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Thursday, January 8, 2015

रोमन हिन्दी के बारे में चेतन भगत की राय

आज यानी 8 जनवरी के दैनिक भास्कर में चेतन भगत ने रोमन हिन्दी के बारे में एक लेख लिखा है। इस लेख को पढ़कर अनेक लोगों की प्रतिक्रिया होगी कि चेतन भगत के लेख को गम्भीरता से नहीं लेना चाहिए। यह प्रतिक्रिया या दंभ से भरी होती है या नादानी से भरी। जो वास्तव में उपस्थित है उससे मुँह मोड़कर आप कहाँ जाएंगे? भाषा अपने बरतने वालों के कारण चलती या विफल होती है, विशेषज्ञों के कारण नहीं। विशेषज्ञता वहाँ तक ठीक है जहाँ तक वह वास्तविकता को ठीक से समझे। बहरहाल आपकी जो भी राय हो, यदि आप इस लेख को पढ़ना चाहें तो यहाँ पेश हैः-

हमारे भारतीय समाज में हमेशा चलने वाली एक बहस हिंदी बनाम अंग्रेजी के महत्व की रही है। वृहद स्तर पर देखें तो इस बहस का विस्तार किसी भी भारतीय भाषा बनाम अंग्रेजी और किस प्रकार हमने अंग्रेजी के आगे स्थानीय भाषाओं को गंवा दिया इस तक किया जा सकता है। यह राजनीति प्रेरित मुद्‌दा भी रहा है। हर सरकार हिंदी के प्रति खुद को दूसरी सरकार से ज्यादा निष्ठावान साबित करने में लगी रहती है। नतीजा ‘हिंदी प्रोत्साहन’ कार्यक्रमों में होता है जबकि सारे सरकारी दफ्तर अनिवार्य रूप से हिंदी में सर्कुलर जारी करते हैं और सरकारी स्कूलों की पढ़ाई हिंदी माध्यम में रखी जाती है।

इस बीच देश में अंग्रेजी लगातार बढ़ती जा रही है। बिना प्रोत्साहन कार्यक्रमों और अभियानों के यह ऐसे बढ़ती जा रही है, जैसी पहले कभी नहीं बढ़ी। ऐसा इसलिए हो रहा है, क्योंकि इसमें कॅरिअर के बेहतर विकल्प हैं, समाज में इसे अधिक सम्मान प्राप्त है और यह सूचनाओं व मनोरंजन की बिल्कुल नई दुनिया ही खोल देती है तथा इसके जरिये नई टक्नोलॉजी तक पहुंच बनाई जा सकती है। जाहिर है इसके फायदे हैं।



नव संवत्सर और नवरात्र आरम्भ के मौके पर सुबह से मोबाइल फोन पर शुभकामना संदेश आने लगे। पहले मकर संक्रांति, होली-दीवाली, ईद और नव वर्ष संदेश आए। काफी संदेश हिन्दी में हैं, खासकर मकर संक्रांति और नवरात्रि संदेश तो ज्यादातर हिन्दी में हैं। और ज्यादातर हिन्दी संदेश रोमन लिपि में।
मोबाइल फोन पर चुटकुलों, शेर-ओ-शायरी और सद्विचारों के आदान-प्रदान का चलन बढ़ा है। संता-बंता जोक तो हिन्दी में ही मज़ा देते हैं। रोमन के इस्तेमाल से हिन्दी और अंग्रेजी की मिली-जुली भाषा भी विकसित हो रही है। क्या ऐसा पहली बार हो रहा है?

Wednesday, November 23, 2011

गाँव-गाँव, गली-गली फैलती एक स्वप्न-क्रांति

सेकंडों में सुपर स्टार बनाने वाला जादू
लुधियाना के रविन्दर रवि साधारण पेंटर थे। घरों में पेंटिंग करके कमाई करते थे। खाली वक्त में गाना उसका शौक था। 17 अगस्त 2004 को सुबह साढ़े दस बजे लुधियाना से दिल्ली आने वाली बस का टिकट खरीदने के लिए उन्हें 300 रु उधार लेने पड़े थे। दिल्ली के नेशनल स्टेडियम में इंडियन आयडल का ऑडीशन था। रविन्दर को इंडियन आयडल में जगह मिली। जब यह शो शुरू हुआ तब उनकी कहानी सुनने के बाद जनता की हमदर्दी ने इस प्रतियोगिता में काफी दूर तक पहुँचा दिया। अब वे प्रतिष्ठित गायक हैं।

मध्य प्रदेश के पन्ना जिले की अजयगढ़ तहसील के महेन्द्र सिंह राठौर साधारण परिवार से आते हैं। वे जब बोलते हैं तो कभी-कभी हकला जाते हैं। यह कंठ-दोष उनकी निराशा का कारण बन गया। नौकरी की लिखित प्रतियोगिताओं में बार-बार सफल होने के बावज़ूद उन्हें इंटरव्यू में बाहर कर दिया जाता। आखिर उन्हें कांट्रैक्ट टीचर की नौकरी मिली। वह भी इसलिए कि उसमे लिखित परीक्षा थी, इंटरव्यू नहीं। ‘कौन बनेगा करोड़पति’ के ताज़ा दौर में इसी 3 नवम्बर को जैसे ही फास्टेस्ट फिंगर फर्स्ट में नाम घोषित हुआ उन्होंने हवा में उसी तरह मुक्का घुमाया जैसे खेल-चैम्पियन घुमाते हैं। दौड़ते हुए उन्होंने अमिताभ बच्चन को गोदी में उठा लिया, ‘सर जी बहुत इंतज़ार कराया आपने।‘ महेन्द्र सिंह ने बताया कि ज़िन्दगी के हर मोड़ पर मैं हारता आया हूँ। पिछले ग्यारह साल से वे इस कार्यक्रम में शामिल होने की कोशिश कर रहे हैं। इधर तो अपने मोबाइल फोन को हर रोज एक हजार रुपए से रिचार्ज करा रहे थे, वह भी उधारी पर। उनका दावा है कि आपके पास इतनी कॉल कहीं से नहीं आई होंगी। महेन्द्र सिंह के साथ सैट पर मौज़ूद तमाम लोगों की आँखों में आँसू थे।

Tuesday, August 23, 2011

आंदोलन सफल हो या विफल सकारात्मक बदलाव होगा




नंदन नीलेकनी ने हाल में एक टीवी चैनल पर कहा कि भ्रष्टाचार किसी एक कानून के बन जाने से खत्म नहीं हो जाएगा। मैं इस आंदोलन में शामिल लोगों की फिक्र से सहमत हूँ, पर यह नहीं मानता कि कोई जादू की गोली इसका इलाज है। संयोग से नंदन नीलेकनी के इनफोसिस के पुराने मित्र मोहनदास पै एक और चैनल पर इस आंदोलन को जनांदोलन बता रहे थे और इसे दबाने की सरकारी कोशिशों का विरोध कर रहे थे। जिन दो मित्रों के बीच एक कम्पनी और कार्य-संस्कृति का विज़न एक सा था, वे इस मामले में एक तरह से क्यों नहीं सोच पा रहे हैं? शायद नीलेकनी का पद आड़े आता है। या वे वास्तव में इस मसले की तह तक जाकर सोचते हैं और हम बेवजह उनके सरकारी पद को इस मसले से जोड़कर देख रहे हैं। यह सिर्फ नीलेकनी और पै का मामला नहीं है।