Tuesday, December 28, 2021

बांग्लादेश के उदय का ऐतिहासिक महत्व

बांग्लादेश की स्थापना के पचास वर्ष पूरे होने पर तमाम बातें भारतीय उपमहाद्वीप के लोगों के लिए विचारणीय हैं। विभाजन की निरर्थकता या सार्थकता पर वस्तुनिष्ठ तरीके से विचार करने समय है। भारत में धर्मनिरपेक्षता और बांग्लादेश तथा पाकिस्तान में इस्लामिक राज-व्यवस्था को लेकर बहस है। अफगानिस्तान में हाल में हुआ सत्ता-परिवर्तन भी विचारणीय है। भारतीय उपमहाद्वीप में चलने वाली हवाएं अफगानिस्तान पर भी असर डालती हैं। सवाल है कि इस क्षेत्र के लोगों की महत्वाकांक्षाएं क्या हैं? इलाके की राजनीति क्या उन महत्वाकांक्षाओं से मेल खाती है? दुनिया की प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक के उत्तराधिकारियों के पास इक्कीसवीं सदी में सपने क्या हैं वगैरह?

विभाजन की निरर्थकता

बांग्लादेश की स्थापना के साथ भारतीय भूखंड के सांप्रदायिक विभाजन की निरर्थकता के सवाल पर जितनी गहरी बहस होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई।   विभाजन के बाद पाकिस्तान दो भौगोलिक इकाइयों के रूप में सामने आया था। हालांकि इस्लाम उन्हें जोड़ने वाली मजबूत कड़ी थी, पर सांस्कृतिक रूप से दोनों के बीच फर्क भी था। पाकिस्तानी सत्ता-प्रतिष्ठान शुरू से ही पश्चिम में था। बंगाली मुसलमानों का बहुमत होने के बावजूद पश्चिम की धौंसपट्टी चलती थी।

पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी काफी लोग बांग्लादेश की स्थापना को भारत की साजिश मानते हैं। ज़ुल्फिकार अली भुट्टो या शेख मुजीब की व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं या ऐसा ही कुछ और। केवल साजिशों और महत्वाकांक्षाओं की भूमिका थी, तो बांग्लादेश 50 साल तक बचा कैसे रहा? बचा ही नहीं रहा, बल्कि आर्थिक और सामाजिक विकास की कसौटी पर वह पाकिस्तान को काफी पीछे छोड़ चुका है, जबकि 1971 तक वह पश्चिमी पाकिस्तान से काफी पीछे था। मोटे तौर पर समझने के लिए 1971 में पाकिस्तान की जीडीपी 10.66 अरब डॉलर और बांग्लादेश की 8.75 अरब डॉलर थी। 2020 में पाकिस्तान की जीडीपी 263.63 और बांग्लादेश की 324.24 अरब डॉलर हो गई। इसके अलावा मानवीय विकास के तमाम मानकों पर बांग्लादेश बेहतर है।

प्रति-विभाजन?

क्या यह प्रति-विभाजन है? विभाजन की सिद्धांततः पराजय 1948 में ही हो गई थी। मुहम्मद अली जिन्ना ने 1948 में ढाका विवि में कहा कि किसी को संदेह नहीं रहना चाहिए कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी और उर्दू के साथ बांग्ला को भी देश की राष्ट्रभाषा बनाने की माँग करने वाले देश के दुश्मन हैं। इस भाषण से बांग्लादेश की नींव उसी दिन पड़ गई थी और यह सब इतिहास के पन्नों में दर्ज है।

क्या है मिशनरीज़ ऑफ चैरिटी को प्राप्त होने वाले विदेशी दान का मामला


केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सोमवार को जानकारी दी कि 'कुछ प्रतिकूल सूचनाओं के पता चलने के बाद' उसने मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी (एमओसी) के एफसीआरए रजिस्ट्रेशन के नवीनीकरण से मना कर दिया है। फॉरेन कॉन्ट्रिब्यूशन रेग्युलेशन एक्ट (एफसीआरए) का रजिस्ट्रेशन किसी ग़ैर सरकारी संस्था या संगठन को विदेशी फंड या दान पाने के लिए ज़रूरी होता है। एमओसी एक ईसाई ग़ैर सरकारी सेवा संगठन है जिसे नोबल पुरस्कार विजेता मदर टेरेसा ने स्थापित किया था।

चेन्नई के अखबार द हिन्दू के अनुसार केंद्र सरकार की यह अस्वीकृति एमओसी के वडोदरा स्थित एक चिल्ड्रंस होम के खिलाफ धर्मांतरण से जुड़ी एफआईआर दर्ज होने के बाद आई है। यह एफआईआर गुजरात के संशोधित धार्मिक स्वतंत्रता कानून-2003 की धारा 295(ए) के तहत गत 12 दिसंबर को दर्ज की गई थी।

अंग्रेज़ी अख़बार 'द हिंदू' के अनुसार, एमओसी का कहना है कि उनके एफसीआरए आवेदन को अनुमति नहीं दी गई है इसलिए हमने अपने केंद्रों को उनसे जुड़े बैंक अकाउंट्स को इस्तेमाल न करने को कहा है। अख़बार के मुताबिक़, 2020-21 के सालाना वित्तीय वर्ष के लिए 13 दिसंबर को फ़ाइल किए गए रिटर्न में एमओसी ने बताया था कि उसे 347 विदेशी लोगों और 59 संस्थागत दाताओं से 75 करोड़ रुपये दान में मिले थे। एफसीआरए अकाउंट में संस्था के पास पिछले साल की 27.3 करोड़ की रक़म पहले से थी और उसका कुल बैलेंस 103.76 करोड़ रुपये है।

कोलकाता में रजिस्टर्ड एनजीओ के पूरे भारत में 250 से अधिक बैंक अकाउंट्स हैं जिनमें उसे विदेश से रक़म मिलती है। मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी के सबसे बड़े दानदाता अमेरिका और ब्रिटेन में हैं जहां से उसे 15 करोड़ से अधिक रक़म मिली। एमओसी इंडिया को यह रक़म प्राथमिक स्वास्थ्य, शिक्षा सहायता, कुष्ठ रोगियों के इलाज आदि के लिए दी गई क्योंकि संस्था इन्हीं उद्देश्यों पर काम करती है।

ममता का ट्वीट

सोमवार को ही पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के एक ट्वीट के बाद मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी ने स्पष्टीकरण जारी किया कि उनका एफसीआरए पंजीकरण रद्द नहीं किया गया है। संस्था ने यह भी बताया कि गृह मंत्रालय ने उनके बैंक खातों को फ़्रीज़ करने का आदेश नहीं दिया है। संस्था के मुताबिक उन्हें बताया गया है कि उनके विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम यानी एफसीआरए नवीनीकरण आवेदन को स्वीकृति नहीं मिली है।

संस्था ने एक पत्र जारी कर कहा, "हम हमारे शुभचिंतकों की चिंताओं की सराहना करते हैं। हम स्पष्ट करना चाहते हैं कि मिशनरीज़ ऑफ़ चैरिटी का एफसीआरए पंजीकरण निलंबित या रद्द नहीं हुआ है। गृह मंत्रालय ने संस्था के बैंक खातों को फ़्रीज़ करने के आदेश भी नहीं दिए हैं।"

Monday, December 27, 2021

भारत-बांग्ला रिश्तों के खट्टे-मीठे पचास साल


भारत-बांग्लादेश रिश्तों में विलक्षणता है। दोनों एक-दूसरे के लिए ‘विदेश’ नहीं हैं। 1947 में जब पाकिस्तान बना था, तब वह ‘भारत’ की एंटी-थीसिस के रूप में उभरा था, और आज भी खुद को भारत के विपरीत साबित करना चाहता है। अपने ‘सकल-बांग्ला’ परिवेश में बांग्लादेश, ‘भारत’ जैसा लगता है, विरोधी नहीं। ऐसे लोग भी हैं, जिन्हें ऐसी एकता पसंद नहीं, हमारे यहाँ और उनके यहाँ भी। बांग्लादेश के कुछ विश्लेषक, शेख हसीना के विरोधी खासतौर से मानते हैं कि पिछले एक दशक में भारत का प्रभाव कुछ ज़्यादा ही बढ़ा है। तब इन दिनों जो मैत्री नजर आ रही है, वह क्या केवल शेख हसीना की वजह से है? ऐसा है, तो उनके बाद क्या होगा?

विभाजन की कड़वाहट

दक्षिण एशिया में विभाजन की कड़वाहट अभी तक कायम है, पर यह एकतरफा और एक-स्तरीय नहीं है। पाकिस्तान का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-विरोधी है, फिर भी वहाँ जनता के कई तबके भारत में अपनापन भी देखते हैं। बांग्लादेश का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-मित्र है, पर कट्टरपंथियों का एक तबका भारत-विरोधी भी है। भारत में भी एक तबका बांग्लादेश के नाम पर भड़कता है। उसकी नाराजगी ‘अवैध-प्रवेश’ को लेकर है या उन भारत-विरोधी गतिविधियों के कारण जिनके पीछे सांप्रदायिक कट्टरपंथी हैं। पर भारतीय राजनीति, मीडिया और अकादमिक जगत में बांग्लादेश के प्रति आपको कड़वाहट नहीं मिलेगी। शायद इन्हीं वजहों से पड़ोसी देशों में भारत के सबसे अच्छे रिश्ते बांग्लादेश के साथ हैं।

पचास साल का अनुभव है कि बांग्लादेश जब उदार होता है, तब भारत के करीब होता है। जब कट्टरपंथी होता है, तब भारत-विरोधी। शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार के साथ भारत के अच्छे रिश्तों की वजह है 1971 की वह ‘विजय’ जिसे दोनों देश मिलकर मनाते हैं। वही विजय कट्टरपंथियों के गले की फाँस है। पिछले 12 वर्षों में अवामी लीग की सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने में काफी मदद की है। भारत ने भी शेख हसीना के खिलाफ हो रही साजिशों को उजागर करने और उन्हें रोकने में मदद की है।

लोकतांत्रिक अनुभव

शायद इन्हीं कारणों से जब 2014 के चुनाव हो रहे थे, तब भारत ने उन चुनावों में दिलचस्पी दिखाई थी और हमारी तत्कालीन विदेश सचिव सुजाता सिंह ढाका गईं थीं। उस चुनाव में खालिदा जिया के मुख्य विरोधी-दल बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी ने चुनाव का बहिष्कार किया था। दुनिया के कई देश उस चुनाव की आलोचना कर रहे थे। भारत ने समर्थन किया था, इसलिए कि बांग्लादेश में अस्थिरता का भारत पर असर पड़ता है।

उस विवाद से सबक लेकर भारत ने 2018 के चुनाव में ऐसा कोई प्रयास नहीं किया, जिससे लगे कि हम उनकी चुनाव-व्यवस्था में हस्तक्षेप कर रहे हैं। उस चुनाव में अवामी लीग ने कुल 300 में से 288 सीटों पर विजय पाई। दुनिया के मुस्लिम-बहुल देशों में बांग्लादेश का एक अलग स्थान है। वहाँ धर्मनिरपेक्षता बनाम शरिया-शासन की बहस है। बांग्लादेश इस अंतर्विरोध का समाधान करने में सफल हुआ, तो उसकी सबसे महत्वपूर्ण सफलता माना जाएगा।

क्रूर वर्ष, जो उम्मीदें भी छोड़ गया


इक्कीसवीं सदी का इक्कीसवाँ साल पिछले सौ वर्षों का सबसे क्रूर वर्ष साबित हुआ। महामारी ने जैसा भयानक रूप इस साल दिखाया, वैसा पिछले साल भी नहीं दिखाया था, जब वह तेजी से फैली थी। खासतौर से हमारे देश ने बेबसी के सबसे मुश्किल क्षण देखे। इसी तरह हेलीकॉप्टर दुर्घटना में सीडीएस जनरल बिपिन रावत और उनकी पत्नी समेत कुल 14 लोगों को खोना सबसे दुखद घटनाओं में से एक था। साल जितना क्रूर था, लड़ने के हौसलों की शिद्दत भी इसी साल देखने को मिली। अर्थव्यवस्था पटरी पर वापस आ रही है, वैक्सीनेशन नई ऊँचाई पर है। उम्मीद है बच्चों की पढ़ाई पूरी होगी। राजद्रोह बनाम देशद्रोह मामले पर नई बहस इस साल शुरू हुई, जिसकी परिणति आने वाले वर्ष में देखने को मिलेगी। राजनीतिक जासूसी और टैक्स चोरी से जुड़े दो मामले इस साल उछले। एक पेगासस और दूसरा पैंडोरा पेपर लीक। इन सब बातों के बावजूद साल का अंत निराशाजनक नहीं है। उम्मीदें जगाकर ही जा रहा है यह साल।

महामारी

महामारी इस साल भी सबसे बड़ी परिघटना थी। पिछले दो वर्षों में देश में करीब साढ़े तीन करोड़ लोग संक्रमित हुए हैं। करीब 4.80 लाख लोगों की मौत हुई है। तीन करोड़ 42 लाख से ज्यादा ठीक भी हो चुके हैं, पर अप्रेल के पहले हफ्ते से लेकर जून के दूसरे हफ्ते तक जो लहर चली, उसने देश को हिलाकर रख दिया। अलबत्ता 2 जनवरी को भारत ने दो वैक्सीनों के आपातकालीन इस्तेमाल की अनुमति दी और 16 जनवरी से वैक्सीनेशन शुरू हो गया। शनिवार की सुबह आठ बजे तक देश में 140 करोड़ 31 लाख से ज्यादा टीके लग चुके हैं। आईसीएमआर के अनुसार देश में इस समय  पॉज़िटिविटी रेट एक फीसदी से भी कम है। मृत्यु दर 1.38 फीसदी है और रिकवरी रेट 98.40 फीसदी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सीरम इंस्टीट्यूट में बनी कोवोवैक्स को बच्चों पर इमरजेंसी इस्तेमाल की मंजूरी दे दी है। उम्मीद है कि नए साल में हालात सुधरते जाएंगे।

ममता का अभियान

पश्चिम बंगाल, केरल, असम, पुदुच्चेरी और तमिलनाडु विधानसभा चुनाव इस साल की सबसे महत्वपूर्ण घटनाक्रम था। इनमें सबसे महत्वपूर्ण परिणाम पश्चिम बंगाल से आए, जहाँ ममता बनर्जी लगातार तीसरी बार सत्ता पर काबिज होने में सफल हुईं। चुनाव के पहले और परिणाम आने के बाद की खूनी हिंसा को भी साल की सुर्खियों में शामिल किया जाना चाहिए। इस चुनाव के बाद ममता बनर्जी ने कांग्रेस के स्थान पर खुद को विपक्ष का नेता साबित करने का अभियान शुरू किया है। जिस तरह से गोवा में उनकी पार्टी सक्रिय हुई है, उससे लगता है कि आने वाले वर्ष के राजनीतिक पिटारे में कई रोचक संभावनाएं छिपी बैठी रखी हैं।

भाजपा की पहल

ज्यादा बड़े फेरबदल इस साल बीजेपी में हुए हैं। जुलाई में कर्नाटक में बीएस येदियुरप्पा के स्थान पर बसवराज बोम्मई को मुख्यमंत्री बनाया गया। सितंबर में गुजरात में विजय रूपाणी के हटाकर भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाया गया। पूरे मंत्रिमंडल को बदल दिया गया। उत्तराखंड में दो बार मुख्यमंत्री बदले गए। केंद्रीय मंत्रिपरिषद में भारी फेरबदल भी इस साल की बड़ी घटनाएं रहीं। इसे विस्तार के बजाय नवीनीकरण कहना चाहिए। अतीत में किसी मंत्रिमंडल का विस्तार इतना विस्मयकारी नहीं हुआ होगा। पिछले साल प्रधानमंत्री ने अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास किया था, तो इस साल उन्होंने वाराणसी में 'श्री काशी विश्वनाथ धाम' का लोकार्पण किया। इस कार्यक्रम की भव्यता को देखते हुए लगता है कि भारतीय जनता पार्टी अपने सांस्कृतिक-एजेंडा को लगातार चलाए रखेगी।

Sunday, December 26, 2021

बांग्लादेश के संदर्भ में इंदिरा गांधी को याद करने की जरूरत


बांग्लादेश के पचास वर्ष पूरे होने पर भारतीय भूखंड के विभाजन की याद फिर से ताजा हो रही है। साथ ही उन परिस्थितियों पर फिर से विचार हो रहा है, जिनमें बांग्लादेश की नींव पड़ी। बांग्लादेश में इस साल मुजीब-वर्ष यानी शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है। बांग्लादेश की मुक्ति और स्वतंत्रता संग्राम के 50 वर्ष के साथ दोनों देशों के राजनयिक संबंधों के 50 साल भी पूरे हो रहे हैं। मार्च में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बांग्लादेश की यात्रा पर गए थे और अब राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद वहाँ गए।

इस दौरान देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नाम का उल्लेख नहीं होने पर बहुत से लोगों ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। वयोवृद्ध नेता कर्ण सिंह ने 17 दिसंबर को कहा कि इंदिरा गांधी के मजबूत और निर्णायक नेतृत्व के बिना बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम को जीता नहीं जा सकता था। विरोधी दलों के नेताओं ने भी इसी किस्म के विचार व्यक्त किए। लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने स्पीकर ओम बिरला को पत्र लिखकर उनके बयान का संदर्भ देते हुए याद दिलाया कि विजय दिवस इंदिरा गांधी के साहसिक और निर्णायक फैसले की वजह से है। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने विपक्ष में रहने के बावजूद इंदिरा गांधी की प्रशंसा की थी और उन्हें 1971 की बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई के बाद ‘दुर्गा’ का अवतार बताया था।

असाधारण विजय

बांग्लादेश की मुक्ति एक सामान्य लड़ाई नहीं थी। हालात केवल एक देश और समाज की मुक्ति तक सीमित नहीं थे। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद एक और बड़े युद्ध के हालात बन गए थे, जिनमें एक तरफ पाकिस्तान, चीन और अमेरिका खड़े थे और दूसरी तरफ भारत और रूस। छोटे से गलत कदम से बड़ी दुर्घटना हो सकती थी। उस मौके पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के नाम जो खुला पत्र लिखा था, उसने भी वैश्विक जनमत को भारत के पक्ष में मोड़ने में भूमिका निभाई और निक्सन जैसे राजनेता को बौना बना दिया। साथ ही सातवें बेड़े के कारण पैदा हुए भय का साहस के साथ मुकाबला किया। उस दौरान अमेरिकी पत्रकारों ने अपने नेतृत्व की इस बात के लिए आलोचना भी की थी कि भारत को रूस के साथ जाने को मजबूर होना पड़ा। इसलिए एक नजर उन परिस्थितियों पर फिर से डालने की जरूरत है।

बांग्लादेश की स्थापना के पीछे की परिस्थितियों पर विचार करते समय उन दिनों भारत और पाकिस्तान दोनों देशों में हुए संसदीय चुनावों के परिणामों पर भी विचार करना चाहिए। भारत में फरवरी 1971 में और उसके करीब दो महीने पहले पाकिस्तान में। पाकिस्तान के फौजी तानाशाह जनरल याह्या खान ने आश्चर्यजनक रूप से राष्ट्रीय असेम्बली के स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने का फैसला किया। उन्हें अनुमान ही नहीं था कि पूर्वी पाकिस्तान इस लोकतांत्रिक-गतिविधि के सहारे पश्चिम को सबक सिखाने का फैसला करके बैठा है। याह्या खान को लगता था कि किसी को बहुमत मिलेगा नहीं, जिससे मेरी सत्ता चलती रहेगी। पर शेख मुजीबुर्रहमान की अवामी लीग को न केवल पूर्वी पाकिस्तान की 99 फीसदी सीटें मिलीं, बल्कि राष्ट्रीय असेम्बली में पूर्ण बहुमत भी मिल गया, पर पश्चिमी पाकिस्तान के सत्ता-प्रतिष्ठान ने उन्हें प्रधानमंत्री पद देने से इनकार कर दिया।

उम्मीदें जगाकर विदा होता साल

नई वास्तविकताओं से रूबरू रहा 2021 का साल

उम्मीदों और असमंजस की लहरों पर उतराती कागज की नाव जैसी है गुजरते साल 2021 की तस्वीर। जैसे 2020 का साल सपनों पर पानी फेरने वाला था, तकरीबन वैसे ही इस साल ने भी हमारी उम्मीदों और मंसूबों को नाकामयाब बनाया। पर देश और दुनिया का जज़्बा भी इसी साल शिद्दत के साथ देखने को मिला। दिल पर हाथ रखें और कुल मिलाकर देखें, तो इस साल का अंत निराशाजनक नहीं है। उम्मीदें जगाकर ही जा रहा है यह साल।

महामारी का सबसे भयानक दौर इस साल चला। किसान आंदोलन और केंद्र सरकार द्वारा तीनों कृषि-कानूनों की नाटकीय वापसी और अंततः किसान आंदोलन की वापसी इस साल की बड़ी घटनाओं में शामिल हैं। इसके साथ-साथ देश में राजद्रोह बनाम देशद्रोह मामले पर बहस शुरू हुई है। यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में है, जिसका निर्णय लोकतांत्रिक-व्यवस्था पर गहरा असर डालेगा। पेगासस-जासूसी प्रकरण भी इस साल संसद के मॉनसून सत्र पर छाया रहा। अंततः इस मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया है और जाँच के लिए एक एक्सपर्ट कमेटी का गठन कर दिया है जिसके बाद इसका सच सामने आने की संभावनाएं काफी ज्यादा बढ़ गई हैं।

राजनीतिक घटनाक्रम

आमतौर पर देश का घटनाचक्र राजनीति के इर्द-गिर्द घूमता है। पर पिछले साल महामारी ने राजनीतिक घटनाओं को छिपा दिया था। इस साल महामारी के बावजूद राजनीतिक गतिविधियाँ भी जारी रहीं। यह साल पश्चिम बंगाल के चुनावों में ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की विजय के लिए याद रखा जाएगा। इसके अलावा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्रीय मंत्रिपरिषद में भारी फेरबदल भी इस साल की बड़ी घटनाएं रहीं। केंद्र सरकार ने इस साल जम्मू-कश्मीर के राजनेताओं से सीधी बातचीत करके एक और बड़ी पहल की। पिछले साल प्रधानमंत्री ने अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास किया था, तो इस साल उन्होंने वाराणसी में 'श्री काशी विश्वनाथ धाम' का लोकार्पण किया। इस कार्यक्रम की भव्यता को देखते हुए लगता है कि भारतीय जनता पार्टी अपने सांस्कृतिक-एजेंडा को लगातार चलाए रखेगी। इस साल जिन राज्यों में चुनाव होने वाले हैं उनमें उत्तर प्रदेश भी शामिल है, जो बीजेपी की उम्मीदों का सबसे बड़ा केंद्र है।

आर्थिक-दृष्टि से देश ने इस साल कोरोना के कारण लगे झटकों को पार करके महामारी से पहले की स्थिति को प्राप्त कर लिया है, पर साल का अंत होते-होते ओमिक्रॉन के हमले के अंदेशे ने अनिश्चय को जन्म दे दिया है। चालू वर्ष की दूसरी तिमाही में जीडीपी की 8.4 फीसदी की वृद्धि अनुमान के अनुरूप है। इस आधार पर अनुमान है कि वर्ष के अंत तक अर्थव्यवस्था रिजर्व बैंक के अनुमान के मुताबिक 9.5 फीसदी की वृद्धि दर हासिल कर लेगी या उसे पार कर जाएगी। संवृद्धि के लिए सरकार को निवेश बढ़ाना होगा, खासतौर से इंफ्रास्ट्रक्चर में। पर इसका असर राजकोषीय घाटे के रूप में दिखाई पड़ेगा। चालू वित्तवर्ष में राजकोषीय घाटा 6.8 फीसदी के स्तर पर भी रहा, तो यह राहत की बात होगी।

विदेश-नीति

अंतरराष्ट्रीय राजनीति में अफगानिस्तान में हुए सत्ता-पलट के बाद लगे प्रारंभिक झटकों के बावजूद भारतीय विदेश-नीति का दबदबा इस साल बढ़ा। साल की शुरुआत ही भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में मिली सदस्यता से हुई, जो दो साल तक रहेगी। भारत सरकार ने अमेरिका के साथ चतुष्कोणीय सुरक्षा (क्वॉड) को पुष्ट किया है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का अमेरिका-यात्रा और क्वॉड के शिखर सम्मेलन से भारत-अमेरिका रिश्तों को मजबूती मिली है, दूसरी तरफ रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन की साल के अंत में भारत यात्रा और दोनों देशों के बीच टू प्लस टू वार्ताके बात भारतीय विदेश-नीति की स्वतंत्रता और संतुलन भी स्थापित हुआ है। 

Friday, December 24, 2021

पत्रकारिता के नाम ममता बनर्जी का यह कैसा संदेश है?


पश्चिम बंगाल सरकार और पत्रकारों के रिश्तों से जुड़ी दो खबरें हाल में पढ़ने को मिलीं। दोनों हालांकि दो विपरीत दिशाओं में थीं, पर दोनों के पीछे इरादा एक ही नज़र आ रहा था। सत्ताधारी की तारीफ करोगे तो वह आपको खुशी देगा, नहीं करोगे तो वह आपको खुश नहीं रहने देगा। सिद्धांत तो यह कहता है कि पत्रकार की जिम्मेदारी तथ्यों के आधार पर समाचार और विचारों को प्रकाशित करने की होती है। विज्ञापन पाना या प्रचार करना उसका काम नहीं है। दूसरी तरफ विचार और अभिव्यक्ति की मर्यादा को बनाए रखने के लिए उसकी जिम्मेदारियाँ भी हैं, जो उसे सकारात्मकता से जोड़ती हैं। जरूरी होने पर ताकतवर से भिड़ने का साहस भी रखता है। दूसरी तरफ राजनीति और सत्ता की सैद्धांतिक-मर्यादा कहती है कि राज-शक्ति का इस्तेमाल न तो वैचारिक दमन के लिए हो और न प्रचार को
खरीदने के लिए।

सेवा करो, मेवा पाओ

हाल में ममता बनर्जी का एक वीडियो वायरल हुआ है, जिसमें वे कह रही हैं कि अखबारों को विज्ञापन चाहिए, तो सकारात्मक खबरें लिखें। सकारात्मक का मतलब है सरकार के पक्ष में। यह बात उन्होंने छिपाकर नहीं, एक सम्मेलन में खुलेआम कही है। उन्होंने यह भी कहा है कि स्थानीय अखबारों को विज्ञापन हासिल करने हैं, तो ज़िला मजिस्ट्रेट के दफ्तर में पॉजिटिव खबरों वाली प्रतियाँ जमा करें। फिर उन्हें विज्ञापन मिलेंगे। सकारात्मक और नकारात्मक खबरों का अर्थ बहुत व्यापक है। किसी भी सकारात्मक सूचना को तथ्यों में तोड़-मरोड़ करके नकारात्मक बनाया जा सकता है। जीवन के सकारात्मक और नकारात्मक पक्ष भी होते हैं। पर यह चर्चा फिलहाल कवरेज के राजनीतिक निहितार्थ तक सीमित है।

Thursday, December 23, 2021

अफस्पा पर राष्ट्रीय-बहस होनी चाहिए

2004 में मणिपुर लिबरेशन आर्मी की सदस्य होने के आरोप में थंगियन मनोरमा की मौत के बाद मणिपुरी महिलाओं का निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन

नगालैंड विधानसभा ने सोमवार 20 दिसंबर को सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पास करके केंद्र से उत्तर पूर्व और विशेष रूप से नगालैंड से सशस्त्र बल (विशेष शक्तियां) अधिनियम यानी अफस्पा को वापस लेने की माँग की। इस महीने के शुरू में राज्य के मोन जिले में हुई फायरिंग में 14 नागरिकों के मारे जाने के मामले में भी विधानसभा में निंदा प्रस्ताव पारित किया गया। नगालैंड पुलिस ने कहा था कि सेना के 21 पैरा स्पेशल फोर्स ने नागरिकों की हत्या और घायल करने के इरादे से गोलीबारी की थी। पड़ोसी राज्य मेघालय ने भी इसे हटाने की माँग की है। असम और मणिपुर में कांग्रेस पार्टी इस आशय की माँग कर रही है।

नगालैंड सरकार का नेतृत्व भाजपा की सहयोगी नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी कर रही है। प्रस्ताव में अधिकारियों से हत्याओं पर माफी मांगने और न्याय दिलाने का आश्वासन भी माँगा गया है। उधर असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्व सरमा ने कहा है कि हम फिलहाल राज्य में अफस्पा को जारी रखना चाहेंगे। बाद में कानून-व्यवस्था की स्थिति ठीक रही, तो इसकी समीक्षा करेंगे। उन्होंने कहा, कानून-व्यवस्था की स्थिति ठीक हो तो कोई भी राज्य अफस्पा को चलाए रखना नहीं चाहेगा। पर हम इसे वापस ले भी लें, तो क्या आतंकवादी अपनी गतिविधियाँ बंद कर देंगे? इस कानून की वापसी शांति-व्यवस्था की स्थापना से जुड़ी है।

उदासीनता क्यों?

ज्यादातर राजनीतिक दलों की माँगे जनता के मिजाज को देखते हुए होती हैं। नगालैंड में निर्दोष नागरिकों की मौत बहुत दुखद घटना थी। सरकार के खेद जताने से लोगों का गुस्सा कम नहीं होगा। सेना कह सकती है कि ऐसी दुखद घटनाएं कभी-कभी हो जाती हैं, पर इसका विश्लेषण करना जरूरी है कि आखिर इस उदासीनता एवं अभिमान की वजह क्या है।

पूर्वोत्तर के राज्य, खासकर जिन राज्यों में उग्रवाद सक्रिय है, वे देश के मुख्य भाग से कटे हैं। इन राज्यों के लोगों के प्रति निष्ठुर रवैये की एक वजह यह हो सकती है कि वे राष्ट्रीय मीडिया की पहुंच से दूर हैं और ज्यादातर गरीब हैं। अफस्पा भी इस निष्ठुरता की एक वजह है। पूर्वोत्तर भारत के अधिकतर राजनीतिक दल इस कानून को समाप्त करने की मांग कर रहे हैं। मेघालय और नगालैंड में भाजपा गठबंधन के मुख्यमंत्री भी यही मांग कर रहे हैं।

तीन सत्य

वरिष्ठ पत्रकार शेखर गुप्ता ने हाल में लिखा है कि इस विशेष कानून के बारे में हम तीन कड़वे सत्य से परिचित हैं? पहला, अगर इस कानून से सशस्त्र बलों को विशेष अधिकार नहीं मिले होते तो यह हिंसा कभी नहीं होती। सेना की टुकड़ी को तब स्थानीय प्रशासन और पुलिस को विश्वास में लेना पड़ता। अगर स्थानीय भाषा की जानकारी होती तो भी हालात यहां तक नहीं पहुंचते। जिस स्थान या क्षेत्र से आप जितनी दूर होते हैं वहां की भाषा समझना उतना ही महत्त्वपूर्ण हो जाता है।

दूसरा सत्य यह है कानून समाप्त करने का अब समय आ गया है। कम से कम जिस रूप में इस कानून की इजाजत दी गई है वह किसी भी तरीके से सेना या हमारे राष्ट्रीय हितों की सुरक्षा में मदद नहीं कर पा रहा है। तीसरा और सर्वाधिक कड़वा सत्य यह है कि तमाम विरोध प्रदर्शन के बावजूद सरकार यह कानून वापस नहीं लेगी। अखबारों में इस विषय पर कितने ही आलेख क्यों न लिखे गए हों, पर एक के बाद एक सरकारों का रवैया ढुलमुल रहा है। इस कानून पर एक बड़ा राजनीतिक दांव लगा हुआ है।

मोदी-शाह सहित कोई भी सरकार इस विषय पर नरम रुख रखने के लिए तैयार नहीं होगी। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार भी अपने 10 वर्ष के कार्यकाल में यह हिम्मत नहीं जुटा पाई। चूंकि, यह कानून निरस्त नहीं होगा इसलिए यह गुंजाइश खोजनी होगी कि हम किस तरह जरूरत होने पर ही इस कानून का इस्तेमाल करें।

Sunday, December 19, 2021

अर्थव्यवस्था पर महंगाई का खतरा


 कोविड के नए वेरिएंट के सामने आने के बाद दुनिया के सामने कई प्रकार के खतरे खड़े हो रहे हैं। भारत में इसका सबसे बड़ा प्रभाव आर्थिक संवृद्धि पर पड़ सकता है। कम से कम दो जगहों पर हम प्रत्यक्ष रूप में इसे देख सकते हैं। एक, महंगाई और दूसरे बेरोजगारी। कच्चे माल की ऊँची कीमतों, परिवहन की लागत, सप्लाई चेन में अड़ंगों आदि के कारण लागत में वृद्धि के दबाव मुद्रास्फीति को बढ़ा रहे हैं। ऐसे में ओमिक्रॉन, महंगाई और बेरोजगारी जैसे शब्द परेशान कर रहे हैं। उधर देश के विदेशी-मुद्रा भंडार में लगातार तीन सप्ताह से गिरावट है। गिरावट की वजह विदेशी मुद्रा आस्तियोंं (एफसीए) में गिरावट आना है, जो कुल मुद्रा भंडार का महत्वपूर्ण हिस्सा है।

थोक मूल्य सूचकांक

देश में थोक मूल्य सूचकांक (डब्लूपीआई) 2011-12 सीरीज के अपने अधिकतम स्तर पर पहुंच गया है। उद्योग मंत्रालय ने 14 दिसंबर को थोक महंगाई दर से जुड़े जो ताजा आँकड़े जारी किए हैं, उनके मुताबिक, नवंबर 2021 में यह दर 14.23 प्रतिशत पर पहुंच गई, जो पिछले 12 साल का उच्चतम स्तर है। एक साल पहले नवंबर 2020 में यह 2.29 फीसदी थी। मुख्यतः खाद्य और ईंधन से जुड़ी ऊँची थोक मुद्रास्फीति ने देश में महंगाई को रिकॉर्ड पर पहुँचा दिया। अब आशंका है कि आगामी महीनों में खुदरा मुद्रास्फीति उच्च स्तर पर पहुंच सकती है। ऐसा खाद्य मुद्रास्फीति के 4.88 फीसदी पर पहुंचने और ईंधन महंगाई उच्च पेट्रोलियम कीमतों के मुकाबले 39.81 फीसदी पर पहुंचने के कारण हुआ है। इस साल अप्रैल से लगातार आठवें महीने थोक मुद्रास्फीति 10 फीसदी के ऊपर बनी हुई है।

बेमौसम तेजी

सब्जियों की कीमत में बेमौसम तेजी के साथ अंडों, मांस और मछली के दामों में वृद्धि तथा मसालों के दाम में आई तेजी ने प्राथमिक खाद्य मुद्रास्फीति को नवंबर महीने में 4.9 फीसदी के साथ 13 महीनों के उच्च स्तर पर पहुँचा दिया है। थोक बाजार में कीमतों में हुए बदलाव को बताया है थोक मूल्य सूचकांक। इसका मकसद बाजार में उत्पादों की गतिशीलता पर नजर रखना है, ताकि माँग और आपूर्ति की स्थिति का पता चल सके। इससे निर्माण उद्योग और उत्पादन से जुड़ी स्थितियों का पता भी लगता रहता है। पर इस सूचकांक में सर्विस सेक्टर की कीमतें शामिल नहीं होतींऔर यह बाजार के उपभोक्ता मूल्य की स्थिति को भी नहीं दिखाता है। पहले डब्लूपीआई का बेस ईयर 2004-05 था, लेकिन अप्रैल 2017 में इसे बदलकर 2011-12 कर दिया गया है।

नागरिकों पर प्रभाव

पुराने बेस ईयर के हिसाब से देखें, तो डब्लूपीआई अप्रैल 2005 से लेकर अब तक के अपने उच्चतम स्तर पर है। ग्राहक के तौर पर हम खुदरा बाजार से सामान खरीदते हैं। इससे जुड़ी कीमतों में बदलाव उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) में दिखाई पड़ता है। सरकार ने डब्लूपीआई के साथ ही सीपीआई के ताजा आँकड़े भी जारी किए हैं। इसके मुताबिक, सीपीआई पर आधारित खुदरा महंगाई दर नवंबर 2021 में 4.91 प्रतिशत पर पहुंच गई है। यह दर तीन महीने के उच्चतम स्तर पर है। बहरहाल थोक मूल्य सूचकांक बढ़ा, तो उपभोक्ता सूचकांक भी बढ़ेगा। फिलहाल वह 4.91 प्रतिशत है, जो रिजर्व बैंक की संतोष-रेखा छह प्रतिशत के भीतर है। फिर भी थोक और खुदरा का असंतुलन चिंता पैदा कर रहा है।

Thursday, December 16, 2021

बांग्लादेश के 50 वर्ष


दूसरे विश्वयुद्ध के बाद बांग्लादेश पहला ऐसा देश था, जो युद्ध के बाद नए देश के रूप में सामने आया था। इस देश के उदय ने भारतीय भूखंड के धार्मिक विभाजन को गलत साबित किया। पूर्वी पाकिस्तान हालांकि मुस्लिम-बहुत इलाका था, पर वह बंगाली था। यह बात शायद आज भी पाकिस्तान के सूत्रधारों को समझ में नहीं आती है। पाकिस्तान के संस्थापक मुहम्मद अली जिन्ना को भी यह बात समझ में नहीं आई थी। उन्होंने 1948 में ढाका विवि में कहा कि किसी को संदेह नहीं रहना चाहिए, पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी। उन्होंने उर्दू के साथ बांग्ला को भी देश की राष्ट्रभाषा बनाने की माँग करने वालों को  इस भाषण से बांग्लादेश की नींव उसी दिन पड़ गई थी। यह सब अब इतिहास के पन्नों में दर्ज है, पर बांग्लादेश के पचास वर्ष पूरे होने पर भारतीय भूखंड के विभाजन की याद फिर से ताजा हो रही है।

दक्षिण एशिया में विभाजन की कड़वाहट अभी तक कायम है, पर यह एकतरफा और एक-स्तरीय नहीं है। पाकिस्तान का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-विरोधी है, फिर भी वहाँ जनता के कई तबके भारत में अपनापन भी देखते हैं। बांग्लादेश का सत्ता-प्रतिष्ठान भारत-मित्र है, पर कट्टरपंथियों का एक तबका भारत-विरोधी भी है। भारत में भी एक तबका बांग्लादेश के नाम पर भड़कता है। उसकी नाराजगी ‘अवैध-प्रवेश’ को लेकर है या उन भारत-विरोधी गतिविधियों के कारण जिनके पीछे सांप्रदायिक कट्टरपंथी हैं। पर भारतीय राजनीति, मीडिया और अकादमिक जगत में बांग्लादेश के प्रति आपको कड़वाहट नहीं मिलेगी। शायद इन्हीं वजहों से पड़ोसी देशों में भारत के सबसे अच्छे रिश्ते बांग्लादेश के साथ हैं।

पचास साल का अनुभव है कि बांग्लादेश जब उदार होता है, तब भारत के करीब होता है। जब कट्टरपंथी होता है, तब भारत-विरोधी। शेख हसीना के नेतृत्व में अवामी लीग की सरकार के साथ भारत के अच्छे रिश्तों की वजह है 1971 की वह ‘विजय’ जिसे दोनों देश मिलकर मनाते हैं। वही विजय कट्टरपंथियों के गले की फाँस है। पिछले 12 वर्षों में अवामी लीग की सरकार ने भारत के पूर्वोत्तर में चल रही देश-विरोधी गतिविधियों पर रोक लगाने में काफी मदद की है। भारत ने भी शेख हसीना के खिलाफ हो रही साजिशों को उजागर करने और उन्हें रोकने में मदद की है। 

Sunday, December 12, 2021

कोरोना और वैश्विक-जागरूकता


संयोग है कि आज अंतर्राष्ट्रीय सार्वभौमिक-स्वास्थ्य कवरेज दिवसहै और हम  ओमिक्रॉन पर चर्चा कर रहे हैं, जो सार्वभौमिक-स्वास्थ्य के लिए नए खतरे के रूप में सामने आ रहा है। संयुक्त राष्ट्र द्वारा घोषित यह दिन हर साल 12 दिसंबर को मनाया जाता है। सार्वभौमिक-स्वास्थ्य वैसा ही एक अधिकार है, जैसे जीवित रहना, शिक्षा प्राप्त करना, रोजगार पाना और विचरण करना जैसे मानवाधिकार हैं। उद्देश्य सार्वभौमिक-स्वास्थ्य कवरेज के बारे में जागरूकता को बढ़ाना है। इस साल की थीम हैकिसी के स्वास्थ्य की उपेक्षा न हो, सबके स्वास्थ्य पर निवेश हो। आइए दुनिया के स्वास्थ्य और उससे जुड़ी जागरूकता पर एक नजर डालें।

गरीबों को मयस्सर नहीं

दूसरे से तीसरे साल में प्रवेश कर रही महामारी और वैश्विक स्वास्थ्य-कवरेज पर विचार के लिए यह उचित समय है। टीकाकरण ठीक से हुआ, तो सार्वभौमिक इम्यूनिटी पैदा हो सकती है। पर इसमें भारी असमानता वैश्विक गैर-बराबरी को रेखांकित कर रही है। टीके कारगर हैं, पर उस स्तर को नहीं छू पा रहे हैं, जिससे हर्ड इम्युनिटी पैदा हो। अमीर देशों में टीके इफरात से हैं और लगवाने वाले उनका विरोध कर रहे हैं। दूसरी तरफ गरीब देशों में लोग टीकों का इंतजार कर रहे हैं, और उन्हें टीके मयस्सर नहीं हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आगाह किया है कि अमीर देश, वैक्सीन वितरण के लिए यूएन समर्थित ‘कोवैक्स’ पहल में मदद करने के बजाय, टीकों को अपने कब्जे में रखेंगे, तो महामारी का जोखिम बढ़ेगा।

अनैतिक-अत्याचार

तमाम नकारात्मक खबरों के बावजूद विशेषज्ञों को भरोसा है कि आने वाले साल में महामारी पर नियंत्रण पाना संभव है। विश्व स्वास्थ्य संगठन की मुख्य विशेषज्ञ मारिया वान करखोव ने हाल में पत्रकारों से कहा था, महामारी को रोकने के औजार हमारे हाथों में है। जरूरत ऐसे पड़ाव पर पहुँचने की है जहाँ से कह सकें कि संक्रमण पर नियंत्रण पा लिया गया है। अब तक हम ऐसा कर भी सकते थे, पर कर नहीं पाए। अमीर देशों में करीब 65 प्रतिशत लोग टीके लगवा चुके हैं और गरीब देशों में सात प्रतिशत को टीके की कम से कम एक खुराक मिली है। यह असंतुलन अनैतिक और अत्याचार है। रायटर्स की रिपोर्ट के अनुसार विश्व स्वास्थ्य संगठन ने गुरुवार को अमीर देशों को चेतावनी दी कि वे अपने यहाँ बूस्टर शॉट्स की व्यवस्था के बारे में फिलहाल न सोचें, बल्कि गरीब देशों के लिए टीके भेजें, क्योंकि वहाँ टीकाकरण बहुत धीमा है।

जबर्दस्त असंतुलन

जनसंख्या के आधार पर देखें, तो अमीर देशों में गरीब देशों की तुलना में 17 गुना टीकाकरण हुआ है। पीपुल्स वैक्सीन अलायंस संगठन के अनुसार अकेले ब्रिटेन में तीसरे बूस्टर शॉट्स की संख्या निर्धनतम देशों के कुल वैक्सीनेशन से ज्यादा है। युनिसेफ के अनुसार 10 दिसंबर तक दुनिया के 144 देशों को कोवैक्स के माध्यम से केवल 65 करोड़ से कुछ ऊपर डोज़ मिल पाई हैं। अफ्रीका की 80 फीसदी से ज्यादा आबादी को पहली डोज़ भी नहीं मिल पाई है। ये गरीब देश पूरी तरह से कोवैक्स-व्यवस्था पर ही निर्भर हैं। उदाहरण के लिए हेती में 1.00, कांगो में 0.02 और बुरुंडी में 0.01 फीसदी लोगों को कम से कम एक डोज़ लगी है।

Friday, December 10, 2021

किसान-आंदोलन के बाद अब क्या होगा?


करीब 14 महीनों से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों ने आंदोलन को स्थगित करने की घोषणा की है। अब देखना होगा कि यह विषय राष्ट्रीय-विमर्श का विषय रहता है नहीं। किसान इसे अपनी विजय मान सकते हैं, पर सरकार को इसे अपनी पराजय नहीं मानना चाहिए। अभी तक कोई भी निर्णायक फैसला नहीं हुआ है, केवल वे तीन कानून वापस हुए हैं, जिन्हें सरकार लाई थी। इन कानूनों की प्रासंगिकता और निरर्थकता को लेकर अब विचार होना चाहिए।

कृषि-सुधार पर विमर्श

अभी इस विषय पर चर्चा नहीं हुई है कि सरकार कानून लाई ही क्यों थी। क्या भारतीय कृषि में सुधार की जरूरत है? सुधार किस प्रकार का हो और कैसे होगा? देश की राजनीतिक व्यवस्था और खासतौर से लोकलुभावन राजनीति ने कर्जों की माफी, सब्सिडी, मुफ्त बिजली, एमएसपी वगैरह को कृषि-सुधार मान लिया है। इन सारे प्रश्नों पर भी विचार की जरूरत है। सरकार ने भी कुछ छोटी-मोटी कोशिशों के अलावा इस विषय पर ज्यादा विमर्श की कोशिश नहीं की।

इस विमर्श में किसान-संगठनों को शामिल करना उपयोगी और जरूरी है। यह विमर्श पंजाब और हरियाणा के किसानों के साथ देशभर के किसानों के साथ देश के सभी क्षेत्रों के किसानों के साथ होना चाहिए। उनके दीर्घकालीन हितों पर भी विचार होना चाहिए, साथ ही अर्थव्यवस्था के दीर्घकालीन प्रश्नों पर उन्हें भी विचार करना चाहिए। यह केवल किसानों या केवल खेती का मामला नहीं है, बल्कि देश की अर्थव्यवस्था का मामला है। इसके साथ ग्रामीण-अर्थव्यवस्था के सवाल जुड़े हैं।

जब हम किसान की बात करते हैं, तब सारे मामले बड़ी जोत वाले भूस्वामियों तक सिमट जाते हैं। गाँवों में भूस्वामियों की तुलना में भूमिहीन खेत-मजदूरों का तादाद कई गुना ज्यादा है। उन्हें काम देने के बारे में भी विचार होना चाहिए।

15 जनवरी को समीक्षा

संयुक्त किसान मोर्चा ने दिल्ली-हरियाणा के सिंघु बार्डर पर अहम बैठक के बाद किसान आंदोलन का स्थगित करने का ऐलान किया। इसके साथ यह भी कहा गया है कि 15 जनवरी को मोर्चा की समीक्षा बैठक होगी। यदि केंद्र सरकार ने बातें नहीं मानीं तो आंदोलन फिर शुरू होगा। ऐसा इशारा भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत की ओर से किया गया है। गुरनाम सिंह चढूनी ने भी कहा कि हम इस आंदोलन के दौरान सरकार से हुए करार की समीक्षा करते रहेंगे। यदि सरकार अपनी ओर से किए वादों से पीछे हटती है तो फिर से आंदोलन शुरू किया जा सकता है। इस आंदोलन ने सरकार को झुकाया है।

दिल्ली-हरियाणा के सिंघु बार्डर (कुंडली बार्डर) शंभु बार्डर तक जुलूस के रूप में किसान प्रदर्शनकारी जाएंगे। इसके बीच में करनाल में पड़ाव हो सकता है। प्रदर्शनकारियों की वापसी के दौरान हरियाणा के किसान पंजाब जाने वाले किसानों पर जगह-जगह पुष्प वर्षा करेंगे। इसके बाद 13 दिसंबर को किसान अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में अरदास करेंगे और अपने घरों को चले जाएंगे।  

Thursday, December 9, 2021

देश ने उच्च-स्तरीय सैन्य-रणनीतिकार खोया


जनरल विपिन रावत के रूप में देश ने उच्च-स्तरीय सैन्य रणनीतिकार और अनुभवी जनरल को खोया है। जनरल विपिन रावत के निधन के बाद देश की सामरिक-रणनीति बनाने के काम को धक्का लगेगा, क्योंकि उच्च-स्तर पर शून्य पैदा हो गया है। उनकी भरपाई आसान नहीं होगी। जनरल रावत केवल सीडीएस ही नहीं थे, बल्कि सैनिक मामलों के विभाग के सचिव भी थे, जो एकदम नया विभाग है। सीडीएस के अलावा उनके पास तीन पद और थे। एक था सैनिक मामलों के विभाग (डीएमए) के सचिव का और दूसरे वे चीफ्स ऑफ स्टाफ कमेटी के स्थायी अध्यक्ष थे और तीसरे रक्षामंत्री के प्रमुख सलाहकार थे।

उच्च-स्तर पर शून्य

आज के हिंदू में दिनकर पेरी ने इस विषय पर रिपोर्ट लिखी है। जनरल रावत देश की महत्वाकांक्षी थिएटर कमांड रणनीति बना रहे थे, जिस काम को अब धक्का लगेगा। वे साहसी, साफ फैसले करने वाले, किसी भी जोखिम से नहीं डरने वाले और निजी स्तर पर बेहद ईमानदार व्यक्ति थे। तीनों सेनाओं के बीच ऑपरेशंस, लॉजिस्टिक्स, परिवहन, ट्रेनिंग, सपोर्ट सेवाओं, संचार और रिपेयर-मेंटीनेंस जैसे कार्यों में एकता स्थापित करने के लिए संरचना के स्तर पर काफी काम करने बाकी हैं। इस काम को करने के लिए तीनों सेनाओं की सहमति और सक्रिय भागीदारी की जरूरत है।

जनरल रावत का कार्यकाल मार्च 2023 तक था। सीडीएस के पद पर काम करने की आयु सीमा 65 वर्ष है। तीनों सेनाओं में अब सबसे वरिष्ठ अधिकारी जनरल एमएम नरवणे हैं, जिनका कार्यकाल अप्रेल 2022 तक है। उनकी तुलना में शेष दोनों सेनाओं के अध्यक्ष अपेक्षाकृत नए हैं। नौसेनाध्यक्ष एडमिरल आर हरि कुमार ने अभी हाल में 30 नवंबर को कार्यभार संभाला है और वायुसेनाध्यक्ष एयर चीफ मार्शल वीआर चौधरी ने 30 सितंबर को।

दृष्टि, दिल और दिमाग

आज के हिंदू ने जनरल रावत के साथ (जब वे सेनाध्यक्ष थे) काम कर चुके लेफ्टिनेंट जनरल एके भट्ट का लेख प्रकाशित किया है, जिसमें उन्होंने लिखा है कि जनरल रावत के पास इन कार्यों को पूरा करने की दृष्टि, क्षमता, दिल और दिमाग  सब थे। वे सैन्य-कर्म के प्रति पूरी तरह प्रतिबद्ध थे। उन्होंने लिखा है कि जब मैं डीजीएमओ था, तब केवल डोकलाम के मामले में ही नहीं ऑपरेशनल स्तर पर सभी मामलों में स्पष्ट निर्देश होते थे और जोखिम से बचने की कोई प्रवृत्ति नहीं थी।

क्रैश के बाद भी जीवित थे

नवभारत टाइम्स की वैबसाइट के अनुसार हेलीकॉप्टर दुर्घटना में जान गँवाने वाले के प्रमुख रक्षा अध्यक्ष (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत क्रैश के बाद भी जिंदा थे। हादसे के बाद हेलीकॉप्टर के मलबे से निकाले जाने पर उन्होंने हिंदी में अपना नाम भी बताया था। यह जानकारी बचाव दल के एक सदस्य ने दी। जनरल रावत के साथ एक अन्य सवार को भी निकाला गया था। बाद में उनकी पहचान ग्रुप कैप्टन वरुण सिंह के रूप में हुई। ग्रुप कैप्टन हादसे में जिंदा बचे एकमात्र व्यक्ति है। उनका अभी इलाज चल रहा है।

बीबीसी हिंदी ने कृष्‍णास्‍वामी नाम के व्यक्ति को उधृत किया है, जिसने बताया, "मैंने अपनी आंखों से सिर्फ़ एक आदमी को देखा. वो जल रहे थे और फिर वो नीचे गिर गए. मैं हिल गया।" कृष्णस्वामी बुधवार को हुए उस हेलिकॉप्टर हादसे के प्रत्यक्षदर्शी हैं, जिसमें देश के पहले चीफ़ ऑफ़ डिफेंस स्टाफ (सीडीएस) जनरल बिपिन रावत की मौत हो गई।

अपना नाम बताया

नवभारत टाइम्स के अनुसार दुर्घटना के बाद घटना स्थल पर पहुंचे वरिष्ठ फायरमैन और बचावकर्मी एनसी मुरली ने बताया कि हमने दो लोगों को जिंदा बचाया। इनमें से एक सीडीएस रावत थे। जैसे ही हमने उन्हें बाहर निकाला, उन्होंने रक्षा कर्मियों से हिंदी में धीमे स्वर में बात की और अपना नाम बोला। अस्पताल ले जाते समय उनकी मौत हो गई। मुरली के अनुसार, वेे तुरंत दूसरे व्यक्ति की पहचान नहीं कर सके, जिन्हें अस्पताल ले जाया गया और उनका अभी इलाज चल रहा है।

Wednesday, December 8, 2021

जनरल रावत के निधन से पूरे देश में सदमा


नीलगिरि की पहाड़ियों में एक और हेलिकॉप्टर दुर्घटना हुई है, जिसमें देश के पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल विपिन रावत और उनकी पत्नी तथा 11 अन्य व्यक्तियों की मृत्यु हो गई। इस घटना से पूरा देश सदमे में है। पहली नजर में लगता है कि खराब मौसम के कारण यह दुर्घटना हुई। इस इलाके की मौसम की भविष्यवाणी थी कि पहाड़ी इलाके में निचले स्तर पर बादल घिरे रहेंगे, आर्द्रता काफी होगी और हल्की बारिश भी हो सकती है। अब तक की जानकारियाँ बता रही हैं कि हेलिकॉप्टर निचली सतह पर उड़ान भरते समय पेड़ों की शाखों से टकरा गया

हेलिकॉप्टर को कुछ देर बाद ही हैलिपैड पर उतरना था। लगता यह है कि बादलों के कारण पायलट को रास्ता खोजने के लिए निचली सतह पर आना पड़ा। हेलिकॉप्टर के रोटर के कारण पेड़ों की शाखाएं तेजी से हिलती हैं। ऐसे में अच्छे-अच्छे पायलटों को दृष्टिभ्रम हो जाता है। सवाल यह है कि क्या इस उड़ान को रोकने की कोशिश हुई थी या नहीं?

कुछ लोगों ने इसके पीछे तोड़फोड़ और साजिश की संभावना भी व्यक्त की है।  उसका पता भी लगाना जरूरी है, पर अटकलें लगाने की जरूरत नहीं है। जनरल विपिन रावत इन दिनों भारतीय सेनाओं की रणनीति में परिवर्तन, पुनर्गठन, आधुनिकीकरण और थिएटर कमांड की रचना के काम में लगे थे। उनके निधन से इस काम को कहीं न कहीं धक्का तो लगेगा। पर इन बातों का जवाब जाँच से ही मिलेगा। जनवरी 1966 में जब देश के शीर्ष नाभिकीय वैज्ञानिक डॉ होमी जहाँगीर भाभा की विमान दुर्घटना में मृत्यु हुई थी, तब भी आशंकाएं व्यक्त की गई थीं।

नए वेरिएंट के साथ महामारी का तीसरा साल, घबराने की जरूरत नहीं


दुनिया पर छाई महामारी तीसरे साल में प्रवेश कर रही है। आम राय है कि अब इसका असर कम होना चाहिए, पर तीन बातों ने परेशान कर रखा है। यूरोप में एक नई लहर आई है। पश्चिमी देशों में वैक्सीन-विरोधी आंदोलन ने जोर पकड़ लिया है, जिसके कारण बीमारी पर काबू पाने में दिक्कतें पैदा हो रही हैं। और तीसरे वायरस का एक नया वेरिएंट प्रकट हुआ है, जिसने दुनियाभर में दहशत पैदा कर दी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन को इसके पहले मामले की जानकारी 24 नवंबर को दक्षिण अफ्रीका से मिली थी। बोत्सवाना, बेल्जियम, हांगकांग और इसराइल में भी इस वेरिएंट की पहचान हुई है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इस नए वेरिएंट को ओमिक्रोन नाम दिया है और इसे  'चिंतनीय वेरिएंट' (वेरिएंट ऑफ़ कंसर्न/वीओसी) की श्रेणी में रखा है। यह काफी तेज़ी से और बड़ी संख्या में म्यूटेट होने वाला वेरिएंट है। महामारी का दो साल का अनुभव है कि जितनी तेजी से काम करेंगे, बीमारी पर काबू पाने में उतनी ही आसानी होगी। सवाल है, क्या इस नए वेरिएंट पर काबू पाया जा सकेगा? क्या यूरोप में इसबार का सर्दी का मौसम शांति से गुजर जाएगा? और क्या इस तीसरे साल यह बीमारी पूरी तरह विदा हो जाएगी?

ज्यादा खतरनाक

शुरूआती अंदेशा था कि मुकाबले डेल्टा के नया वेरिएंट ओमिक्रोन ज्यादा खतरनाक साबित हो सकता है, पर अब खबरें आ रही हैं कि यह तेजी से संक्रमित होता है, पर कम खतरनाक है। इसके लक्षण मामूली हैं और घातक नहीं है। फिर भी एक सवाल है कि डेल्टा पर तो वैक्सीन प्रभावी थीं, क्या ओमीक्रोन के खिलाफ भी वे प्रभावी होंगी? क्या वैक्सीनों में बदलाव लाना होगा? फायज़र और बायोएनटेक ने इसकी जाँच शुरू कर भी दी है। उनका कहना है कि जरूरी हुआ, तो हम छह हफ्ते के भीतर वैक्सीन में बदलाव कर देंगे और 100 दिन के भीतर वैक्सीन के नए बैच जारी कर देंगे।

विश्व स्वास्थ्य संगठन के डॉक्टर माइक रयान का कहना है कि दुनिया में इस वक्त लगाए जा रहे कोरोना के टीके, कोविड के नए वेरिएंट ओमिक्रोन से लड़ने में समर्थ हैं। डब्लूएचओ ने कहा कि ऐसा कोई संकेत नहीं है कि ओमिक्रोन वेरिएंट पर वैक्सीन का असर, बाकी वेरिएंट की तुलना में कम होगा। डॉक्टर रयान ने समाचार एजेंसी एएफपी को बताया, "हमारे पास बहुत ही प्रभावी टीके हैं जो गंभीर बीमारी और अस्पताल में भरती होने के मामले में अब तक सभी वेरिएंट के ख़िलाफ़ प्रभावी साबित हुए हैं। यह मान लेने का कोई कारण नहीं है कि ओमिक्रोन पर इनका असर कम होगा।"

उन्होंने कहा कि शुरुआती आंकड़ों से पता चलता है कि ओमिक्रॉन ने डेल्टा और अन्य वेरिएंट की तुलना में कम लोगों को संक्रमित किया है। उनके मुताबिक यह बात इसके कम गंभीर होने की दिशा में इशारा करती है। अमेरिका के शीर्ष वैज्ञानिक डॉ एंटनी फाउची ने मंगलवार को कहा कि कोविड-19 का ओमीक्रोन वेरिएंट 'निश्चित' रूप से डेल्टा वेरिएंट से ज्यादा घातक नहीं है। बी.1.1.1.529 वेरिएंट ने बहुत बड़ी संख्या में म्यूटेशन दिखाए हैं। उन्होंने कहा कि कुछ संकेत मिले हैं कि यह कम गंभीर हो सकता है क्योंकि जब आप साउथ अफ्रीका की स्थिति देखते हैं तो पाते हैं कि संक्रमण की संख्या और अस्पताल में भरती होने वाले मामलों की संख्या के बीच का अनुपात डेल्टा की तुलना में कम है।