Monday, February 28, 2022

कनाडा के ट्रक-आंदोलन से उभरे सवाल


कनाडा में करीब
हफ्ते से जारी ट्रक ड्राइवरों का विरोध प्रदर्शन खत्म हो गया है, पर यह परिघटना कनाडा के इतिहास में याद रखी जाएगी। इतिहास में दूसरी बार कनाडा में आपातकाल की घोषणा की गई। सरकार ने जो कड़े कदम उठाए, वे कनाडा की सौम्य-व्यवस्था से मेल नहीं खाते हैं। प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए पुलिस ने पेपर स्प्रे और स्टन ग्रेनेड का इस्तेमाल करके संसद के सामने के ज्यादातर हिस्से को साफ किया।

आंदोलन खत्म होने के बाद प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने आपातकाल की घोषणा को वापस ले लिया है। कनाडा के इतिहास में दूसरी बार इन शक्तियों का इस्तेमाल किया गया था। हालांकि इन शक्तियों के इस्तेमाल की पुष्टि संसद में होनी थी, पर उससे पहले ही इन्हें वापस ले लिया गया है। देश में शांति-व्यवस्था की स्थापना तो हो गई है, पर बहुत से सवाल खड़े हैं, जिनके जवाबों का इंतजार है।

यह आंदोलन केवल कनाडा के लिए ही नहीं अमेरिका समेत पश्चिमी-लोकतंत्र के लिए एक नज़ीर बनेगा। हजारों की भीड़ ने कनाडा की राजधानी पर धावा बोला और मुख्य-मार्गों को अवरुद्ध कर दिया। ट्रक यातायात में गिरावट ने फलों, सब्ज़ियों, ग्रोसरी और अन्य जरूरी वस्तुओं की क़ीमतें बढ़ा दीं, जिससे व्यापक अशांति फैल गई है। ख़ासतौर पर अमेरिका और कनाडा के बीच कार और ट्रक-कंपनियों का काम बुरी तरह प्रभावित हुआ।

अराजकता का अनुभव

इस किस्म की अराजकता पश्चिम के अनुशासित जीवन में नए किस्म का अनुभव है। एक तरफ नाराज ड्राइवर थे और दूसरी तरफ इस आंदोलन से नाराज नागरिक। कनाडा के लोग देश के राजनीतिक भविष्य के बारे में सवाल कर रहे हैं। कुछ पर्यवेक्षकों का कहना है कि यह आंदोलन भारत के किसान-आंदोलन से प्रेरित था। पर पश्चिमी सरकारों ने इस आंदोलन की भर्त्सना की और इसके दमन का समर्थन। अमेरिका और यूरोप में भी वैक्सीन की अनिवार्यता और कोविड-19 प्रतिबंधों के खिलाफ आंदोलन चल रहे हैं।

पिछले एक दशक में अमेरिका और यूरोप में इस प्रकार के जनांदोलन बढ़ते जा रहे हैं। क्या यह सिर्फ फौरी-उफान था या पश्चिमी-व्यवस्था के तख़्तापलट की भूमिका?  देश के राजनीतिक परिदृश्य में कहीं बुनियादी बदलाव की शुरुआत तो नहीं है? ऑक्यूपाई वॉलस्ट्रीट से लेकर पेरिस के पीली-कुर्ती आंदोलन तक सोशल मीडिया एक प्रेरक शक्ति रहा है। क्या यह एक नए युग की शुरुआत है? क्या यह एक बड़े राजनीतिक-विभाजन की शुरुआत है?

Sunday, February 27, 2022

यूक्रेन-प्रसंग पर भारत और चीन के नजरियों की समानता और उनके फर्क

 


यूक्रेन पर रूसी हमले पर भारत और चीन की प्रतिक्रियाओं पर पर्यवेक्षकों ने खासतौर से ध्यान दिया है। दोनों देशों के साथ रूस के मैत्रीपूर्ण संबंध हैं। दोनों ने ही संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूस-विरोधी प्रस्ताव पर मतदान में भाग लेना उचित नहीं समझा। मतदान में यूएई की अनुपस्थिति भी ध्यान खींचती है, जबकि उसे अमेरिकी खेमे का देश माना जाता है। तीनों के अलग-अलग कारण हैं, पर तीनों ही रूस को सीधे दोषी मानने को तैयार नहीं हैं। दूसरी तरफ चीन जिसे रूस का निकटतम मित्र माना जा रहा है, उसने रूसी हमले का खुलकर समर्थन भी नहीं किया है। प्रकारांतर से भारत ने भी इस घटना को दुर्भाग्यपूर्ण माना है।

भारत ने जहाँ साफ शब्दों में अपनी प्रतिक्रिया लिखित रूप में व्यक्त की है, वहीं चीनी प्रतिक्रिया अव्यवस्थित रही है। उसने जहाँ वैश्विक मंच पर रूस का सीधा विरोध नहीं किया, वहीं अपने नागरिकों को जो सफाई दी है, उसमें रूस से उस हद तक हमदर्दी नजर नहीं आती है। चीन अपनी विदेश-नीति में एकसाथ तीन उद्देश्यों को पूरा करना चाहता है। एक, रूस के साथ दीर्घकालीन नीतिगत दोस्ती, दूसरे देशों की क्षेत्रीय-अखंडता का समर्थन और तीसरे किसी सम्प्रभुता सम्पन्न देश में हस्तक्षेप नहीं करने की नीति।

गत 24 फरवरी को यूक्रेन पर हुए हमले के बाद चीनी राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने 25 को रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के साथ टेलीफोन पर बात की, जिसमें उन्होंने यूक्रेन पर हमले शब्द का इस्तेमाल नहीं किया, बल्कि पूर्वी यूक्रेन की स्थिति में नाटकीय परिवर्तन कहा। साथ ही इच्छा व्यक्त की कि यूक्रेन और रूस आपसी बातचीत से समझौता करें। उन्होंने सभी देशों की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने की परंपरागत चीनी नीति का उल्लेख भी किया। दूसरी तरफ चीनी मीडिया ने इसे रूस का विशेष मिलिट्री ऑपरेशन नाम दिया। चीनी मीडिया ने यूक्रेन के राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की के बयानों को उधृत किया और यूक्रेन में होते विस्फोटों के चित्र भी दिखाए। दूसरी तरफ रूस के सरकारी मीडिया ने यूक्रेन के नागरिक जीवन को शांतिपूर्ण बताया और सड़कों पर जन-जीवन शांतिपूर्ण और व्यवस्थित बताया। कम से कम मीडिया के मामले में रूसी और चीनी-दृष्टिकोण एक जैसे नहीं हैं।

चीन ने रूसी हस्तक्षेप की निन्दा नहीं की है, पर दूसरी तरफ यह भी कहा है कि रूस के विरुद्ध लगाए गए प्रतिबंध बेकार हैं और इस लड़ाई के लिए पश्चिमी देश जिम्मेदार हैं, जिन्होंने नेटो का विस्तार करके रूस को इस हद तक दबा दिया था कि उसे पलटवार करना पड़ा। चीन के सोशल मीडिया पर चीन के एक वरिष्ठ संपादक ने इस बात को साफ कहा।

उधर भारत ने इस स्थिति को दुर्भाग्यपूर्ण जरूर बताया, पर किसी पक्ष की निंदा नहीं की, बल्कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने व्लादिमीर पुतिन के साथ फोन पर हुए संवाद में बातचीत से मामले को सुलझाने का सुझाव दिया। भारत ने ज्यादातर खुद को रूस के खिलाफ मतदान से अलग रखा है। पर्यवेक्षकों का कहना है कि हम केवल अपनी स्वतंत्र विदेश-नीति और राष्ट्रहित को रेखांकित करना चाहते हैं। अतीत में भी भारत ने मध्य-यूरोप की सुरक्षा-व्यवस्था में सोवियत संघ का समर्थन किया था। 1956 में हंगरी में और 1968 में चेकोस्लोवाकिया में सोवियत सेनाओं के हस्तक्षेप का भारत ने विरोध नहीं किया था। 1980 में अफगानिस्तान में सोवियत सेना के प्रवेश का भी भारत ने विरोध नहीं किया था। 

यूक्रेन में फौजी ताकत का खेल


यूक्रेन पर रूस का धावा अब उतनी महत्वपूर्ण बात नहीं है, बल्कि उसके बाद उभरे सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। अब क्या होगा? राजनीतिक फैसले क्या अब ताकत के जोर पर होंगे? कहाँ है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद?  पश्चिमी देशों ने यूक्रेन को पिटने क्यों दिया?  पिछले अगस्त में अफगानिस्तान में तालिबानी विजय के बाद अमेरिकी शान पर यह दूसरा हमला है। हमले की निंदा करने की सुरक्षा परिषद की कोशिश को रूस ने वीटो कर दिया। क्या यह क्षण अमेरिका के क्षय और रूस के पुनरोदय का संकेत दे रहा है? क्या वह चीन के साथ मिलकर अमेरिका की हैसियत को कमतर कर देगा? भारत ने साफ तौर पर हमले की निंदा करने से इनकार कर दिया है। अमेरिका से बढ़ती दोस्ती के दौर में क्या यह रुख सही है? क्या अब हमें अमेरिका के आक्रामक रुख का सामना करना होगा? हमने हमले का विरोध भले ही नहीं किया है, पर शांति स्थापित करने और रूसी सेनाओं की वापसी के लिए हमें प्रयास करने होंगे। सैनिक-शक्ति से किसी राजनीतिक-समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है।

ताकत के जोर पर

रूस ने इस बात को स्थापित किया है कि ताकत और हिम्मत है, तो इज्जत भी मिलती है। अमेरिका ने इराक, अफगानिस्तान, सीरिया और लीबिया जैसे तमाम देशों में क्या ऐसा ही नहीं किया? बहरहाल अब देखना होगा कि रूस का इरादा क्या है?  शायद उसका लक्ष्य यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की को हटाकर उनके स्थान पर अपने समर्थक को बैठाना है। दूसरी तरफ पश्चिमी देश यूक्रेनी नागरिकों को हथियार दे रहे हैं, ताकि वे छापामार लड़ाई जारी रखें। बेशक वे प्रतिरोध कर रहे हैं और जो खबरें मिल रही हैं, उनसे लगता है कि रूस के लिए इस लड़ाई को निर्णायक रूप से जीत पाना आसान नहीं होगा।

राष्ट्रपति ज़ेलेंस्की देश में मौजूद हैं और उनकी सेना आगे बढ़ती रूसी सेना के शरीर में घाव लगा रही है। बहरहाल आगे की राह सबके लिए मुश्किल है। रूस, यूक्रेन तथा पश्चिमी देशों के लिए भी। अमेरिका और यूरोप के देश सीधे सैनिक हस्तक्षेप करना नहीं चाहते और लड़ाई के बगैर रूस को परास्त करना चाहते हैं। फिलहाल वे आर्थिक-प्रतिबंधों का सहारा ले रहे हैं। यह भी सच है कि उनके सैनिक हस्तक्षेप से लड़ाई बड़ी हो जाती।

रूसी इरादा

इस हफ्ते जब रूस ने पूर्वी यूक्रेन में अलगाववादियों के नियंत्रण वाले लुहांस्क और दोनेत्स्क को स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में मान्यता दी और फिर सेना भेजी, तभी समझ में आ गया था कि वह सैनिक कार्रवाई करेगा। पहले लगता था कि वह इस डोनबास क्षेत्र पर नियंत्रण चाहता है, जो काफी हद तक यूक्रेन के नियंत्रण से मुक्त है। अब लगता है कि वह पूरे यूक्रेन को जीतेगा। फौजी विजय संभव है, पर उसे लम्बे समय तक निभा पाना आसान नहीं। यूक्रेन के कुछ हिस्से को छोड़ दें, जहाँ रूसी भाषी लोग रहते हैं, मुख्य भूमि पर दिक्कत है। यह बात 2014 में साबित हो चुकी है, जब वहाँ रूस समर्थक सरकार थी। उस वक्त राजधानी कीव में बगावत हुई और तत्कालीन राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच को भागकर रूस जाना पड़ा। उसी दौरान रूस ने क्रीमिया प्रायद्वीप पर कब्जा किया, जो आज तक बना हुआ है।

Saturday, February 26, 2022

फिलहाल बड़ी लड़ाई नहीं होगी यूक्रेन में


अंततः पूर्वी यूक्रेन में रूस ने सैनिक कार्रवाई शुरू कर दी है, जिसका पहले से अंदेशा था। गुरुवार 24 फरवरी की सुबह टीवी पर रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने टीवी पर कहा कि यूक्रेन पर क़ब्ज़ा करने की हमारी योजना नहीं थी, पर अब किसी ने रोकने की कोशिश की तो हम फौरन जवाब देंगे। फिलहाल रूस और नेटो के टकराव की सम्भावना नहीं है, क्योंकि अमेरिका और यूरोप के ने सीधे युद्ध में शामिल होने से परहेज किया है।

यूक्रेन पर रूसी धावा अब उतनी महत्वपूर्ण बात नहीं है, बल्कि उसके बाद उभरे सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण हैं। अब क्या होगा? राजनीतिक फैसले क्या अब ताकत के जोर पर होंगे? कहाँ है संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद?  पश्चिमी देशों ने यूक्रेन को पिटने क्यों दिया?  पिछले अगस्त में अफगानिस्तान में तालिबानी विजय के बाद अमेरिकी शान पर यह दूसरा हमला है। शुक्रवार 25 फरवरी को हमले की निंदा करने की सुरक्षा परिषद की कोशिश को रूस ने वीटो कर दिया। क्या यह क्षण अमेरिका के क्षय और रूस के पुनरोदय का संकेत दे रहा है? क्या वह चीन के साथ मिलकर अमेरिका की हैसियत को कमतर कर देगा? भारत ने न केवल हमले की साफ तौर पर निंदा करने से इनकार कर दिया है, बल्कि सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव पर वोट देने के बजाय अनुपस्थित रहना पसंद किया है। अमेरिका से बढ़ती दोस्ती के दौर में यह बात कुछ लोगों को हैरत में डालती है, पर लगता है कि भारत ने राष्ट्रीय हित को महत्व दिया है। संभव है कि हमें अब अमेरिका के आक्रामक रुख का सामना करना पड़े। ऐसा होगा या नहीं, इसका हमें इंतजार करना होगा। हमने हमले का विरोध भले ही नहीं किया है, पर शांति स्थापित करने और रूसी सेनाओं की वापसी के लिए हमें प्रयास करने होंगे। सैनिक-शक्ति से किसी राजनीतिक-समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है।

अभी यह भी स्पष्ट नहीं है कि रूस के सैनिक अभियान का लक्ष्य क्या है। इस हफ्ते जब रूस ने पूर्वी यूक्रेन में अलगाववादियों के नियंत्रण वाले लुहांस्क और दोनेत्स्क को स्वतंत्र क्षेत्र के रूप में मान्यता दी थी और फिर अपनी सेना भेजी, तभी समझ में आ गया था कि वह सैनिक कार्रवाई करेगा। इस इलाके को डोनबास कहा जाता है। यूक्रेन इस क्षेत्र को टूटने से बचाने की कोशिश करेगा और रूसी सेना सीधे हस्तक्षेप करेगी।

टकराव कैसे रुकेगा?

रूस ने हमला तो बोल दिया है, पर क्या इसके दूरगामी दुष्परिणामों का हिसाब उसने लगाया है? क्या वह उन्हें वह झेल पाएगा?  लड़ाई भले ही यूरोप में हुई है, पर उसके असर से हम भी नहीं बचेंगे। पहला सवाल है कि वैश्विक-राजनय इस टकराव को क्या आगे बढ़ने से रोक पाएगा?  सुरक्षा परिषद में चीन ने कहा कि सभी पक्षों को संयम बरतते हुए आगे का सोचना चाहिए और ऐसी किसी भी कार्रवाई से परहेज़ करना चाहिए जिससे संकट और उग्र हो।  

Tuesday, February 22, 2022

यूक्रेन के आकाश पर अदृश्य-युद्ध के बादल

रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने यूक्रेन के दो पृथकतावादी क्षेत्रों को मान्यता दे दी है। इनपर रूस समर्थित अलगाववादियों का नियंत्रण है। पुतिन ने जिस शासनादेश पर दस्तख़त किए हैं उसके मुताबिक़ रूसी सेनाएं लुहान्स्क और दोनेत्स्क में शांति कायम करने का काम करेंगी। आशंका है कि सेनाएं जल्दी ही सीमा पार कर लेंगी। कुछ दिन पहले यूक्रेन के माहौल को देखते हुए लगता था कि लड़ाई अब शुरू हुई कि तब। मीडिया में तारीख घोषित हो गई थी कि 16 फरवरी को हमला होगा। 16 तारीख निकल गई, बल्कि उसी दिन रूस ने कहा कि हम फौजी अभ्यास खत्म करके कुछ सैनिकों को वापस बुला रहे हैं। इस घोषणा से फौरी तौर पर तनाव कुछ कम जरूर हुआ था, पर अब अमेरिका का कहना है कि यह घोषणा फर्जी साबित हुई है। रूस पीछे नहीं हटा, बल्कि सात सैनिक हजार और भेज दिए हैं। बहरहाल यूक्रेन तीन तरफ से घिरा हुआ है। जबर्दस्त अविश्वास का माहौल है।

रूस ने युद्धाभ्यास रोकने की घोषणा की है और बातचीत जारी रखने का इरादा जताया है। यूक्रेन चाहता है कि यूरोपियन सुरक्षा और सहयोग से जुड़े संगठन ओएससीई की बैठक हो, जिसमें रूस से सवाल पूछे जाएं। जर्मन चांसलर ओलाफ शॉल्त्स यूक्रेन गए हैं और इन पंक्तियों के प्रकाशित होते समय वे मॉस्को में होंगे। हालांकि अमेरिका मुतमइन नहीं है, फिर भी लम्बी फ़ोन-वार्ता के बाद बाइडेन और बोरिस जॉनसन ने कहा कि समझौता अभी संभव है।

धमकियाँ-चेतावनियाँ

पहली नजर में लगता है कि बातों, मुलाकातों का दौर खत्म हो चुका है, पर ऐसा नहीं है। पृष्ठभूमि-विमर्श जारी है। गत 11 फरवरी को जो बाइडेन के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जेक सुलीवन ने अमेरिकी नागरिकों से कहा कि वे 48 घंटे के भीतर यूक्रेन से बाहर निकल जाएं। अमेरिकी दूतावास भी बंद किया जा रहा है। लड़ाई की शुरूआत हवाई बमबारी या मिसाइलों के हमले के रूप में होगी। साथ में उन्होंने यह भी जोड़ा कि व्लादिमीर पुतिन ने अभी आखिरी फैसला नहीं किया है।

Sunday, February 20, 2022

लोकतांत्रिक-महोत्सव बनाम चुनावी-हथकंडे


पाँच राज्यों के चुनाव अंतिम दौर में हैं। पिछले 75 वर्ष में राजनीति हमारी राष्ट्रीय संस्कृति बन चुकी है और चुनाव उसके महोत्सव। स्वतंत्र चुनाव-व्यवस्था हमारी उल्लेखनीय उपलब्धि है, पर
चुनावी हथकंडेइस उपलब्धि पर पानी फेरते हैं। हाल में सुप्रीमकोर्ट में याचिका दायर करके अनुरोध किया गया है कि निर्वाचन आयोग को उन दलों का पंजीकरण रद्द करने का निर्देश दें, जो चुनाव के पहले सार्वजनिक धन से, विवेकहीन तोहफे देने का वायदा करते हैं या बाँटते हैं। याचिका में कहा गया है कि वोट पाने के लिए के लिए इस तरह के तोहफों पर पूरी तरह पाबंदी लगनी चाहिए।

वायदों की बौछार

इन चुनावों से पहले घोषणापत्रों और चुनाव सभाओं में लोकलुभावन तोहफों के वायदों की भरमार है। कोई 300 यूनिट बिजली मुफ्त में दे रहा है और कोई 400 यूनिट, युवाओं को लैपटॉप से लेकर स्कूटी तक देने के वायदे हैं। किसानों को कर्जे माफ करने की घोषणाएं हैं, तमिलनाडु में जैसी अम्मा कैंटीनें खुली थीं, वैसी ही सस्ते भोजन की कैंटीनें और सस्ते किराना स्टोर खोलने का वायदा है। कोई पाँच लाख नए रोजगार देने का वायदा कर रहा है, तो दूसरा बीस लाख। रोजगार के अलावा, बेरोजगारी भत्ता, पेंशन योजना, कन्याधन, बसों में मुफ्त यात्रा जैसे वायदे हैं। एक नेता ने कहा कि हमारी सरकार आई, तो मोटर साइकिल पर तीन सवारी ले जाने वालों का चालान नहीं होगा।

सस्ता अनाज

वायदों के व्यावहारिक-पक्ष पर कोई ध्यान नहीं देता। द्रमुक के संस्थापक सीएन अन्नादुरै ने 1967 में वायदा किया था कि 1 रुपये में साढ़े चार किलो चावल दिया जाएगा। वे अपने वायदे से मुकर गए, क्योंकि उन्हें समझ में आ गया कि इससे राज्य पर भारी बोझ पड़ेगा। नब्बे के दशक में आंध्र में एनटी रामाराव ने दो रुपए किलो चावल देने का वादा किया। वे जीत गए, पर चुनाव के बाद वहाँ आठ रुपए किलो चावल बिका, पर दक्षिण भारत में तोहफों की राजनीति का एक नया दरवाजा खुल चुका था। सस्ते अनाज के वायदे के पीछे जन-कल्याण की भावना समझ में आती है, पर वायदों का पिटारा खुला तो खुलता ही चला गया।

रंगीन टीवी

सन 2006 में द्रमुक के एम करुणानिधि ने रंगीन टीवी देने का वायदा किया और चुनाव जीता। इसे लेकर सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य मामला हाईकोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट तक आया था, जिसपर 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चुनावी घोषणा पत्र में किए वायदों को भ्रष्ट-आचरण नहीं माना जा सकता। तमिलनाडु में लैपटॉप, गैस के चूल्हे और टीवी से लेकर मंगलसूत्र तक देने के वायदे चुनाव में होते हैं। लड़कियों की शादी के समय रुपये दिए जाते हैं। चुनावी वायदे भ्रष्ट आचरण हैं या नहीं, यह विषय एक अरसे से चर्चा का विषय है। अब इसे एकबार फिर से सुप्रीम कोर्ट में उठाया गया है। पिछले साल किसी दूसरे विषय पर जनहित याचिका पर विचार करते हुए मद्रास हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि मुफ्त की चीजों ने तमिलनाडु के लोगों को आलसी बना दिया है।

पद और मर्यादा

इस चुनाव के दौरान और उसके पहले भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अपने पद पर रहते हुए राजनीतिक बयान देने के आरोप लगे हैं। संसद के बजट अधिवेशन में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस और नेहरू का नाम कई बार लिया। इसपर कांग्रेस पार्टी की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई। राज्यसभा में तो उनके बोलने के बाद कांग्रेस सांसदों ने वॉकआउट कर दिया। विधानसभा चुनाव करीब होने के कारण इस वक्तव्य के राजनीतिक निहितार्थ स्पष्ट हैं। पर क्या संसदीय-कर्म को राजनीति से अलग किया जा सकता है? राजनीतिक-कर्म की मर्यादा रेखा होनी चाहिए, पर उसे तय कौन करेगा? राजनीति संसद से सड़क तक जाती है, पर संसद और सड़क के वक्तव्य एक जैसे नहीं हो सकते।

Sunday, February 13, 2022

हिजाब का अधिकार और मर्यादा-रेखा


कर्नाटक के उडुपी जिले के एक कॉलेज से शुरू हुआ हिजाब का मुद्दे ने देशभर को गरमा दिया है। मामला सुप्रीमकोर्ट के दरवाजे पर है। कर्नाटक हाईकोर्ट ने छात्र-छात्राओं से कहा है कि फिलहाल वे शिक्षण-संस्थानों में धार्मिक पहचान वाली पोशाक न पहनें। इस व्यवस्था के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की गई है। याचिका में कहा गया है कि कोई सांविधानिक अदालत अपने अंतरिम आदेश से अनुच्छेद 15, 19, 21 और 25 के तहत नागरिक को प्राप्त मौलिक-अधिकारों पर रोक कैसे लगा सकती है?  याचिका दायर करने वालों का कहना है कि केरल हाईकोर्ट ने माना है कि हिजाब अनिवार्य धार्मिक पहनावा है। कर्नाटक के एजुकेशन एक्ट में यूनिफॉर्म और पेनल्टी को लेकर कोई प्रावधान नहीं है। उसे पहनने पर रोक नहीं लगाई जा सकती। कानूनी अधिकारों के अलावा इस मामले के साथ सामाजिक, सांस्कृतिक और शैक्षिक सवाल जुड़े हुए हैं। मसलन शिक्षा-संस्थानों को वेशभूषा निर्धारित करने का अधिकार है या नहीं? धार्मिक-विश्वास की कीमत पर क्या किसी को शिक्षा के अधिकार से वंचित किया जा सकता है?

राजनीतिक रंग

हाईकोर्ट और सुप्रीमकोर्ट तक मामले को ले जाने वाली छात्राओं की संख्या ज्यादा बड़ी नहीं हैं, पर उनके पक्ष में बड़े कांग्रेस पार्टी से जुड़े नामी वकील खड़े हो गए हैं। सुप्रीमकोर्ट में एक याचिका युवा कांग्रेस के अध्यक्ष बीवी श्रीनिवास ने भी दायर की है। इससे लगता है कि कांग्रेस पार्टी यह साबित करना चाहती है कि हम मुसलमानों के अधिकारों की रक्षा करने में सबसे आगे हैं। पार्टी के नेताओं के बयानों के पढ़ने से भी ऐसा ही आभास होता है। कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी की सरकार है। वहाँ कांग्रेस और जनता दल (एस) जैसे दलों का मुस्लिम-मतदाताओं पर काफी प्रभाव है। उधर दक्षिण भारत के मुस्लिम समुदाय के बीच सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी ऑफ इंडिया (एसडीपीआई) तेजी से उभर रही है। मुस्लिम छात्रों के संगठन कैम्पस फ्रंट ऑफ इंडिया (सीएफआई) का प्रसार भी बढ़ रहा है। इससे कांग्रेस और जेडी(एस) के मुस्लिम वोटों का क्षरण भी हो रहा है। कांग्रेस के सामने इस आधार को बचाने की चुनौती है।

उत्तर प्रदेश के चुनाव

यह विवाद ऐसे वक्त में शुरू हुआ है, जब उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव हो रहे हैं। उत्तर और दक्षिण की राजनीतिक परिघटनाएं एक-दूसरे को प्रभावित करती हैं। पहली नजर में ध्रुवीकरण की योजनाबद्ध गतिविधि नजर आती है। सवाल है कि किसकी है यह योजना? एसडीपीआई की दिलचस्पी उत्तर प्रदेश में नहीं है। तब क्या यह बीजेपी का काम है? पर आंदोलन तो एसडीपीआई और सीएफआई ने शुरू किया है? उडुपी जिले में मुस्लिम आबादी 18 फीसदी है। सन 2013 के विधानसभा चुनाव में यहाँ की पाँच में से चार सीटें कांग्रेस ने और एक बीजेपी ने जीती थी। 2018 में बीजेपी ने सभी सीटों पर विजय प्राप्त की। इस दौरान कर्नाटक के तटवर्ती इलाकों में जबर्दस्त ध्रुवीकरण हुआ है। इसका लाभ बीजेपी को मिला है, तो मुस्लिम ध्रुवीकरण का लाभ लेने के लिए एसडीपीआई ने प्रयास शुरू किए हैं। हाल में एसडीपीआई ने उडुपी जिले के स्थानीय निकाय चुनावों में काफी सफलता प्राप्त की है। काउप नगरपालिका, वित्तला और कोटेकर पंचायतों पर उसका कब्जा हो गया है, जो कांग्रेस के परम्परागत गढ़ थे। कांग्रेस इसे राष्ट्रीय-मुद्दा बनाकर दक्षिण में अपने कमजोर होते जनाधार को बचाने की कोशिश कर रही है। शुरू जिसने भी किया हो, बहती गंगा में हाथ सब धोना चाहते हैं।  

व्यापक-निहितार्थ

केवल राष्ट्रीय नहीं, यह अंतरराष्ट्रीय-मुद्दा भी बना है। अमेरिका के ऑफिस ऑफ इंटरनेशनल रिलीजस फ्रीडम (आईआरएफ) ने बयान जारी करके कहा है कि हिजाब पर रोक धार्मिक-स्वतंत्रता का उल्लंघन है। स्त्रियों और लड़कियों को हाशिए पर डालने की कोशिश है। आईआरएफ के राजदूत रशद हुसेन भारतवंशी हैं। यह संगठन भारत को लेकर इसके पहले भी बयान जारी करता रहा है। हिजाब के मामले को पाकिस्तान ने भी उठाया है। इस मामले के व्यापक निहितार्थ को सुप्रीमकोर्ट की टिप्पणी से समझा जा सकता है। मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना की बेंच ने कहा कि हमारी नजर पूरे मामले पर है। उचित समय पर हम इस अर्जी पर सुनवाई करेंगे। साथ ही अदालत ने सुझाव दिया कि इस मामले को ज्यादा बड़े स्तर पर न फैलाएं। आपको हाईकोर्ट के फैसले का इंतजार करना चाहिए, जहां सोमवार को फिर से सुनवाई होगी।

इच्छा का पहनावा

इच्छा का परिधान व्यावहारिक परिस्थितियों पर भी निर्भर करता है। सेना, पुलिस या बहुत से कार्यस्थलों में यूनिफॉर्म की संगठनात्मक अनिवार्यता होती है। वहाँ इच्छा नहीं चलतीं। इच्छा के परिधान का अधिकार संस्थान के यूनिफॉर्म तय करने के अधिकार के ऊपर नहीं होता। पर सांस्कृतिक और धार्मिक-वरीयताओं को ध्यान में भी रखना होता है। सिखों के साथ ऐसा है। क्या हिजाब भी अनिवार्य पहनावा है? कर्नाटक के स्कूल में सबसे पहले छह लड़कियों ने यह माँग उठाई, जबकि वहाँ काफी बड़ी संख्या में मुस्लिम लड़कियाँ बगैर हिजाब के आ रही थीं। दक्षिण भारत में परदा प्रथा नहीं है। वहाँ शादी के समय लड़कियाँ सिर पर पल्ला नहीं रखतीं। ऐसे खुले समाज में हिजाब की माँग अटपटी है।

Saturday, February 12, 2022

चीन-पाकिस्तान ‘मोर्चाबंदी’ की चुनौती


राहुल गांधी ने हाल में लोकसभा में कहा कि मोदी सरकार ने चीन और पाकिस्तान को साथ लाकर बड़ा अपराध किया है। हमारी विदेश नीति में लक्ष्य रहता था कि पाकिस्तान और चीन को क़रीब आने से रोकना है, लेकिन इस सरकार ने दोनों को साथ ला दिया है। उनके इस वक्तव्य के तीन दिन बाद ही बीजिंग से चीन-पाकिस्तान की एक संयुक्त वक्तव्य आया, जिसमें कहा गया कि हम कश्मीर में किसी भी एकतरफ़ा कार्रवाई का विरोध करते हैं, क्योंकि इससे कश्मीर मुद्दा जटिल हो जाता है। उनका इशारा अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 की वापसी को लेकर है।

यह मनो-युद्ध है। चीन हमारा प्रतिस्पर्धी है। उसे लेकर हमारा राष्ट्रीय संकल्प क्या है या क्या होना चाहिए? मोर्चा सीमा पर ही नहीं हैं। वह हमारी लोकतांत्रिक-व्यवस्था का लाभ उठाता है। आज ठोस-लड़ाई के बजाय हाइब्रिड-युद्ध का जमाना है। दुनिया की नजरें इस वक्त यूक्रेन और ताइवान पर हैं। साठ साल पहले 20 अक्तूबर 1962 को जब चीन ने भारत पर हमला बोला था, दुनिया की नजरें क्यूबा में मिसाइलों की तैनाती पर केंद्रित थीं। वह चीन के आंतरिक संकट का दौर भी था। 1958 से 1962 के बीच वह भयंकर दुर्भिक्ष का शिकार हुआ था, जिसमें डेढ़ से साढ़े पाँच करोड़ लोगों की मौतें हुई थीं। माओ-जे-दुंग के लंबी छलाँग कार्यक्रम देन।

सावधानी की जरूरत

चीन से सावधान रहने की जरूरत हमेशा बनी रहेगी। विफलताओं पर परदा डालने के लिए युद्ध जाँचा-परखा फॉर्मूला है। वह कुछ भी कर सकता है। बहरहाल उसपर बाद में करेंगे, पहले चीन-पाकिस्तान गठजोड़ पर गौर करें। भारत के खिलाफ दोनों एकसाथ हैं, इस बात से इनकार नहीं कर सकते। पर चीन को ऐसा करने से कैसे रोकेंगे? मनुहार करेंगे, बिनती करेंगे?  क्या इससे चीन मान जाएगा? दूसरा सवाल है कि क्या अनुच्छेद 370 की वापसी से वह नाराज है? या भारत के फैसले ने इस गठजोड़ का पर्दाफाश किया है?

डोकलाम का मामला तो 2017 में उठा था। उसके पहले 2013 में भारत के पूर्व विदेश सचिव श्याम सरन ने अपनी एक रिपोर्ट में कहा था कि चीन ने पूर्वी लद्दाख में भारत का 640 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र हथिया लिया है। श्याम सरन तब यूपीए सरकार की राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के अंतर्गत काम करने वाले राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष थे। सरकार ने उनकी बात को स्वीकार नहीं किया, पर यह बात रिकॉर्ड में मौजूद है। उस साल अप्रैल में देपसांग इलाके में चीनी घुसपैठ हुई और उसके अगले साल चुमार इलाके में।

1963 से है गठजोड़

राहुल गांधी की टिप्पणी का जवाब विदेशमंत्री एस जयशंकर ने ट्विटर पर दिया, पर यह बात आई-गई हो गई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस बात का जिक्र ही नहीं किया। चीन और पाकिस्तान की साठगाँठ क्या नई बात है? हमारी सेना को 1965 से इस बात का अंदेशा है कि पाकिस्तान के साथ चीन भी भारत के खिलाफ मोर्चा खोलेगा। सन 1963 में पाकिस्तान ने चीन को शक्सगम घाटी सौंपी। तभी गठजोड़ बन गया था। पृष्ठभूमि तो 1962 का लड़ाई में तैयार हो ही गई थी। 1965 का हमला उस रणनीति का पहला प्रयोग था।  

Wednesday, February 9, 2022

नए शीत-युद्ध का प्रस्थान बिंदु है शी-पुतिन वार्ता

यूक्रेन को लेकर रूस और पश्चिमी देशों की तनातनी के बीच रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन चीन गए, जहाँ उनकी औपचारिक मुलाकात चीन के राष्ट्रपति शी चिनफिंग के साथ हुई। वे विंटर ओलिम्पिक के उद्घाटन समारोह में शामिल होने के लिए गए थे, जिसका डिप्लोमैटिक महत्व नहीं है, पर दो बातों से यह यात्रा महत्वपूर्ण है। एक तो पश्चिमी देशों ने इस ओलिम्पिक का राजनयिक बहिष्कार किया है, दूसरे महामारी के कारण देश से बाहर नहीं निकले शी चिनफिंग की किसी राष्ट्राध्यक्ष से यह पहली रूबरू वार्ता थी।

क्या युद्ध होगा?

अमेरिका और यूरोप साबित करना चाहते हैं कि हम दुनिया की सबसे बड़ी ताकत हैं। दूसरी तरफ रूस-चीन खुलकर साथ-साथ हैं। युद्ध कोई नहीं चाहता, पर युद्ध के हालात चाहते हैं। आर्थिक पाबंदियाँ, साइबर अटैक, छद्म युद्ध, हाइब्रिड वॉर वगैरह-वगैरह चल रहा है। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर अब रूस के साथ चीन है। ताइवान और हांगकांग के मसले भी इससे जुड़ गए हैं। ताइवान को अमेरिका की रक्षा-गारंटी है, यूक्रेन के साथ ऐसा नहीं है। फिर भी अमेरिका ने कुमुक भेजी है। 

कल्पना करें कि लड़ाई हुई और रूस पर अमेरिकी पाबंदियाँ लगीं, और बदले में पश्चिमी यूरोप को गैस-सप्लाई रूस रोक दे, तब क्या होगायूरोप में गैस का एक तिहाई हिस्सा रूस से आता है। शीतयुद्ध के दौरान भी सोवियत संघ ने गैस की सप्लाई बंद नहीं की थी। सोवियत संघ के पास विदेशी मुद्रा नहीं थी। पर आज रूस की अर्थव्यवस्था इसे सहन कर सकती है। अनुमान है कि रूस तीन महीने तक गैस-सप्लाई बंद रखे, तो उसे करीब 20 अरब डॉलर का नुकसान होगा। उसके पास 600 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार है। इतना ही नहीं, उसे चीन का सहारा भी है, जो उसके पेट्रोलियम और गैस का खरीदार है।

रूस-चीन बहनापा

क्या यह नया शीतयुद्ध है? शीतयुद्ध और आज की परिस्थितियों में गुणात्मक बदलाव है। उस वक्त सोवियत संघ और पश्चिम के बीच आयरन कर्टेन था, आज दुनिया काफी हद तक कारोबारी रिश्तों में बँधी हुई है। दो ब्लॉक बनाना आसान नहीं है, फिर भी वे बन रहे हैं। ईयू और अमेरिका करीब आए हैं, वहीं रूस और चीन का बहनापा बढ़ा है। पश्चिम में इस रूस-चीन गठजोड़ को ‘ड्रैगनबेयर’ नाम दिया गया है।

Sunday, February 6, 2022

आर्थिक-अवसर पैदा करने के हौसलों वाला बजट


बजट आ गया, आपको कैसा लगा? कई मायनों में इसकी परीक्षा पूरे साल होगी। लंबे अरसे तक आम नागरिक बजट को महंगा-सस्ता की भाषा में समझता था। मध्य वर्ग की दिलचस्पी इनकम टैक्स तक होती थी, आज भी है। रेल बजट को लोग नई ट्रेनों की घोषणा और किराए-मालभाड़े में कमी-बेसी से ज्यादा नहीं समझते थे। इस लिहाज से इस बजट में कुछ भी नहीं है। इस साल के बजट का सार एक वाक्य में है, समस्याओं का हल है तेज आर्थिक संवृद्धि। संवृद्धि होगी, तो सरकार को टैक्स मिलेगा, सामाजिक कल्याण के काम किए जा सकेंगे। संवृद्धि के साथ यह भी देखना होगा कि राजकोषीय घाटा कितना है और कर्ज कितना है और कितना ब्याज देना है वगैरह। ब्याज दर ऊँची या नीची होना भी महत्वपूर्ण है। जीडीपी, घाटे और कर्ज को एकसाथ पढ़ना होगा। वैश्विक अर्थव्यवस्था की गति और पूँजी-निवेश को भी। 

अनेक चुनौतियाँ

वित्तमंत्री के सामने चुनौती है धीमी होती वैश्विक अर्थव्यवस्था और बढ़ती ब्याज दरों के बीच तेज संवृद्धि को हासिल करना। पर देखना होगा कि इस दौरान बेरोजगारी और महंगाई का सामना किस तरह से होगा। यह बात इसी साल सामने आ जाएगी। कुछ अपेक्षाएं या अंदेशे महामारी से भी जुड़े हैं, जिसकी तीसरी लहर के बीच यह बजट आया है। पिछले साल जीडीपी में 6.6 फीसदी का संकुचन हुआ था, जिसे एडजस्ट करने के बाद देखें, तो आज अर्थव्यवस्था महामारी से पहले यानी 2019-20 से केवल एक फीसदी के आसपास ही बेहतर है। देश के पास उपभोग के साधन तकरीबन उतने ही या उससे कम हैं, जितने 2019-20 में थे। बेरोजगारी, बढ़ती महंगाई, खाद्य-सुरक्षा, जलवायु-परिवर्तन, पुष्टाहार, सार्वजनिक स्वास्थ्य, शिक्षा, लैंगिक-विषमता वगैरह-वगैरह की चुनौतियाँ ऊपर से हैं। हर सेक्टर की भारी अपेक्षाएं हैं और राजनीतिक चुनौती अलग से।

बदलाव, जो दिखाई भी पड़ेंगे

इसबार का बजट अर्थव्यवस्था और राजनीति दोनों चुनौतियों का सामना करता नजर आता है। इसमें दूर की बातें हैं, पर 2024 के चुनाव के ठीक पहले नजर आने वाले कार्यक्रम भी हैं। हाईवे, पुल, वंदे भारत ट्रेनें, डिजिटल इंडिया और 5-जी जैसे कार्यक्रमों के परिणाम दो साल बाद दिखाई पड़ेंगे। वित्तमंत्री ने कुल 39.45 लाख करोड़ रुपये का बजट तैयार किया है, पर कुल कमाई 22.84 करोड़ रुपये की है। निर्माण पर भारी खर्च का मतलब है राजकोषीय घाटा। सवाल है कि वह कैसे पूरा होगा और बेरोजगारी तथा बढ़ती महंगाई का सामना किस तरह से किया जाएगा?  सरकार ने इस बीच मुफ्त अनाज दिया और मनरेगा के माध्यम से काम भी दिया। कुछ रिकवरी हुई है, पर वह अधूरी और असंतुलित है।  

राजकोषीय घाटा

कुल व्यय पर नियंत्रण के बावजूद शुद्ध बाजार उधारी 32.3 फीसदी बढ़कर 11.59 लाख करोड़ रुपये हो जाएगी। बाजार से कर्ज लेने में रिजर्व बैंक के बॉण्ड मैनेजमेंट की परीक्षा भी होगी। कर्ज पर ब्याज बढ़ने से सरकार का हाथ तंग होगा। 2020-21 में कुल सरकारी खर्च में ब्याज की हिस्सेदारी 19 फीसदी थी। चालू वर्ष में यह 22 फीसदी से ज्यादा है और अगले साल 24 फीसदी तक हो सकती है। संसाधनों का एक चौथाई ब्याज में जाएगा। चालू वित्तवर्ष में राजकोषीय घाटे का लक्ष्य 6.8 फीसदी था, जो 6.9 फीसदी हो जाएगा। अगले साल 6.4 फीसदी का लक्ष्य है। यह स्तर 2025-26 के लिए निर्धारित 4.5 फीसदी से दो फीसदी तक ज्यादा है, पर इसे हासिल किया जा सकता है।

Wednesday, February 2, 2022

छुटकारा कैसे मिले, इस ‘जानलेवा विषमता’ से?

विकास, संवृद्धि और उत्पादन के खुशगवार आँकड़ों की बहार है, पर जब आइना देखते हैं, तब चेहरे की झुर्रियाँ हैरान और परेशान करती है। ऐसा ऑक्सफ़ैम असमानता-रिपोर्ट से हुआ है। ‘इनइक्वैलिटी किल्स’ शीर्षक से जारी रिपोर्ट के अनुसार भारत में आर्थिक-विषमता भयानक तरीके से बढ़ रही है। 2021 में देश के 84 फीसदी परिवारों की आय घटी है, पर इसी अवधि में अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई है। मार्च 2020 से 30 नवंबर, 2021 के बीच अरबपतियों की संपत्ति 23.14 लाख करोड़ रुपये (313 अरब डॉलर) से बढ़कर 53.16 लाख करोड़ रुपये (719 अरब डॉलर) हो गई है, जबकि 2020 में 4.6 करोड़ से अधिक देशवासी आत्यंतिक गरीबी-रेखा के दायरे में आ गए हैं।

वैश्विक-चिंतन की दिशा

ऑक्सफ़ैम की वैश्विक-विषमता रिपोर्ट स्विट्जरलैंड के दावोस में विश्व आर्थिक फोरम के सम्मेलन के पहले आती है। दावोस का फोरम कारोबारी संस्था है, जिसे कॉरपोरेट दुनिया संचालित करती है। नब्बे के दशक में जबसे आर्थिक उदारीकरण और वैश्वीकरण की बातें शुरू हुई हैं वैश्विक गरीबी और असमानता सुर्खियों में है। समाधान खोजे गए, पर वे कारगर नहीं हुए। सहस्राब्दी लक्ष्यों को 2015 तक हासिल करने में संयुक्त राष्ट्र विफल रहा। अब उसने 2030 के लक्ष्य निर्धारित किए हैं। विकास और विषमता की विसंगति को दावोस का फोरम भी स्वीकार करता है। वहाँ भी ऑक्सफ़ैम-रिपोर्ट का जिक्र हुआ है।

Tuesday, February 1, 2022

बदहवास इमरान को चीन में कुछ भी हासिल नहीं होगा


लगातार अलोकप्रिय होते जा रहे इमरान खान को लेकर पाकिस्तान में अनिश्चय बढ़ता जा रहा है। पर्यवेक्षक वर्तमान व्यवस्था को बदलने का सुझाव देने लगे हैं। हालांकि उनका कार्यकाल अगले साल अगस्त तक है, पर उसके पहले ही उनके हटने की बातें हो रही हैं। नवंबर में सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा का कार्यकाल खत्म हो रहा है, जिसे इमरान सरकार ने खींचकर बढ़ाया था। बाजवा का कार्यकाल बढ़ने से जो अंतर्विरोध पैदा हुए हैं, वे भी इमरान के गले की हड्डी हैं। तालिबान के काबिज होने के बावजूद अफगानिस्तान को लेकर पाकिस्तानी मुराद पूरी नहीं हुई है। आर्थिक-संकट सिर पर है, और अंदरूनी राजनीति हिचकोले खा रही है। इन हालात में वे 3 फरवरी को चीन जा रहे हैं।

इमरान-समर्थक साबित करने में लगे हैं कि बस वक्त बदलने ही वाला है। चीन-रूस-पाकिस्तान की धुरी बनने वाली है, चीनी उद्योग सीपैक में आने वाले हैं, स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन बनेंगे और पाकिस्तान स्टील मिल्स का उद्धार चीनी कंपनियाँ करेंगी वगैरह-वगैरह। इमरान खान चीन में हो रहे विंटर ओलिम्पिक्स के उद्घाटन समारोह में हाजिरी देने जा रहे हैं। अमेरिका समेत पश्चिमी देशों ने इस आयोजन का राजनयिक बहिष्कार करने की घोषणा की है। बहरहाल पाकिस्तान में इस चीन-यात्रा को बहुत महत्वपूर्ण माना जा रहा है। इसके लिए सेनाध्यक्ष कमर जावेद बाजवा ने उन्हें विशेष ब्रीफिंग दी। इमरान के करीबी पर्यवेक्षक शगूफे छोड़ रहे हैं कि नए ध्रुवीकरण का केंद्र पाकिस्तान बनने जा रहा है। चीन में न केवल राष्ट्रपति पुतिन के साथ इमरान खान की मीटिंग होगी, बल्कि एक त्रिपक्षीय-मुलाकात भी होगी, जिसमें चीन-रूस और पाकिस्तान के शासनाध्यक्ष होंगे।

उम्मीद पर पानी फिरा

रूस-सरकार ने इन शिगूफों पर पानी डाल दिया है और स्पष्ट किया है कि पुतिन की केवल चीनी के राष्ट्रपति से भेंट होगी, किसी और के साथ नहीं। त्रिपक्षीय तो दूर की बात है, पुतिन से द्विपक्षीय बात भी होने वाली नहीं है। बात होने या नहीं होने से ज्यादा महत्वपूर्ण है पाकिस्तान की घटती साख। चीन के साथ हिमालय से ऊँची और समुद्र से गहरी दोस्ती की असलियत से भी पाकिस्तान इस समय रूबरू है। इमरान खान की यात्रा के ठीक पहले पाकिस्तान ने पिछले साल आतंकवादी हमले में हताहत दासू बिजली परियोजना से जुड़े 36 चीनी नागरिकों को मुआवजा देने का फैसला किया है।