मंगलवार को कम्युनिस्ट पार्टी छोड़कर कांग्रेस में शामिल हुए कन्हैया कुमार ने कहा, ‘देश के लाखों-करोड़ों नौजवानों को लगने लगा है कि कांग्रेस नहीं बची तो देश नहीं बचेगा।’ उनके इस बयान में एक प्रकार की नकारात्मकता है। ‘कांग्रेस नहीं बची तो…’ जैसी बात उनके मन में क्यों आई? कन्हैया कुमार ने अपने वक्तव्य में यह भी कहा, ‘यह देश की सबसे पुरानी और सबसे लोकतांत्रिक पार्टी है। मैं 'लोकतांत्रिक' पर जोर दे रहा हूं...मैं ही नहीं कई लोग सोचते हैं कि देश कांग्रेस के बिना नहीं रह सकता।’
कन्हैया कुमार कहें या न कहें, सच यह है कि
कांग्रेस पार्टी के पास भारतीय राष्ट्र-राज्य की व्यापक संकल्पना है। फिर भी कोई
नौजवान नेता, जो राष्ट्रीय-राजनीति में कदम रख रहा है, उसका यह कहना मायने रखता
है, ‘कांग्रेस
नहीं बची तो…।’ खतरा किसे है,
कांग्रेस संगठन को या उस व्यापक संकल्पना को, जो हमारे राष्ट्रीय-आंदोलन की धरोहर
है?
कन्हैया कुमार ने कहा, ‘मैं
कांग्रेस में इसलिए शामिल हो रहा हूं, क्योंकि मुझे
महसूस होता है कि देश में कुछ लोग, सिर्फ लोग नहीं वे एक सोच हैं, देश की सत्ता पर
न सिर्फ काबिज हुए हैं, देश की चिंतन परम्परा, संस्कृति, मूल्य, इतिहास,
वर्तमान, भविष्य खराब करने की कोशिश कर रहे हैं। कांग्रेस एक बड़े जहाज की तरह है, अगर इसे बचाया जाता है तो,…महात्मा गांधी की एकता, भगत सिंह की
हिम्मत और बीआर आम्बेडकर के समानता के विचार की रक्षा होगी।’
कन्हैया कुमार ने जो बातें कही हैं, उनसे असहमति का प्रश्न पैदा नहीं होता है, पर यह सवाल जरूर खड़ा होता है कि कांग्रेस के जहाज को बचाने की बात कहने की नौबत क्यों आई? कांग्रेस के पास वह वैचारिक छतरी है (या थी), जो पूरे देश की भावनाओं को व्यक्त करती है। केवल विचार ही नहीं, उसके पास वह संगठन भी था, जिसके भीतर तमाम तरह के विचारों को एक साथ जोड़कर रखने की ताकत थी। उसके भीतर धुर वामपंथी थे और धुर दक्षिणपंथी भी। नरमपंथी थे तो आक्रामक गरमपंथी भी।