कुछ लोग कहते हैं, मजबूरी का नाम महात्मा गांधी। उनके जन्मदिन को
राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाने और तमाम शहरों की सड़कों को महात्मा गांधी मार्ग
बनाने के बावजूद हमें लगता है कि उनकी जरूरत 1947 के पहले तक थी। अब होते भी तो
क्या कर लेते? सन 1982 में रिचर्ड एटनबरो की फिल्म ‘गांधी’ ने दुनियाभर का ध्यान खींचा, तब इस विषय पर एकबार फिर
चर्चा हुई कि क्या गांधी आज प्रासंगिक हैं? वह केवल भारत की बहस नहीं थी।
शीतयुद्ध खत्म होने और सोवियत संघ के विघटन
के करीब दस साल पहले चली उस बहस का दायरा वैश्विक था। गांधी अगर प्रासंगिक हैं, तो
दुनिया के लिए हैं, केवल भारत के लिए नहीं, क्योंकि उनके विचार सम्पूर्ण मानवता से
जुड़े है। फिर भी सवाल है कि क्या उनका देश भारत आज उन्हें उपयोगी मानता है?