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Sunday, October 11, 2020

आज़ादी और उसकी मर्यादा-रेखा


इस हफ्ते देश में अचानक अभिव्यक्ति की आजादी और उससे जुड़ी बातें हवा में हैं। चैनलों के बीच टीआरपी की लड़ाई इसके केंद्र में है। इस बीच सुप्रीम कोर्ट की एक टिप्पणी और एक फैसले ने ध्यान खींचा है। अदालत ने गुरुवार को अपनी एक टिप्पणी में कहा कि हाल के समय में बोलने की आजादी के अधिकार का ‘सबसे ज्यादा’ दुरुपयोग हुआ है। मार्च के महीने में लॉकआउट के वक्त तबलीगी जमात के मामले में मीडिया की कवरेज को लेकर दायर हलफनामे को ‘जवाब देने से बचने वाला’ और ‘निर्लज्ज’ बताते हुए न्यायालय ने केंद्र सरकार को आड़े हाथ लिया।

इसी हफ्ते अदालत ने शाहीनबाग आंदोलन से जुड़े एक मामले पर भी अपना फैसला सुनाया है। इन दोनों मामलों को मिलाकर पढ़ें, तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और आंदोलन की स्वतंत्रता से जुड़ी कुछ बातें स्पष्ट होती हैं। भारतीय संविधान नागरिक को स्वतंत्रताएं प्रदान करता है, तो उनपर कुछ विवेक सम्मत पाबंदियाँ भी लगाता है। हम अक्सर अपनी आजादी का सही अर्थ समझने में असमर्थ होते हैं। समय आ गया है कि अब हम स्वतंत्रता के साथ-साथ उन मर्यादाओं पर भी विचार करें, जिनके बगैर स्वतंत्रताओं का कोई अर्थ नहीं है। स्वतंत्रता और उसपर लागू होने वाली पाबंदियों के संतुलन के बारे में विचार करने की घड़ी अब आ रही है। खासतौर से मीडिया में इस वक्त जो आपसी मारकाट चल रही है, उसे देखते हुए मर्यादाओं और संतुलन के बारे में सोचना ही पड़ेगा। यह मारकाट किसी वैचारिक आधार पर न होकर शुद्ध कारोबारी आधार पर है और पत्रकार अपने मालिकों-प्रबंधकों के इशारे पर कठपुतली जैसा व्यवहार कर रहे हैं, इसलिए इस पूरे व्यवसाय के स्वामित्व से जुड़े प्रश्नों पर भी हमें सोचना चाहिए। 

Monday, September 17, 2012

बोलने की आज़ादी और देशद्रोह



असीम त्रिवेदी के बहाने चली बहस का एक फायदा यह हुआ कि सरकार ने इस 142 साल पुराने देशद्रोह कानून को बदलने की प्रक्रिया शुरू कर दी है। मीडिया से सम्बद्ध ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स ने गृह मंत्रालय से इस दिशा में काम करने का अनुरोध किया है। कानूनों का अनुपालन कराने वाली एजेंसियाँ अक्सर सरकार-विरोध  को देश-विरोध समझ बैठती हैं। सूचना एवें प्रसारण मंत्री अम्बिका सोनी ने जीओएम के प्रमुख पी चिदम्बरम को पत्र लिखकर अनुरोध किया है कि दंड संहिता की धारा 124 ए का समुचित संशोधन होना चाहिए। चिदम्बरम ने उनसे सहमति व्यक्त की है। विडंबना है कि इसी दौरान तमिलनाडु में कुडानकुलम में नाभिकीय बिजलीघर लगाने के विरोध में आंदोलन चला रहे लोगों के खिलाफ देशद्रोह के आरोप लगा दिए गए हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, शासन के प्रति विरोध और विद्रोह में काफी महीन रेखा है। हम आसानी से यह कहते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा है। हम सीमा पर ज़ोर देने लगे हैं, जबकि मूल संविधान में यह सीमा नहीं थी। देश के पहले संविधान संशोधन के मार्फत हमारे संविधान में युक्तिसंगत पाबंदियाँ लगाने का प्रावधान शामिल किया गया। विचार-विनिमय की स्वतंत्रता लोकतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण कारक है। किसी ने सवाल किया कि गाली देना क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हो सकती है? वस्तुतः हम भूलते हैं कि मौलिक अधिकार राज्य के बरक्स होते हैं। दो व्यक्तियों के बीच की गाली-गलौज के लिए दूसरे कानून हैं। राज्य की आलोचना के आधार दूसरे हैं। इस पोस्ट में मेरी ज्यादातर सामग्री दो साल पहले की एक पोस्ट से ली गई है। कुछ जगह नए संदर्भ जोड़े हैं। इस मामले में जैसे ही बहस आगे बढ़ती है तब यह सवाल आता है कि क्या हमारे देश, राज्य, सरकार, व्यवस्था का गरीब जनता से कोई वास्ता है? राष्ट्रीय चिह्नों की चिंता काफी लोगों को है, पर इनसानं के रूप में जो जीवित राष्ट्रीय चिह्न मौज़ूद हैं उनका अपमान होता है तो कैसा लगता है?