Showing posts with label परिवार. Show all posts
Showing posts with label परिवार. Show all posts

Saturday, June 28, 2025

विश्वासघात और स्त्रियों की छवि


मेघालय में हाल में हुए हनीमून हत्याकांड के बाद से अचानक ऐसी खबरों की भरमार मीडिया में हो गई है, जिनमें मानवीय और पारिवारिक रिश्तों को लेकर कुछ परंपरागत धारणाएँ टूटती दिखाई पड़ रही हैं। खासतौर से अपराध में स्त्रियों की बढ़ती भूमिका को रेखांकित किया जा रहा है। सोशल मीडिया पर तथाकथित ‘घातक पत्नियों के मीम्स और मज़ाक की बाढ़ आ गई है। सोनम रघुवंशी और राजा रघुवंशी मामला अभी विवेचना के दायरे में है, इसलिए उस पर टिप्पणी करना उचित नहीं, पर उसके आगे-पीछे की खबरें इस बात का संकेत तो कर ही रही हैं कि हमारे बीच कुछ टूट रहा है। आप पूछेंगे कि क्या टूट रहा है? एक नहीं अनेक चीजें टूट रही हैं। घर-परिवार टूट रहे हैं, रिश्ते टूट रहे हैं, विश्वास टूट रहा है, भावनाएँ टूट रही हैं और वर्जनाओं-नैतिकता की सीमाएँ टूट रही हैं।

इस दौरान जो मामले सामने आए हैं उनमें प्रेम, विश्वासघात और मानवीय रिश्तों के अंधेरे पक्ष को लेकर सवाल उठे हैं। इन सभी प्रसंगों से इस बात पर रोशनी पड़ती है कि मानवीय भावनाएँ, खास तौर पर प्रेम और वासना, कितनी जटिल और विनाशकारी हो सकती हैं। किस हद तक व्यक्ति जुनून और विश्वासघात से प्रेरित हो सकता है। यह उस अंधेरे को भी सामने लाता है जो प्रेमपूर्ण रिश्तों में मौजूद हो सकता है, और कैसे प्रेम का विनाशकारी रूप सामने आ सकता है।

पहले इन सुर्खियों पर निगाह डालें। एक लिव-इन पार्टनर ने अपनी प्रेमिका की हत्या कर खुद भी आत्महत्या कर ली। दूसरी खबर है, लिव-इन में रह रही युवती की हत्या, प्रेमी फरार। संपत्ति विवाद में पत्नी ने बेटे की मदद से पति को तकिए से मुँह दबाकर मार डाला। राजस्थान में प्रेमी संग मिलकर पत्नी ने की पति की हत्या। पारिवारिक झगड़े में पति ने अपनी पत्नी को गोली मार दी और फिर खुद को भी गोली मार ली। एक घटना किसी दूसरी घटना का प्रेरणास्रोत बनती है। तेलंगाना में एक हत्या की जाँच से पता लगा कि मेघालय के अंदाज में हत्या की योजना बनाई गई, जिसमें बाहर से लाए गए हत्यारों की भूमिका होती। बाद में इसे टाल दिया और दूसरा रास्ता अपनाया गया।

Sunday, February 20, 2011

बच्चे आत्महत्या क्यों कर रहे हैं?


ये बच्चे मध्यवर्गीय परिवारों के हैं। किसानों की आत्महत्याओं से इनका मामला अलग है। ये मानसिक दबाव में हैं। मानसिक दबाव पढ़ाई का, करियर का, पारिवारिक सम्बन्धों का, रोमांस का, रोमांच का। किसी वजह से हम इन्हें सुरक्षा-बोध दे पाने में विफल हैं। यानी पूरा समाज जिम्मेदार है। पर समाज माने क्या? समाज किस तरह सोचता है? समाज किसके सहारे सेचता है? मेरे विचार से हमें इस बारे में सोचना चाहिए कि उत्कृष्ट साहित्य और श्रेष्ठ विमर्श से समाज को दूर करने की कोशिशें भी तो इसके लिए ज़िम्मेदार नहीं? सामाजिक अलगाव के बारे में भी सोचें। यहाँ पढ़ें गिरिजेश कुमार का लेख।  

जिम्मेदार हैं बदलते पारिवारिक रिश्ते और सिकुड़ता सामाजिक परिवेश 
गिरिजेश कुमार



“पापा घर वापस आ जाइए और खुशी-खुशी खाना खाइए | लड़ाई-झगडा किसके घर नहीं होता? इसका मतलब खाना छोड़ देंगे | इससे आपका कोई नुकसान नहीं होता आपके बच्चों पर बुरा असर पड़ता है...मैं आपसे माफ़ी मांगती हूँ हो सके तो मुझे माफ कर दीजिए” यह बातें पिंकी ने अपने सुसाइड नोट में लिखी हैं | दसवीं कक्षा की छात्रा पिंकी ने सातवीं मंजिल से कूदकर आत्महत्या कर ली थी |