Saturday, September 30, 2017

असमानता भरा विकास

चुनींदा-1
बिजनेस स्टैंडर्ड के सम्पादक टीएन नायनन के साप्ताहिक कॉलम में इस बार टॉमस पिकेटी और लुकास चैसेल के एक ताजा शोधपत्र का विश्लेषण किया गया है। टॉमस पिकेटी हाल के वर्षों में पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के संजीदा विश्लेषकों में शामिल किए जा रहे हैं। नायनन के आलेख का यह हिंदी अनुवाद है जो बिजनेस स्टैंडर्ड के हिंदी संस्करण में प्रकाशित हुआ है। पूरे लेख का लिंक नीचे दिया हैः-

सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की धीमी प्रगति को लेकर मोदी सरकार गंभीर आलोचनाओं के घेरे में है। इस चर्चा से यह भी साफ होता है कि मुखर जनता की राय में जीडीपी वृद्धि ही ïराष्ट्रीय उद्देश्य के लिहाज से केंद्र में होनी चाहिए। बढ़ती असमानता के बारे में हाल में प्रकाशित एक शोधपत्र पर चर्चा न होना भी इतना ही महत्त्वपूर्ण है। थॉमस पिकेटी (कैपिटल के चर्चित लेखक) और सह-लेखक लुकास चैंसेल ने 'फ्रॉम ब्रिटिश राज टू बिलियनरी राज?' शीर्षक वाला यह पत्र पेश किया है। 

यशवंत सिन्हा का वार


यशवंत सिन्हा ने मोदी सरकार की आर्थिक नीतियों की बखिया उधेड़ कर दो बातों की ओर इशारा किया है। पहली नजर में यह पार्टी के नेतृत्व और सरकार की रीति-नीति की आलोचना है और आर्थिक मोर्चे पर आ रहे गतिरोध की ओर इशारा। पर यह सामान्य ध्यानाकर्षण नहीं है। इसके पीछे गहरी वेदना को भी हमें समझना होगा। आलोचना के लिए उन्होंने पार्टी का मंच नहीं चुना। अख़बार चुना, जहाँ पी चिदंबरम हर हफ्ते अपना कॉलम लिखते हैं। सरकार की आलोचना के साथ प्रकारांतर से उन्होंने यूपीए सरकार की तारीफ भी की है।

पार्टी-इनसाइडरों का कहना है कि यह आलोचना दिक्कत-तलब जरूर है, पर पार्टी इसे अनुशासनहीनता का मामला नहीं मानती। इसका जवाब देकर मामले की अनदेखी की जाएगी। उन्हें पहला जवाब रेलमंत्री पीयूष गोयल ने दिया है। उन्होंने कहा कि नोटबंदी और जीएसटी जैसे कदम देश की अर्थ-व्यवस्था में सुधार के चरण हैं। ऐसे में कुछ दिक्कतें आती हैं, पर हालात न तो खराब हैं और न उनपर चिंता करने की कोई वजह है। इन कदमों से अर्थ-व्यवस्था में अनुशासन आएगा और गति भी बढ़ेगी। स्वाभाविक रूप से यह देश की आर्थिक दशा-दिशा की आलोचना है। उनके लेख के जवाब में उनके बेटे जयंत सिन्हा ने भी एक लेख लिखा है, जो उनके लिए बदमज़गी पैदा करने वाला है।

Friday, September 29, 2017

हर वक्त प्रासंगिक गांधी


कुछ लोग कहते हैं, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। उनके जन्मदिन को राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाने और तमाम शहरों की सड़कों को महात्मा गांधी मार्ग बनाने के बावजूद हमें लगता है कि उनकी जरूरत 1947 के पहले तक थी। अब होते भी तो क्या कर लेते? सन 1982 में रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी ने दुनियाभर का ध्यान खींचा, तब इस विषय पर एकबार फिर चर्चा हुई कि क्या गांधी आज प्रासंगिक हैं? वह केवल भारत की बहस नहीं थी।

शीतयुद्ध खत्म होने और सोवियत संघ के विघटन के करीब दस साल पहले चली उस बहस का दायरा वैश्विक था। गांधी अगर प्रासंगिक हैं, तो दुनिया के लिए हैं, केवल भारत के लिए नहीं, क्योंकि उनके विचार सम्पूर्ण मानवता से जुड़े है। फिर भी सवाल है कि क्या उनका देश भारत आज उन्हें उपयोगी मानता है?

दो सितारों पर टिकीं तमिल राजनीति की निगाहें

तमिलनाडु बड़े राजनीतिक गतिरोध से होकर गुजर रहा है. सत्तारूढ़ अन्नाद्रमुक के भीतर घमासान मचा है. अदालत के हस्तक्षेप के कारण वहाँ विधानसभा में इस बात का फैसला भी नहीं हो पा रहा है कि बहुमत किसके साथ है. दूसरी तरफ द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम इस स्थिति में नहीं है कि वह इस लड़ाई का फायदा उठा सके. जयललिता के निधन के बाद राज्य में बड़ा शून्य पैदा हो गया है. द्रमुक पुरोधा करुणानिधि का युग बीत चुका है. उनके बेटे एमके स्टालिन नए हैं और उन्हें परखा भी नहीं गया है. अलावा राज्य में ऐसा कोई नेता नहीं है, जिसकी विलक्षण पहचान हो. ऐसे में दो बड़े सिने-कलाकारों की राजनीतिक महत्वाकांक्षा का धीरे-धीरे खुलना बदलाव के संकेत दे रहा है.

दोनों कलाकारों के राजनीतिक दृष्टिकोण अपेक्षाकृत सुस्पष्ट होंगे. दोनों के पीछे  मजबूत जनाधार है. दोनों के तार स्थानीय और राष्ट्रीय राजनीति के साथ पहले से या तो जुड़े हुए हैं या जुड़ने लगे हैं. देखना सिर्फ यह है कि नई राजनीति किस रूप में सामने आएगी और किस करवट बैठेगी. धन-शक्ति, लाठी, धर्म और जाति के भावनात्मक नारों से उकताई तमिलनाडु ही नहीं देश की जनता को एक नई राजनीति का इंतजार है. क्या ये दो कलाकार उस राजनीति को जन्म देंगे? क्या यह राजनीति केवल तमिलनाडु तक सीमित होगी या उसकी अपील राष्ट्रीय होगी? इतना साफ है कि राजनीति में प्रवेश के लिए यह सबसे उपयुक्त समय है. 

Sunday, September 24, 2017

ममता की अड़ियल राजनीति

बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार दुर्गापूजा और मुहर्रम साथ-साथ होने के कारण राजनीतिक विवाद में फँस गई है। सरकार ने फैसला किया था कि साम्प्रदायिक टकराव रोकने के लिए 30 सितम्बर और 1 अक्तूबर को दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन नहीं होगा। इस फैसले का विरोध होना ही था। यह विरोध केवल राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और बीजेपी ने नहीं किया, वाममोर्चा ने भी किया। आम मुसलमान की समझ से भी मुहर्रम और दुर्गा प्रतिमा विसर्जन साथ-साथ होने में कोई दिक्कत नहीं थी। यह ममता बनर्जी का अति उत्साह था।  

ममता बनर्जी नहीं मानीं और मामला अदालत तक गया। कोलकाता हाईकोर्ट ने अब आदेश दिया है कि सरकार को ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए कि मुहर्रम के जुलूस भी निकलें और दुर्गा प्रतिमाओं का विसर्जन भी हो। इस आदेश पर उत्तेजित होकर ममता बनर्जी ने कहा, मेरी गर्दन काट सकते हैं, पर मुझे आदेश नहीं दे सकते। शुरू में लगता था कि वे हाईकोर्ट के इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट जाएंगी। अंततः उन्हें बात समझ में आई और संकेत मिल रहे हैं कि सुप्रीम कोर्ट जाने का इरादा उन्होंने छोड़ दिया है। 

Wednesday, September 20, 2017

सेना से जुड़ी जन-भावनाएं

वायु सेना के मार्शल अर्जन सिंह के अंतिम संस्कार के समय सरकारी व्यवस्था पर प्रेक्षकों ने खासतौर से ध्यान दिया है. उनके अंतिम संस्कार के पहले रक्षा मंत्री निर्मला सीतारमन ने बरार स्क्वायर पहुंच कर उन्हें अंतिम विदाई दी. रविवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उनके घर जाकर श्रद्धांजलि दी. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी बरार स्क्वायर पहुंच कर श्रद्धांजलि दी. सेना के तीनों अंगों के प्रमुख भी उन्हें अंतिम विदाई देने के लिए मौजूद रहे. तमाम केन्द्रीय मंत्री और अधिकारी उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने पहुँचे. मीडिया ने काफी व्यापक कवरेज दी.

Monday, September 18, 2017

मंत्री जी! ज़बान संभाल के...

पेट्रोल की बढ़ती कीमतों को लेकर सरकार पहले से विरोधी दलों की मार झेल रही थी कि पर्यटन राज्यमंत्री केजे अल्फोंस के बयान ने आग में घी डाल दिया है. ब्यूरोक्रेट से राजनेता बने अल्फोंस शब्दवाण के महत्व को समझ नहीं पाए.
वे कहते कि पेट्रोल के खरीदार अर्थव्यवस्था के मददगार बनें तो उस बात को दूसरे अंदाज में लिया जाता, पर उन्होंने कहा, पेट्रोल खरीदने वाले भूखे नहीं मर रहे हैं. केवल लहजे के कारण उन्होंने बात बिगाड़ ली.
बयान देना भी कला है
कीमतों को सही ठहराने के पीछे उनकी मंशा कितनी भी सही क्यों न हो, इस तंज को पसंद नहीं किया जाएगा. अलफोंस काबिल अफसर रहे हैं और मंत्री के रूप में उनकी छवि भी अच्छी है, पर उन्हें समझना होगा कि राजनीति में साफगोई की सीमाएं हैं.
कुछ दिन पहले ही बीफ को लेकर उन्होंने ऐसा ही एक बयान दिया था, जिसे लेकर सोशल मीडिया में हलचल मची रही. उन्होंने कहा था, विदेशी पर्यटक भारत आना चाहते हैं तो वे अपने देश में ही बीफ खाकर आएं.

Sunday, September 17, 2017

राहुल का पुनरागमन

राहुल गांधी ने अपने पुनरागमन की सूचना अमे‍रिका के बर्कले विश्वविद्यालय से दी है। पुनरागमन इसलिए कि सन 2012 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के वक्त उन्होंने भारतीय राजनीति में पूरी छलांग लगाई थी। पर उस चुनाव में वे विफल रहे। इसके बाद जनवरी 2013 में पार्टी के जयपुर चिंतन शिविर में उन्हें एक तरह से पार्टी की बागडोर पूरी तरह सौंप दी गई, जिसकी पूर्णाहुति 2014 की ऐतिहासिक पराजय में हुई। उसके बाद से उनका मेक-ओवर चल रहा है।

राहुल ने जिस मौके पर पार्टी के नेतृत्व की जिम्मेदारी हाथ में लेने का निश्चय किया है, वह बहुत अच्छा नहीं है। उनकी पहचान चुनाव जिताऊ नेता की नहीं है। हालांकि उन्होंने टेक्स्ट बुक स्टाइल में राजनीति की शुरुआत की थी, पर उनका पहला राउंड पूरी तरह विफल रहा है। अगले दौर में वे किस तरह सामने आएंगे, यह अभी स्पष्ट नहीं है।

कांग्रेसी तुरुप का आखिरी पत्ता

अमेरिका के बर्कले विश्वविद्यालय में राहुल गांधी ने पार्टियों में वंशवाद से जुड़े एक सवाल पर कहा कि पूरा देश ही इस रास्ते पर चलता है। उन्होंने इसके लिए अखिलेश यादव, डीएमके नेता स्टालिन से लेकर अभिनेता अभिषेक बच्चन तक के नाम गिनाए। यानी भारत में ज्यादातर पार्टियाँ वंशवाद पर चलती हैं, इसलिए हमें ही दोष मत दीजिए। अंबानी अपना बिजनेस चला रहे हैं और इन्फोसिस में भी यही चल रहा है।

राहुल गांधी ने तमाम सवालों के जवाब दिए। पर उनका उद्देश्य बीजेपी पर प्रहार करना था। उन्होंने कहा, देश ने बीते 70 साल में जितनी तरक्की हासिल की है, उसे सिर उठा रहे ध्रुवीकरण और नफरत की राजनीति रोकने का काम कर रही है। उदार पत्रकारों की हत्या की जा रही है, दलितों को पीटा जा रहा है, मुसलमानों और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। अहिंसा का विचार खतरे में है।

उनकी बर्कले वक्तृता उन्हें राजनीतिक मंच पर लाने की अबतक की सबसे बड़ी कोशिश है। शायद वे जल्द ही पार्टी अध्यक्ष पद भी संभालें। सन 2004 में यानी अब से 13 साल पहले जब उन्हें लांच करने का मौका आया था, तब उनकी उम्र 34 साल थी। तब शायद यह लगा होगा कि उनके लिए समय उपयुक्त नहीं है। पर उसके बाद जब भी उन्हें लांच करने का मौका आया, उन्होंने खुद हाथ खींच लिए।

सवाल मेरिट की उपेक्षा का है

भाई-भतीजावाद, दोस्त-यारवाद, वंशवाद, परिवारवाद वगैरह का मतलब होता है मेरिट यानी काबिलीयत की उपेक्षा। यानी जो होना चाहिए, उसका न होना। जीवन में काम बनाने के लिए भी हमें रिश्ते चाहिए। गाड़ी का चालान हो गया, फलां के अंकल दरोगा हैं। जुगाड़ का पूरा तंत्र है, जिसे ‘नेटवर्किंग’ कहते हैं। जब हमारा काम नहीं बनता तब हमें शिकायत होती है कि किसी दूसरे का काम ‘भाई-भतीजावाद’ की वजह से हो गया। तब हमारा मन उदास होता है। काबिलीयत के प्रमाणपत्र लेकर हम घर वापस लौट आते हैं।

यह अंतिम सत्य नहीं है। अंतिम सत्य है काबिलीयत। ज्यादा महत्वपूर्ण वह व्यवस्था है, जो काबिलीयत की कद्र करे। पर दुनिया की अच्छी से अच्छी व्यवस्था में भी खानदान का दबदबा है। ‘पेडिग्री’ सिर्फ पालतू जानवरों की नहीं होती। इन दिनों फिल्म जगत में कँगना रनौत ने इस प्रवृत्ति के खिलाफ मोर्चा खोल रखा है। खानदान के सहारे जो ऊपर पहुँच जाते हैं, वे मानते हैं कि भारत में ऐसा ही चलता है। किसी के पास प्रतिभा हो और सहारा भी मिले तो आगे बढ़ने में देर नहीं लगती। पर खच्चर को अरबी घोड़ा नहीं बनाया जा सकता। यह सामाजिक अन्याय भी है, पर है। यह भी सच है कि प्रतिभा, लगन और धैर्य का कोई विकल्प नहीं है।

Saturday, September 16, 2017

बर्कले द्वार से राहुल का आगमन

कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धरमैया का कहना है कि कांग्रेस की वापसी अगले साल होने वाले कर्नाटक विधानसभा चुनाव से होगी। उनका यह भी कहना है कि देश की जनता राहुल गांधी को अपने नेता के रूप में स्वीकार करती है। सिद्धरमैया का यह बयान आम राजनेता का बयान है, पर इसके दो महत्वपूर्ण तथ्यों का सच समय पर ही सामने आएगा। पहला, कि क्या कांग्रेस की वापसी होगी? और दूसरा, क्या राहुल गांधी पूरे देश का नेतृत्व करेंगे, यानी प्रधानमंत्री बनेंगे?

राहुल गांधी ने अमे‍रिका के बर्कले विश्वविद्यालय में जो बातें कहीं हैं, उन्हें कई नजरियों से देखा जाएगा। राष्ट्रीय राजनीति की प्रवृत्तियों, संस्कृति-समाज और मोदी सरकार वगैरह के परिप्रेक्ष्य में। पर कांग्रेस की समग्र रीति-नीति को अलग से देखने की जरूरत है। राहुल ने बर्कले में दो बातें ऐसी कहीं हैं, जिनसे उनकी व्यक्तिगत योजना और पार्टी के भविष्य के कार्यक्रम पर रोशनी पड़ती है। उन्होंने कहा, मैं 2019 के आम चुनावों में पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनने के लिए पूरी तरह से तैयार हूँ।

असमंजस के 13 साल

पहली बार राहुल गांधी ने सार्वजनिक रूप से ऐसी बात कही है। उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि मेरी तरफ से इसे सार्वजनिक करना उचित नहीं है, क्योंकि पहले पार्टी को इसे मंजूर करना है। राहुल ने कश्मीर के संदर्भ में एक और बात कही, जिसका वास्ता उनकी राजनीतिक-प्रशासनिक दृष्टि से जुड़ा है। उन्होंने कहा कि मैंने पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, पी चिदंबरम और जयराम रमेश के साथ मिलकर नौ साल तक जम्मू-कश्मीर में शांति स्थापना पर काम किया। यानी सन 2004 से प्रशासन में वे सक्रिय थे।

Sunday, September 10, 2017

एक्टिविज्म और पत्रकारिता का द्वंद्व


गौरी लंकेश की हत्या ने देश के वैचारिक परिदृश्य में हलचल मचा दी है। इस हत्या की भर्त्सना ज्यादातर पत्रकारों, उनकी संस्थाओं, कांग्रेस-बीजेपी समेत ज्यादातर राजनीतिक दलों और सामाजिक संगठनों ने की है। यह मुख्यधारा के मीडिया का सौम्य पक्ष है। पर सोशल मीडिया में गदर मचा पड़ा है। तलवारें-कटारें खुलकर चल रहीं हैं। कई किस्म के गुबार फूट रहे हैं। हत्या के फौरन बाद दो अंतर्विरोधी प्रतिक्रियाएं प्रकट हुईं हैं। हत्या किसने की और क्यों की, इसका इंतजार किए बगैर एक तबके ने मोदी सरकार पर आरोपों की झड़ी लगा दी। दूसरी ओर कुछ लोगों ने सोशल मीडिया पर अभद्र और अश्लील तरीके से इस हत्या पर खुशी जाहिर की है।


चिंता की बात है कि विचार अभिव्यक्ति के कारण किसी की हत्या कर दी गई। पर यह पहले पत्रकार की हत्या नहीं है। वस्तुतः पत्रकारों की हत्या को हम महत्व देते ही नहीं हैं। इस वक्त की तीखी प्रतिक्रिया इसके राजनीतिक निहितार्थ के कारण है। हाल में हमारी पत्रकारिता पर दो किस्म के खतरे पैदा हुए हैं। पहला, जान का खतरा और दूसरा पत्रकारों का धड़ों में बदलते जाना। इसे भी खतरा मानिए। संदेह अलंकार का उदाहरण देते हुए कहा जाता है ...कि सारी ही की नारी है, कि नारी ही की सारी है। पत्रकारों की एक्टिविस्ट के रूप में और एक्टिविस्ट की पत्रकारों के रूप में भूमिका की अदला-बदली हो रही है।

Friday, September 8, 2017

इस कट्टरता का स्रोत कहाँ है?


पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के कारण देश के उदारमना लोगों के मन में दहशत है। विचार अभिव्यक्ति के सामने खड़े खतरे नजर आने लगे हैं। पिछले तीन साल से चल रही असहिष्णु राजनीति की बहस ने फिर से जोर पकड़ लिया है। हत्या के फौरन बाद मुख्यधारा के मीडिया और सोशल मीडिया में खासतौर से दो अंतर्विरोधी प्रतिक्रियाएं प्रकट हुईं हैं। हत्या किसने की और क्यों की, इसका इंतजार किए बगैर एक तबके ने मोदी सरकार को कोसना शुरू कर दिया। दूसरी ओर कुछ लोग सोशल मीडिया पर अभद्र तरीके से इस हत्या पर खुशी जाहिर कर रहे हैं।  

हम आधुनिकता की ओर बढ़ रहे हैं, जिसकी बुनियाद में उदारता को होना चाहिए। कट्टरपंथी समाज आधुनिक नहीं हो सकता। सवाल केवल गौरी लंकेश की हत्या का नहीं है। हमारे बौद्धिक विमर्श की दिशा क्या है? इस हत्या के बाद हमारी साख और घटी है। सवाल यह है कि क्या यह भारतीय जनता पार्टी और उसके हिंदुत्व एजेंडा की देन है? क्या यह हत्या कर्नाटक में कुछ महीने बाद होने वाले विधानसभा चुनाव से जुड़ी तो नहीं है?  कर्नाटक में कांग्रेस पार्टी की सरकार है। वह इस हत्याकांड का पर्दाफाश क्यों नहीं करती?

Sunday, September 3, 2017

अर्थव्यवस्था और उसके राजनीतिक जोखिम


एकसाथ आई दो खबरों से ऐसा लगने लगा है कि अर्थव्यवस्था चौपट हो रही है और विकास के मोर्चे पर सरकार फेल हो रही है। इस मामले के राजनीतिक निहितार्थ हैं, इसलिए शोर कुछ ज्यादा है। इस शोर की वजह से हम मंदी की ओर बढ़ती अर्थव्यवस्था के कारणों पर ध्यान देने के बजाय उसके राजनीतिक निहितार्थ पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। कांग्रेस समेत ज्यादातर विरोधी दल नोटबंदी के फैसले को निशाना बना रहे हैं। इस मामले की राजनीति और अर्थनीति को अलग करके देखना मुश्किल है, पर उसे अलग-अलग करके पढ़ने की कोशिश करनी चाहिए।

बुनियादी रूप से केंद्र सरकार ने कुछ फैसले करके जो जोखिम मोल लिया है, उसका सामना भी उसे करना है। बल्कि अपने फैसलों को तार्किक परिणति तक पहुँचाना होगा। अलबत्ता सरकार को शाब्दिक बाजीगरी के बजाय साफ और खरी बातें कहनी चाहिए। जिस वक्त नोटबंदी हुई थी तभी सरकार ने माना था कि इस फैसले का असर अर्थव्यवस्था पर पड़ेगा, पर यह छोटी अवधि का होगा। इन दिनों हम जीडीपी में गिरावट के जिन आँकड़ों पर चर्चा कर रहे हैं, वे नोटबंदी के बाद की दूसरी तिहाई से वास्ता रखते हैं। हो सकता है कि अगली तिहाई में भी गिरावट हो, पर यह ज्यादा लंबी नहीं चलेगी।

Saturday, September 2, 2017

चेतावनी है अन्ना का पत्र: जनता की उम्मीदों पर फिरता पानी

अन्ना हजारे ने लोकपाल, लोकायुक्त और किसानों के मुद्दे को लेकर मोदी सरकार को जो चेतावनी दी है, उसे संजीदगी से देखने की जरूरत है। इसलिए नहीं कि अन्ना हजारे सन 2011 जैसा ही आंदोलन छेड़ देंगे, बल्कि इसलिए लोकपाल की नियुक्ति में हो रही देरी सिर्फ एक उदाहरण है। दरअसल जनता की उम्मीदों पर पानी फिरता जा रहा है। जनता के मन में राजनीति के प्रति वितृष्णा जन्म ले रही है।

अन्ना ने मोदी सरकार को चार पेज का जो अल्टीमेटम दिया है, उसमें कहा गया है कि लोकपाल विधेयक पास होने के चार साल होने को हैं और सरकार कोई न कोई बहाना बनाकर उसकी नियुक्ति को टाल रही है, जबकि कानून बनाने की माँग करने वालों में बीजेपी भी आगे थी। लगता यह है कि 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले भ्रष्टाचार और काला धन एकबार फिर से महत्वपूर्ण मुद्दा बनेगा।