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Wednesday, December 4, 2024

महाराष्ट्र ने बदल दी राष्ट्रीय-राजनीति की दिशा

हरियाणा के बाद महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को मिली भारी विजय ने लोकसभा चुनाव में लगे झटके को काफी हद तक कम कर दिया है। इन परिणामों से पार्टी कार्यकर्ता के मनोबल बढ़ा है, वहीं ‘इंडिया’ गठबंधन के पैरोकार हताश होने लगे हैं। वहीं उत्तर प्रदेश के उपचुनावों में नौ में से सात सीटें जीतकर पार्टी ने अखिलेश यादव की सोशल इंजीनियरी को मात दी है, जिसके परिणाम दूरगामी होंगे। हालांकि उत्तर प्रदेश के चुनाव में कांग्रेस पार्टी शामिल नहीं थी, पर बिना चुनाव लड़े ही वह राज्य में एक कदम और पीछे चली गई है। यदि उसने अपनी रणनीति में कोई बड़ा बदलाव नहीं किया, तो वह हमेशा के लिए समाजवादी पार्टी की पिछलग्गू बनकर रह जाएगी। 

महाराष्ट्र और झारखंड दोनों राज्यों ने प्रो-इनकंबैंसी वोट दिया है। इनमें महिलाओं और दूसरे सामाजिक-वर्गों की भूमिका है, जिन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ मिला है। दोनों राज्यों के चुनाव-परिणामों को समझने के अलावा उत्तर प्रदेश में हुए नौ उपचुनावों के परिणामों और उसके कुछ समय पहले हुए हरियाणा (और कश्मीर के जम्मू क्षेत्र) के परिणामों के निष्कर्षों को समझने की ज़रूरत भी है। इन सभी परिणामों की वर्ष के शुरू में हुए लोकसभा चुनाव के परिणामों के साथ तुलना की जानी चाहिए। इसके बाद ही राष्ट्रीय-राजनीति की भावी दशा-दिशा के बारे में अनुमान लगाए जा सकते हैं।

Wednesday, October 30, 2024

कांग्रेस और राहुल के ‘पुनरोदय’ को लगा धक्का

हरियाणा और जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव दो कारणों से महत्वपूर्ण थे। जून में लोकसभा चुनाव-परिणामों के बाद भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस की राजनीति के प्रति जनता का दृष्टिकोण क्या है और दूसरा यह कि कुल मिलाकर भारतीय राजनीति की दिशा क्या लग रही है। इन दोनों राज्यों के परिणामों में काफी कुछ बातें हैं, जिनसे निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। इन चुनावों का प्राथमिक संदेश यह है कि भाजपा मशीनरी अपने मूल वोट-आधार को बनाए रखने में कामयाब है और कांग्रेस को उन क्षेत्रों में भी भाजपा को हराने के लिए जबर्दस्त मशक्कत करनी होगी, जहाँ उसने पैर जमा लिए हैं। यानी राहुल गांधी और कांग्रेस के पुनरोदय को पक्का मानकर चलना नहीं चाहिए।

इन नतीजों से संगठन पर मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह दोनों का नियंत्रण बढ़ेगा। दोनों राज्यों के लिए प्रमुख प्रत्याशियों को दोनों ने ही चुना है। भाजपा सूत्रों ने बताया कि पार्टी के हर फैसले पर दोनों की ही मुहर रहेगी, जिसमें नए पार्टी अध्यक्ष का चयन भी शामिल है। इससे राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा के लिए भी सकारात्मक संदेश जाएगा, जिनकी जगह नए पार्टी अध्यक्ष को आना है। भाजपा इस वक्त महाराष्ट्र और झारखंड में सीटों के बँटवारे के लिए अपने सहयोगियों के साथ बातचीत कर रही है। इस जीत से उसका हौसला बढ़ेगा।

केजरीवाल की नाटकीय-राजनीति की परीक्षा

अरविंद केजरीवाल के मुख्यमंत्री पद से इस्तीफे की घोषणा से बहुत से लोगों को हैरत हुई है, पर आप गहराई से सोचें तो पाएंगे कि वे इसके अलावा कर ही क्या सकते थे। अगले कुछ महीने वे दिल्ली के कार्यमुक्त मुख्यमंत्री के रूप में अपने पद पर बने रहते, तो जनता के सामने जो संदेश जाता, उसकी तुलना में ऐसी मुख्यमंत्री के संरक्षक के रूप में बने रहना ज्यादा उपयोगी होगा, जिसका ध्येय उनको मुख्यमंत्री की कुर्सी पर वापस लाना है। बावजूद इसके कुछ खतरे अभी बने हुए हैं, जो केजरीवाल को परेशान करेंगे।

आतिशी की परीक्षा

आतिशी मार्लेना (या सिंह) कार्यकुशल साबित हुईं तब और विफल हुईं तब भी, पहला खतरा उनसे ही है। भले ही वे भरत की तरह कुर्सी पर खड़ाऊँ रखकर केजरीवाल की वापसी का इंतजार करें, पर जनता अब उनके कामकाज को गौर से देखेगी और परखेगी। आतिशी के पास अब भी वे सभी 13 विभाग हैं जो पहले उनके पास थे, जिनमें लोक निर्माण विभाग, बिजली, शिक्षा, जल और वित्त आदि शामिल हैं। इसके विपरीत मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल के पास कोई भी विभाग नहीं था। आतिशी पर काम का जो दबाव होगा, वह केजरीवाल पर नहीं था और वे राजनीति के लिए काफी हद तक स्वतंत्र थे।

बांग्लादेश में तख्तापलट और भारत से रिश्ते

बांग्लादेश में शेख हसीना की सरकार के विरुद्ध हुई बगावत और उसके बाद डॉ मुहम्मद यूनुस के नेतृत्व में कार्यवाहक सरकार के गठन के बाद दक्षिण एशिया की राजनीति में रातोंरात बड़ा बदलाव हो गया है। डॉ यूनुस को देश का मुख्य सलाहकार कहा गया है, पर व्यावहारिक रूप से यह प्रधानमंत्री का पद है। उन्हें प्रधानमंत्री या उनके सहयोगियों को मंत्री इसलिए नहीं कहा गया है, क्योंकि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। पहला सवाल है कि क्या यह सरकार शीघ्र चुनाव कराएगी? डॉ यूनुस ने संकेत दिया है कि हम जल्दी चुनाव नहीं कराएंगे, बल्कि देश में बड़े स्तर पर सुधारों का काम करेंगे।

उनसे पूछा गया कि कैसे सुधार, तब उन्होंने कहा कि चुनाव आयोग, न्यायपालिका, प्रशासनिक मशीनरी और मीडिया में सुधार की जरूरत है। देश में अब जो हो रहा है, उसका परिणाम क्या होगा यह कुछ समय बाद स्पष्ट होगा। ज्यादा बड़े सवाल सांविधानिक-संस्थाओं से जुड़े हैं, मसलन अदालतें। पूर्व प्रधानमंत्री खालिदा ज़िया को राष्ट्रपति के आदेश से रिहा कर दिया गया है। क्या यह संविधान-सम्मत कार्य है? इसी तरह एक अदालत ने मुहम्मद यूनुस को आरोपों से मुक्त कर दिया। क्या यह न्यायिक-कर्म की दृष्टि से उचित है? ऐसे सवाल आज कोई नहीं पूछ रहा है, पर आने वाले समय में पूछे जा सकते हैं।  

Saturday, August 3, 2024

मोदी3.0: उत्साह के बावजूद आशंकाएं

गत 9 जून को, नरेंद्र मोदी ने लगातार तीसरी बार भारत के प्रधान मंत्री के रूप में शपथ लेकर एक कीर्तिमान बनाया था, जो 1962 में जवाहर लाल नेहरू के दौर के बाद पहली बार स्थापित हुआ है। उसके एक दिन बाद, उन्होंने अपनी सरकार के चार प्रमुख विभागों-रक्षा, गृह, वित्त और विदेश के मंत्रियों को उनके पुराने पदों पर फिर से नियुक्त करके न केवल निरंतरता का, बल्कि दृढ़ता का संदेश भी दिया। विरोधी इसे बैसाखी पर टिकी सरकार बता रहे हैं, पर नरेंद्र मोदी तकरीबन उसी सहज तरीके से काम कर रहे हैं, जैसे करते आए थे।

भारतीय जनता पार्टी के पास 240 सीटें हैं, जिनसे भले ही पूर्ण बहुमत साबित नहीं होता है, पर 1984 के बाद यह किसी भी एक पार्टी को प्राप्त तीसरा सबसे बड़ा जनादेश है। तीनों जनादेश नरेंद्र मोदी के नाम हैं। हालांकि कांग्रेस पार्टी ने इस चुनाव-परिणाम को मोदी की पराजय बताया है, पर सच यह है कि पिछले तीन लोकसभा परिणामों में कांग्रेस को प्राप्त सीटों को एकसाथ जोड़ लें, तब भी वे इन 240 सीटों के बराबर नहीं हैं।

आक्रामक-विपक्ष

बावजूद इसके, मानना यह भी होगा कि मोदी की पार्टी को उम्मीद के मुताबिक सीटें नहीं मिलीं। कम से कम उत्तर प्रदेश, बंगाल और महाराष्ट्र में उसे अपमानित भी होना पड़ा है। यानी वोटर ने किसी को कुछ ढील दी और दूसरे को कुछ कसा। कुल मिलाकर बीजेपी देश के 29 में से 13 प्रदेशों में सत्ता में है, और उसके सहयोगी दल छह प्रांतों में शासन कर रहे हैं। बेशक केंद्र में सरकार पहले की तुलना में कुछ कमजोर है, पर वैसी लाचार नहीं है, जैसी मनमोहन सिंह अपनी सरकार को बताते थे। उनके ही आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने उनके दौर को पॉलिसी पैरेलिसिस बताया था।

Sunday, May 5, 2024

बीजेपी को क्यों दिखाई पड़ी कांग्रेसी एजेंडा में मुस्लिम लीग की छाप?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस के चुनाव-घोषणापत्र जो तीखा हमला बोला, वह कई मायनों में विस्मयकारी है। प्रतिस्पर्धी पार्टी के घोषणापत्र की आलोचना एक बात होती है, पर इस घोषणापत्र पर उन्होंने मुस्लिम लीग की छाप बताकर बहस का एक आधार तैयार कर दिया है। यह मुद्दा खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उठाया। सबसे पहले मेरठ की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि कांग्रेस के घोषणा पत्र में मुस्लिम लीग की छाप है। उन्होंने कहा कि जो चीजें बच गई थीं उनपर वामपंथी हावी हो गए। अलग-अलग राज्यों में हुई चुनावी रैलियों में भी प्रधानमंत्री ने यह मुद्दा उठाया। चुनाव के समय संजीदा और गैर-संजीदा बातें एकसाथ उठती हैं और साथ-साथ ही भुला दी जाती हैं। यह चर्चा भी दो-चार दिन तक चली और फिर गायब हो गई। यों भी चुनाव घोषणापत्र किसी को याद नहीं रहते।

कांग्रेस पार्टी के आर्थिक-कार्यक्रमों में टॉमस पिकेटी, क्रिस्तॉफ जैफ्रेलो और ज्याँ द्रेज़ जैसे विशेषज्ञों के विचार भी दिखाई पड़ रहे हैं। राहुल गांधी खुद को सबसे बड़ा वामपंथी साबित करना चाहते हैं। हाल के वर्षों में कांग्रेस पार्टी की सरकार की सबसे बड़ी भूमिका 1991 के आर्थिक सुधारों के रूप में रही है। पार्टी अब पहिया उल्टी दिशा में घुमाने को आतुर है। पश्चिमी देशों के विशेषज्ञ सायास या अनायास हिंदू समाज-व्यवस्था पर हमले बोल रहे हैं और जो सुझाव दे रहे हैं, उनसे सामाजिक-व्यवस्था के विखंडन का खतरा पैदा हो रहा है।

Saturday, March 2, 2024

काजल की कोठरी में चुनावी-चंदे का मायाजाल

भारतीय आम चुनाव दुनिया की सबसे बड़ी लोकतांत्रिक गतिविधि है। यह गतिविधि काले धन से चलती है। काले धन की विशाल गठरियाँ इस मौके पर खुलती हैं। चंदा लेने की व्यवस्था काले पर्दों से ढकी हुई है। लोकसभा के एक चुनाव में 543 सीटों के लिए करीब आठ हजार प्रत्याशी खड़े होते लड़ते हैं। तीस से पचास हजार करोड़ रुपए की धनराशि प्रचार पर खर्च होती है। शायद इससे भी ज्यादा। राजनीतिक दलों का खर्च अलग है। जो पैसा चुनाव के दौरान खर्च होता है, उसमें काफी बड़ा हिस्सा काले धन के रूप में होता है। यह सोचने की जरूरत है कि यह काला धन कहाँ से और क्यों आता है।

ज्यादातर प्रत्याशी अपने चुनाव खर्च को कम करके दिखाते हैं। चुनाव आयोग के सामने दिए गए खर्च के ब्यौरों को देखें तो पता लगता है कि किसी प्रत्याशी ने खर्च की तय सीमा पार नहीं की। जबकि अनुमान है कि सीमा से आठ-दस गुना तक ज्यादा खर्च होता है। जिस काम की शुरूआत ही गोपनीयता, झूठ और छद्म से हो वह आगे जाकर कैसा होगा? इसी छद्म-प्रतियोगिता में जीतकर आए जन-प्रतिनिधि कानून बनाते हैं। चुनाव-सुधार से जुड़े कानून भी उन्हें ही बनाने हैं। 

हाल में उच्चतम न्यायालय ने राजनीतिक दलों को चुनावी चंदे की व्यवस्था यानी इलेक्टोरल बॉन्ड को असंवैधानिक करार दिया है। अदालत ने चुनावी बॉन्ड की बिक्री पर रोक लगा दी है। अदालत के मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व में पाँच जजों के संविधान पीठ ने इस बारे में 15 फरवरी को फैसला सुनाया। इसके पहले नवंबर 2023 में संविधान पीठ ने लगातार तीन दिन तक दोनों पक्षों की दलीलें सुनने के बाद इस योजना की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था।

Sunday, December 31, 2023

विधानसभा चुनाव और 2024 के संकेत

तीन हिंदी भाषी राज्यों में जीत के बाद बीजेपी ने बड़ी तेजी से लोकसभा चुनाव की रणनीतियों पर काम शुरू कर दिया है। तीन राज्यों के नए मुख्यमंत्रियों के चयन से यह बात साफ हो गई है कि पार्टी ने लोकसभा चुनाव ही नहीं, उसके बाद की राजनीति पर भी विचार शुरू कर दिया है। विशेषज्ञों के कयासों को ग़लत साबित करते हुए बीजेपी ने राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में न सिर्फ जीत हासिल की, बल्कि नए मुख्यमंत्रियों के रूप में तीन नए चेहरों को आगे बढ़ाकर चौंकाया है। संभवतः पार्टी का आशय है कि हमारे यहाँ व्यक्ति से ज्यादा संगठन का महत्व है। हम नेता बना सकते हैं।

तीनों राज्यों में बीजेपी की सफलता के पीछे अनेक कारण हैं। मजबूत नेतृत्व, संगठन-क्षमता, संसाधन, सांस्कृतिक-आधार और कल्याणकारी योजनाएं वगैरह-वगैरह। इनमें शुक्रिया मोदीजी को भी जोड़ लीजिए। यानी मुसलमान वोटरों को खींचने के प्रयासों में भी उसे आंशिक सफलता मिलती नज़र आ रही है।  

राजस्थान में पहली बार विधायक बने भजनलाल शर्मा, मध्य प्रदेश में मोहन यादव और छत्तीसगढ़ में विष्णुदेव साय के नामों की दूर तक चर्चा नहीं थी। इनका नाम नहीं था, पर पार्टी अब इनके सहारे नएपन का आभास देगी। उसे कितनी सफलता मिलेगी, यह तो मई 2024 में ही पता लगेगा, पर इतना साफ है कि पार्टी पुरानेपन को भुलाना और नएपन को अपनाना चाहती है। पुराने नेताओं का कोई हैंगओवर अब नहीं है। दूसरी तरफ पार्टी को इस बात का भरोसा भी है कि वह लोकसभा चुनाव आसानी से जीत जाएगी। उसने इंड गठबंधन या इंडिया को चुनौती के रूप में लिया ही नहीं।

Wednesday, December 6, 2023

महुआ मोइत्रा और राजनीतिक नैतिकता से जुड़े सवाल

यह लेख 18 नवंबर को लिखा गया था। मासिक-पत्रिका में प्रकाशित यह लेख 18 नवंबर को लिखा गया था। मासिक-पत्रिका में प्रकाशित होने के कारण अक्सर समय के साथ विषय का मेल ठीक से हो नहीं पाता है। बहरहाल अब संसद ने महुआ मोइत्रा की सदस्यता खत्म करने का फैसला कर लिया है। इस लेख में इतना जोड़ लें, विषय से जुड़े संदर्भ बहुत पुराने नहीं हुए हैं।

महात्मा गांधी ने जिन सात पापों से बचने की सलाह दी, वे हैं-सिद्धांतों के बिना राजनीति, नैतिकता के बिना व्यापार, चरित्र के बिना शिक्षा, काम के बिना धन, विवेक के बिना खुशी, मानवता के बिना विज्ञान और बलिदान के बिना पूजा। अपने आसपास देखें, तो आप पाएंगे कि हम इन सातों पापों के साथ जी रहे हैं। पिछले कुछ समय का राजनीतिक घटनाक्रम इस बात की पुष्टि करता है।

दो पक्षों के वाग्युद्ध के शुरू हुआ महुआ मोइत्रा प्रकरण अब जटिल सांविधानिक-प्रक्रिया की शक्ल ले ल रहा है। लोकसभा की आचार समिति (एथिक्स कमेटी) ने तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा पर कैश लेकर सवाल पूछने से जुड़े बीजेपी सांसद निशिकांत दुबे के लगाए आरोपों की जाँच पूरी कर ली है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार कमेटी ने महुआ मोइत्रा को लोकसभा से निष्कासित करने की सिफ़ारिश की है। इस रिपोर्ट के मसौदे में बीएसपी सांसद दानिश अली को लोकसभा के नियम 275 के उल्लंघन पर फटकार लगाने की सिफारिश भी है।

इस रिपोर्ट में अली समेत विपक्ष के उन सांसदों का भी ज़िक्र है, जिन्होंने कमेटी की बैठक के दौरान चेयरमैन विनोद कुमार सोनकर के पूछे गए सवालों पर आपत्ति जताई थी। मोइत्रा और विपक्ष के पाँच सांसद-दानिश अली, कांग्रेस के उत्तम कुमार रेड्डी और वी वैथीलिंगम, सीपीएम सांसद पीआर नटराजन और जेडीयू के गिरिधारी यादव 2 नवंबर को हुई बैठक को छोड़कर चले गए थे।

संसदीय प्रक्रिया के अलावा यह मामला आपराधिक-जाँच के दायरे में भी आ रहा है। निशिकांत दुबे ने मीडिया को जानकारी दी है कि उन्होंने मोइत्रा के ख़िलाफ़ लोकपाल के पास शिकायत भेजी थी, जिसे लोकपाल ने जाँच के लिए सीबीआई के पास भेज दिया है। अब एक तरफ यह मामला लोकसभा के भीतर है और वहीं बाहर भी है।

Saturday, August 26, 2023

घातक है संसदीय-विमर्श की गुणवत्ता का ह्रास

संसद के मॉनसून-सत्र के समापन के आखिरी दिन गृहमंत्री अमित शाह ने लोकसभा में भारतीय न्याय संहिता विधेयक-2023 पेश करके देश की आपराधिक न्याय प्रणाली में बुनियादी बदलाव लाने का दावा किया है। गृहमंत्री ने इस सिलसिले में तीन बिल पेश किए, जिनसे भारतीय दंड संहिता, दंड प्रक्रिया संहिता और साक्ष्य अधिनियम में बड़े बदलाव होंगे। इन कानूनों का श्रेय अंग्रेजी राज को, खासतौर से टॉमस बैबिंगटन मैकॉले को दिया जाता है। मामूली हेरफेर के साथ ये कानून आजतक चले आ रहे हैं। सरकार का दावा है कि ये विधेयक औपनिवेशिक कानूनों की जगह पर राष्ट्रीय-दृष्टिकोण की स्थापना करेंगे। हालांकि इन्हें तैयार करने के पहले विमर्श की लंबी प्रक्रिया चली है, फिर भी इनके न्यायिक, सामाजिक और सामाजिक प्रभावों पर व्यापक विचार-विमर्श की ज़रूरत होगी। इन्हें पेश करने के बाद संसद की स्थायी समिति के पास भेज दिया गया। संसदीय समिति में इसके विभिन्न पहलुओं पर बारीकी से विचार होगा। उसके बाद इन्हें विधि आयोग के पास विचारार्थ भी भेजा जाएगा।

यह विमर्श घूम-फिरकर संसद में आएगा, इसलिए राजनीतिक दलों के बीच सबसे पहले इस विषय पर ईमानदार चर्चा की ज़रूरत है। पंचायत राज, सूचना के अधिकार, शिक्षा के अधिकार, खाद्यान्न सुरक्षा से जुड़े कानूनों पर इस तरह की बहस हुई भी थी। ऐसी बहसों को यथासंभव राजनीति से बचाने की ज़रूरत होती है। किसी खास सामुदायिक वर्ग पर पड़ने वाले प्रभावों की पड़ताल करते समय उसकी ज़रूरत भी होगी। सरकार को भी आलोचना से भागने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि कानूनों में रह गई छोटी सी त्रुटि को दूर करने के लिए फिर से एक लंबी प्रक्रिया को अपनाना पड़ता है। पर सवाल दूसरे हैं। इन कानूनों पर विचार कब और कैसे होगा?

Tuesday, August 1, 2023

सत्तापक्ष और विपक्ष की गठबंधन-राजनीति का एक और नया दौर

भारत के 26 प्रमुख विरोधी-दलों ने 18 जुलाई को बेंगलुरु में नए गठबंधन इंडिया की बुनियाद रखते हुए 2024 के लोकसभा चुनाव का एक तरह से बिगुल बजा दिया है। उसी रोज दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में 38 दलों ने शिरकत करके जवाबी बिगुल बजाया। इन दोनों बैठकों का प्रतीकात्मक महत्व ही था, क्योंकि इसके फौरन बाद 20 जुलाई से संसद का सत्र होने के कारण दोनों पक्ष राजनीतिक गतिविधियों में लग गए। मणिपुर में चल रही हिंसक गतिविधियों के बीच एक भयावह वीडियो के वायरल होने के बाद राजनीतिक टकराव और तीखा हो गया, और फिलहाल दोनों पक्ष अपनी एकता के पैतरों को आजमा रहे हैं।

नए गठबंधन इंडियाऔर पुराने गठबंधन एनडीए की इन बैठकों में संख्याओं के प्रदर्शन के पीछे भी कुछ कारण खोजे जा सकते हैं। विरोधी-एकता की पटना बैठक में 15 पार्टियाँ शामिल हुईं थीं। एक सोलहवीं पार्टी भी थी, जिसके नेता जयंत चौधरी किसी वजह से उस बैठक में नहीं आ पाए थे। वे बेंगलुरु में शामिल हुए। बेंगलुरु में जो 16 नई पार्टियाँ आईं, उनमें कोई नई प्रभावशाली पार्टी नहीं थी। तीन तो वाममोर्चा के घटक थे। कुछ तमिल पार्टियाँ थीं, जो कांग्रेस के साथ पहले से गठबंधन में हैं। उधर एनडीए में भी कोई खास नयापन नहीं था। बिहार और उत्तर प्रदेश से जीतन राम मांझी, ओम प्रकाश राजभर चिराग पासवान और उपेंद्र कुशवाहा के शामिल होने से यह संख्या बढ़ी हुई लगती है। इसके अलावा पूर्वोत्तर की अनेक छोटी-छोटी पार्टियाँ हैं, जिनकी लोकसभा में उपस्थिति नहीं है।

दोनों के संशय

इन दोनों बैठकों से एक निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि दोनों गठबंधनों के भीतर असुरक्षा का भाव है। कांग्रेस पार्टी दस साल सत्ता से बाहर रहने के कारण जल बिन मछली बनी हुई है। छोटे क्षेत्रीय दलों की महत्वाकांक्षाएं जाग रही हैं कि शायद उन्हें कुछ मिल जाए। बीजेपी के बढ़ते प्रभाव और ईडी वगैरह के दबाव के कारण इन्हें अस्तित्व का संकट भी नज़र आ रहा है।

दूसरी तरफ यह भी लगता है कि बीजेपी ने 2019 में पीक हासिल कर लिया था। क्या अब ढलान है? इस ढलान से तभी बच सकते हैं, जब नए क्षेत्रों में प्रभाव बढ़े। बीजेपी-समर्थक चाहते है कि उसके एजेंडा को जल्द से जल्द हासिल करने के लिए कम से कम इसबार तो सरकार बननी ही चाहिए। यह एजेंडा एक तरफ हिंदुत्व से जुड़ा है, वहीं राष्ट्रीय-एकता और वैश्विक-मंच पर महाशक्ति के रूप में उभरने पर। उन्हें यह भी दिखाई पड़ रहा है कि पार्टी की ताकत इस समय नरेंद्र मोदी है, पर उसके बाद क्या?

Monday, July 3, 2023

राजनीति बनाम सीबीआई यानी ‘डबल-धार’ की तलवार

महाराष्ट्र में एनसीपी की बगावत के पीछे एक बड़ा कारण यह बताया जाता है कि उसके कुछ नेता ईडी की जाँच के दायरे में हैं और उससे बचने के लिए वे बीजेपी की शरण में आए हैं। यह बात आंशिक रूप से ही सही होगी, कारण दूसरे भी होंगे, पर इस बात को छिपाना मुश्किल है कि बड़ी संख्या में राजनीतिक नेताओं पर गैर-कानूनी तरीके से कमाई के आरोप हैं। यह बात राजनीतिक-प्रक्रिया को प्रभावित करती है। तमिलनाडु में बिजली मंत्री वी सेंथिल बालाजी की गिरफ्तारी के बाद प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और सीबीआई की भूमिका को लेकर बहस एकबार फिर से शुरू हुई है। दूसरी तरफ तमिलनाडु सरकार ने राज्य में सीबीआई को मिली सामान्य अनुमति (जनरल कंसेंट) वापस लेकर जवाबी कार्रवाई भी की है। साथ ही  तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने कहा, हम हर तरह की राजनीति करने में समर्थ हैं। यह कोरी धमकी नहीं, चेतावनी है। डीएमके के आदमी को गलत तरीके से परेशान मत करो। हम जवाबी कार्रवाई करेंगे, तो आप बर्दाश्त नहीं कर पाओगे। 

स्टालिन की इस चेतावनी में राजनीति के कुछ सूत्र छिपे हैं। सरकारी संस्थाएं और व्यवस्थाएं कुछ उद्देश्यों और लक्ष्यों को लेकर बनी हैं। उनके सदुपयोग और दुरुपयोग पर पूरी व्यवस्था निर्भर करती है। स्टालिन की बात के जवाब में बीजेपी का कहना है कि हम भ्रष्टाचारियों का पर्दाफाश करेंगे। यह उसका राजनीतिक नारा है, रणनीति और राजनीति भी। उसके पास आयकर विभाग, सीबीआई और ईडी तीन एजेंसियाँ हैं, जो उस नश्तर की तरह हैं, जो इलाज करता है और कत्ल भी। उच्चतम न्यायालय ने धन शोधन निवारण अधिनियम (पीएमएलए) के तहत प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) को मिले अधिकार को उचित ठहराकर सरकार के हाथ और मजबूत कर दिए हैं। आर्थिक अपराधों की बारीकियों को समझना आसान नहीं है। आम आदमी पार्टी जिन नेताओं को कट्टरपंथी ईमानदार बताती है, उनका महीनों से कैद में रहना इसीलिए आम आदमी को समझ में नहीं आता। क्या वास्तव में किसी ईमानदार व्यक्ति को इस तरह से सताने की इजाजत हमारी व्यवस्था देती है?  

द्रमुक के नेता और बिजली मंत्री बालाजी को ‘नौकरी के बदले नकदी’ घोटाले से जुड़े धन-शोधन के एक मामले में 14 जून को ईडी ने गिरफ्तार किया। वे वर्तमान डीएमके सरकार के पहले मंत्री हैं, जिन्हें गिरफ्तार किया गया है। हालांकि मुख्यमंत्री इसे बदले की कार्रवाई बता रहे हैं, पर ईडी का कहना है कि उसके पास मंत्री के खिलाफ पर्याप्त सबूत हैं। गिरफ्तारी के बावजूद मुख्यमंत्री ने उन्हें मंत्रिपद पर बरकरार रखा है। स्टालिन का कहना है कि बीजेपी अपने उन विरोधियों को डराने के लिए आयकर विभाग, सीबीआई और ईडी जैसी जांच-एजेंसियों का इस्तेमाल करती है, जिनका वह राजनीतिक मुकाबला नहीं कर सकती। स्टालिन के अनुसार ईडी ने बीजेपी के सरकार में आने से पहले 10 साल में 112 छापे मारे थे, जबकि 2014 में बीजेपी के केंद्र में आने के बाद लगभग 3000 छापे मारे गए हैं।