कांग्रेस के लिए
आने वाला साल चुनौतियों से भरा है। चुनौतियाँ बचे-खुचे राज्यों में इज्जत बचाए
रखने और अपने संगठनात्मक चुनावों को सम्पन्न कराने की हैं। साथ ही पार्टी के भीतर
सम्भावित बगावतों से निपटने की भी। पर उससे बड़ी चुनौती पार्टी के वैचारिक आधार को
बचाए रखने की है। इस हफ्ते अचानक खबर आई कि राहुल गांधी ने पार्टी के महासचिवों से
कहा है कि वे कार्यकर्ताओं से सम्पर्क करके पता करें कि क्या हमारी छवि ‘हिन्दू विरोधी’ पार्टी के रूप
में देखी जा रही है। लगता है कि राहुल का आशय केवल हिन्दू विरोधी छवि के सिलसिले
में पता लगाना ही नहीं है, बल्कि पार्टी की सामान्य छवि को समझने का है। राहुल ने
यह काम देर से शुरू किया है। खासतौर से पराजय के बाद किया है। इसके खतरे भी हैं।
पिछले तीनेक दशक में कांग्रेस संगठन हाईकमान-मुखी हो गया है। कार्यकर्ता जानना
चाहता है कि हाईकमान का सोच क्या है। पार्टी के भीतर नीचे से ऊपर की ओर
विचार-विमर्श की कोई पद्धति नहीं है। यह दोष केवल कांग्रेस का दोष नहीं है। भारतीय
जनता पार्टी से लेकर जनता परिवार से जुड़ी सभी पार्टियों में यह कमी दिखाई देगी।
आम आदमी पार्टी ने इस दोष को रेखांकित करते हुए ही नए किस्म की राजनीति शुरू की
थी, पर कमोबेश वह भी इसकी शिकार हो गई।