यह जो नन्हा है भोला भाला है
खूनीं सरमाए का निवाला है
पूछती है यह इसकी खामोशी
कोई मुझको बचाने वाला है!
पूछती है यह इसकी खामोशी
कोई मुझको बचाने वाला है!
अली
सरदार ज़ाफरी की ये पंक्तियाँ यों ही याद आती हैं। पिछले कुछ साल से देश में आग जैसी
लगी है। लगता है सब कुछ तबाह हुआ जा रहा है। घोटालों पर घोटाले सामने आ रहे हैं। हमें
लगता है ये घोटाले ही सबसे बड़ा रोग है। गहराई से सोचें तो पता लगता है कि ये घोटाले
रोग नहीं रोग का एक लक्षण है। रोग तो कहीं और है।
तीन-चार
महीने पहले हरियाणा और पंजाब की यात्रा के दौरान सड़क के दोनों ओर खेतों लगी आग की
ओर ध्यान गया। यह आग किसानों ने खुद अपने खेतों में लगाई थी। हमारे साथ एक कृषि विज्ञानी
भी थे। उनका कहना था कि पुरानी फसल को साफ करने के इस तरीके के खिलाफ सरकार तमाम प्रयास
करके हार गई है। इसे अपराध घोषित किया जा चुका है, अक्सर किसानों के खिलाफ रपट दर्ज
होती रहती हैं, पर किसान प्रतिबंध के बावजूद धान के अवशेष जलाकर न सिर्फ पर्यावरण
को प्रदूषित करते हैं, बल्कि अपने खेत की उर्वरा शक्ति को कम करते हैं। कृषि विभाग
खेत में फसलों के अवशेष को आग लगाने के खिलाफ जागरूकता अभियान भी चलाता है लेकिन इसके
किसानों को बात समझ में नहीं आती। हमारे साथ वाले कृषि वैज्ञानिकों का कहना था कि पुआल
जैविक खाद के रूप में भी तब्दील की जा सकती है जिससे जमीन की आवश्यकता की पूर्ति की
जा सकती है। लेकिन जागरूकता के अभाव में किसान अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। किसानों
का कहना है कि धान की कटाई के बाद किसान गेहूं, सरसों,
बरसीम लहसुन, टमाटर, गोभी आदि फसलों की बुआई करनी है। कंबाईन
से धान कटाई के बाद काफी पुआल खेत में रह जाते हैं। कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि
इन अवशेषों में ऐसे जैविक पदार्थ होते हैं, जो खाद का काम करते हैं। इस पर कुछ किसान
कहते हैं कि धान के अवशेष रहने पर गेहूं की फसल तो उगाई जा सकती है, लेकिन
सब्जियाँ नहीं उगाई जा सकतीं।