्रेलिया यात्रा के दौरान नरेन्द्र मोदी ने कैनबरा के डिजाइनर वॉल्टर ग्रिफिन का उल्लेख किया, जिनकी कब्र लखनऊ में है। नरेंद्र मोदी ने ऑस्ट्रेलिया से एक ट्वीट किया जो लखनऊ से जुड़ा था। उन्होंने लिखा, Walter Burley Griffin, the well known American architect designed Canberra. His final resting place is at Lucknow Christian Cemetery.ग्रिफिन ने लखनऊ विवि की लाइब्रेरी और छात्रसंघ की इमारत को भी डिजाइन किया। पायनियर लिमिटेड की इमारत भी उनकी देन थी। बाद में विदेश विभाग के प्रवक्ता सैयद अकबरुद्दीन ने ट्वीट किया, Here lies buried the man whose fascinating story from US to Australia to India was shared by our leaders.
बहरहाल अशोकजी को एकबार दिल का दौरा पड़ा, तो उनके बैठने की व्यवस्था ग्राउंडफ्लोर पर एक कमरे में की गई, ताकि उन्हें सीढ़ियाँ चढ़नी न पड़ें। पायनियर लिमिटेड में अंग्रेजी अखबार के सम्पादक सुरेन्द्र नाथ घोष का बड़ा रसूख था। पर मैंने देखा कि अखबार के मालिक अशोकजी का भी काफी सम्मान करते थे। सन 1972-73 में कुल जमा तीन कारें दफ्तर में आती थीं। एक घोष साहब की, दूसरी अशोकजी की और तीसरी प्रबंधक जगदीश मेहता की, जो पायनियर लिमिटेड में नए आए थे।
उन दिनों मैं हफ्ते-दो हफ्ते में एकबार स्वतंत्र भारत के दफ्तर में जाने लगा। आमतौर पर दीक्षित जी के पास जाकर बैठता। वहीं पर कई बार अशोकजी से मुलाकात हो जाती थी। यह उस दौर की बात है, जब स्वतंत्र भारत का सम्पादकीय कार्यालय बिल्डिंग के बाएं कोने में सबसे ऊपर की मंजिल पर था। बाद में दफ्तर दाएं कोने पर चला गया, जहाँ दैनिक पायनियर का सम्पादकीय विभाग भी बैठता था। सन 1973 में मैंने एमए परीक्षा पास कर ली तो एक दिन दफ्तर में अशोकजी ने पूछा, तुम्हारा क्या करने का इरादा है? उस वक्त तक मैं नहीं जानता था कि मेरा क्या इरादा है।
उन्हीं दिनों स्वतंत्र भारत में एक विज्ञापन छपा था जिसमें कानपुर में कार्यालय संवाददाता के पद के लिए आवेदन माँगे गए थे। अशोकजी ने कहा, हमारा विज्ञापन भी छपा है एप्लाई कर दो। मैंने कहा, मेरे पास तो कोई अनुभव नहीं है। विज्ञापन में तो अनुभव माँगा गया है। वे कुछ देर सोचते रहे, फिर बोले, फिलहाल हमारे यहाँ काम शुरू कर दो। वह 18 सितम्बर 1973 का दिन था। मैंने कहा, ठीक है मैं कल से आ जाऊँगा। तब दीक्षित जी बोले कल से क्यों आज से ही आ जाओ, आज मंगलवार है। अच्छा दिन है। तीन बजे आ जाना मिड शिफ्ट में। उसके बाद के तमाम दिनों की घटनाएं मुझे ऐसी याद हैं जैसे कल की बात हो।
20 अगस्त 1979 को अशोक जी के निधन के बाद मुझे पहली बार असुरक्षा-बोध हुआ। तबतक लगता था कि अशोकजी हमारे संरक्षक हैं। स्वतंत्र भारत में रहकर मैंने बहुत कुछ सीखा। अशोक जी ने मुझे 1979 में पटना जाने का सुझाव दिया, जहाँ से प्रदीप निकलता था। पायनियर लिमिटेड से योगेश अग्रवाल दैनिक भारत के प्रबंधक बनकर इलाहाबाद चले गए थे। प्रदीप भी बिड़ला परिवार का अखबार था। मेरी भेंट योगेश अग्रवाल ने, जिन्हें हम वाईसी कहते थे, उस अखबार को देखने वाले ओपी अदूकिया जी से कराई। उसके बाद मैं पटना में प्रदीप के सम्पादक हरिओम पांडे से मिला। वे भी कुमाऊँनी थे और उनके बड़े भाई मेरे पिता के साथ रक्षा लेखा विभाग में काम करते थे। अपने परिवार की दशा और अकेले रहने की कल्पना ने मुझे पटना जाने से रोक लिया और मैंने अशोकजी से कहा कि मैं अभी लखनऊ में ही रहना चाहूँगा। लखनऊ मेरा प्रिय शहर है और मेरा बस चलता तो मैं कभी लखनऊ नहीं छोड़ता, पर हालात ऐसे पैदा हुए कि मुझे यह शहर छोड़ना पड़ा। पर वह दो दशक बाद की बात है।
सत्तर के दशक के अखबार और उस दौर पर मैं आगे कहीं लिखूँगा। स्वतंत्र भारत से लेकर हिन्दुस्तान तक अलग-अलग कालखंड में मेरे सहयोगी रहे नवीन जोशी ने नैनीताल समाचार में एक लम्बा आलेख लिखा है, उससे उस दौर पर रोशनी पड़ती है। सन 1982 में लखनऊ में टाइम्स ऑफ इंडिया आने की चर्चा शुरू हुई। डॉ केपी अग्रवाल पायनियर लिमिटेड छोड़कर बैनेट कोलमन एंड कम्पनी में चले गए। अंततः 1983 में टाइम्स लखनऊ आ ही गया। हम लोगों ने एक लिखित परीक्षा के मार्फत राजेन्द्र माथुर के साथ काम करने का मौका हासिल किया। मेरे पास वह परीक्षा-पत्र आज भी मौजूद है।
नवभारत टाइम्स में मुझे माथुर जी के साथ कुछ ऐसे विषयों पर बात करने का मौका मिला, जो भविष्य में मेरे काम आए। मसलन हिन्दी अखबारों को नए पत्रकारों को लेने के लिए किस प्रकार की प्रक्रिया अपनानी चाहिए। वास्तव में मुझे इस दिशा में काम करने का ज्यादा मौका नहीं मिला, पर हिन्दुस्तान के अपने अंतिम वर्षों में मैंने एक ट्रेनी स्कीम पर काम किया था, जो शुरू तो हुई, पर सम्भवतः हमारे बाद चली नहीं। मैंने पत्रकारों के सालाना एप्रेजल के लिए भी एक योजना बनाई थी। उस विषय पर भी कभी लिखूँगा।
राजेन्द्र माथुर के साथ काम करने का लोभ मुझे नवभारत टाइम्स ले गया। लखनऊ में हुई लिखित परीक्षा और इंटरव्यू वगैरह के बाद 23 अगस्त 1983 को हम फाइनल इंटरव्यू के लिए दिल्ली गए। मैंने पहली बार दिल्ली को देखा। 1 अक्टूबर को नवभारत टाइम्स के लखनऊ दफ्तर में जॉइन किया। कुल 20 लोगों की टीम चुनी गई थी, जिसमें मंगलेश डबराल और एक अन्य पत्रकार (शायद राम अरोड़ा) नहीं आए। 17 अक्टूबर को दशहरे के रोज़ औपचारिक रूप से नवभारत टाइम्स का लखनऊ संस्करण लांच किया। वह औपचारिक लांच मात्र था। अखबार बाज़ार में नहीं गया। वास्तव में अखबार नवम्बर में निकला। उस दौरान माथुर जी के साथ रात के एक-दो बजे तक भार्गव की चाय की दुकान पर बैठकर बात करने का मौका मिला।
9 अप्रेल 1991 को जब राजेन्द्र माथुर का निधन हुआ, लखनऊ के नवभारत टाइम्स में हड़ताल चल रही थी। यह हड़ताल 18 मार्च से शुरू हुई थी और अगस्त तक चली थी। देश के किसी अखबार में इतनी लम्बी हड़ताल शायद कभी नहीं हुई होगी। मई में लोकसभा चुनाव होने वाले थे। अयोध्या का मामला खतरनाक मोड़ पर था। माथुर जी का निधन मेरे लिए गहरा धक्का था। नवभारत टाइम्स का लखनऊ संस्करण अंततः 18 जून 1993 को बंद हो गया। मुझे अक्टूबर में जयपुर के संस्करण में भेज दिया गया। मेरा मन जयपुर में नहीं लगा। श्री घनश्याम पंकज से बात करके मैने स्वतंत्र भारत के कानपुर संस्करण प्रभारी के रूप में काम हासिल किया। वहाँ से 1 जून 1995 को जिस दिन मैं लखनऊ संस्करण में तबादला होकर आया, उसी दिन मायावती और मुलायम सिंह का वह ऐतिहासिक संघर्ष शुरू हुआ जिसकी परिणति गेस्ट हाउस कांड के रूप में हुई।
स्वतंत्र भारत की प्रकाशक पायनियर लिमिटेड कम्पनी कानपुर की प्रसिद्ध स्वदेशी कॉटन मिल्स के मालिक जयपुरिया घराने से जुड़ी थी। मेरे देखते-देखते स्वदेशी कॉटन मिल्स शानदार कम्पनी से बीमार में बदल गई। 1991 में इसे बल्लारपुर पेपर मिल्स के ललित मोहन थापड़ ने खरीदा। वे पायनियर को दिल्ली ले गए। हिन्दी के अखबार के साथ वही हुआ जो अक्सर अंग्रेजी अखबार के सहयोगी हिन्दी अखबार को होता है। 1995 में मैं जब स्वतंत्र भारत लखनऊ में आया तभी उसके बिकने की बातें होने लगीं और अंततः फरवरी 1996 में वह बिक गया। जिन्होंने खरीदा वे पूँजी से कच्चे थे और अखबार का अनुभव भी उन्हें नहीं था। 1997 के अंतिम महीनों से कर्मचारियों के वेतन की अनियमितता शुरू हुई जो सुधरी नहीं। 1998 के 17 अगस्त को बड़ी विचित्र स्थितियों में मैंने स्वतंत्र भारत छोड़ा। इसके कुछ महीने पहले मेरी बात सहारा टीवी के नए सम्पादकीय हैड इन्द्रजीत बधवार से हो गई थी। बाद में उनके साथ उदयन शर्मा भी आ गए। मई 1998 में दिल्ली में दोनों से मुलाकात करने के बाद मैंने तय कर लिया कि अब दिल्ली जाएंगे।
16 अगस्त 1998 के स्वतंत्र भारत के नगर संस्करण में कुछ ऐसा हुआ कि 17 अगस्त को मैंने और नवीन जोशी ने एक साथ इस्तीफा दे दिया। इसके पहले के दो दशक में अखबार के उद्योग को लेकर मेरे मन में जो धारणाएं बन रहीं थीं, उनके अंतर्विरोध बड़ी तेजी से स्पष्ट हो रहे थे। सिद्धांत और व्यवहार में जबर्दस्त खाई नज़र आने लगी। एक सितम्बर, 1998 को मैं सहारा टीवी में शामिल हो गए। नया माहौल और कुछ नए दोस्त मिले। मेरा आत्मविश्वास बढ़ा। पर चैनल शुरू नहीं हो पाया। एक साल गुज़र गया। तभी अगस्त 1999 में श्री आलोक मेहता का हिन्दुस्तान से अप्रत्याशित बुलावा आया। उन्होंने शोभना जी से मुलाकात कराई और 26 अगस्त को मैंने नाइट एडिटर पद पर काम शुरू कर दिया। हिन्दुस्तान में काम करना बेहद तनाव भरा था। अभी काम शुरू किया ही था कि छह महीने के भीतर आलोक जी के हटने की प्रक्रिया शुरू हो गई। फरवरी 2000 में श्री अजय उपाध्याय सम्पादक बनकर आए और आलोक जी जल्द चले गए।
हिन्दुस्तान के मेरे अगले दो साल परेशानी और नए ज्ञान के थे। परेशानियाँ हिन्दुस्तान के सम्पादकीय विभाग के साथ ऐतिहासिक कालक्रम में जुड़ चुकीं थीं। मैं जिस समय उसमें शामिल हुआ, तब अखबार की गति धीमी होने के अलावा अजब थी। वैसा मुझे उसके पहले कहीं देखने को नहीं मिला। अलबत्ता मैनेजमेंट में बदलाव के साथ वहां मुझे सिक्स सिग्मा से परिचित होने का मौका मिला। विनीत शर्मा क्वालिटी विभाग के हैड बनकर आए। पूरे संस्थान से 12 लोग सिक्स सिग्मा सीखने के काम में लगाए गए। सिक्स सिग्मा काम की गुणवत्ता सुधारने की शैली का नाम है। इसे जीई और मोटोरोला जैसी कम्पनियों ने अपनाया। जैक वैल्च इसके प्रमुख प्रणेताओं में से एक हैं। मेरे विचार से इस तरीके से काम करने वाली संस्था अपने लक्ष्यों को पाने में फेल हो ही नहीं सकती। बहरहाल वह सीखना भी सीखना ही था। सारी व्यवस्थाएं बिखर गईं। उसे शुरू किया था राजन कोहली ने जो ज्यादा चले नहीं।
अजय उपाध्याय दो साल हिन्दुस्तान में रहे। उनके सामने जो चुनौती थी, उसका सामना करने के लिए जिस ताकत और सपोर्ट की उन्हें ज़रूरत थी, वह शायद उपलब्ध नहीं था। मैं शायद इसलिए लिख रहा हूँ, क्योंकि तमाम बातों को मैं जानता नहीं। कभी अवसर मिला तो उसे लिखना ज़रूर चाहूँगा, क्योंकि मुझे बहुत सी बातें सीखने को मौका तभी मिला।
मैं मार्च 2002 के आखिरी हफ्ते में अपनी एलटीए की छुट्टी लेकर लखनऊ गया था। शायद 30 या 31 मार्च को नवीन जोशी ने मुझे बताया कि अजय जी हट रहे हैं। श्रीमती मृणाल पांडे सम्पादक बनकर आ रहीं हैं। वे 1 अप्रेल को जॉइन करेंगी। मैं 2 अप्रेल को छुट्टी से वापस आया तो मृणाल जी जॉइन कर चुकीं थीं। मृणाल जी से मेरा पुराना परिचय नहीं था और वे हिन्दुस्तान में पहले काम कर चुकी थीं। उनके पुराने परिचितों में तमाम सहयोगी थे। हिन्दुस्तान में मैं उनके आने के पहले से एक बात पर ध्यान देता था कि यह संस्था काफी बड़ी है, उसमें काम करने वालों और प्रबंध करने वालों की दिलचस्पी हिन्दी प्रकाशनों और हिन्दी पत्रकारों पर बेहद कम है। उस समय तक हिन्दुस्तान प्रसार और गुणवत्ता में काफी पिछड़ चुका था। सम्पादकीय विभाग पर ट्रेड यूनियन का जबर्दस्त दबाव था। हिन्दी सम्पादकीय विभाग में यूनियन की मीटिंग होती थी। सम्पादकीय विभाग में प्रमोशन के दो-तीन तरीके थे। एक, किसी बड़े राजनेता के मार्फत ऊपर पैरवी कराओ, दूसरे, सम्पादक पर साम,दाम, दंड लागू करके दबाव बनाओ। और तीसरा आमफहम तरीका था कि यूनियन से सिफारिश कराओ। निजी तौर पर में श्रमिक संगठनों को जरूरी संस्था मानता हूँ, क्योंकि कम से कम भारत में उद्योगपति अपने कर्मचारियों को अच्छी नजर से नहीं देखते हैं। अलबत्ता हिंदुस्तान टाइम्स में मुझे जो जानकारियाँ मिलीं, उनसे लगा कि वहाँ श्रमिक संगठन ने किसी एक दौर में कुछ व्यक्तियों के हितों में देखना शुरू कर दिया। शायद प्रबंधन की दिलचस्पी अंग्रेजी के अखबार में काम का माहौल बेहतर बनाए रखने की थी और हिंदी के संपादकीय विभाग को वे बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानते थे। ऐसे में उन्होंने यह नहीं देखा कि कौन व्यक्ति उपयोगी है और कौन नहीं है। बहुत सी बातों की अनदेखी की, जिससे कामगारों के बीच कुछ ज्यादा प्रभावशाली लोग उभर कर आ गए। ठीक वैसे ही जैसे राजनीतिक दलों के भीतर कुछ ज्यादा ताकतवर नेता उभरते हैं। सारी ढील हिन्दी सम्पादकीय विभाग में थी। शायद प्रबंधन ने भी अंग्रेजी अखबार को अच्छे तरीके से चलाए रखने के लिए हिन्दी सम्पादकीय विभाग की गुणवत्ता से समझौता कर लिया था। हिंदी सम्पादकीय विभाग में प्रवेश का तरीका था पहले किसी भी विभाग में जगह बना लो, फिर सम्पादकीय में प्रवेश लो। गुणवत्ता को लेकर कोई आग्रह नहीं था। इस मोर्चे पर पराजय लगभग स्वीकार कर ली गई थी। सन 2004-05 के बाद जब हिन्दुस्तान फिर से मुकाबले में उतरा तो उसे अपने भीतर कई प्रकार के बदलाव करने पड़े। यह एक लम्बी और कठोर प्रक्रिया था।
एमए के पहले साल में हमारी कक्षाएं सम्भवतः सितम्बर 1971 के पहले हफ्ते में शुरू हुईं थीं। क्लास शुरू होने के पहले लखनऊ में जबर्दस्त बाढ़ आई। हजरतगंज की सड़क पर घुटनों से ज्यादा ऊँचा पानी भर गया। जीपीओ तक नावें चल रहीं थी। बहरहाल युनिवर्सिटी जाकर मुझे अच्छा लगा। सबसे ज्यादा अच्छा लगा टैगोर लाइब्रेरी को देखकर।
युनिवर्सिटी में हालांकि मेरे कुछ दोस्त थे, पर मैं शायद किसी का सबसे अच्छा दोस्त नहीं था। राजनीति शास्त्र विभाग में मैं जब आया तो कान्यकुब्ज कॉलेज के मेरे साथी राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने भी प्रवेश लिया। क्लास में टीचर के ठीक बराबर वाली सीट हम दोनों ने हासिल की। पहले, दूसरे या तीसरे दिन मेरी मुलाकात चंद्र नाथ सिंह से हुई। चंद्र नाथ बलरामपुर हॉस्टल में रहते थे। उनके साथ मैं उनके कमरे पर भी गया। मुझे जल्द ही समझ में आने लगा कि इनकी दिलचस्पी राजनीति शास्त्र से ज्यादा राजनीति करने में है। चंद्र नाथ ने बड़ी जल्दी विभागाध्यक्ष प्राण नाथ मसलदान तक बना ली थी, जो उस दौर में देश के सबसे प्रतिष्ठित राजनीति शास्त्रियों में गिने जाते थे। कई साल बाद चंद्र नाथ प्रतापगढ़ के मछली शहर से समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी के रूप में लोकसभा चुनाव भी जीते। उसके पहले उन्होंने बाराबंकी के एक डिग्री कॉलेज में कुछ समय के लिए पढ़ाया भी था। दूसरी तरफ उन्होंने मजदूर संगठनों में सक्रिय हिस्सेदारी शुरू कर दी थी। बहरहाल युनिवर्सिटी में वे मेरे शुरुआती दोस्त होने के बावजूद ज्यादा समय तक मेरे करीबी दोस्त नहीं बने रहे। बल्कि हालात ऐसे बने कि मैं उनके प्रतिस्पर्धी ग्रुप के करीब आ गया। यों भी एमए के पहले साल में राजेन्द्र प्रसाद सिंह मेरे सबसे करीबी दोस्त थे, जो कान्यकुब्ज कॉलेज में भी मेरे सबसे करीबी दोस्त थे। पर उनकी दिलचस्पी पढ़ाई जारी रखने में नहीं थी। उनका चयन रेलवे के सहायक स्टेशन मास्टर पद के लिए हो गया। इस बीच पहले साल की परीक्षाएं हुईं।
अशोक जी उन्ही दिनों दिल्ली से भारतीय सूचना सेवा से निवृत्त होकर लखनऊ आए थे। यह 1971 या 1972 की बात है। मैने स्वतंत्र भारत के सम्पादक को पत्र लिखा कि मैं आपके लिए कार्टून और भारतीय संदर्भ की चित्रकथा बनाना चाहता हूँ। इस पर अखबार के समाचार सम्पादक चन्द्रोदय दीक्षित का पत्र आया कि किसी रोज दफ्तर आकर मिलो। मैं स्वतंत्र भारत के दफ्तर गया जहाँ चन्द्रोदय जी ने अशोक जी से मुलाकात कराई। वहाँ पता लगा कि पत्र अशोकजी ने ही चंद्रोदय जी से लिखवाया था। इसके बाद मैं नियमित रूप से स्वतंत्र भारत आने लगा। अखबार की रविवारीय पत्रिका में 'सचित्र विचित्र' नाम से एक फीचर नियमित रूप से छपने लगा। यह रिप्लीज़ बिलीव इट ऑर नॉट (Repley's Believe it or not) की नकल थी, पर उसके विषय ज्यादातर भारतीय थे और उनके साथ रेखांकन मेरे थे।
उन दिनों स्वतंत्र भारत के सम्पादकीय विभाग का दफ्तर पायनियर लिमिटेड की बिल्डिंग के एकदम दाएं कोने पर तीसरी मंजिल में था।। दूसरी मंजिल पर प्रबंधन से जुड़े दफ्तर थे। पायनियर का सम्पादकीय विभाग बल्डिंग के दूसरे किनारे पर था। पायनियर प्रेस की इस बिल्डिंग को दुनिया के मशहूर आर्किटेक्ट Walter Burley Griffin ने डिजाइन किया था। उनके बारे में मैं आगे लिखूँगा। सिर्फ यहाँ संदर्भवश इस बात का उल्लेख करना चाहूँगा कि नवम्बर 2014 में अपनी ऑस्ट्रेलिया यात्रा के दौरान नरेन्द्र मोदी ने कैनबरा के डिजाइनर वॉल्टर ग्रिफिन का उल्लेख किया, जिनकी कब्र लखनऊ में है। नरेंद्र मोदी ने ऑस्ट्रेलिया से एक ट्वीट किया जो लखनऊ से जुड़ा था। उन्होंने लिखा, Walter Burley Griffin, the well known American architect designed Canberra. His final resting place is at Lucknow Christian Cemetery.ग्रिफिन ने लखनऊ विवि की लाइब्रेरी और छात्रसंघ की इमारत को भी डिजाइन किया। पायनियर लिमिटेड की इमारत भी उनकी देन थी। बाद में विदेश विभाग के प्रवक्ता सैयद अकबरुद्दीन ने ट्वीट किया, Here lies buried the man whose fascinating story from US to Australia to India was shared by our leaders.
बहरहाल अशोकजी को एकबार दिल का दौरा पड़ा, तो उनके बैठने की व्यवस्था ग्राउंडफ्लोर पर एक कमरे में की गई, ताकि उन्हें सीढ़ियाँ चढ़नी न पड़ें। पायनियर लिमिटेड में अंग्रेजी अखबार के सम्पादक सुरेन्द्र नाथ घोष का बड़ा रसूख था। पर मैंने देखा कि अखबार के मालिक अशोकजी का भी काफी सम्मान करते थे। सन 1972-73 में कुल जमा तीन कारें दफ्तर में आती थीं। एक घोष साहब की, दूसरी अशोकजी की और तीसरी प्रबंधक जगदीश मेहता की, जो पायनियर लिमिटेड में नए आए थे।
उन दिनों मैं हफ्ते-दो हफ्ते में एकबार स्वतंत्र भारत के दफ्तर में जाने लगा। आमतौर पर दीक्षित जी के पास जाकर बैठता। वहीं पर कई बार अशोकजी से मुलाकात हो जाती थी। यह उस दौर की बात है, जब स्वतंत्र भारत का सम्पादकीय कार्यालय बिल्डिंग के बाएं कोने में सबसे ऊपर की मंजिल पर था। बाद में दफ्तर दाएं कोने पर चला गया, जहाँ दैनिक पायनियर का सम्पादकीय विभाग भी बैठता था। सन 1973 में मैंने एमए परीक्षा पास कर ली तो एक दिन दफ्तर में अशोकजी ने पूछा, तुम्हारा क्या करने का इरादा है? उस वक्त तक मैं नहीं जानता था कि मेरा क्या इरादा है।
उन्हीं दिनों स्वतंत्र भारत में एक विज्ञापन छपा था जिसमें कानपुर में कार्यालय संवाददाता के पद के लिए आवेदन माँगे गए थे। अशोकजी ने कहा, हमारा विज्ञापन भी छपा है एप्लाई कर दो। मैंने कहा, मेरे पास तो कोई अनुभव नहीं है। विज्ञापन में तो अनुभव माँगा गया है। वे कुछ देर सोचते रहे, फिर बोले, फिलहाल हमारे यहाँ काम शुरू कर दो। वह 18 सितम्बर 1973 का दिन था। मैंने कहा, ठीक है मैं कल से आ जाऊँगा। तब दीक्षित जी बोले कल से क्यों आज से ही आ जाओ, आज मंगलवार है। अच्छा दिन है। तीन बजे आ जाना मिड शिफ्ट में। उसके बाद के तमाम दिनों की घटनाएं मुझे ऐसी याद हैं जैसे कल की बात हो।
20 अगस्त 1979 को अशोक जी के निधन के बाद मुझे पहली बार असुरक्षा-बोध हुआ। तबतक लगता था कि अशोकजी हमारे संरक्षक हैं। स्वतंत्र भारत में रहकर मैंने बहुत कुछ सीखा। अशोक जी ने मुझे 1979 में पटना जाने का सुझाव दिया, जहाँ से प्रदीप निकलता था। पायनियर लिमिटेड से योगेश अग्रवाल दैनिक भारत के प्रबंधक बनकर इलाहाबाद चले गए थे। प्रदीप भी बिड़ला परिवार का अखबार था। मेरी भेंट योगेश अग्रवाल ने, जिन्हें हम वाईसी कहते थे, उस अखबार को देखने वाले ओपी अदूकिया जी से कराई। उसके बाद मैं पटना में प्रदीप के सम्पादक हरिओम पांडे से मिला। वे भी कुमाऊँनी थे और उनके बड़े भाई मेरे पिता के साथ रक्षा लेखा विभाग में काम करते थे। अपने परिवार की दशा और अकेले रहने की कल्पना ने मुझे पटना जाने से रोक लिया और मैंने अशोकजी से कहा कि मैं अभी लखनऊ में ही रहना चाहूँगा। लखनऊ मेरा प्रिय शहर है और मेरा बस चलता तो मैं कभी लखनऊ नहीं छोड़ता, पर हालात ऐसे पैदा हुए कि मुझे यह शहर छोड़ना पड़ा। पर वह दो दशक बाद की बात है।
सत्तर के दशक के अखबार और उस दौर पर मैं आगे कहीं लिखूँगा। स्वतंत्र भारत से लेकर हिन्दुस्तान तक अलग-अलग कालखंड में मेरे सहयोगी रहे नवीन जोशी ने नैनीताल समाचार में एक लम्बा आलेख लिखा है, उससे उस दौर पर रोशनी पड़ती है। सन 1982 में लखनऊ में टाइम्स ऑफ इंडिया आने की चर्चा शुरू हुई। डॉ केपी अग्रवाल पायनियर लिमिटेड छोड़कर बैनेट कोलमन एंड कम्पनी में चले गए। अंततः 1983 में टाइम्स लखनऊ आ ही गया। हम लोगों ने एक लिखित परीक्षा के मार्फत राजेन्द्र माथुर के साथ काम करने का मौका हासिल किया। मेरे पास वह परीक्षा-पत्र आज भी मौजूद है।
नवभारत टाइम्स में मुझे माथुर जी के साथ कुछ ऐसे विषयों पर बात करने का मौका मिला, जो भविष्य में मेरे काम आए। मसलन हिन्दी अखबारों को नए पत्रकारों को लेने के लिए किस प्रकार की प्रक्रिया अपनानी चाहिए। वास्तव में मुझे इस दिशा में काम करने का ज्यादा मौका नहीं मिला, पर हिन्दुस्तान के अपने अंतिम वर्षों में मैंने एक ट्रेनी स्कीम पर काम किया था, जो शुरू तो हुई, पर सम्भवतः हमारे बाद चली नहीं। मैंने पत्रकारों के सालाना एप्रेजल के लिए भी एक योजना बनाई थी। उस विषय पर भी कभी लिखूँगा।
राजेन्द्र माथुर के साथ काम करने का लोभ मुझे नवभारत टाइम्स ले गया। लखनऊ में हुई लिखित परीक्षा और इंटरव्यू वगैरह के बाद 23 अगस्त 1983 को हम फाइनल इंटरव्यू के लिए दिल्ली गए। मैंने पहली बार दिल्ली को देखा। 1 अक्टूबर को नवभारत टाइम्स के लखनऊ दफ्तर में जॉइन किया। कुल 20 लोगों की टीम चुनी गई थी, जिसमें मंगलेश डबराल और एक अन्य पत्रकार (शायद राम अरोड़ा) नहीं आए। 17 अक्टूबर को दशहरे के रोज़ औपचारिक रूप से नवभारत टाइम्स का लखनऊ संस्करण लांच किया। वह औपचारिक लांच मात्र था। अखबार बाज़ार में नहीं गया। वास्तव में अखबार नवम्बर में निकला। उस दौरान माथुर जी के साथ रात के एक-दो बजे तक भार्गव की चाय की दुकान पर बैठकर बात करने का मौका मिला।
9 अप्रेल 1991 को जब राजेन्द्र माथुर का निधन हुआ, लखनऊ के नवभारत टाइम्स में हड़ताल चल रही थी। यह हड़ताल 18 मार्च से शुरू हुई थी और अगस्त तक चली थी। देश के किसी अखबार में इतनी लम्बी हड़ताल शायद कभी नहीं हुई होगी। मई में लोकसभा चुनाव होने वाले थे। अयोध्या का मामला खतरनाक मोड़ पर था। माथुर जी का निधन मेरे लिए गहरा धक्का था। नवभारत टाइम्स का लखनऊ संस्करण अंततः 18 जून 1993 को बंद हो गया। मुझे अक्टूबर में जयपुर के संस्करण में भेज दिया गया। मेरा मन जयपुर में नहीं लगा। श्री घनश्याम पंकज से बात करके मैने स्वतंत्र भारत के कानपुर संस्करण प्रभारी के रूप में काम हासिल किया। वहाँ से 1 जून 1995 को जिस दिन मैं लखनऊ संस्करण में तबादला होकर आया, उसी दिन मायावती और मुलायम सिंह का वह ऐतिहासिक संघर्ष शुरू हुआ जिसकी परिणति गेस्ट हाउस कांड के रूप में हुई।
स्वतंत्र भारत की प्रकाशक पायनियर लिमिटेड कम्पनी कानपुर की प्रसिद्ध स्वदेशी कॉटन मिल्स के मालिक जयपुरिया घराने से जुड़ी थी। मेरे देखते-देखते स्वदेशी कॉटन मिल्स शानदार कम्पनी से बीमार में बदल गई। 1991 में इसे बल्लारपुर पेपर मिल्स के ललित मोहन थापड़ ने खरीदा। वे पायनियर को दिल्ली ले गए। हिन्दी के अखबार के साथ वही हुआ जो अक्सर अंग्रेजी अखबार के सहयोगी हिन्दी अखबार को होता है। 1995 में मैं जब स्वतंत्र भारत लखनऊ में आया तभी उसके बिकने की बातें होने लगीं और अंततः फरवरी 1996 में वह बिक गया। जिन्होंने खरीदा वे पूँजी से कच्चे थे और अखबार का अनुभव भी उन्हें नहीं था। 1997 के अंतिम महीनों से कर्मचारियों के वेतन की अनियमितता शुरू हुई जो सुधरी नहीं। 1998 के 17 अगस्त को बड़ी विचित्र स्थितियों में मैंने स्वतंत्र भारत छोड़ा। इसके कुछ महीने पहले मेरी बात सहारा टीवी के नए सम्पादकीय हैड इन्द्रजीत बधवार से हो गई थी। बाद में उनके साथ उदयन शर्मा भी आ गए। मई 1998 में दिल्ली में दोनों से मुलाकात करने के बाद मैंने तय कर लिया कि अब दिल्ली जाएंगे।
16 अगस्त 1998 के स्वतंत्र भारत के नगर संस्करण में कुछ ऐसा हुआ कि 17 अगस्त को मैंने और नवीन जोशी ने एक साथ इस्तीफा दे दिया। इसके पहले के दो दशक में अखबार के उद्योग को लेकर मेरे मन में जो धारणाएं बन रहीं थीं, उनके अंतर्विरोध बड़ी तेजी से स्पष्ट हो रहे थे। सिद्धांत और व्यवहार में जबर्दस्त खाई नज़र आने लगी। एक सितम्बर, 1998 को मैं सहारा टीवी में शामिल हो गए। नया माहौल और कुछ नए दोस्त मिले। मेरा आत्मविश्वास बढ़ा। पर चैनल शुरू नहीं हो पाया। एक साल गुज़र गया। तभी अगस्त 1999 में श्री आलोक मेहता का हिन्दुस्तान से अप्रत्याशित बुलावा आया। उन्होंने शोभना जी से मुलाकात कराई और 26 अगस्त को मैंने नाइट एडिटर पद पर काम शुरू कर दिया। हिन्दुस्तान में काम करना बेहद तनाव भरा था। अभी काम शुरू किया ही था कि छह महीने के भीतर आलोक जी के हटने की प्रक्रिया शुरू हो गई। फरवरी 2000 में श्री अजय उपाध्याय सम्पादक बनकर आए और आलोक जी जल्द चले गए।
हिन्दुस्तान के मेरे अगले दो साल परेशानी और नए ज्ञान के थे। परेशानियाँ हिन्दुस्तान के सम्पादकीय विभाग के साथ ऐतिहासिक कालक्रम में जुड़ चुकीं थीं। मैं जिस समय उसमें शामिल हुआ, तब अखबार की गति धीमी होने के अलावा अजब थी। वैसा मुझे उसके पहले कहीं देखने को नहीं मिला। अलबत्ता मैनेजमेंट में बदलाव के साथ वहां मुझे सिक्स सिग्मा से परिचित होने का मौका मिला। विनीत शर्मा क्वालिटी विभाग के हैड बनकर आए। पूरे संस्थान से 12 लोग सिक्स सिग्मा सीखने के काम में लगाए गए। सिक्स सिग्मा काम की गुणवत्ता सुधारने की शैली का नाम है। इसे जीई और मोटोरोला जैसी कम्पनियों ने अपनाया। जैक वैल्च इसके प्रमुख प्रणेताओं में से एक हैं। मेरे विचार से इस तरीके से काम करने वाली संस्था अपने लक्ष्यों को पाने में फेल हो ही नहीं सकती। बहरहाल वह सीखना भी सीखना ही था। सारी व्यवस्थाएं बिखर गईं। उसे शुरू किया था राजन कोहली ने जो ज्यादा चले नहीं।
अजय उपाध्याय दो साल हिन्दुस्तान में रहे। उनके सामने जो चुनौती थी, उसका सामना करने के लिए जिस ताकत और सपोर्ट की उन्हें ज़रूरत थी, वह शायद उपलब्ध नहीं था। मैं शायद इसलिए लिख रहा हूँ, क्योंकि तमाम बातों को मैं जानता नहीं। कभी अवसर मिला तो उसे लिखना ज़रूर चाहूँगा, क्योंकि मुझे बहुत सी बातें सीखने को मौका तभी मिला।
मैं मार्च 2002 के आखिरी हफ्ते में अपनी एलटीए की छुट्टी लेकर लखनऊ गया था। शायद 30 या 31 मार्च को नवीन जोशी ने मुझे बताया कि अजय जी हट रहे हैं। श्रीमती मृणाल पांडे सम्पादक बनकर आ रहीं हैं। वे 1 अप्रेल को जॉइन करेंगी। मैं 2 अप्रेल को छुट्टी से वापस आया तो मृणाल जी जॉइन कर चुकीं थीं। मृणाल जी से मेरा पुराना परिचय नहीं था और वे हिन्दुस्तान में पहले काम कर चुकी थीं। उनके पुराने परिचितों में तमाम सहयोगी थे। हिन्दुस्तान में मैं उनके आने के पहले से एक बात पर ध्यान देता था कि यह संस्था काफी बड़ी है, उसमें काम करने वालों और प्रबंध करने वालों की दिलचस्पी हिन्दी प्रकाशनों और हिन्दी पत्रकारों पर बेहद कम है। उस समय तक हिन्दुस्तान प्रसार और गुणवत्ता में काफी पिछड़ चुका था। सम्पादकीय विभाग पर ट्रेड यूनियन का जबर्दस्त दबाव था। हिन्दी सम्पादकीय विभाग में यूनियन की मीटिंग होती थी। सम्पादकीय विभाग में प्रमोशन के दो-तीन तरीके थे। एक, किसी बड़े राजनेता के मार्फत ऊपर पैरवी कराओ, दूसरे, सम्पादक पर साम,दाम, दंड लागू करके दबाव बनाओ। और तीसरा आमफहम तरीका था कि यूनियन से सिफारिश कराओ। निजी तौर पर में श्रमिक संगठनों को जरूरी संस्था मानता हूँ, क्योंकि कम से कम भारत में उद्योगपति अपने कर्मचारियों को अच्छी नजर से नहीं देखते हैं। अलबत्ता हिंदुस्तान टाइम्स में मुझे जो जानकारियाँ मिलीं, उनसे लगा कि वहाँ श्रमिक संगठन ने किसी एक दौर में कुछ व्यक्तियों के हितों में देखना शुरू कर दिया। शायद प्रबंधन की दिलचस्पी अंग्रेजी के अखबार में काम का माहौल बेहतर बनाए रखने की थी और हिंदी के संपादकीय विभाग को वे बहुत महत्वपूर्ण नहीं मानते थे। ऐसे में उन्होंने यह नहीं देखा कि कौन व्यक्ति उपयोगी है और कौन नहीं है। बहुत सी बातों की अनदेखी की, जिससे कामगारों के बीच कुछ ज्यादा प्रभावशाली लोग उभर कर आ गए। ठीक वैसे ही जैसे राजनीतिक दलों के भीतर कुछ ज्यादा ताकतवर नेता उभरते हैं। सारी ढील हिन्दी सम्पादकीय विभाग में थी। शायद प्रबंधन ने भी अंग्रेजी अखबार को अच्छे तरीके से चलाए रखने के लिए हिन्दी सम्पादकीय विभाग की गुणवत्ता से समझौता कर लिया था। हिंदी सम्पादकीय विभाग में प्रवेश का तरीका था पहले किसी भी विभाग में जगह बना लो, फिर सम्पादकीय में प्रवेश लो। गुणवत्ता को लेकर कोई आग्रह नहीं था। इस मोर्चे पर पराजय लगभग स्वीकार कर ली गई थी। सन 2004-05 के बाद जब हिन्दुस्तान फिर से मुकाबले में उतरा तो उसे अपने भीतर कई प्रकार के बदलाव करने पड़े। यह एक लम्बी और कठोर प्रक्रिया था।
इस प्रक्रिया में मुझे बहुत से लोगों से दुश्मनी मोल लेनी पड़ी, क्योंकि जब 2003 में मैं हिन्दुस्तान का स्थानीय संपादक बना, तो काफी लोगों को यह बात मंजूर नहीं हुई। मैं दिल्ली का नहीं था, स्थानीय पत्रकारों से मेरा संपर्क बहुत सीमित था। दूसरी तरफ दिल्ली की लीडरशिप को येन-केन प्रकारेण हथियाने के तमाम दावेदार थे। उस ईर्ष्या का सामना मुझे 2010 के जनवरी तक तबतक ही नहीं करना पड़ा, जब मैंने हिन्दुस्तान छोड़ी, बल्कि आजतक करना पड़ता है।
संपादकीय विभाग में ऐसे लोगों की भरमार थी, जो या तो राजनीतिक प्रभाव से या किसी दूसरे दबाव से लाभ पाने के आदी थे। किसी सांसद या किसी मंत्री की सिफारिश प्रायः आती थी। इन सिफारिशों के पीछे ऐसे तमाम चेहरे हैं, जो अपने आप को न जाने कितने गुणों से विभूषित करते हैं। पत्रकारों के पाखंड को मैंने नवभारत टाइम्स में रहते हुए भी देखा था, पर जैसा हिन्दुस्तान में देखा वैसा इसके पहले कहीं और नहीं देखा था। ...........
1971 में जब मैने लखनऊ विश्वविद्यालय में एमए (राजनीति शास्त्र) की कक्षा में प्रवेश लिया तब मेरे साथ विजयवीर सहाय और वीर विनोद छाबड़ा ने भी प्रवेश लिया। विजयवीर के बड़े भाई रघुवीर सहाय तब दिनमान के सम्पादक थे। वीर विनोद के पिता श्री राम लाल उर्दू के लेखक थे। मॉडल हाउस में विजयवीर का घर था, चारबाग में रेलवे की मल्टी स्टोरी बिल्डिंग में विनोद रहता था। हमारा एक और मित्र था रवि प्रकाश मिश्र। उसका गोलागंज में घर था। वह हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध मिश्र बंधुओं का पौत्र है। विजयवीर की संगत में रहने की वजह से मेरे कुछ रेखाचित्र उन दिनों दिनमान में भी छपे। मुझे याद है कि दिनमान से मेरा पहला पारिश्रमिक गलती से दिल्ली में प्रमोद जोशी के पास चला गया, जिनसे कई साल बाद मेरी मुलाकात हुई। बहरहाल दिल्ली वाले प्रमोद जोशी ने वह चेक दिनमान को वापस भेज दिया, जो मेरे पास आ गया। इस बहाने दिल्ली वाले प्रमोद जोशी और मेरा परिचय हुआ। बरसों बाद मैं प्रमोद जोशी के मॉडर्न स्कूल कैम्पस में स्थित घर गया। उनकी पत्नी उस स्कूल में पढ़ाती थीं। कई घंटे तक उनके साथ बैठकर बात की। उन्होंने अपने कविता संग्रह की एक प्रति मुझे भेंट की। बाद में अक्सर उनसे फोन पर बात होती रही।
लखनऊ विश्वविद्यालय में अपने दोस्तों के बीच मैं खुद को बहुत साधारण सा पाता था। इनके साथ रहने पर मुझे बड़ा अच्छा लगता था। हालांकि क्लास में मेरे सबसे पहले दोस्त चन्द्र नाथ सिंह यानी सीएन सिंह थे, जो बाद में प्रतापगढ़ से लोकसभा चुनाव भी जीते। इन सबसे ऊपर मेरे दोस्त थे राजेन्द्र प्रसाद सिंह। जौनपुर के रहने वाले राजेन्द्र प्रसाद सिंह कान्यकुब्ज कॉलेज में बीए की पढ़ाई के दौरान मेरे एक मात्र मित्र थे। कक्षा में मेरा परिचय दो-एक लोगों से था, पर दोस्त वही थे। उन्होंने एमए पूरा नहीं किया। रेलवे की असिस्टेंट स्टेशन मास्टर वाली परीक्षा में पास हो गए तो उन्होंने कहा, अब बस।
एमए में मुझसे एक साल सीनियर वीरेन्द्र यादव थे। उस वक्त हमारे विभागाध्यक्ष प्रोफेसर प्राण नाथ मसलदान होते थे। अपने वक्त के प्रसिद्ध राजनीति शास्त्री। डॉ लक्ष्मण प्रसाद चौधरी, डॉ राजेन्द्र अवस्थी, डॉ उमा बोरा, डॉ लक्ष्मी दत्त ठाकुर, डॉ शाति देवबाला, डॉ एस एम सईद, सीपी बड़थ्वाल, डॉ आरएन पांडे और मिस संतोष भाटिया के नाम मुझे याद हैं। हालांकि वह दौर लखनऊ विश्वविद्यालय की बदहाली का दौर ही था, पर शायद आज से बेहतर था। 1971 इंदिरा गांधी की शानदार जीत का साल था। बांग्लादेश की स्थापना का साल भी वही था। मुझे याद है इंदिरा गांधी उस रोज लखनऊ आई हुईं थीं। वहीं से उन्होंने बंग बंधु शेख मुजीब से फोन पर बात की थी।
लखनऊ विश्वविद्यालय में मुझे पत्रकार बनने का माहौल मिला और प्रेरणा मिली। संयोग से मैने अपनी बीए की पढ़ाई के दौरान कार्टून बनाने की कला सीख ली थी। मेरे कार्टून लखनऊ के स्वतंत्र भारत में छपे भी थे। मैं वहाँ किसी को जानता नहीं था। बस डाक से भेज दिए और छप गए। उसके बाद मुझे हर वहाँ से कभी सात रुपए 40 पैसे का कभी नौ रुपए 90 पैसे का मनीऑर्डर आने लगा। बाद में जब मैं स्वतंत्र भारत के सम्पादकीय विभाग में शामिल हुआ तब अशोक जी ने उन लेखकों के मानदेय में मनीऑर्डर की राशि भी जुड़वानी शुरू की जो दफ्तर आकर पेमेंट नहीं लेते थे। उसे हम पेमेंट के नाम से ही जानते थे।
स्वतंत्र भारत सम्पादकीय विभाग में बाल कृष्ण अग्निहोत्री व्यक्ति नहीं अपने आप में संस्था थे। वे सारे लेखों की प्रूफ रीडिंग करते थे। साप्ताहिक पत्रिका के लिए अग्रिम लेख माँगकर फोरमैन श्री शेषमणि शर्मा, श्री राम इकबाल शर्मा या श्री जयकरन को देते। नाम के पहले श्री लगाने की यह परम्परा मुझे स्वतंत्र भारत में मिली थी। इसे नवभारत टाइम्स में जाकर खत्म किया। बताते हैं एक ज़माने में जेब काटने के आरोप में श्री लल्लू लाल पकड़े गए लिखा जाता था। यह अटपटा लगता है, पर हमसे शुरू में कहा जाता था कि जब तक अदालत से आरोप सिद्ध न हो व्यक्ति अभियुक्त होता है। हम कभी नहीं लिखते थे कि हत्यारा पकड़ा गया। इसकी जगह लिखते थे हत्या के आरोप में फलां को पकड़ा गया।
उस ज़माने में खबरें लिखने में तटस्थता बरतने पर ज़ोर दिया जाता था। शीर्षक लिखने में अपना मत आरोपित करने से बचने पर ज़ोर भी होता था। सीनियर लोग नए साथियों को घंटों समझाते थे। सम्पादकीय विभाग में आने के बाद मैने जीवन में पहली बार अजब फक्कड़, अलमस्त और मनमौजी लोग देखे। उनमें रमेश जोशी भी एक थे। स्वतंत्र भारत में ही नहीं पायनियर में भी। बाद में मैने पी थेरियन की किताब 'गुड न्यूज़, बैड न्यूज़' पढ़ी तो वे अनेक नाम याद आए जिनके करीब से मैं गुज़र चुका हूँ।
1971 में जब मैने लखनऊ विश्वविद्यालय में एमए (राजनीति शास्त्र) की कक्षा में प्रवेश लिया तब मेरे साथ विजयवीर सहाय और वीर विनोद छाबड़ा ने भी प्रवेश लिया। विजयवीर के बड़े भाई रघुवीर सहाय तब दिनमान के सम्पादक थे। वीर विनोद के पिता श्री राम लाल उर्दू के लेखक थे। मॉडल हाउस में विजयवीर का घर था, चारबाग में रेलवे की मल्टी स्टोरी बिल्डिंग में विनोद रहता था। हमारा एक और मित्र था रवि प्रकाश मिश्र। उसका गोलागंज में घर था। वह हिन्दी साहित्य के प्रसिद्ध मिश्र बंधुओं का पौत्र है। विजयवीर की संगत में रहने की वजह से मेरे कुछ रेखाचित्र उन दिनों दिनमान में भी छपे। मुझे याद है कि दिनमान से मेरा पहला पारिश्रमिक गलती से दिल्ली में प्रमोद जोशी के पास चला गया, जिनसे कई साल बाद मेरी मुलाकात हुई। बहरहाल दिल्ली वाले प्रमोद जोशी ने वह चेक दिनमान को वापस भेज दिया, जो मेरे पास आ गया। इस बहाने दिल्ली वाले प्रमोद जोशी और मेरा परिचय हुआ। बरसों बाद मैं प्रमोद जोशी के मॉडर्न स्कूल कैम्पस में स्थित घर गया। उनकी पत्नी उस स्कूल में पढ़ाती थीं। कई घंटे तक उनके साथ बैठकर बात की। उन्होंने अपने कविता संग्रह की एक प्रति मुझे भेंट की। बाद में अक्सर उनसे फोन पर बात होती रही।
लखनऊ विश्वविद्यालय में अपने दोस्तों के बीच मैं खुद को बहुत साधारण सा पाता था। इनके साथ रहने पर मुझे बड़ा अच्छा लगता था। हालांकि क्लास में मेरे सबसे पहले दोस्त चन्द्र नाथ सिंह यानी सीएन सिंह थे, जो बाद में प्रतापगढ़ से लोकसभा चुनाव भी जीते। इन सबसे ऊपर मेरे दोस्त थे राजेन्द्र प्रसाद सिंह। जौनपुर के रहने वाले राजेन्द्र प्रसाद सिंह कान्यकुब्ज कॉलेज में बीए की पढ़ाई के दौरान मेरे एक मात्र मित्र थे। कक्षा में मेरा परिचय दो-एक लोगों से था, पर दोस्त वही थे। उन्होंने एमए पूरा नहीं किया। रेलवे की असिस्टेंट स्टेशन मास्टर वाली परीक्षा में पास हो गए तो उन्होंने कहा, अब बस।
एमए में मुझसे एक साल सीनियर वीरेन्द्र यादव थे। उस वक्त हमारे विभागाध्यक्ष प्रोफेसर प्राण नाथ मसलदान होते थे। अपने वक्त के प्रसिद्ध राजनीति शास्त्री। डॉ लक्ष्मण प्रसाद चौधरी, डॉ राजेन्द्र अवस्थी, डॉ उमा बोरा, डॉ लक्ष्मी दत्त ठाकुर, डॉ शाति देवबाला, डॉ एस एम सईद, सीपी बड़थ्वाल, डॉ आरएन पांडे और मिस संतोष भाटिया के नाम मुझे याद हैं। हालांकि वह दौर लखनऊ विश्वविद्यालय की बदहाली का दौर ही था, पर शायद आज से बेहतर था। 1971 इंदिरा गांधी की शानदार जीत का साल था। बांग्लादेश की स्थापना का साल भी वही था। मुझे याद है इंदिरा गांधी उस रोज लखनऊ आई हुईं थीं। वहीं से उन्होंने बंग बंधु शेख मुजीब से फोन पर बात की थी।
लखनऊ विश्वविद्यालय में मुझे पत्रकार बनने का माहौल मिला और प्रेरणा मिली। संयोग से मैने अपनी बीए की पढ़ाई के दौरान कार्टून बनाने की कला सीख ली थी। मेरे कार्टून लखनऊ के स्वतंत्र भारत में छपे भी थे। मैं वहाँ किसी को जानता नहीं था। बस डाक से भेज दिए और छप गए। उसके बाद मुझे हर वहाँ से कभी सात रुपए 40 पैसे का कभी नौ रुपए 90 पैसे का मनीऑर्डर आने लगा। बाद में जब मैं स्वतंत्र भारत के सम्पादकीय विभाग में शामिल हुआ तब अशोक जी ने उन लेखकों के मानदेय में मनीऑर्डर की राशि भी जुड़वानी शुरू की जो दफ्तर आकर पेमेंट नहीं लेते थे। उसे हम पेमेंट के नाम से ही जानते थे।
स्वतंत्र भारत सम्पादकीय विभाग में बाल कृष्ण अग्निहोत्री व्यक्ति नहीं अपने आप में संस्था थे। वे सारे लेखों की प्रूफ रीडिंग करते थे। साप्ताहिक पत्रिका के लिए अग्रिम लेख माँगकर फोरमैन श्री शेषमणि शर्मा, श्री राम इकबाल शर्मा या श्री जयकरन को देते। नाम के पहले श्री लगाने की यह परम्परा मुझे स्वतंत्र भारत में मिली थी। इसे नवभारत टाइम्स में जाकर खत्म किया। बताते हैं एक ज़माने में जेब काटने के आरोप में श्री लल्लू लाल पकड़े गए लिखा जाता था। यह अटपटा लगता है, पर हमसे शुरू में कहा जाता था कि जब तक अदालत से आरोप सिद्ध न हो व्यक्ति अभियुक्त होता है। हम कभी नहीं लिखते थे कि हत्यारा पकड़ा गया। इसकी जगह लिखते थे हत्या के आरोप में फलां को पकड़ा गया।
उस ज़माने में खबरें लिखने में तटस्थता बरतने पर ज़ोर दिया जाता था। शीर्षक लिखने में अपना मत आरोपित करने से बचने पर ज़ोर भी होता था। सीनियर लोग नए साथियों को घंटों समझाते थे। सम्पादकीय विभाग में आने के बाद मैने जीवन में पहली बार अजब फक्कड़, अलमस्त और मनमौजी लोग देखे। उनमें रमेश जोशी भी एक थे। स्वतंत्र भारत में ही नहीं पायनियर में भी। बाद में मैने पी थेरियन की किताब 'गुड न्यूज़, बैड न्यूज़' पढ़ी तो वे अनेक नाम याद आए जिनके करीब से मैं गुज़र चुका हूँ।
मेरी इच्छा अपने अनुभवों को शेयर करने की है। ऐसा या तो आत्मकथा लिखकर किया जा सकता है या उपन्यास के रूप में। मैं जब भी लिखने का प्रयास करता हूँ, तब वह दोनों के बीच का हो जाता है। इन दिनों मैं एक किताब अपने जीवन के अर्धसत्यों पर लिखना चाहता हूँ। मेरी समझ से हम देश की राजनीति और सामाजिक व्यवस्था को जिस रूप में देख रहे हैं, वह इस अर्धसत्य के केन्द्र में है। भाषा, संस्कृति और साम्प्रदायिकता इससे जुड़ी हैं।
मेरा परिवार
भवानीदत्त जोशी और ललित मोहन जोशी
मेरे बाबा (पितामह) भवानीदत्तजोशी और बाबू (पिता) ललित मोहन जोशी दोनों का संगीत से लगाव था। बाबा ने तो
व्यवसाय ही संगीत को बनाया था। वे चंदौसी (जिला मुरादाबाद) के एसएम कॉलेज में
संगीत के अध्यापक थे। मैंने सुना है कि अपने समय में वे अपने गायन और खासतौर से एक
साथ चार वाद्यों को बजाने के कारण काफी प्रसिद्ध थे। मेरी जानकारी में कुमाऊँ की रामलीला की धुनें तैयार करने में भी उनकी भूमिका थी। समय ने हमें कहीं से कहीं ला
पटका और चंदौसी का घर हमसे छूट गया। बाबा की सारी धरोहर वहीं रह गई। मैं अपनी
जानकारी से उनके बारे में लिख रहा हूँ। मेरे बाबा ने बच्चों को संगीत सिखाने के
लिए एक पुस्तक माला लिखी थी, जिसके दूसरे भाग की एक प्रति मेरे पास है। मैं उसमें
से प्राप्त जानकारी के आधार पर यह लिख रहा हूँ।
भवानीदत्त जोशी: (जन्मवर्ष पता नहीं-निधन संभवतः
1945)। इनका परिवार कुमाऊँ के झिझाड़ गाँव से मुरादाबाद जिले के चंदौसी में
उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में कभी आ गया था। जिस पुस्तक से यह जानकारी दे रहा
हूँ उसका प्रकाशन वर्ष 1932 (संवत 1989) है। यह पुस्तक शंकर गांधर्व विद्यालय,
लश्कर के प्रिंसिपल पं कृष्णराव शंकर को समर्पित थी। पं कृष्णराव ने पुस्तक पर
अपनी सादर स्वीकृति भी लिखी है। स्वीकृति पत्र पर 30 मई 1932 की तिथि पड़ी है। उनके
अलावा इस पुस्तक को जिन तत्कालीन संगीतविदों की
प्रशंसा मिली उनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैं:-
प्रो आरजी जोशी,
वाइस प्रिंसिपल गांधर्व महाविद्यालय, बम्बई, ढुण्डीराज पुलष्कर, गांधर्व
महाविद्यालय, लाहौर, पं श्रीधर पंत, बरेली कालिज, सखा व्रजराजकुमार (ग्वारिया
बाबा) गांधर्व विद्यालय, वृंदावन, ईपी चौबे थ्योलॉजिकल सेमिनरी संगीतशाला, बरेली
मेरे बाबा ने अपनी
पुस्तक की प्रस्तावना लिखी है, उसे मैं यहाँ हूबहू लिखे दे रहा हूँ। इससे उनके समय
और संगीत की कुछ जानकारी मिल सकती है:-
पुस्तक की प्रस्तावना
ईश्वरीय माया भी
बड़ी ही विचित्र है, किसी कारणवश मुझ से पठन-पाठन छूट गया, तो भी पराधीनता में
फँसने की अभिलाषा न हुई, भारतवर्ष की श्रीसनातनधर्म सभाओं के निमंत्रणपत्र अनेकों
स्थानों से गायनोपदेश कराने हेतु अधिकांश से आने लगे थे। उस समय तक गाने में मेरी
वाणी मधुर और सुरीली तो अवश्य थी ही परन्तु राग-रागनियों तथा तालाध्याय का यथार्थ
ज्ञान न था। प्रथम ही प्रथम परलोकवासी पखावजी शेख अलीबख्श उस्ताद से तबला-मृदंग
बजाने का अभ्यास किया, जिससे लय और तालों का ज्ञान हुआ। उन्हीं दिनों में ला.
मोहनलाल, अंगनलाल स्वर्णकार दोनों भ्राताओं से स्वर साधन हारमौनियम पर सीखना आरम्भ
किया ही था कि दुर्भाग्यवश दो मास बीतने पर दोनों भ्राताओं की प्लेग से मृत्यु हो
गई। उस समय मुझे बड़ी ही चिन्ता हुई कि संगीत-विद्या किससे प्राप्त की जाय। उदाहरण
है कि ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ’ जगदीश की कृपा से स्थानीय प्रसिद्ध गायक जो कि दोनों
भ्राता ‘श्रीदर्वार’ टिहरी नरेश के यहाँ रहते थे, किसी
कारणवश छुट्टी लेकर अपने मकान पर आए और पुनः वापस न गए। बड़े भाई उस्ताद मौलाबख्श
का देहान्त हो गया, छोटे भाई उ. इतवारी शेखजी से मैंने गायन सीखने की इच्छा प्रकट
की। तब उन्होंने मेरे साथ परिश्रम करके स्वराध्याय, रागाध्याय का ज्ञान कराया,
जिसके द्वारा भारतवर्ष की बड़ी-2 धार्मिक सभाओं तथा राजदर्वारों और संगीत
सम्मेलनों में जाने का सुअवसर प्राप्त हुए, जहाँ से अनेकों प्रशंसापत्र उपाधियाँ
तथा पदक तक प्राप्त हुए। गुरुओं के आसीस से सितार, बेला, बाँसुरी बजाने के पृथक
हारमौनियम बजाने में तो इतना अभ्यास बढ़ा कि शरीर के लगभग प्रत्येक अंग के साथ एक
ही समय में बिना किसी व्यक्ति की सहायता के स्वयं चार साजों को बजाकर साथ ही गाना
गाकर दिखलाना। मेरा विचार स्वप्न में भी न था कि पराधीनता का पथ भी कभी स्वीकार
करना पड़ेगा। परन्तु भाग्यवश स्थानीय श्यामसुन्दर मैमोरियल इन्टरमीजियट कालिज में
सरकारी अनुमति से संगीत की कक्षा भी कालिज की कार्यकारिणी कमैटी के सभ्यों और
अधिकारियों की स्वीकृति से खोली गई। बहुत समय तक धर्म, देश, जाति की सेवा में ही
मेरा समय व्यतीत हुआ और पद्य रचना भी धार्मिक विषयों पर ही करता रहा। अब कुछ
प्रेमी महानुभावों के अनुरोध से संगीत शिक्षा प्रणाली के अनुसार जो कि सीखने वालों
को सरल और उपयोगी हो ‘सरल
संगीत’ नाम की पुस्तक दो
भागों में रचकर प्रकाशित की गई है। यह द्वितीय भाग सप्तम और अष्टम कक्षाओं (Cleasses VII
& VIII) के वास्ते है। सबसे
प्रथम संगीत स्वरों के संकेत (Notation) जो कि दोनों भागों में मुद्रित हैं स्मरण रक्खें जिससे गायन व वादन सीखने में
कठिनता प्रतीत न हो। इस भाग में राग रागिनी का भाव भेष अर्थात स्वरूप वर्णन गायन
में किया गया है। गायक को राग रागिनी के स्वरूप का ध्यान करके गाना चाहिए, जिससे
राग रागिनी प्रत्यक्ष दर्शने लगें।
विशेष धन्यवाद
स्थानीय श्यामसुन्दर मैमोरियल इन्टरमीजियट कालिज के प्रेसीडेण्ट साहब सेठ
बृजलालजी तथा सेक्रेटरी रायबहादुर बाबू भगवानदासजी चौधरी साहब आनरेरी मैजिस्ट्रेट
और मैनेजिंग कमेटी के सदस्यों को कि जिनके प्रेमाकर्षण भाव से कालिज में मुझे इस
पद के पाने का सुअवसर प्राप्त हुआ है। उनको विसेष धन्यवाद देता हूँ।
भवदीय--
भवानीदत्त जोशी (कूर्मांचलीय)
ललित मोहन जोशी:- भवानी दत्त जोशी के पुत्र थे ललित
मोहन जोशी, जिनका जन्म सन 1913 में और निधन 1969 में हुआ। पिता के कारण इनका संगीत
से लगाव था, पर संगीत की शिक्षा इन्होंने पिता से प्राप्त नहीं की। सन पचास के
आसपास डिफेंस अकाउंट्स विभाग में नौकरी करते हुए, इन्होंने मैरिस कॉलेज ऑफ हिन्दुस्तानी
म्यूजिक (जिसका बाद में नाम भातखंडे संगीत महाविद्यालय हुआ) में पखावज (मृदंग) का पाँच साल
का कोर्स करके की। इनके गुरु थे पंडित सखाराम तवाडे।
कहानी अभी जारी है....
नीचे है मेरा सीवी अंग्रेजी में
My Profile
Name : Pramod Kumar Joshi
Date
of Birth: June
23, 1952
Present
Position : Working independently as a writer and
consultant.
Writing
regular weekly Articles in Edit pages of
Jansandesh Times of Lucknow & Janvani of Meerut.
A
fortnightly column in Rajasthan Patrika
Regular
Columns in Kadambini.
Presenting
a weekly show on Radio FM Gold
Translating a book Poor Economics by Abhijit
Bannerjee & Esther Duflo of Harvards
Translating a book Poor Economics by Abhijit
Bannerjee & Esther Duflo of Harvards
Planning
to write a book on Media.
Member
Rajbhasha Samiti of Indian Railways.
Last
assignment :
Sr
Resident Editor, Hindustan, New Delhi Till Jan 2010.
Education: MA
Pol Science, Lucknow-1973
My Strength : Out of box thinking. Can
help organize brainstorming sessions
with a team eager to find ways.
Computer Savvy. Understand technology and
can synchronize it with different types of content.
Can work in internet environment. Keen
observer of media and the role it plays.
Have a very diverse interest from Sports
and technology to politics and poverty.
Can help plan and execute new creativity
projects
Experience: Worked with Media for
37years in different capacities. Controlled and administered independently the
Editorial Department. Collaborated and coordinated with other departments.
Planned and executed workshops and training programs of journalists.
Worked with illustrious journalists like
Ashokji, Chandroday Dixit, Rajendra Mathur, Alok Mehta, Udayan Sharma,
Indrajeet Badhwar, Rampal Singh, Ghanshyam Pankaj, Yogendra Kumar Lalla, Vishnu
Khare, Vishnu Nagar and till very recent time with Mrinal Pande.
Some skill of drawing & painting. Did
some illusration work for newspapers. Special interest in photography. Can work
as consultant with media house and do routine news monitoring. Can also work as
expert on current affairs. Have a good background of internet.
1973-1983 Began career with
Swatantra Bharat, Lucknow
in 1973. It was
sister concern of The Pioneer.
1983-1993 Joined Nav
Bharat Times in 1983 when it started Lucknow edition under the leadership of
Rajendra Mathur. NBT Lucknow edition closed down in 1993. I was sent to Jaipur
as News Coordinator.
1993-1998 Joined Swatantra
Bharat, Kanpur in Dec 1993 as Edition In charge. Transferred to Lucknow in June
1995.
1999 Joined Sahara Television in Oct
1998, Worked there till Aug 1999.
1999-
Jan 2010 Joined
Hindustan, New Delhi in Aug 1999. Worked
till Jan 2010. During this period planned and executed two relaunches of
complete newspaper and different editions in UP, Uttaranchal and Chandigarh.
Titled Jigyasa, focused on
Media and Current affairs.
Another blog Gyaankosh http://gyaankosh.blogspot.com/
Address
B-514,
Gaur Ganga Apartments
Sector
4, Vaishali
Ghaziabad-201010
Email
: pjoshi23@gmail.com
Phone
: 0120-4151905
Mobile
: 9810895128
लोकपाल बिल ठीक भस्मासुर कि तरह ही होगा | जब लोकपाल बिल के द्वारा कड़े नियम
ReplyDeleteरहेगे तो छोटे व्यापारी मिलावट बंद
कर देगे ,मगर डर बना रहेगा क्योकि व्यापारी हर एक बस्तु १००% शुध्द
स्वंम तो बना सकता नहीं है |उसे थोक व्यापारी से ही लाना होगा | थोक
व्यापारी भी कंपनी से लायेगा |उस समय विदेशी कंपनी का व्यापार बड जाएगा |
जो गुड किसान बना कर थोक व्यापारी को बेचता था ,वह बंद हो जायेगा |उसे
विदेशी कंपनी बनाकर बेचेगी | टॉफी जेसी पेक करके असिड मिलकर ,जिससे गुड
ख़राब न हो ,२०.०० प्रति किलो को विदेशी कंपनी २००.०० प्रति किलो बेचेगी
| जो छोटे व्यापारी बेचना बंद कर देगे |सिर्फ मोंल ( बड़ी दुकान ) पर
विकेगा | इस का जो अधिकारी होगा वह छोटे व्यापारी से रिश्वत ज्यादा
मागेगा |मे आपका सहयोग चाहता हू | ईश्वर कि कृपा से मेरे विचार मे एक आईडिया
आया है |
यदि आप भी उस आईडिया को उचित समझते हो तो आप का सहयोग चहिये |
भारत कि तात्कालिक समस्याए है भ्रस्टाचार ,आतंकबाद ,नकली नोट ,बेईमानी
,मिलावट खोरी ,दुराचार इन सभी पर काबू पाने के लिए सभी लोगो का मानना है
कि कड़े नियम बनाये जाये |जबकि जब से जो जो नियम बनते है उसी नियम को
पालन करने बाला तुरंत बेईमानी करने लगता है | मेरे बिचार से हर बुराई कि
जड़ मुद्रा है | जब तक देश मे या प्रथ्वी पर मुद्रा हस्तांतरित बाली चलती
रहेगी तब तक कोई समस्या का हल नहीं मिल पायेगा |
मेने ईश्वर के आशीर्वाद इसका हल बना लिया है |
देश मे मुद्रा बंद करके बैंक द्वारा लेनदेन होना चाहिए |
मेरे पास पूरा प्लान है जिसमे हर रूकावट का उत्तर है |
उसे पूरा लिखकर भेजना मेरे लिए मुश्किल है |
मे सिर्फ फ़ोन पर ही विस्तार से बता सकता हू | विस्तार से जानने के लिए
कांटेक्ट करे | मदन गोपाल ब्रिजपुरिया
करेली म . प्र .
contect no 09300858200
07793 270468
madanbrijpuria59@gmail.com