Friday, June 29, 2012

कितना वेतन मिलता है प्रधानमंत्री को



यह जानकारी काफी लोगों के लिए रोचक होगी कि प्रधानमंत्री के मीडिया सलाहकार पंकज पचौरी का वेतन प्रधानमंत्री को मिलने वाले वेतन से 30 हजार रुपया महीना कम है। इन्हें 1.30 लाख रुपया महीना मिलता है जो प्रधानमंत्री के प्रिंसिपल सेक्रेटरी पुलक चटर्जी के वेतन (90 हजार) से ज्यादा है। उनसे ज्यादा वेतन भारतीय सूचना सेवा के अधिकारी मुथु कुमार को मिलता है (1.40 लाख रु) जो पिछले सात साल से पीएमओ में हैं। ये जानकारियाँ आरटीआई के तहत हासिल की गईं हैं और इन्हें आज के मेल टुडे ने छापा है।

PRIME MINISTER'S SALARY SLIP

Rs50,000 pay
Rs3,000 sumptuary allowance
Rs62,000 daily allowance (Rs2,000 per day)
Rs45,000 constituency allowance
Rs1.6 lakh - gross pay/month

मेल टुडे के ईपेपर में पढ़ें खबर
मेल ऑनलाइन में पढ़ें पूरी कथा

सरबजीत या सुरजीत, गलती मीडिया की थी !!!

सरबजीत या सुरजीत के नाम को लेकर जो भी भ्रम फैला उसके लिए जिम्मेदारी पाकिस्तान सरकार के ऊपर डाली जा रही है, पर जो बातें सामने आ रहीं हैं इनसे लगता है कि गलती मीडिया से हुई है। दोनों देशों के मीडिया ने इस मामले में जल्दबाज़ी की। पाकिस्तानी राष्ट्रपति के दफ्तर ने इस मामले में स्पष्टीकरण देने में आठ घंटे क्यों लगाए यह ज़रूर परेशानी का विषय है।

28 जून के हिन्दू में अनिता जोशुआ की छोटी सी रिपोर्ट में कहा गया है कि पाकिस्तानी राष्ट्रपति के मीडिया सलाहकार ने पहली बार भी सुरजीत सिंह का नाम लिया था, सरबजीत का नहीं। इस रिपोर्ट की निम्न लिखित पंक्तियों पर ध्यान दें-
'Farhatullah Babar, media adviser to President Asif Ali Zardari, can be clearly heard in his interviews to Indian television channels referring to Surjeet Singh as the Indian prisoner Pakistan planned to release. But after a Pakistani news channel referred to the person as Sarabjit, that became the name the media ran away with.'

Wednesday, June 27, 2012

सरबजीतः यह क्या हुआ?




देर रात टीवी की बहस देख और सुनकर जो लोग सोए थे उन्हें सुबह के अखबारों में खबर मिली कि धोखा हो गया, सरबजीत नहीं सुरजीत की रिहाई का आदेश है। दिल्ली में इंडियन एक्सप्रेस या देर से छूटने वाले अखबारों में ही यह खबर थी, पर फेसबुकियों ने सुबह सबको इत्तला कर दी। बहरहाल आज इस बात पर बहस हो सकती है कि धोखा हुआ या नहीं? पाकिस्तान सरकार जो कह रही है वह सही है या नहीं? मीडिया ने जल्दबाज़ी में मामले को उछाल दिया क्या? हो सकता है कि पाकिस्तानी राष्ट्रपति के दफ्तर के ही किसी ज़िम्मेदार व्यक्ति से गलती हो गई हो।

आज के हिन्दी अखबारों का सवाल है कि राष्‍ट्रपति आसिफ अली जरदारी क्‍यों पलट गए? राजस्थान पत्रिका के जालंधर संस्करण का शीर्षक है पाकिस्तान का दगा। कहीं शीर्षक है आधी रात को धोखा। बहरहाल विदेश मंत्री एसएम कृष्णा सर्बजीत की रिहाई का स्वागत कर चुके हैं। आमतौर पर डिप्लोमेटिक जगत में बगैर पूर्व सूचना के ऐसा नहीं होता। पीटीआई के इस्‍लामाबाद संवाददाता रियाज उल लश्‍कर का भी कहना है कि राष्‍ट्रपति ने शायद फौज के दबाव में आकर पलटी मारी होगी। 


पाकिस्‍तान में मंगलवार शाम से ही मीडिया में खबरें चलने लगीं कि राष्‍ट्रपति ने फैसला किया है कि सरबजीत सिंह रिहा होंगे। इसे लेकर वहां मीडिया पर बहस भी चलने लगी। भारतीय विदेश मंत्री ने जरदारी को बधाई तक दे दी। तभी रात करीब 12 बजे राष्‍ट्रपति की ओर से सफाई जारी हुई कि रिहाई सरबजीत की नहीं, सुरजीत की हो रही है।

Tuesday, June 26, 2012

जामे जमशेदः 180 साल पुराना अखबार


जामे जमशेद एशिया का दूसरा सबसे पुराना अखबार है जो आज भी प्रकाशित हो रहा है। विजय दत्त श्रीधर लिखित भारतीय पत्रकारिता कोश के अनुसार 1832 में मुम्बई से पारसी समाज के मुख पत्र के रूप में इसका प्रकाशन शुरू हुआ था। इस हिसाब से इसे इस साल 180 साल हो गए। इसके सम्पादक प्रकाशक पेस्तनजी माणिकजी मोतीवाला थे। यह साप्ताहिक था और 1853 में इसे दैनिक कर दिया गया।


मुंबई से सन 1822 में गुजराती भाषा में समाचार पत्र ' बम्बई समाचार ' का प्रकाशन प्रारंभ हुआ और वर्तमान में यह भारत में नियमित प्रकाशित होने वाला सबसे पुराना समाचार पत्र है। यह अखबार आज मुम्बई समाचार के नाम से निकल रहा है। 

Monday, June 25, 2012

तख्ता पलट बतर्ज पाकिस्तान-पाकिस्तान


सी एक्सप्रेस में प्रकाशित

पाकिस्तान में इन दिनों अफवाहों का बाज़ार गर्म है। कोई कहता है कि फौज टेक ओवर करेगी। दूसरा कहता है कि कर लिया। युसुफ रज़ा गिलानी से शिकायत बहुत से लोगों को थी, पर जिस तरीके से उन्हें हटाया गया, वह बहुतों को पसंद नहीं आया। कुछ लोगों को लगता है कि उन्हें हटाने में फौज की भूमिका भी है। भूमिका हो या न हो पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सहयोगी दल एमक्यूएम ने कुछ दिन पहले ही कहा था कि फौज को बुला लेना चाहिए। फिलहाल सवाल यह है कि मुल्क में जम्हूरियत को चलना है या नहीं। बहरहाल राजा परवेज़ अशरफ को चुनकर संसदीय व्यवस्था ने लोकतांत्रिक प्रक्रिया को आगे बढ़ा दिया है। इसके पहले पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी ने मख्दूम शहाबुद्दीन को इस पद के लिए प्रत्याशी बनाया था। पर अचानक एक अदालत ने उनके खिलाफ गिरफ्तारी वॉरंट जारी कर दिया और प्रत्याशी बदल दिया। क्या यह सिर्फ संयोग था? इस विषय पर कुछ देर बाद बात करेंगे।

भारत के हित में है लोकतांत्रिक पाकिस्तान


पाकिस्तानी अखबार डॉन में फेका का कार्टून


पिछले गुरुवार की रात काबुल के एक होटल पर तालिबान फिदाई दस्ते ने फिर हमला बोला। तकरीबन 12 घंटे तक होटल पर इनका कब्ज़ा रहा। हालांकि संघर्ष में सुरक्षा बलों ने सभी पाँचों हमलावरों को मार गिराया, पर बड़ी संख्या में निर्दोष नागरिक मारे गए। पिछले दो-तीन महीनों में तालिबान हमलों में तेजी आई है। अफगानिस्तान में नेटो सेना के कमांडर जनरल जॉन एलेन का कहना है कि कहा कि इन हमलों के पीछे तालिबान के हक्कानी नेटवर्क का हाथ है जो पाकिस्तान के वजीरिस्तान इलाके में सक्रिय है। इसके पहले अमेरिका के रक्षा सचिव लियोन पेनेटा कह चुके हैं कि पाकिस्तान हमारे सब्र की और परीक्षा न करे। पर क्या पाकिस्तान पर इस किस्म की चेतावनियोँ का असर होता है या हो सकता है?

Sunday, June 24, 2012

Pakistan : Point of views

Editorial By Najam Sethi
Wither vs whether Pakistan
 The adage that you can't judge a book by its cover is apparently not true in the case of Pakistan. Consider the following top ten recently published books on Pakistan: (1) Pakistan: Beyond the crisis state; (2) Playing with fire: Pakistan at war with itself. (3) The unraveling: Pakistan in the age of jihad; (4) Pakistan on the brink; (5) Pakistan: Eye of the storm; (6) Deadly Embrace: Pakistan, America and the future of global jihad; (7) Fatal Fault Lines: Pakistan, Islam and the West; (8) Pakistan: the most dangerous place in the world; (9) Pakistan Cauldron: conspiracy, assassination and instability; (9) Pakistan: The scorpion's tail; (10) Pakistan: terrorism ground zero. To top it all, The Future of Pakistan, which is a collection of essays by noted Pakistan-hands, makes bold to provoke the debate of "Whither" vs "Whether" Pakistan.

Saturday, June 23, 2012

Prime Ministerial history of Pakistan



Prime Ministers of Pakistan
with tit-bits of history

1.Liaquat Ali Khan – Pakistan Muslim League (14 August 1947 – 16 October 1951)
1951 - Jinnah's successor Liaquat Ali Khan is assassinated.

2.Sir Khawaja Nazimuddin – Pakistan Muslim League (17 October 1951 – 17 April 1953)
One of the notable Bengali Founding Fathers of modern-state of Pakistan, career statesman from East-Pakistan, serving as the second Governor-General of Pakistan from 1948 until the assassination of Prime minister Liaquat Ali Khan in 1951.His government lasted only two years but saw the civil unrest, political differences, foreign challenges, and threat of communism in East Pakistan and socialism in West Pakistan, that led the final dismissal of his government in response to Lahore riots in 1953, Nazimuddin was the first one to have declared the Martial law in Punjab Province under Major-General Azam Khan and Colonel Rahimuddin Khan, initiating a massive repression of the Right-wing sphere in the country.

Friday, June 22, 2012

पाकिस्तान में बिखरता लोकतंत्र

हिन्दू में केशव का कार्टून
पाकिस्तान में नागरिक सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सीधे-सीधे स्वीकार करके टकराव को टालने की कोशिश की है, पर इससे लोकतांत्रिक व्यवस्था के पुष्ट होने के बजाय बिखरने के खतरे ज्यादा पैदा हो गए हैं। संवैधानिक संस्थाओं के बीच टकराव की नौबत नही आनी चाहिए थी, पर लगता है कि देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था और राजनीति के बीच फर्क करने वाली ताकतें मौजूद नहीं हैं। सुप्रीम कोर्ट ने जो फैसला किया है उसकी याचिका देश को राजनीतिक दलों ने ही की थी। 26 अप्रेल को जब सुप्रीम कोर्ट ने गिलानी को दोषी पाने के बाद उन्हें प्रतीकात्मक सजा दी थी और सदस्यता खत्म करने का फैसला न करके यह निर्णय कौमी असेम्बली की स्पीकर पर छोड़ दिया था। उस वक्त तक लग रहा था कि विवाद अब तूल नहीं पकड़ेगा। अदालत ने अब अपने फैसले को बदल कर दो संदेह पैदा कर दिए हैं। पहला यह कि गिलानी के बाद जो दूसरे प्रधानमंत्री आएंगे उन्हें भी आदेश थमाया जाएगा कि आसिफ अली ज़रदारी के खिलाफ स्विट्ज़रलैंड की अदालतों में मुकदमे फिर से शुरू कराने की चिट्ठी लिखो। वे चिट्ठी नहीं लिखेंगे तो उनके खिलाफ भी अदालत की अवमानना का केस चलाया जाएगा। दूसरा अंदेशा यह है कि कहीं देश की न्यायपालिका सेना के साथ-साथ खुद भी सत्ता के संचालन का काम करना तो नहीं चाहती है। ऐसे मौकों पर टकराव टालने की कोशिश होती है पर यहाँ ऐसा नहीं हो रहा है, बल्कि व्यवस्था की बखिया उधेड़ी जा रही है।

Tuesday, June 19, 2012

तरुण सहरावत और ब्रेक से ब्रेक के बीच की पत्रकारिता

तरुण सहरावत
 दो जानकारियाँ तकरीबन साथ-साथ प्राप्त हुईं। दोनों में कोई सीधा सम्बन्ध नहीं, सिवाय मूल्यों और मर्यादाओं के जो एक कर्म से जुड़ी हैं, जिसे पत्रकारिता कहते हैं। तहलका पत्रिका के पत्रकार तरुण सहरावत का देहांत हो गया। उनकी उम्र मात्र 22 साल थी। अबूझमाड़ के आदिवासियों के साथ सरकारी संघर्षों की रिपोर्टिंग करने तरुण सहरावत बस्तर गए थे। जंगल में मच्छरों के काटने और तालाब का संक्रमित पानी पीने के कारण उन्हें टाइफाइड और सेरिब्रल मलेरिया हुआ और वे बच नहीं पाए। दूसरी खबर यह कि मुम्बई प्रेस क्लब ‘पब्लिक रिलेशनशिप और मीडिया मैनेजमेंट’ पर एक सर्टिफिकेट कोर्स शुरू करने जा रहा है। 23 जून से शुरू हो रहे तीन महीने के इस कोर्स के विज्ञापन में प्लेसमेंट का आश्वासन दिया गया है। साथ ही फीस में डिसकाउंट की व्यवस्था है। यह विज्ञापन प्राइम कॉर्प के लोगो के साथ लगाया गया है, जो मीडिया रिलेशंस और कंसलटेंसी की बड़ी कम्पनी है। पहली खबर की जानकारी और दूसरी को लेकर परेशानी शायद बहुत कम लोगों को है।

Monday, June 18, 2012

समय से सबक सीखो ममता दी

पिछले बुधवार सोनिया गांधी के साथ मुलाकात करने के बाद ममता बनर्जी जितनी ताकतवर नज़र आ रहीं थीं, उतनी ही कमज़ोर आज लग रहीं हैं। राजनीति में इस किस्म के उतार-चढ़ाव अक्सर आते हैं, पर पिछले एक अरसे से ममता बनर्जी का जो ग्राफ क्रमशः ऊपर जा रहा था, वह ठहर गया है। एक झटके में उनकी सीमाएं भी सामने आ गईं। अभी तक कांग्रेस मुलायम सिंह के मुकाबले ममता को ज्यादा महत्व दे रही थी, क्योंकि उसे पता है कि मुलायम सिंह अपनी कीमत वसूलना जानते हैं। ममता बनर्जी ने जो बाज़ी चली वह कमजोर थी। जिन एपीजे अब्दुल कलाम को वे प्रत्याशी बनाना चाहती थीं उनकी रज़ामंदी उनके पास नहीं थी। बहरहाल वे अब अकेली और मुख्यधारा की राजनीति से कटी नज़र आती हैं। बेशक उनके पास विकल्प खुले हैं। पर एक साल के मुख्यमंत्री पद और पिछले छह महीने में राष्ट्रीय राजनीति से प्राप्त अनुभवों का लाभ उन्हें उठाना चाहिए। वे देश की उन कुछ नेताओं में से एक हैं जो सिर्फ अपने दम पर राजनीति की राह बदल सकते हैं। देखना यह है कि बदलते वक्त से वे कोई सबक सीखती हैं या नहीं।

चुनौतियाँ शुरू होंगी राष्ट्रपति चुनाव के बाद

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून
राष्ट्रपति पद के चुनाव का पहला दौर कांग्रेस ने आसानी से पार कर लिया। पार ही नहीं किया बल्कि जीत भी लिया है। यह फौरी जीत मुलायम और ममता बनर्जी की जल्दबाजी के कारण हासिल हुई है। पर राष्ट्रपति चुनाव अंतिम जीत नहीं है। अलबत्ता इससे कांग्रेस के रणनीतिकारों को बल मिलेगा। अभी तमाम रहस्य शेष हैं। यह साफ नहीं हुआ है कि सोनिया गांधी प्रणव मुखर्जी को वास्तव में प्रत्याशी बनाना चाहती थीं या नहीं। बहरहाल अब यूपीए को नए वित्तमंत्री, तमाम ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स के अध्यक्ष, लोकसभा में सदन के नेता और पार्टी के सबसे बड़े ट्रबुल शूटर की तलाश करनी होगी। कांग्रेस के सामने जो समस्याएं सामने आने वाली हैं वे लोकसभा के अगले चुनाव के बाबत हैं। ममता बनर्जी कब तक यूपीए में बनी रहेंगी और क्या मायावती और मुलायम सिंह एक ही घाट का पानी पिएंगे?

Friday, June 15, 2012

यह राजनीतिक समुद्र मंथन है

हिन्दू सें सुरेन्द्र का कार्टून
कांग्रेस ने मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री को पद पर बनाए रखने की घोषणा करने के बाद एक बड़ी कयासबाजी को रोक दिया है। राजनीतिक और प्रशासनिक दृष्टि से सफाई देना ज़रूरी था। कांग्रेस अभी तक ममता बनर्जी से सीधे टकराव को टालती आ रही है। हो सकता है कि अपने अस्तित्व को बचाए रखने के वास्ते उसे टकराव लेना पड़े। ममता बनर्जी ने राष्ट्रपति पद के लिए प्रणब मुखर्जी के नाम को पहले ही नामंजूर कर दिया था। कम से कम स्वीकार तो नहीं किया था। बल्कि वे मीरा कुमार का नाम सुझा भी चुकी थीं। पर बुधवार की शाम जब अचानक उन्होंने और मुलायम सिंह यादव ने तीन नए नाम सामने रखे तो राष्ट्रीय राजनीति को धक्का लगा। सबसे ज्यादा विस्मय मनमोहन सिंह के नाम को लेकर था। क्या उन्होंने उनके नाम की पेशकश के पहले आगा-पीछा सोचा था? सवाल उनके राष्ट्रपति बनने से ज्यादा प्रधानमंत्री पद छोड़ने का था। इसीलिए संशय यही हुआ कि कहीं ममता ने सोनिया गांधी से मशवरा करके तो यह पेशकश नहीं की है? पर अब सवाल कुछ और हैं। क्या यह ममता बनर्जी की राजनीति है या कुछ और बात है? क्या यह राष्ट्रपति चुनाव की राजनीति है या कुछ और है? ममता बनर्जी के दिमाग में ये तीन नाम थे तो उन्होंने सोनिया गांधी को सीधे ही क्यों नहीं बता दिए? ऐसी घोषणा प्रेस कांफ्रेंस में करने का मतलब क्या है? क्या इतनी बड़ी बातें अचानक मुलायम सिंह से छोटी सी मुलाकात के बाद उनके दिमाग में आ गईं? आज के ज़माने में जब मोबाइल फोन से लेकर वीडियो कांफ्रेंसिग तक आम बातें हैं, तब क्या इन औपचारिक मुलाकातों के बाद ही बड़े फैसले होते हैं?

Monday, June 11, 2012

यह अतुल्य भारत का अंत नहीं है

यह भारत की विकास कथा का अंत है। एक वामपंथी पत्रिका की कवर स्टोरी का शीर्षक है। आवरण कथा के लेखक की मान्यता है कि आर्थिक विकास में लगे ब्रेक का कारण यूरोपीय आर्थिक संकट नहीं देश की नीतियाँ हैं। उधर खुले बाजार की समर्थक पत्रिका इकोनॉमिस्ट की रिपोर्ट का शीर्षक है ‘फेयरवैल टु इनक्रेडिबल इंडिया’ अतुल्य भारत को विदा। वामपंथी और दक्षिणपंथी एक साथ मिलकर सरकार को कोस रहे हैं। देश की विकास दर सन 2011-12 की अंतिम तिहाई में 5.3 फीसदी हो गई। पिछले सात साल में ऐसा पहली बार हुआ। पूरे वित्त वर्ष में यह 7 फीसदी से नीचे थी। निर्माण क्षेत्र में यह 3 फीसदी थी जो इसके एक साल पहले 9 फीसदी हुआ करती थी। राष्ट्रीय उपभोक्ता मूल्य सूचकांक अप्रेल में 10.4 प्रतिशत हो गया, जो मार्च में 8.8 और फरवरी में 7.7 था। विदेश व्यापार में घाटा एक साल में 56 फीसदी बढ़ गया। विदेशी मुद्रा कोष में लगातार गिरावट हो रही है। जो कोष 300 से काफी ऊपर होता था, वह 25 मई को 290 अरब डॉलर रह गया है। रुपए की कीमत लगातार गिर रही है।

अफगानिस्तान को लेकर बढ़ती तल्खियाँ

पिछले हफ्ते भारत-पाकिस्तान और अफगानिस्तान के संदर्भ में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। पहली थी अमेरिका के रक्षामंत्री लियन पेनेटा का अफगानिस्तान और भारत का दौरा। और दूसरी थी शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की पेइचिंग में हुई बैठक। आप चाहें तो दोनों में कोई सूत्र न ढूँढें पर खोजने पर तमाम सूत्र मिलेंगे। वस्तुतः पेनेटा की भारत यात्रा के पीछे इस वक्त कोई बड़ा कार्यक्रम नहीं था, सिर्फ अमेरिका की नीति में एशिया को लेकर बन रहे ताज़ा मंसूबों से भारत सरकार को वाकिफ कराना था। इन मंसूबों के अनुसार भारत को आने वाले वक्त में न सिर्फ अफगानिस्तान में बड़ी भूमिका निभानी है, बल्कि हिन्द महासागर से लेकर चीन सागर होते हुए प्रशांत महासागर तक अमेरिकी सुरक्षा के प्रयत्नों में शामिल होना है। अमेरिका की यह सुरक्षा नीति चीन के लिए परेशानी का कारण बन रही है। वह नहीं चाहता कि भारत इतना खुलेआम अमेरिका के खेमे में शामिल हो जाए।

Saturday, June 9, 2012

न इधर और न उधर की राजनीति

मंजुल का कार्टून साभार
ममता बनर्जी ने पेंशन में विदेशी निवेश के प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया है। पिछले गुरुवार को हुई कैबिनेट की बैठक में उदारीकरण के प्रस्ताव सामने ही नहीं आ पाए। सरकार दुविधा में नज़र आती है। अब लगता है कि पहले राष्ट्रपति चुनाव हो जाए, फिर अर्थव्यवस्था की सुध लेंगे। पिछले सोमवार को हुई कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक के बाद अचानक सरकार आर्थिक उदारीकरण के अपने एजेंडा को तेज करने को उत्सुक नज़र आने लगी। बुधवार को प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े विभागों के मंत्रियों की बैठक में तमाम कामों में तेजी लाने का फैसला हुआ। इस साल तकरीबन साढ़े नौ हजार किमी लम्बे राजमार्गों के निर्माण और 4360 किमी लम्बे राजमार्गों के पुनरुद्धार का काम शुरू होना है। दो नए ग्रीनफील्ड हवाई अड्डों, दो नए बंदरगाहों और कम से कम 18,000 मेगावॉट बिजली उत्पादन की अतिरिक्त क्षमता का सृजन होना है। बुलेट ट्रेन चलाने के लिए एक नए संगठन की स्थापना होनी है। हजारों लाखों करोड़ की परियोजनाएं पिछले कुछ समय से स्वीकृति के लिए पड़ी हैं। आर्थिक उदारीकरण की राह में आगे बढ़ने के लिए विमानन, इंश्योरेंस, पेंशन और रिटेल से जुड़े फैसले करने की घड़ी आ गई है। डीज़ल और रसोई गैस से सब्सिडी खत्म करने का मौका आ गया है और शायद मनरेगा और खाद्य सुरक्षा बिल जैसे लोक-लुभावन कार्यों से हाथ खींचने की घड़ी भी। क्या यह काम आसान होगा? और क्या सरकार के सामने यही समस्या है? लगता है जैसे केन्द्र सरकार आर्थिक सन्निपात और राजनीतिक बदहवासी में है।

Monday, June 4, 2012

जीवन और समाज से टूटी राजनीति

हिन्दू में केशव का कार्टून
देश के हालात पर नज़र डालें तो निराशा नज़र आएगी। दो साल पहले तक हम आर्थिक विकास को लेकर मगरूर थे। आम जनता की परेशानियों की ओर न तो सरकार का ध्यान था और न राजनीतिक दलों का। यों भी राजनीति का विचारों और कार्यक्रमों से रिश्ता टूट चुका है। अब सिर्फ जोड़-तोड़ का गणित है, जिसमें ज्यादा से ज्यादा चुनाव जीतने का कौशल माने रखता है। दूसरे यह राजनीति घूम फिर कर कुछ परिवारों का खेल बन गई है। एक अरसे से हम क्षेत्रीय दलों के उभार को देख रहे हैं। तमिलनाडु में द्रविड़ राजनीति ने इसकी शुरूआत की थी। गुजरात, राजस्थान, मध्य प्रदेश के अलावा हिमाचल और उत्तराखंड को छोड़ दें तो आपको तकरीबन हर प्रदेश में क्षेत्रीय क्षत्रपों का राज दिखाई पड़ेगा। इसका क्या मतलब है और क्या इसमें हमारे लिए दीर्घकालीन संदेश छिपे हैं? और जिस तरीके से आर्थिक नीतियों में लुका-छिपी का खेल चल रहा है उसकी परिणति क्या है? हमें अक्सर एक शब्द सुनाई पड़ता है इन्क्ल्यूसिव ग्रोथ। यह क्या है और क्या इसे हासिल करने वाली राजनीति विकसित हो पाई है?

नेपाल के आकाश पर असमंजस के मेघ

नेपाल के गणतांत्रिक लोकतंत्र का सपना अचानक टूटता नज़र आ रहा है। सारे रास्ते बन्द नहीं हुए हैं, पर मई के पहले हफ्ते में जो उम्मीदें बनी थीं, वे बिखर गई हैं। देश के पाँचवें गणतंत्र दिवस यानी 27 मई को समारोहों की झड़ी लगने के बजाय, असमंजस और अनिश्चय के बादल छाए रहे। उम्मीद थी कि उस रोज नया संविधान लागू हो जाएगा और एक नई अंतरिम सरकार चुनाव की घोषणा करेगी। ऐसा नहीं हुआ, बल्कि संविधान सभा का कार्यकाल खत्म हो गया। और एक अंतरिम प्रधानमंत्री ने नई संविधान सभा के लिए चुनाव की घोषणा कर दी। पिछले चार साल की जद्दो-जेहद और तकरीबन नौ अरब रुपए के खर्च के बाद नतीज़ा सिफर रहा। चार साल के विचार-विमर्श के बावजूद तमाम राजनीतिक शक्तियाँ सर्व-स्वीकृत संविधान बनाने में कामयाब नहीं हो पाईं हैं। यह संविधान दो साल पहले ही बन जाना चाहिए था। दो साल में काम पूरा न हो पाने पर संविधान सभा का कार्यकाल दो साल के लिए और बढ़ाया गया। इन दो साल यानी 730 दिन में संविधान सभा सिर्फ 101 दिन ही बैठक कर पाई। विडंबना यह है कि मसला बेहद मामूली जगह पर जाकर अटका। मसला यह है कि कितने प्रदेश हों और उनके नाम क्या हों, इसे लेकर आम राय नहीं बन पाई।

Friday, June 1, 2012

राजनीति में लू-लपट का दौर

हिन्दू में केशव का कार्टून
हमारे यहाँ दूसरे की सफेद कमीज़ सामान्यतः ईर्ष्या का विषय होती है। इसलिए हर सफेद कमीज़ वाले को छींटे पड़ने का खतरा रहता है। राजनीति यों भी छींटेबाजी का मुकाम है। इस लिहाज से देखें तो क्या अन्ना हजारे की टीम द्वारा प्रधानमंत्री पर लगाए गए आरोप छींटेबाज़ी की कोशिश हैं? पिछले कई महीनों से खामोश बैठी अन्ना टोली इस बार नई रणनीति के साथ सामने आई है। उसने प्रधानमंत्री सहित कुछ केन्द्रीय मंत्रियों पर आरोप लगाए हैं। ये आरोप पहले भी थे, पर अन्ना-टोली का कहना है कि अब हमारे पास बेहतर साक्ष्य हैं।

दूसरे मंत्रियों की बात छोड़ दें तो प्रधानमंत्री पर जो आरोप लगाए गए हैं वे सन 2006 से 2009 के बीच कोयला खानों के 155 ब्लॉक्स के बारे में हैं जिन्हें बहुत कम फीस पर दे दिया गया। उस दौरान कोयला मंत्रालय प्रधानमंत्री के अधीन था। पहली नज़र में यह बात महत्वपूर्ण लगती है। खासतौर से कुछ महीने पहले एक अखबार में सीएजी की रपट इस अंदाज़ में प्रकाशित हुई थी कि कोई बहुत बड़ा घोटाला सामने आया है। सीएजी की ड्राफ्ट रपट में 10.67 लाख करोड़ के नुकसान का दावा किया गया था। इस लिहाज से यह टूजी मामले से कहीं बड़ा मामला है। पर क्या यह घोटाला है? क्या इसमें प्रधानमंत्री की भूमिका है? क्या इसके आधार पर कोई अदालती मामला बनाया जा सकता है? इन सब बातों पर विचार करने के बजाय सीधे प्रधानमंत्री को आरोप के घेरे में खड़ा करना उचित नहीं है। इसके साथ ही उनके लिए प्रयुक्त शब्द भी सामान्य मर्यादाओं के खिलाफ हैं।