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Wednesday, January 13, 2021

किसान आंदोलन का हल क्या है?

 

कृषि कानूनों को लेकर सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश को लेकर जो प्रतिक्रियाएं सामने आई हैं, उनमें से ज्यादातर ने अदालत के हस्तक्षेप पर आपत्ति व्यक्त की है। अदालत के रुख से लगता है कि वह सांविधानिक समीक्षा के बजाय राजनीतिक मध्यस्थ की भूमिका निभाना चाहती है, जो अटपटा लगता है। ऐसा लगता है कि जैसे अदालत ने पहले रोज सरकार को फटकार लगाकर किसानों को भरोसे में लेने की कोशिश की और फिर अपने पुराने सुझाव को लागू कर दिया। अदालत ने पिछले महीने सरकार को सलाह दी थी कि आप इन कानूनों को कुछ समय के लिए स्थगित क्यों नहीं कर देते? अनुमान यही है कि सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से बचने के लिए अदालत का सहारा लिया है।

आज के इंडियन एक्सप्रेस में प्रताप भानु मेहता ने लिखा है कि यह सांविधानिक कोर्ट है, जो सांविधानिक सवालों पर फैसले नहीं सुनाती, बल्कि राजनीतिक और प्रशासनिक मसलों में पैर अड़ा रही है। खेती से जुड़े मसले जटिल हैं, पर आप इस मामले में किसी भी तरफ हों, पर यह बात समझ में नहीं आती कि किस न्यायिक आधार पर अदालत ने इन कानूनों को स्थगित कर दिया है।

Sunday, December 27, 2020

खेतों में इतनी मायूसी क्यों?


किसान-आंदोलन जिस करवट भी बैठे, भारत में खेती से जुड़े बुनियादी सवाल अपनी जगह बने रहेंगे। विडंबना है कि महामारी से पीड़ित इस वित्तीय वर्ष में हमारी जीडीपी लगातार दो तिमाहियों में संकुचित होने के बावजूद केवल खेती में संवृद्धि देखी गई है। इस संवृद्धि के कारण ट्रैक्टर और खेती से जुड़ी मशीनरी के उत्पादन में भी सुधार हुआ है। अनाज में आत्म निर्भरता बनाए रखने के लिए हमें करीब दो प्रतिशत की संवृद्धि चाहिए, जिससे बेहतर ही हम कर पा रहे हैं, फिर भी हम खेती को लेकर परेशान हैं।

खेती से जुड़े हमारे सवाल केवल अनाज की सरकारी खरीद, उसके बाजार और खेती पर मिलने वाली सब्सिडी तक सीमित नहीं हैं। समस्या केवल किसान की नहीं है, बल्कि गाँव और कृषि-आधारित अर्थव्यवस्था की है। गाँव, गरीब और किसान को लेकर जो बहस राजनीति और मीडिया में होनी चाहिए थी वह पीछे चली गई है। भारत को इस बात का श्रेय जाता है कि उसने अन्न के लिहाज से एक अभाव-पीड़ित देश की छवि को दूर करके अन्न-सम्पन्न देश की छवि बनाई है, फिर भी हमारा किसान परेशान है। हमारी अन्न उत्पादकता दुनिया के विकसित देशों के मुकाबले कम है। ग्रामीण शिक्षा, संचार, परिवहन और सार्वजनिक स्वास्थ्य के मानकों पर हम अपेक्षित स्तर को हासिल करने में नाकामयाब रहे हैं।

Sunday, December 13, 2020

किसान आंदोलन : गतिरोध टूटना चाहिए

किसान आंदोलन से जुड़ा गतिरोध टूटने का नाम नहीं ले रहा है। सरकार और किसान दोनों अपनी बात पर अड़े हैं। सहमति बनाने की जिम्मेदारी दोनों की है। जब आप आमने-सामने बैठकर बात करते हैं, गतिरोध तभी टूटता है पर कई दौर की वार्ता के बाद भी बात वहीं की वहीं है। किसानों का कहना है कि बात तो करने को हम तैयार हैं, पर पहले आप तीन कानूनों को वापस लें। उन्होंने अपने आंदोलन का विस्तार करने की घोषणा की है, जिसमें हाइवे जाम करना, रेलगाड़ियों को रोकना और टोल प्लाजा पर कब्जा करने का कार्यक्रम भी शामिल है। फिलहाल किसानों का तांता लगा हुआ है, एक वापस जाता है, तो दस नए आते हैं।

केंद्र सरकार ने किसानों को लिखित रूप से देने का आश्वासन किया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य जारी रहेगा। सरकार ने कानून में बदलाव की पेशकश की है, ताकि सरकारी और प्राइवेट मंडियों के बीच समानता रहे। बाहर से आने वाले व्यापारियों पर भी शुल्क लगाने की बात मान ली गई है। व्यापारियों का पंजीकरण होगा और विवाद खड़े होने पर अदालत जाने का अवसर रहेगा। पर किसानों की एक ही माँग है कि तीनों कानूनों को वापस लो।

Friday, December 11, 2020

किसान आंदोलन में लहराते पोस्टर

 


दिल्ली के आसपास चल रहे किसान आंदोलन के दौरान 10 दिसंबर की एक तस्वीर मीडिया में (खासतौर से सोशल मीडिया में) प्रसारित हुई है। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार 10 दिसंबर को हर साल संयुक्त राष्ट्र की ओर से सार्वभौमिक मानवाधिकार दिवसमनाया जाता है। इस मौके पर किसी किसान संगठन की ओर से देश के कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं की तस्वीरों के पोस्टर आंदोलनकारियों ने हाथ में उठाकर प्रदर्शन किया। इन तस्वीरों में गौतम नवलखा, सुधा भारद्वाज, वरवर राव, अरुण फरेरा, आनन्द तेलतुम्बडे के साथ-साथ पिंजरा तोड़ के सदस्य नताशा नरवाल और देवांगना कलीता वगैरह की तस्वीरें शामिल थीं। इनमें जेएनयू के छात्र शरजील इमाम और पूर्व छात्र उमर खालिद की तस्वीरें भी थीं। ये सभी लोग अनलॉफुल एक्टिविटीज (प्रिवेंशन) एक्ट (यूएपीए) के अंतर्गत जेलों में बंद हैं।    

इस समय आंदोलन का सबसे बड़ा केंद्र सिंघु बॉर्डर है और पिछले दो हफ्ते से काफी आंदोलनकारी टिकरी सीमा पर भी बैठे हैं। जो तस्वीरें सामने आई हैं, वे टिकरी बॉर्डर की हैं। आंदोलन के आयोजक शुरू से कहते रहे हैं कि इसमें केवल किसानों के कल्याण से जुड़े मसले ही उठाए जाएंगे, राजनीतिक प्रश्नों को नहीं उठाया जाएगा।

बहरहाल जोगिंदर सिंह उगराहां के नेतृत्व में बीकेयू (उगराहां) से जुड़े लोगों ने इन पोस्टरों का प्रदर्शन किया था। उगराहां का कहना है कि जेलों में बंद लोगों के पक्ष में आवाज उठाना राजनीति नहीं है। जो लोग जेलों में बंद हैं, वे हाशिए के लोगों की आवाज उठाते रहे हैं। हम भी आपके अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं, जिन्हें सरकार ने छीन लिया है। यह राजनीति नहीं है।

Tuesday, December 8, 2020

पंजाब की ग्रामीण संरचना पर भी नजर डालिए

 


दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन ने अंततः राजनीतिक शक्ल अख्तियार कर ली है। इसमें किसी को आपत्ति नहीं होनी चाहिए। हमारे देश में खेती-किसानी से बड़ा राजनीतिक मुद्दा है भी नहीं। इससे राजनीति को अलग नहीं कर सकते। शायद ही कोई चुनाव जाता होगा, जिसमें किसानों का राजनीतिक दलों के घोषणापत्रों में उल्लेख नहीं होता हो। दिल्ली में चल रहे किसान आंदोलन में सबसे ज्यादा किसान पंजाब और हरियाणा से आए हैं। इनमें उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश और कुछ दूसरे राज्यों के किसान भी हैं, पर सबसे ज्यादा पंजाब और हरियाणा से हैं। अलबत्ता इसमें देशभर के किसान संगठन जुड़े हैं।

इस आंदोलन को लेकर कई तरह की बातें हैं। इसमें आए लोगों की कारों के मॉडलों और जींस पहने नौजवानों तथा अंग्रेजी बोलने वालों का जिक्र भी हो रहा है। इन बातों का कोई मतलब नहीं है। अलबत्ता यह सवाल जरूर है कि इसमें सबसे ज्यादा लोग पंजाब-हरियाणा से ही क्यों आए हैं और बाकी राज्यों में यह बड़ा आंदोलन क्यों नहीं है? सवाल यह भी है कि उत्तर प्रदेश और हरियाणा की भाजपा सरकारों ने आंदोलन का समर्थन नहीं किया है, पर पंजाब सरकार आंदोलन की समर्थक है। दिल्ली की आम आदमी पार्टी सरकार ने भी आंदोलन का समर्थन किया है। जाहिर है कि बड़ा कारण पंजाब की राजनीति है। इस राजनीति की ध्वनि आपको ऑस्ट्रेलिया, कनाडा और ब्रिटेन से भी सुनाई पड़ रही है, तो उसके पीछे के कारणों को भी समझना होगा।