दिल्ली में यमुना का पानी हालांकि उतरने लगा
है, पर शुक्रवार को सहायता के लिए सेना और एनडीआरएफ को आना पड़ा। यमुना तो उफना ही
रही थी, बारिश का पानी नदी में फेंकने वाले ड्रेन रेग्युलेटर में खराबी आ जाने की
वजह से उल्टे नदी का पानी शहर में प्रवेश कर गया। सिविल लाइंस, रिंग रोड, आईटीओ,
राजघाट और सुप्रीम कोर्ट की परिधि तक पानी पहुँच गया। तटबंध और रेग्युलेटर की
मरम्मत के लिए सेना की कोर ऑफ इंजीनियर्स को बुलाना पड़ा। हिमाचल, उत्तराखंड, हरियाणा
और पंजाब से भी अतिवृष्टि और बाढ़ की भयावह खबरें आ रही हैं। 2013 की उत्तराखंड
आपदा के बाद एक भी साल ऐसा नहीं गया जब कम से कम एक बार खतरनाक बारिश नहीं हुई हो।
एक तरफ बाढ़ है, तो दूसरी तरफ बहुत से इलाके ऐसे हैं, जहाँ सूखा पड़ा है। ऐसा भारत
में ही नहीं, पूरी दुनिया में है। इस त्रासदी में प्रकृति की भूमिका है, जिसके साथ
छेड़-छाड़ भारी पड़ रही है। हमारी प्रबंध-क्षमता की खामियाँ भी उजागर हो रही हैं।
पानी का प्रबंधन करके हम इसे संसाधन में बदल सकते थे, पर ऐसा नहीं कर पाए। परंपरागत
पोखरों, तालाबों और बावड़ियों को हमने नष्ट होने दिया। बचा-खुचा काम राजनीति ने कर
दिया। उदाहरण है ऐसे मौके पर भी दिल्ली सरकार और एलजी के बीच चल रही तकरार।
दिल्ली में संकट
दिल्ली में यमुना नदी का पानी गुरुवार को 208.6 मीटर के पार पहुंच गया। इससे पहले साल
1978 में आख़िरी बार यमुना का पानी 207.49 मीटर तक पहुंचा था। तब काफ़ी नुकसान
हुआ था। दिल्ली में 1924, 1977, 1978, 1995, 2010 और
2013 में बाढ़ आई थी। लोग घबरा गए कि कहीं हालात 1978 जैसे न हो जाएं। शहर के अलावा उत्तरी दिल्ली में 30 गाँवों में बाढ़ आ गई। दिल्ली देश की राजधानी है और कुछ हफ़्तों बाद
यहाँ जी-20 शिखर वार्ता होने जा रही है। बाढ़-प्रबंधन में
विफलता का दुनिया के सामने अच्छा संदेश नहीं जाएगा। बरसात अभी खत्म नहीं हुई है। अगस्त
और सितंबर बाक़ी है। दिल्ली में बारिश रुक जाने के बाद भी यमुना का जलस्तर बढ़ता
रहा। वजह थी कि पीछे से पानी आता रहा। इसके कारणों को देखना और समझना होगा। पानी
को रोकने और छोड़ने के वैज्ञानिक तरीकों पर विचार करने की जरूरत है।
नदी-प्रबंधन
विशेषज्ञ बताते हैं कि दिल्ली में वज़ीराबाद बराज
से ओखला बराज के 22 किमी के हिस्से में औसतन 800 मीटर की दूरी पर 25 पुल बन गए
हैं। ये पुल पानी के सामान्य बहाव को रोकते हैं और नदी की हाइड्रोलॉजी को भी
प्रभावित करते हैं। यमुना के ऊपरी हिस्से में खनन और तल में जमा गाद या कीचड़ को
मशीन से साफ करने की जरूरत होती है। नदी अपने आप गाद को बहा नहीं सकती। विशेषज्ञ
यह भी कहते हैं कि यमुना के खादर (फ़्लडप्लेन) को बचाकर नहीं रखा गया, तो संकट बढ़ जाएगा। हालांकि
तटबंधों के कारण पानी फ़्लडप्लेन में सिमटा रहा, पर वह इतना चौड़ा नहीं होता तो दिल्ली
शहर लोगों के घरों में पानी घुस जाता। हिमाचल में यही हुआ। हिमालय से निकलने वाली
नदियों में बाढ़ आना आम बात है। यह बाढ़ नदी का जीवन है। इससे नदियों के खादर में
पानी का संग्रह हो जाता है। नदियों के ऊपरी इलाकों में पानी को थामे रहने की
क्षमता कम हो गई है। जंगल, ग्रासलैंड और वैटलैंड कम हो गए हैं।
इससे नदियों के निचले इलाकों में पानी ज़्यादा हो जाता है। नदियों के ऊपरी इलाकों
में पानी को रोकने की व्यवस्था होनी चाहिए।
हिमाचल में तबाही
जिस तरह 2013 में उत्तराखंड से भयानक बाढ़ की
तस्वीरें आईं थीं, करीब-करीब वैसी ही तस्वीरें इस साल हिमाचल प्रदेश से आई हैं। ब्यास,
सतलुज, रावी, चिनाब
(चंद्र और भागा) और यमुना उफनने लगीं। तेज हवा और भयंकर जलधारा से ख़तरा पैदा हो
गया। ब्यास नदी के पास घनी आबादी वाले कुल्लू और मनाली में भीषण तबाही हुई। ब्यास
नदी की घाटी में, नदी के एकदम करीब काफी निर्माण हुए
हैं। तेज रफ्तार ब्यास ने रास्ता बदला और मनाली से मंडी के बीच तमाम मकानों,
वाहनों, जानवरों और सड़कों को बहाती ले गई। ब्यास
की रफ़्तार इस इलाके में तेज़ होती है और वह सड़क के काफी करीब से बहती है। यह तबाही
प्रकृति के साथ हो रहे खिलवाड़ का नतीजा है। राज्य के मुख्यमंत्री का अनुमान है कि
चार हजार करोड़ रुपये से ज्यादा का नुकसान हुआ है। पर्यावरण और पारिस्थितिकी के
साथ छेड़छाड़ के पहले संकेत पहाड़ों, नदियों और तालाबों से मिलते हैं। विडंबना है
कि सबसे ज्यादा विनाश की खबरें उन इलाकों से आ रही हैं, जहाँ सड़कें, बाँध,
बिजलीघर और होटल वगैरह बने हैं। ‘विकास और विनाश’ की
इस विसंगति पर ध्यान देने की जरूरत है।