इंडियन रीडरशिप सर्वे 2010 की पहली तिमाही की रपट का संकेत है कि टीवी, रेडियो, इंटरनेट, अखबार और पत्रिका पर एक भारतीय औसतन 125 मिनट का समय खर्च करता है, जबकि 2007 में यह 117 था। मेरा अनुमान है कि यह समय प्रतिमाह का है। एक महीने में 125 मिनट का समय खास नहीं है। इकोनॉमिस्ट ने नील्सन के सर्वे के आधार पर अनुमान लगाया है कि औसत अमेरिकन एक महीने में 210 मिनट से ज्यादा समय ऑनलाइन वीडियो, ब्रॉडकास्ट टीवी और इससे जुड़ी गतिविधियों को देता है। इसके अलावा 154 मिनट वह इंटरनेट को देता है। उसका अनुमान है कि अमेरिकी किशोर करीब साढ़े सात घंटे से दस घंटे इस मीडिया को देता है। अमेरिकी आँकड़ों से तुलना करें तो अभी हमारे यहाँ काफी सम्भावनाएं हैं। यह सम्भावना टेक्नॉलजी और मीडिया-कारोबार के लिए जितनी महत्वपूर्ण है, उससे ज्यादा महत्वपूर्ण उन लोगों के लिए है, जो इसके सॉफ्टवेयर यानी कंटेंट के बारे में सोचते हैं।
जिस वक्त अखबारों का जन्म हो रहा था, उन्हीं दिनों वैश्विक व्यवस्था सामंतवाद से हटकर पूँजीवाद की ओर बढ़ रही थी। व्यापार के कारण पाबंदियाँ खत्म हो रहीं थीं। व्यापारियों और सामंतों के बीच हितों का टकराव था। इस टकराव ने तमाम लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को जन्म दिया। इसके बीच औद्योगिक क्रांति हुई। युरोपीय कारोबारी हितों ने उपनिवेशों को जन्म दिया। उपनिवेशों के मध्यवर्ग ने देर-सबेर राष्ट्रीय आंदोलन शुरू किए। अपनी व्यवस्थाएं बनाईं। इसमें अखबार की भूमिका थी। भारत के औपनिवेशिक दौर में दो या तीन तरह के अखबार थे। एक अंग्रेजों के, दूसरे राष्ट्रवादी और तीसरे अंग्रेज समर्थक देशी अखबार। अनेक परतें और होंगी, पर मैं इन्हें मोटे तौर पर अभी तीन हिस्सों में देख रहा हूँ। तीनों का हमारे सामाजिक सांस्कृतिक बदलाव में कोई न कोई योगदान है। इस बदलाव का वाहक इन अखबारों के कंटेंट के कारण था। काफी छोटे स्तर पर ही सही, अखबार सहमतियों और मतभेदों को उजागर करते थे। दूसरे देशों और सुदूर इलाकों से वे जानकारियाँ लाते थे, जो पाठकों के लिए ज़रूरी थी। उस समय के लिहाज से आधुनिक तकनीक अखबार लेकर आए। टेकनॉलजी और बिजनेस ने उस वैचारिक क्रांति को बढ़ाया।