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Sunday, November 13, 2022

कौन देगा दुनिया को बचाने की कीमत?


मिस्र के शर्म-अल-शेख में 6 नवंबर से शुरू हुए संयुक्त राष्ट्र के कांफ्रेंस ऑफ द पार्टीज़ (कॉप27) सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन से जुड़ी वैश्विक चिंताएं जुड़ी हैं। जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से लड़ने के लिए संयुक्त राष्ट्र का यह सबसे बड़ा सालाना कार्यक्रम है। इस वैश्विक-वार्ता के केंद्र में एक तरफ जहरीली गैसों के बढ़ते जा रहे उत्सर्जन की चिंता है, तो दूसरी तरफ आने वाले वक्त में परिस्थितियों को बेहतर बनाने की कार्य-योजना। इन सबसे ऊपर है पैसा और इंसाफ। गरीब देश, अमीर देशों से जहर-मुक्त भविष्य की ओर जाने के लिए आर्थिक-सहायता मांग रहे हैं। वे उस नुकसान की भरपाई भी चाहते हैं जो वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी के कारण हो रहा है, जिसमें उनका कोई हाथ नहीं है। पिछले पौने दो सौ साल के औद्योगीकरण के कारण वातावरण में जो जहरीली गैसें गई थीं, वे अभी मौजूद हैं।

अधूरे वादे-इरादे

वर्ष 2009 में कोपेनहेगन में हुए कॉप-15 में विकसित देशों ने जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने में विकासशील देशों की मदद करने के लिए संयुक्त रूप से 2020 तक प्रति वर्ष 100 अरब डॉलर जुटाने की प्रतिबद्धता जताई थी। यह लक्ष्य कभी पूरा नहीं हुआ। वित्तीय मदद देने के इस कोष को ग्रीन क्लाइमेट फंड यानी जीसीएफ कहते हैं। इसका उद्देश्य अक्षय ऊर्जा की व्यवस्था करने वाले देशों की मदद करना और तपती दुनिया को रहने लायक बनाने से जुड़ी परियोजनाओं को वित्तीय मदद देना है। किसान ऐसे बीज अपनाएं, जो सूखे का सामना कर सकें या लू की लपेट से बचने के लिए शहरों में ठंडक पैदा करने के लिए हरियाली पैदा की जाए वगैरह।

वित्तीय लक्ष्य

भारत सहित विकासशील देश, अमीर देशों पर नए वित्तीय-लक्ष्य पर सहमत होने के लिए दबाव डाल रहे हैं। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट द्वारा प्रकाशित फैक्टशीट के अनुसार 2020 में, विकसित देशों ने 83.3 अरब डॉलर जुटाए,। उसके एक साल पहले यह राशि 2019 में 80.4 अरब डॉलर थी। 100 अरब डॉलर का वादा 2023 तक पूरा होने की आशा नहीं है। मिस्र में, एकत्र हुए देश 2024 के लिए और बड़े वित्तीय-लक्ष्य तय करना चाहते हैं। सम्मेलन का समापन 18 नवंबर को होगा। देखना है कि इस सम्मेलन में लक्ष्य क्या तय होता है। सकारात्मक बात यह है कि लॉस एंड डैमेज फंडिंग को वार्ता के एजेंडा में शामिल कर लिया गया है। ज़ाहिर है कि क्लाइमेट-फाइनेंस और क्षति की भरपाई के लिए अमीर देशों पर दबाव बढ़ने लगा है, पर जितनी देर होगी, उतनी लागत बढ़ती जाएगी।

पेरिस समझौता

2015 के पेरिस समझौते के तहत दुनिया के सभी देश पहली बार ग्लोबल वॉर्मिंग से निपटने और ग्रीनहाउस-गैस उत्सर्जन में कटौती पर सहमत हुए थे। जलवायु परिवर्तन का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों के इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) के मुताबिक 1850 से लेकर अब तक दुनिया का तापमान औसतन 1.1 सेंटीग्रेड बढ़ चुका है। इस बदलाव की वजह मौसम से जुड़ी प्रतिकूल घटनाएं अब जल्दी-जल्दी सामने आ रही हैं। जीवाश्म ईंधन जैसे कोयले और पेट्रोल के अधिक इस्तेमाल से वातावरण में ग्रीनहाउस गैसें बढ़ती जा रही हैं। पिछले डेढ़ सौ से ज्यादा वर्षों से ये गैसें धरती के वातावरण में घुल जा रही हैं, जिसकी वजह से तापमान बढ़ रहा है। उत्सर्जन की एक सीमा का सामना करने की क्षमता प्रकृति में हैं, पर जहरीली गैसें वह सीमा पार कर चुकी हैं। इससे पश्चिम एशिया के देशों में खेती की बची-खुची जमीन रेगिस्तान बनने का खतरा पैदा हो गया है। डर है कि प्रशांत महासागर के अनके द्वीप समुद्र स्तर बढ़ने से डूब जाएंगे। अफ्रीकी देशों को भयावह खाद्य समस्या का सामना करना पड़ सकता है।

उबलता यूरोप

इस साल जुलाई में पूरा यूरोप गर्मी में उबलने लगा था। यूरोप ने पिछले 500 साल के सबसे खराब सूखे का सामना किया। जंगलों में लगी आग ने मुश्किलों को और बढ़ा दिया। रूस जैसे ठंडे देशों में भी 2021 में साइबेरिया के जंगलों में आग लगने की घटनाएं हुईं। यूनाइटेड किंगडम से लेकर हर हिस्से में तापमान नए रिकॉर्ड बने है। स्पेन के प्रधानमंत्री पेद्रो सांचेज ने इसे ग्लोबल वॉर्मिंग से जोड़ा और कहा कि जलवायु परिवर्तन लोगों की जान ले रहा है। ठंडे इलाके होने के कारण यहाँ बने लकड़ी के घरों में एसी और पंखों की व्यवस्था नहीं होती। घरों को इस तरह तैयार किया जाता है कि ठंड के मौसम में बाहरी तापमान का असर घर के अंदर नहीं हो। भीषण गर्मी को ध्यान में रखकर घर नहीं बने हैं। ज़ाहिर है कि आने वाले वक्त के लिए यह खतरनाक संकेत है। हाल में पाकिस्तान में आई बाढ़ ग्लोबल वॉर्मिंग का नतीज़ा मानी जा रही है।

Sunday, June 5, 2022

पर्यावरण-संरक्षण की वैश्विक-चुनौती

हर साल हम 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाते हैं। आज भी मनाएंगे, पर इस साल स्टॉकहोम-घोषणा का 50 वाँ वर्ष होने के कारण यह दिन खास हो गया है। 5 जून 1972 को स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में पहली बार विश्व पर्यावरण-सम्मेलन आयोजित किया गया था, जिसमें 119 देशों ने भाग लिया। उसी सम्मेलन के बरक्स संयुक्त राष्ट्र ने 1972 में ही घोषणा की कि हर साल 5 जून को पर्यावरण दिवस मनाएंगे। स्टॉकहोम-घोषणापत्र से पहले चार साल की तैयारी की गई थी। दुनिया भर के सैकड़ों वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों ने मानव-पर्यावरण पर लगभग बीस हजार पेजों का योगदान दिया था, जिसके आधार पर सम्मेलन में 800 पेज का एक दस्तावेज तैयार किया गया था। एक मायने में यह संयुक्त राष्ट्र प्रणाली के भीतर सबसे व्यापक प्रयोग था।

स्टॉकहोम+50

जलवायु परिवर्तन और पर्यावरण से जुड़े आज के ज्यादातर कार्यक्रम जैसे संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज (यूएनएफसीसीसी), कन्वेंशन टू कॉम्बैट डेजर्टिफिकेशन (यूएनसीसीडी) और कन्वेंशन ऑन बायलॉजिकल डायवर्सिटी (सीबीडी) और संयुक्त राष्ट्र के पर्यावरण-व्यवस्था से जुड़े प्रयास स्टॉकहोम घोषणा की ही उत्पत्ति हैं। पिछले 50 वर्षों पर पुनर्विचार के लिए 2 और 3 जून को स्टॉकहोम+50 का आयोजन स्टॉकहोम, में फिर हुआ। इन दो दिनों में दुनिया के नेताओं ने इस बात पर चर्चा की कि बीते पचास साल कैसे थे, बल्कि इससे ज्यादा इस बात पर चिंतन किया कि अगले पचास साल में धरती को किस तरह बचाया जाएगा। इसे शीर्षक दिया गया-‘स्टॉकहोम प्लस 50, सभी की समृद्धि के लिए एक स्वस्थ ग्रह-हमारी जिम्मेदारी, हमारा अवसर’।

तबाही की ओर

पिछले साल जब स्टॉकहोम प्लस 50 की तैयारियां चल रही थीं, तो संरा पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट ने चेतावनी दी कि महामारी के कारण उत्सर्जन में अस्थायी गिरावट के बावजूद दुनिया 2100 तक पूर्व-औद्योगिक स्तरों से कम से कम तीन डिग्री सेल्सियस ज्यादा गर्म होने की राह पर है। यह पेरिस समझौते में 1.5 डिग्री सेल्सियस की चेतावनी से दोगुना है। उस स्तर को बनाए रखने के लिए 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन को 45 फीसदी कम करना होगा।’ अप्रैल 2017 में, जलवायु परिवर्तन से जुड़ी एक संस्था-क्लाइमेट सेंट्रल के वैज्ञानिकों ने 1880 के बाद से वैश्विक-तापमान की मासिक-वृद्धि को दर्ज करते हुए एक पत्र जारी किया, जिसमें कहा गया: ‘628 महीनों में एक भी महीना ठंडा नहीं रहा है।’  जो दुनिया पिछले बारह हजार साल की मानव-सभ्यता से अप्रभावित चली आ रही थी, और जिसने मनुष्यों की अमीर बनने में मदद की, वह अचानक तबाही की ओर बढ़ चली है।

वायु-प्रदूषण

पिछले साल विश्व स्वास्थ्य संगठन ने वायु गुणवत्ता के नए निर्देश जारी किए, जिनमें कहा गया कि जलवायु परिवर्तन के साथ वायु प्रदूषण मानव-स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक है। डब्लूएचओ ने 2005 के बाद पहली बार अपने ‘एयर क्वालिटी गाइडलाइंस’ को बदला है। नए वैश्विक वायु गुणवत्ता दिशानिर्देशों (एक्यूजी) के अनुसार इस बात के प्रमाण मिले हैं कि प्रदूषित वायु की जो समझ पहले थी, उससे भी कम प्रदूषित वायु से मानव-स्वास्थ्य को होने वाले नुकसानों के सबूत मिले हैं। संगठन के अनुसार वायु प्रदूषण से हर साल 70 लाख लोगों की मृत्यु होती है। यह संख्या कोविड-19 से हुई मौतों से ज्यादा है।

Tuesday, November 2, 2021

2070 होगा भारत का नेट-ज़ीरो लक्ष्य


अंततः भारत ने नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के लिए अपनी समय-सीमा दुनिया को बता दी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्कॉटलैंड के ग्लासगो में 26वें संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन फ्रेमवर्क सम्मेलन (कॉप 26) में कहा कि हम 2070 तक नेट-ज़ीरो के लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे। इसके अलावा भारत, 2030 तक ऊर्जा की अपनी 50 प्रतिशत जरूरत अक्षय ऊर्जा से पूरी करेगा।

मोदी की इस घोषणा से बहुत से विशेषज्ञों को हैरत हुई है, क्योंकि अभी तक भारत कहता रहा है कि नेट-ज़ीरो लक्ष्य इस समस्या का समाधान नहीं है और भारत इस मामले में किसी के दबाव में नहीं आएगा। हालांकि यह लक्ष्य अमीर देशों द्वारा घोषित लक्ष्य से पीछे है, पर दुनिया के उन विशेषज्ञों के अनुमान के करीब है, जो भारत के संदर्भ में इसे व्यावहारिक मानते हैं। हाल में भारत के एक थिंकटैंक कौंसिल ऑन इनर्जी, एनवायरनमेंट एंड वॉटर (सीईईडब्लू) ने अनुमान लगाया था कि भारत के लिए 2070 से 2080 के बीच का लक्ष्य रखना व्यावहारिक होगा। दूसरे विकसित देशों और चीन की तुलना में भी भारत अपने औद्योगिक विकास के शिखर से कई दशक दूर है। अभी यहाँ ऊर्जा का उपभोग काफी बढ़ेगा। भारत में इस समय जरूरत की 70 फीसदी ऊर्जा कोयले से उत्पन्न हो रही है।

हालांकि भारत में दुनिया की सबसे सस्ती सौर-ऊर्जा तैयार हो रही है, पर अभी इसे ग्रिड से जोड़ने की तकनीक विकसित नहीं हो पाई है। इसके अलावा भारत को हाइड्रोजन और उसके भंडारण की तकनीक विकसित करने में समय लगेगा। विशेषज्ञों का अनुमान है कि यह काम 2040 तक हो पाएगा। भारत के पास इतनी पूँजी भी नहीं है कि वह तेजी से इन सब की व्यवस्था कर सके। इसीलिए भारत जो व्यावहारिक है उसे करने यानी क्लाइमेट जस्टिस की बात कर रहा है।

चार अल्पकालिक लक्ष्य

प्रधानमंत्री मोदी ने चार अल्पकालिक लक्ष्य और बताए हैं। नेट-जीरो लक्ष्य का मतलब है कि उसे तय करने वाला देश वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड या अन्य ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन उस सीमा से ज्यादा नहीं होने देगा, जिस सीमा तक इन गैसों को प्रकृति यानी वनस्पतियाँ और दुनिया भर में विकसित हो रही तकनीकें सोख लें।  

पिछले कुछ वर्षों में कुछ देशों ने अपने लक्ष्य घोषित किए हैं। अमेरिका, यूके, जापान और अन्य अमीर देशों ने इसके लिए सन 2050 को अपना लक्ष्य वर्ष घोषित किया है। दुनिया के सबसे बड़े कार्बन उत्सर्जक चीन ने 2060 का लक्ष्य रखा है। रूस और सऊदी अरब ने भी 2060 का लक्ष्य तय किया है।

पाँच अमृत तत्व

नरेंद्र मोदी के इस भाषण में जलवायु परिवर्तन को लेकर भारत की प्रशासनिक-नीतियों के अलावा परंपरागत समझ भी झलकती है। उन्होंने सम्मेलन में भारत की ओर से पांच वायदे किए। उन्होंने कहा, जलवायु परिवर्तन पर इस वैश्विक मंथन के बीच, मैं भारत की ओर से, इस चुनौती से निपटने के लिए पांच अमृत तत्व रखना चाहता हूं, पंचामृत की सौगात देना चाहता हूं। पहला- भारत, 2030 तक अपनी गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता को 500 गीगावॉट तक पहुंचाएगा। दूसरा-हम 2030 तक अपनी कुल ऊर्जा आवश्यकताओं में से 50 फीसदी अक्षय-ऊर्जा स्रोतों से प्राप्त करने लगेंगे। तीसरा- अब से लेकर 2030 तक के कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में हम एक अरब टन की कमी करेंगे। चौथा- 2030 तक भारत, अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता (इन्टेंसिटी) को 45 प्रतिशत से भी कम करेगा। और पाँचवाँ- वर्ष 2070 तक भारत, नेट-जीरो का लक्ष्य हासिल करेगा।

Monday, November 1, 2021

कॉप26 शुरू, भारत की दुविधा और जी-20 का कोई वायदा नहीं

 ग्लासगो में कॉप26 के उद्घाटन के अवसर पर कॉप के अध्यक्ष आलोक शर्मा से हाथ मिलाते हुए संरा महासभा के अध्यक्ष अब्दुल्ला शाहिद। सम्मेलन की कार्यकारी सचिव पैट्रीशिया ऐस्पिनोसा (बाएं से दूसरी) और सम्मेलन की निवृत्तमान अध्यक्ष चिली की पर्यावरण मंत्री कैरलीना श्मिट भी चित्र में हैं।  

रविवार
, 31 अक्टूबर, को स्कॉटलैंड के ग्लासगो शहर में संयुक्त राष्ट्र के कांफ्रेंस ऑफ द पार्टीज़ (कॉप26) की शुरुआत हुई। 12 नवम्बर तक चलने वाले इस सम्मेलन में सभी मोर्चों पर महत्वाकांक्षा बढ़ाने और सन 2015 के पेरिस जलवायु समझौते को कारगर ढंग से लागू करने के लिए दिशा-निर्देशों को अंतिम रूप देने पर चर्चा होगी। सम्मेलन में ब्रिटेन की 95 वर्षीय महारानी एलिज़ाबेथ के आगमन की संभावना थी, पर शारीरिक असमर्थता के कारण वे नहीं आ पाईं। उनके स्थान पर सोमवार को राजकुमार चार्ल्स आने वाले हैं।

सम्मेलन से ठीक पहले अनेक रिपोर्टें और अध्ययन जारी किए गए हैं, जिनके निष्कर्षों में मौजूदा जलवायु कार्रवाई को अपर्याप्त क़रार दिया गया है। इन अध्ययनों में, पेरिस जलवायु समझौते के तहत वैश्विक तापमान में बढ़ोत्तरी को 1।5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य तक सीमित रखने के लिये महत्वाकांक्षी जलवायु संकल्पों की अहमियत को रेखांकित किया गया है।

कार्यकारी सचिव पैट्रीशिया ऐस्पिनोसा ने सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए कहा कि जलवायु परिवर्तन के विरुद्ध लड़ाई में, दुनिया एक अहम पड़ाव पर खड़ी है। उन्होंने कॉप26 में सफलता को पूर्ण रूप से सम्भव बताते हुए अपने आशावादी रुख़ की वजह बताई। उन्होंने कहा, मेरे विचार में हम जो समझ व देख रहे हैं, हम जानते हैं कि यह रूपांतरकारी बदलाव हो सकता है। यहाँ औज़ार हैं, यहाँ उपकरण हैं, यहाँ समाधान हैं। भिन्नताएँ हैं, पर यह बात भरोसा दिलाती है कि उद्देश्यों को लेकर एकता है।

‘अस्तित्व पर संकट’

यूएन महासभा के अध्यक्ष अब्दुल्ला शाहिद ने उद्घाटन कार्यक्रम के दौरान कहा कि मानवता के अस्तित्व पर संकट मंडरा रहा है। हमारे पास इस संकट को हल करने के लिए क्षमता और संसाधन मौजूद हैं, पर हम पर्याप्त क़दम नहीं उठा रहे हैं। उन्होंने पुख़्ता जलवायु कार्रवाई के लिये अक्षय ऊर्जा टेक्नोलॉजी और नवाचारों को सभी देशों तक पहुँचाने के प्रयासों में तेज़ी लाने, निजी सेक्टर द्वारा नेट-शून्य उत्सर्जन संकल्पों को प्राथमिकता देने, उन्हें स्पष्ट व ज़्यादा असरदार बनाने का आग्रह किया।

Wednesday, May 19, 2021

डार्विन की मेहराब ढह गई

 


इक्वेडोर के पर्यावरण मंत्रालय ने अपने फेसबुक पेज पर जानकारी दी है कि दक्षिण पूर्व प्रशांत महासागर के डार्विन द्वीप की प्रसिद्ध प्राकृतिक मेहराब (आर्च) अब टूट गई है। अब उसकी जगह समुद्र में दो स्तम्भ रह गए हैं। उनके ऊपर का पुल जैसा हिस्सा टूट कर गिर गया है। यह मेहराब 141 फुट ऊँची और 230 फुट लम्बी है।

यह मेहराब पानी में डूबी चट्टानों के बीच लाखों वर्षों से खड़ी थी। जिस द्वीप के पास यह थी, उसका नाम विश्व प्रसिद्ध ब्रिटिश वैज्ञानिक के नाम पर था, क्योंकि सन 1835 में इसी द्वीप से वापस आने के बाद चार्ल्स डार्विन ने अपने प्राकृतिक चयन सिद्धांत का विकास किया था।

हालांकि इस द्वीप पर खुले आवागमन की अनुमति नहीं है, पर गत 17 मई को जिस समय यह मेहराब टूट रही थी, एक पर्यटक नौका उधर से गुजर रही थी। उसपर सवार लोगों ने इस ऐतिहासिक घटना का वीडियो भी रिकॉर्ड किया है।  

गैलापागोस द्वीप समूह समुद्र के बीच करीब 2.33 किलोमीटर का एक निर्जन टुकड़ा है। इसकी ऊँची-नीची सतह का सबसे ऊँचा हिस्सा 168 मीटर ऊँचा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि चट्टानों के क्षरण के कारण यह मेहराब टूटी है। इस इलाके में कई प्रकार के समुद्री जीव विचरण करते हैं, इसलिए स्कूबा डाइविंग के लिए यह एक लोकप्रिय स्थान है।

Tuesday, June 25, 2013

हनुमान मोदी?

हनुमान मोदी

नरेन्द्र मोदी ने क्या किसी चमत्कार से 15000 गुजरातियों को  उत्तराखंड की आपदा से बाहर निकाल लिया? या यह जन सम्पर्क का मोदी स्टाइल है? जब से यह खबर छपी है सब के मन में यह सवाल है। क्या है इस कहानी का सच? टाइम्स ऑफ इंडिया ने इसका स्पष्टीकरण छापा नहीं। यह खबर मोदी या उनके किसी अफसर को उधृत करके दी नहीं गई। किसी पत्रकार ने इस बात की पुष्टि करने की कोशिश नहीं की कि सच क्या है। बहरहाल जो कुछ उपलब्ध है उसके अंश यहाँ पेश हैं। सबसे पहले वह खबर पढ़ें जिसमें मोदी के कारनामे का उल्लेख हैः-

Modi in Rambo Act, saves 15000

Dehradun: In the two days that Narendra Modi has been in Uttarakhand, he has managed to completely rile not just the Congress government of Vijay Bahuguna but also the administrative staff involved in rescue operations at Kedarnath, Badrinath and Uttarkashi. But above all, he has managed to bring home some 15,000 stranded Gujarati pilgrims. 
    The Gujarat CM, who flew in on Friday evening, held a meeting till late in the night with his crack team of five IAS, one IPS, one IFS and two GAS (Guja
rat Administrative Service) officers. Two DSPs and five police inspectors were also part of his delegation. They sat again with the nitty-gritty of evacuation in a huddle that a senior BJP leader said lasted till 1am on Saturday. Around 80 Toyota Innovas were requisitioned to ferry Gujaratis to safer places in Dehradun as were four Boeings. On Saturday, 25 luxury buses took a bunch of grateful people to Delhi. The efforts are being coordinated by two of the senior-most IAS officers of Gujarat, one currently stationed in Delhi and another in Uttarakhand. ‘Modi model works only for Gujaratis’ पूरी खबर पढ़ें


टाइम्स ऑफ इंडिया के ब्लॉग में प्रशांत पांडे का लेख

A Rambo act by Modi???? Or cheap dirty Politics....

It’s interesting the way Modi jumps into the middle of every incident where the media is present in large numbers! His US based PR agency, APCO, is doing a wonderful job. Much better for sure than the CM himself is doing, considering that he has done pretty much nothing except generate publicity for himself.
Imagine this. The devastation of the floods is in the hills. The roads have been destroyed. Vehicular movement is proving to be impossible. The Army has been deployed like never before (more than 8500 in number). More than 60 army helicopters are being used in a never-before scale rescue operation. There is a food and drinking water supply problem. There is the fear of an epidemic break-out. All that can be done is being done. Yet, what does Modi do? He reaches the fringes, where there is no problem in any case. He deploys 80 Toyota Innovas (Vans….for god’s sakes!) to ferry 7 people per van = 560 people out. But out from where? From where they are already safe! After they have already been rescued! After all the army bravehearts have done their job, the Gujarat CM and PM aspirant of the BJP comes to the spot with his IAS, IPS and GPS officers in tow – and oh yes…. his PR agents as well – to corner the glory! पूरा लेख पढ़ें
मीडिया साइट द हूट में 
A reader asks about the TOI story 'Narendra Modi lands in Uttarakhand, flies out with 15,000 Gujaratis': "Did the paper verify facts such as 80 Innovas? How is it possible to rescue 15,000 Gujaratis from flood affected Uttarkhand in less than two or three days? Or was Modi some new age scientific Hanuman? How did he and his parochial team identify the 15,000 Gujaratis from over  a million people stranded by the floods? On the face of it, the report looks wonderful. But it defies common sense." हनुमान मोदी

रीडिफ डॉट कॉम में भाजपा प्रवक्ता अनिल बलूनी का स्पष्टीकरण
The evacuation of 15,000 Gujarati pilgrims following the visit to rain-devastated Uttarakhand by Chief Minister Narendra Modi has become the talk of the town. While the Bharatiya Janata Party cannot stop singing praises of its newly-appointed Lok Sabha poll campaign chief for this operation, the Congress, on the other hand, has termed it as an act of “opportunism and selfishness”. 
For the BJP unit in Uttarakhand, Modi's rescue mission has come as a shot in the arm. The manner in which the entire operation was planned and executed should be applied as a role model for other states, the party points out. रीडिफ डॉट कॉम पर पूरा पढ़ें


नरेन्द्र मोदी की वैबसाइट पर 15000 यात्रियों का जिक्र नहीं है। उनके अनुसार 6000 गुजराती वापस आ गए हैं।
Addressing a high-level meeting of disaster management here to take stock of the situation in the hill state, he said that about 6,000 pilgrims from Gujarat have already come back, while another 2,500 are on the way and the remaining about 100 persons still stranded there are being contacted for their safe return..नरेन्द्र मोदी की वैबसाइट में पढ़ें

सबसे दिलचस्प है 26 जून के टाइम्स ऑफ इंडिया के सम्पादकीय पेज पर अभीक बर्मन का लेख जिसमें मोदी के दावे का मज़ाक उड़ाया है। दिलचस्प इसलिए कि मोदी ने कब और कहाँ यह दावा किया, इसका कहीं ज़िक्र नहीं है। खबर टाइम्स ऑफ इंडिया ने छापी जिसमें किसी को कोट नहीं किया गया। टाइम्स ने इसका स्पष्टीकरण भी नहीं दिया। अभीक बर्मन का लेख यहाँ पढ़ें

इकोनॉमिक टाइम्स में मधु किश्वर का लेख

Monday, June 24, 2013

पर्यावरण : विज्ञान और राजनीति


डॉ खड्ग सिंह वल्दिया
मानद प्रोफेसर, जेएनसीएएसआर
नदियों के फ्लड वे में बने गाँव और नगर बाढ़ में बह गए. आख़िर उत्तराखंड में इतनी सारी बस्तियाँ, पुल और सड़कें देखते ही देखते क्यों उफनती हुई नदियों और टूटते हुए पहाड़ों के वेग में बह गईं?

जिस क्षेत्र में भूस्खलन और बादल फटने जैसी घटनाएँ होती रही हैं, वहाँ इस बार इतनी भीषण तबाही क्यों हुई?

अंधाधुंध निर्माण की अनुमति देने के लिए सरकार ज़िम्मेदार है. वो अपनी आलोचना करने वाले विशेषज्ञों की बात नहीं सुनती. यहाँ तक कि जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के वैज्ञानिकों की भी अच्छी-अच्छी राय पर सरकार अमल नहीं कर रही है.

Sunday, June 23, 2013

पर्यावरण और लोकविश्वास


'नदी किनारे बसने वालों का परिवार नहीं बचता'




अपना पर्यावरण बचाने के लिए हिमालयी समाजों के अपने परंपरागत तौर-तरीक़े रहे हैं. विशेष रूप से उत्तराखंड में प्रकृति के संरक्षण की समृद्ध परंपरा रही है.

आप ऊपर के इलाक़ों में जाएँ तो पाएँगे कि वहाँ गाँवों के बुज़ुर्ग जंगलों और घाटियों में चलते हुए ऊँची आवाज़ों में बोलने से मना करते हैं. कहा जाता है कि इससे वन देवियाँ नाराज़ हो जाती हैं.

हम ऊँचाई में पड़ने वाले बुग्यालों में जूते पहनकर नहीं जाते थे. मौसम से पहले ब्रह्म कमल और फेन कमल जैसे सुंदर फूलों को नहीं तोड़ने की परंपरा रही है.

मनपाई बुग्याल से रुद्रनाथ के रास्ते पर एक बार हम पशुपालकों के छप्परों में उनके साथ रहे. ऐसी ऊंचाई वाली जगहों पर ब्रह्म कमल और फेन कमल पाया जाता है. इसका दवा के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है.

पूर्णमासी को नंदा देवा या वन देवी की पूजा की जाती है. उसके बाद सुबह ही कमल को तोड़ा जाता है. पशुपालकों के पास कोई दवा तो होती नहीं है. वे दर्द से राहत के लिए कमल की राख पेट पर मलते हैं.

बीबीसी हिंदी डॉट कॉम मे पढ़ें पूरा लेख

प्रलय का शिलालेख

अनुपम मिश्र

सन् 77 की जुलाई का तीसरा हफ्ता। चमोली जिले की बिरही घाटी में आज एक अजीब सी खामोशी है। यों तीन दिन से लगातार पानी बरस रहा है और इस कारण अलकनंदा की सहायक नदी बिरही का जलस्तर भी बढ़ता जा रहा है। उफनती पहाड़ी नदी की तेज आवाज पूरी घाटी में टकरा कर गूंज भी रही है।

फिर भी चमोली-बद्रीनाथ मोटर सड़क से बाईं तरफ लगभग 22 किलोमीटर दूर 6500 फुट की ऊंचाई पर बनी इस घाटी के 13 गांवों के लोगों को आज सब कुछ शांत सा लग रहा है। आज से सिर्फ सात बरस पहले ये लोग प्रलय की गर्जना सुन चुके थे, देख चुके थे। इनके घर, खेत व ढोर इस प्रलय में बह चुके थे। उस प्रलय की तुलना में आज बिरही नदी का शोर इन्हें डरा नहीं रहा था। कोई एक मील चौड़ी और पांच मील लंबी इस घाटी में चारों तरफ बड़ी-बड़ी शिलाएं, पत्थर, रेत और मलबा भरा हुआ है, इस सब के बीच से किसी तरह रास्ता बना कर बह रही बिरही नदी सचमुच बड़ी गहरी लगती है।

अमर उजाला में पढ़ें पूरा लेख

हमारे लालच की शिकार हुई गंगा

वंदना शिवा के भाषण के अंश

देहरादून में जन्मी वंदना शिवा का नाम पर्यावरण आंदोलन के बड़े नेताओं में गिना जाता है। उन्होंने पर्यावरण व वैश्वीकरण पर करीब बीस किताबें लिखी हैं। इलाहाबाद में ‘शक्ति और प्रकृति’ विषय पर बोलते हुए उन्होंने लोगों से गंगा को बचाने का आह्वान किया। भाषण के अंश:

जीवन की प्रेरणा
यह मां गंगा की प्रेरणा है कि आज हम सब यहां एकत्र हुए हैं। गंगा सिर्फ एक नदी नहीं है, यह एक आध्यात्मिक प्रेरणा है। आज गंगा के प्रदूषण पर बहस हो रही है। हम सब जानते हैं कि प्रकृति कभी प्रदूषण नहीं फैलाती है। गंगा में गंदगी फैलाने वाले हम ही हैं। हम विकास की गलतफहमी में गंगा को बरबाद करने पर तुले हैं। गंगा तो हमेशा से अविरल व निर्मल रही है। हमने बांध के नाम पर गंगा के रास्ते में रुकावटें पैदा कीं। बांध बिल्कुल कोलेस्ट्रॉल की तरह है। जैसे कोलेस्ट्रॉल हमारी सेहत के लिए ठीक नहीं है, वैसे ही बांध गंगा की सेहत के लिए ठीक नहीं है। उद्गम स्थल से तो गंगा निर्मल ही बहती है, यह तो हम इंसान हैं, जो गंगा में गंदगी फेंककर इसे मैला कर देते हैं।
हिन्दुस्तान में पढ़ें पूरा आलेख

आपदा के प्रकोप से बच सकते हैं हम

राधिका मूर्ति स्विट्जरलैंड में ‘डिजास्टर रिस्क मैनेजमेंट’ विशेषज्ञ हैं। फिजी में पली-बढ़ी राधिका का पालन-पोषण ऐसे इलाकों में हुआ जहां अक्सर तूफान और सुनामी आया करते हैं। उनका मानना है कि इंसान सजग रहे तो प्राकृतिक आपदाओं को कम किया जा सकता है। पेश हैं उनके एक भाषण के अंश:

प्रकृति का कहर

मुझे आज भी अपने स्कूल का वह पहला दिन याद है। हम सब बच्चे खाली जमीन पर बैठे थे। ऊपर खुला आसमान था। हमारे पीछे दीवार के रूप में बस एक टेंट लगा था। टेंट के उस पार था तूफान का खौफनाक मंजर। तब मैं बहुत छोटी थी, इसलिए तूफान की त्रासदी का अंदाजा नहीं था। लेकिन बड़े होने पर पता चला कि कितना मुश्किल होता है प्रकृति के कहर से जूझना। मेरा पालन-पोषण फिजी में हुआ। फिजी दुनिया भर के पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। यहां के खूबसूरत समुद्री किनारे, विशाल ताड़ के पेड़ और लोगों केमुस्कुराते चेहरे पर्यटकों को खींच लाते हैं। लेकिन इन लुभावने नजारों के बीच कुछ डरावनी और दिल दहलाने वाली प्रकृति की लीलाएं भी हैं जिनसे हम अक्सर रूबरू होते हैं। तूफान, बाढ़ और भूस्खलन के रूप में डरावने  वाले प्रकृति के रौद्र से लड़ना आसान नहीं होता। सच कहूं तो बचपन में हमारे लिए तूफान और बाढ़ की घटनाएं दिलचस्प किस्से हुआ करते थे। लेकिन धीरे-धीरे मुझे इनकी गंभीरता का अहसास हुआ। मैं अपने माता-पिता की समझदारी और हौंसले को सलाम करती हूं जिन्होंने मुझे ऐसी आपदाओं के कहर से बचाकर रखा।

मानव व्यवहार

प्राकृतिक आपदाओं के लिए मानव व्यवहार कितना जिम्मेदार है? जब मैंने आपदा प्रबंधन के क्षेत्र में काम शुरु किया तो कई अहम बातें सामाने आईं। सबसे बड़ी बात यह है कि बहुत सारे लोग प्राकृतिक आपदा को ईश्वर का प्रकोप समझते हैं। उनका मानना है कि बाढ़ और तूफान के जरिए ईश्वर हम इंसानों को हमारे पापों के लिए सजा देते हैं। जाहिर है ऐसे में हमारे लिए यह समझना मुश्किल हो जाता है कि हमारी किन हरकतों की वजह से प्रकृति को नुकसान हो रहा है और हम खुद को कैसे आपदाओं के कहर से बचा सकते हैं। हमें आपदाओं की असली वजहों को समझना होगा।

हिन्दुस्तान में पढ़ें पूरा आलेख


प्रकृति के बारे में वैज्ञानिक दृष्टि बनाएं

हालांकि हम प्रकृति के साथ छेड़छाड़ के खतरों के बारे में एक अरसे से बहस करते रहे हैं, पर उत्तराखंड के हादसे ने पहली बार इतनी गम्भीरता से इस सवाल को उठाया है। और उतनी ही गम्भीरता से इस बात को रेखांकित किया है कि व्यवस्था ऐसे हादसों का सामना करने को तैयार नहीं है।

इस साल मॉनसून समय से काफी पहले आ गया है। मॉनसून आने के ठीक पहले महाराष्ट्र सहित देश के कुछ हिस्से सूखे का सामना कर रहे थे। अचानक पता लगा है कि भारतीय उप महाद्वीप में औसत तापमान चार डिग्री बढ़ गया है। ये बातें इशारा कर रहीं हैं कि अपने आर्थिक विकास और प्राकृतिक संतुलन पर गम्भीरता सेविचार करें।

उत्तराखंड का हादसा क्या केवल अतिवृष्टि के कारण हुआ? अतिवृष्टि तो पहले भी होती रही है। और भविष्य में भी होगी। अतिवृष्टि ने मौसम के बदलाव की ओर संकेत किया है तो भारी संख्या में मौतों ने आपदा प्रबंधन की पोल खोली है। हादसे में मरने वालों की संख्या अभी तक बताई जा रही आधिकारिक संख्या से कहीं ज्यादा और कई गुना ज्यादा है। इसका दुष्प्रभाव सारे अनुमानों से ज्यादा भयावह है।

मदद करने वाली एजेंसियों और सरकार ने इसकी शिद्द्त को समझने में देर की। फिर भी जल्दबाज़ी में निष्कर्ष निकालने के बजाय हमें उन बातों पर ध्यान देने की कोशिश करनी चाहिए जो इसके पीछे हो सकती हैं। साथ ही उन कदमों पर विचार करना चाहिए जो उठाए जाने चाहिए।

Friday, February 18, 2011

एस्बेस्टस कारखाना

बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में लग रहे एस्बेस्टस कारखाने के विरोध के सिलसिले में मेरे इस ब्लॉग पर गिरिजेश कुमार का लेख प्रकाशित हुआ था। इसे मैने अपने फेसबुक स्टेटस पर भी लगाया था। मेरा उद्देश्य विचार-विमर्श को आगे बढ़ाने का था। जब बात आगे बढ़ती है तब अनेक तथ्य भी सामने आते हैं। हमें नई बातें पता लगतीं हैं। कई बार हम अपनी दृढ़ धारणाओं से हटते भी हैं। फेसबुक पर चर्चाएं बहुत गम्भीर नहीं होतीं। गिरिजेश जी को उम्मीद थी कि उनकी बात का समर्थन करने वाले आगे आएंगे। कुछ लोगों ने समर्थन किया भी, पर एक मित्र उनसे सहमत नहीं हुए। गिरिजेश जी ने मुझे जो मेल लिखा है उसे मैं नीचे दे रहा हूँ। पर उसके पहले दो-एक बातें मैं अपनी तरफ से लिखना चाहता हूँ।

Monday, February 14, 2011

मुज़फ्फरपुर जिले का एस्बेस्टस कारखाना


मेरे ब्लॉग पर गिरिजेश कुमार का यह दूसरा आलेख है। इसमें वे विकास से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण प्रश्नों को उठा रहे हैं। क्या इस कारखाने को स्वीकार करते वक्त पर्यावरणीय नियमों की अनदेखी हुई है। बेहतर हो कि यदि किसी के पास और जानकारी हो तो भेजें। इस आलेख के साथ दो चित्र हैं।  ये विरोध मार्च की तस्वीरें हैं| इसी मुद्दे पर पटना में १० फ़रवरी को आयोजित इस मार्च में कई बुद्धिजीवी शामिल हुए थे|  

Thursday, April 1, 2010

Sparrows : some interesting facts


True sparrows, the Old World Sparrows in the family Passeridae, are small passerine birds. As eight or more species nest in or near buildings, and the House Sparrow and Eurasian Tree Sparrow in particular inhabit cities in large numbers, sparrows may be the most familiar of all wild birds.Fortunately, they are still found in many parts of the world. They are also one of the oldest companions of human beings and have, over a period of time, evolved with us.

 The House Sparrow was one of the most common birds in the world but in the past few years, this bird has seen decline over much of its natural range in both urban and rural habitats. The decline of the House Sparrow is an indicator of the continuous degradation of the environment in which we live.

The First World House Sparrow Day was celebrated in different parts of the world on 20 March 2010. It created a global awareness-raising campaign highlighting the need for the protection of the House Sparrow and its habitat.

The rationale of having a event is not only to celebrate the event for a day but to use the day to bring together all the individuals and organisation working on the conservation of House Sparrows and urban biodiversity on a common platform. With the help of the website we aim to build a network which can result in better linkages of like minded people. In the long term its an effective way to carry out advocacy, do collaborative research and form national and international linkages.

The idea of celebrating World House Sparrow Day came up during an informal discussion over tea at the Nature Forever Society's office. The idea was to earmark a day for the House Sparrow to convey the message of conservation of the House Sparrow and other common birds and also mark a day of celebration to appreciate the beauty of the common biodiversity which we take so much for granted.

Still curious? Check out the following links for more information on the House Sparrow.

http://www.worldhousesparrowday.org
http://www.natureforever.org/adopt.html#housesparrow
http://www.natureforever.org/help.html
http://www.birds.cornell.edu/celebration/promote

Literary
Old World sparrows in literature are usually House Sparrows.
In the Gospel of Mary Anna, Mary's mother, sees a sparrow before she laments to God.
The Greek poet Sappho in her "Hymn to Aphrodite", pictures the goddess's chariot as drawn by sparrows.
The Roman poet Catullus addresses one of his odes to his lover Lesbia's pet sparrow (‘Passer, deliciae meae puellae...’), and writes an elegy on its death (‘Lugete, o Veneres Cupidinesque...’).
In the New Testament, Jesus reassures his followers that not even a sparrow can fall without God's notice, and that their own more significant suffering is certainly seen and potentially forestalled or redeemed by God (Luke 12:6; Matthew 10:29). This passage is referenced in the hymn "His Eye Is on the Sparrow".
The Venerable Bede's (8th c.)"sparrow in the hall" episode describes the moment of transition between Anglo-Saxon pagan and Christian eras. Ecclesiastical History of the English Church And People.
In Phyllyp Sparowe (pub. c. 1505), by the English poet John Skelton, Jane Scrope's laments for her dead sparrow are mixed with antiphonal Latin liturgy from the Office of the Dead.
In Hamlet by William Shakespeare, as Hamlet faces his tragic fate, he says, "There's a special providence in the fall of a sparrow". This presumably refers to the New Testament quotation shown above.
In the Daphne du Maurier short story "The Birds", sparrows are one of the small birds that attacked the children in their beds.
In the Redwall series of fantasy novels sparrows are portrayed as fierce fighters; the main sparrow character is Warbeak.
In The Dark Half by Stephen King sparrows are the bringers of the living dead.
Sparrows are also mentioned in the poem "The Trees are Down" by Charlotte Mew: "They must have heard the sparrows flying".

Mao’s Campaign to Kill Sparrows

The Great sparrow campaign (Chinese: 打麻雀运动; pinyin: Dǎ Máquè Yùndòng) also known as the Kill a sparrow campaign (Chinese: 消灭麻雀运动; pinyin: Xiāomiè Máquè Yùndòng), and officially, the Four Pests campaign was one of the first actions taken in the Great Leap Forward from 1958 to 1962. The four pests to be eliminated were rats, flies, mosquitoes, and sparrows.

The campaign was initiated by Mao Zedong, the first President of the People's Republic of China. Sparrows were included on the list because they ate grain seeds, causing disruption to agriculture. It was decided that all the peasants in China should bang pots and pans and run around to make the sparrows fly away in fear. Sparrow nests were torn down, eggs were broken, and nestlings were killed.

Initially, the campaign did improve the harvest. By April 1960 the National Academy of Science found that sparrows ate insects more than seeds. Mao declared "forget it", and ordered the end of the campaign against sparrows.[1] By this time, however, it was too late. With no sparrows to eat them, locust populations ballooned, swarming the country and compounding the problems already caused by the Great Leap Forward and adverse weather conditions, leading to the Great Chinese Famine in which around 30 million people died of starvation.
Revived campaign

In June 19, 1998, a poster was spotted at Southwest Agricultural University in Chongqing, "Get rid of the Four Pests". Ninety-five percent of households were ordered to get rid of four pests. This time, cockroaches were substituted for sparrows. A similar campaign was spotted in the spring of 1998 in Beijing. This time, people did not respond to either of these campaign style approaches, as they were already fond of killing the said four pests, most especially cockroaches.

Cultural influence

In the TVB drama series Rosy Business a peasant came up with the idea of killing the sparrows to improve agriculture output. It was meant to be a prank used to trick the peasant owners into starving to poverty.

In 2006, the Los Angeles post-rock band Red Sparowes released the album ' Every Red Heart Shines Toward the Red Sun' based on the events.

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