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Wednesday, February 2, 2011

क्या पाठक विचार पढ़ना नहीं चाहते?


सम्पादकीय पेज खत्म करने के बाद आज के डीएनए में उसके पाठकों की चिट्ठियाँ छपीं हैं। कुछ ने समर्थन किया है और कुछ ने असहमति जताई है। बेशक पाठक पसंद करें तो सब ठीक है, पर क्या अखबार ने सम्पादकीय पेज खत्म करने के पहले पाठकों से पूछा था?

कुछ लोग मानते हैं कि बाज़ार तय करता है कि सही क्या है और गलत क्या है। पर बाज़ार क्या सोचता है इसका पता कैसे लगता है? मुम्बई में बाज़ार का लीडर तो टाइम्स ऑफ इंडिया है। करीब दसेक साल पहले टाइम्स ऑफ इंडिया के लखनऊ संस्करण में सम्पादकीय पेज खत्म कर दिया गया था। सिर्फ पेज खत्म किया था। सम्पादकीय किसी पेज में छपते थे, मुख्य लेख किसी और पेज में पाठकों के पत्र किसी और पेज में। खैर टाइम्स ने बाद में सम्पादकीय पेज अपनी जगह वापस कर दिया। टाइम्स के सम्पादकीय पेज आज भी श्रेष्ठ है।

Thursday, October 14, 2010

डीडी अपनी ताकत को क्यों नहीं पहचानता?


इस पखवाड़े किसी न किसी वजह से दूरदर्शन, जिसे अब डीडी के नाम से बेहतर पहचाना जाता है, खबरों में रहा। कॉमनवैल्थ गेम्स के कारण उसे देखने वालों की संख्या बढ़ी, विज्ञापन बढ़ा। छोटी-मोटी खराबियों पर ध्यान न दें तो तकनीकी दृष्टि से प्रसारण ठीक था। डीडी के स्पोर्ट्स चैनल ने हाई डेफिनिशन प्रसारण शुरू करके तकनीकी बढ़त ले ली है। डीडी के पास अपना डीटीएच है। तमाम भारतीय भाषाओं के चैनल हैं। तकनीक, नेटवर्क और साधनों के लिहाज से डीडी के मुकाबले कोई चैनल नहीं है, पर दर्शक उसके पास जाना नहीं चाहता।

प्रतिमा पुरी
प्रसार भारती बन जाने के बावजूद डीडी पर सरकारी मीडिया होने की पट्टी चिपकी है। उसकी काम करने की शैली उसके स्वायत्त हो जाने के बाद शायद बिगड़ी ही है। करीब डेढ़ दशक पहले जब देश में निजी टीवी स्टेशनों की शुरुआत हो रही थी, तब एक उम्मीद बँधी थी कि अब सूचना के अनेक स्रोत होने पर सही तस्वीर सामने आ सकेगी। पर ऐसा नहीं हो सका। न्यूज़ चैनल के नाम पर जिन्हें लाइसेंस दिए गए, वे बाज़ीगर और मदारी बन गए। यह एक प्रकार का धोखा था। जिसे धोखा दिया गया वही जागरूक होता तो धोखा कौन दे पाता। भारतीय मीडिया की दो समानांतर धाराएं साफ देखी जा सकती हैं। एक है डीडी मार्का सरकारी धारा। इसमें तकनीक और आधार ढाँचा बनाने पर ज़ोर है। दूसरे हैं निजी चैनल जिनमें विज्ञापन से कमाई करने की होड़ है। कंटेंट यानी सामग्री की उपेक्षा दोनों जगह है।

भारत को राष्ट्रीय स्तर पर जब गहरे, खुले और लम्बे विचार-विमर्श की ज़रूरत है, तभी उसकी विमर्शकारी संस्थाएं कमज़ोर होती जा रहीं हैं। चौपाल, चौराहों और कॉफी हाउसों की संस्कृति खत्म हो रही है। इस विमर्श की जगह वर्चुअल-विमर्श ने ले ली है। यह वर्चुअल-विमर्श ट्विटर और फेसबुक में पहुँच गया है। यहाँ वह सरलीकरण और जल्दबाज़ी का शिकार है। अक्सर अधकचरे तथ्यों पर अधकचरे निष्कर्ष निकल कर सामने आ रहे हैं। एकाध गम्भीर ब्लॉग को छोड़ दें तो नेट का विमर्श अराजक है। टीवी का विमर्श एक फॉर्मूले से बँध गया है तो उससे बाहर निकल कर नहीं आ रहा। यों भी टीवी की दिलचस्पी इसमें नहीं है। वह सूचनाओं को तोड़-मरोड़ कर पेश करने को ही कौशल मानता है। उसके कंटेंट की योजना पत्रकार नहीं बनाते। मार्केटिंग-मैनेजर बनाते हैं। उनकी दिलचस्पी समाज के व्यापक हित में न होकर संस्था के व्यावसायिक हित तक सीमित है। ऐसी तमाम वजहों से विमर्शकार एक-दूसरे से दूर हो गए हैं।

दूरदर्शन यानी डीडी ऐसा मंच हो सकता है, जो गम्भीर विमर्श को बढ़ा सके और उन जानकारियों को दे, जिनसे प्राइवेट चैनल भागते हैं। वह संज़ीदा दर्शकों का वैकल्पिक मार्केट खड़ा कर सकता है। उसके दबाव में प्राइवेट चैनल भी अपने को बदलने की कोशिश करेंगे। ऐसा करने के लिए उसके पास वैचारिक अवधारणा होनी चाहिए। पर डीडी तो सरकारी अफसरों के मार्फत काम करता है। देश की अर्थव्यवस्था, राजनीति, संस्कृति, समाज, पर्यावरण, विज्ञान, तकनीक यहाँ तक कि बाज़ार के बारे में सोच-विचार का कोई मंच तो होना चाहिए। एक दौर था जब अखबारों की बहस संसद में और संसद की अनुगूँज अखबारों में होती थी। अब तो कोई गूँज ही नहीं है। भयानक शोर के बीच वैचारिक सन्नाटा। बुद्धिजीवी मज़ाक का विषय बन गए हैं। आज़ादी के बाद के शुरुआती वर्षों में आकाशवाणी ने देश के श्रेष्ठ लेखकों, संगीतकारों और कलाकारों को सहारा दिया था। दूरदर्शन (डीडी-पूर्व) के शुरुआती सीरियल किस माने में कमज़ोर थे?
पिछले कुछ साल में लोकसभा टीवी ने गम्भीर विमर्श का एक रास्ता दिखाया है। इस चैनल का दर्शक संख्या में कम है, पर सामग्री के लिहाज से इसकी एक दिशा है। लोकसभा चैनल सिर्फ संसदीय कार्यवाही के प्रसारण तक सीमित नहीं रहना चाहिए। उसे पब्लिक स्फीयर की रचना करनी चाहिए, जो पूरे देश को वैचारिक दिशा दे। यह काम दूरदर्शन को करना चाहिए। उसने नहीं करना चाहा। वह तो प्राइवेट चैनलों की अपराध कथाओं की नकल करता है। डीडी के पास देश का सबसे अच्छा नेटवर्क है। देश के नेता मीडिया से जिस पॉज़ीटिव कवरेज़ का अनुरोध करते हैं, उसे डीडी में क्यों नहीं करके दिखाते?  उसे प्राइवेट चैनलों का पिछलग्गू क्यों बनना चाहिए? उसका स्पोर्ट्स चैनल प्राइवेट स्पोर्ट्स चैनलों से टक्कर नहीं लेना चाहता। यह मुश्किल काम नहीं है। डीडी के पास इतने चैनल हैं कि वह क़ॉमनवैल्थ गेम्स को उसके समूचे रंग के साथ कवर कर सकता था। उनके पास सफलता का फॉर्मूला सिर्फ इतना है कि ईएसपीएन से एंकर लाकर बैठा दो।  

टीवी, नेट, अखबार या किसी भी मीडिया को सिर्फ तेल-फुलेल, रंग-रोगन की ज़रूरत नहीं है। उसे संज़ीदा सामग्री की ज़रूरत है। इस तथ्य की उपेक्षा ज्यादातर मीडिया ने की है। हमने घटियापन इसलिए अपनाया क्योंकि गुणवत्ता की राह में मेंहनत लगती है। हमें मुफ्त की सफलता चाहिए। सफलता का रास्ता अनिवार्य रूप से घटियापन की दरकार करता तो पश्चिमी मीडिया भी ऐसा ही होता। डिसकवरी, साइंस, हिस्ट्री और जियोग्रैफी के चैनल भी व्यावसायिक रूप से सफल हैं। हमने उस प्रोफेशनलिज्म को अपनाने की कोशिश क्यों नहीं की? कम से कम  डीडी तो यह कर ही सकता था।