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Sunday, April 28, 2019

वाराणसी से भाजपा का गठबंधन-संदेश


गुरुवार को वाराणसी में भारी-भरकम रोड शो के बाद शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपना नामांकन पत्र दाखिल कर दिया। रोड शो और उसके बाद गंगा आरती की भव्यता ने मीडिया का ध्यान आकर्षित किया, जो स्वाभाविक था। इसका आयोजन सोज-समझकर किया गया था। सन 2014 के चुनाव के पहले भी करीब-करीब इसी तरह का आयोजन किया गया था। पर इस कार्यक्रम की भव्यता और भारी भीड़ के बरक्स ध्यान देने वाली बात है इस कार्यक्रम की राजनीतिक प्रतीकात्मकता। यह प्रतीकात्मकता दो तरीके से देखी जा सकती है। एक, प्रस्तावकों के चयन में बरती गई सावधानी से और दूसरे एनडीए से जुड़े महत्वपूर्ण नेताओं की उपस्थिति।
मोदी के नामांकन के ठीक पहले खबर यह भी आई कि प्रियंका गांधी वाराणसी से चुनाव लड़ने नहीं जा रही हैं। हालांकि कांग्रेस पार्टी ने कभी यह नहीं कहा था कि प्रियंका वाराणसी से लड़ेंगी, पर इस सम्भावना को शुरू में ही खारिज नहीं किया गया था। देर से की गई इस घोषणा से पार्टी को नुकसान ही हुआ। शुरू में ही साफ कर देना बेहतर होता। इसे अटकल के रूप में चलने देने की गलती कांग्रेस ने की। इतना ही नहीं ममता बनर्जी, मायावती, अखिलेश यादव, अरविन्द केजरीवाल, के चंद्रशेखर राव और नवीन पटनायक के अंतर्विरोधी बयानों की वजह से भी  महागठबंधन की राजनीति को झटके लगे हैं। बीजेपी के विरोध में खड़ी की गई एकता में दरारें नजर आने लगी हैं। विरोधी दल कम के कम मोदी के खिलाफ अपना संयुक्त प्रत्याशी खड़ा करने में नाकाम रहे। चुनाव परिणाम जो भी हों, पर बीजेपी अपने गठबंधन की एकता को सुनिश्चित रखने का दावा कर सकती है।

Sunday, March 17, 2019

गठबंधन राजनीति का बिखराव!

http://epaper.haribhoomi.com/epaperimages/17032019/17032019-MD-RAI-4.PDF
बहुजन समाज पार्टी की सुप्रीमो मायावती ने कहा है कि कांग्रेस के साथ हम किसी भी राज्य में गठबंधन नहीं करेंगे। मायावती ने ही साथ नहीं छोड़ा, आंध्र प्रदेश में कांग्रेस और तेदेपा का गठबंधन टूट गया है। बीजेपी को हराने के लिए सामने आई ममता बनर्जी तक ने अपने बंगाल में कांग्रेस के साथ हाथ मिलाना उचित नहीं समझा। दिल्ली में कांग्रेसी झिड़कियाँ खाने के बावजूद अरविन्द केजरीवाल बार-बार चिरौरी कर रहे हैं। सम्भव है कि दिल्ली और हरियाणा में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी का गठबंधन हो जाए। इसकी वजह है कांग्रेस के भीतर से लगातार बाहर आ रहे विपरीत स्वर।

17वीं लोकसभा और चार राज्यों की विधानसभाओं के चुनावों की प्रक्रिया सोमवार 18 मार्च से शुरू हो रही है, पर अभी तक क्षितिज पर एनडीए और यूपीए के अलावा राष्ट्रीय स्तर पर कोई तीसरा चुनाव पूर्व मोर्चा या महागठबंधन नहीं है। जो भी होगा, चुनाव परिणाम आने के बाद होगा और फिर उसे मौके के हिसाब से सैद्धांतिक बाना पहना दिया जाएगा। यह भारतीय राजनीति में तीसरे मोर्चे का यथार्थ है। जैसा हमेशा होता था स्थानीय स्तर पर सीटों का बँटवारा हो जरूर रहा है, पर उसमें जबर्दस्त संशय है। टिकट कटने और बँटने के चक्कर में एक पार्टी छोड़कर दूसरी में जाने की दौड़ चल रही है।

Monday, January 14, 2019

बसपा-सपा ने क्यों की कांग्रेस से किनाराकशी?


http://inextepaper.jagran.com/1980169/Kanpur-Hindi-ePaper,-Kanpur-Hindi-Newspaper-InextLive/14-01-19#page/8/1
बसपा और सपा के गठबंधन की घोषणा करते हुए शनिवार को मायावती ने सिर उठाकर कहा कि कांग्रेस को शामिल न करने के बारे में आप कोई सवाल पूछें उससे पहले ही हम बता देते हैं कि देश की तमाम समस्याओं के लिए बीजेपी के साथ कांग्रेस भी जिम्मेदार है. यह भी कि कांग्रेस के साथ गठबंधन करने पर वोट ट्रांसफर भी नहीं होता. हमारा 1996 का और सपा का 2017 का यह अनुभव है. इस स्पष्टीकरण के बाद यह संशय कायम है कि ये दोनों दल कांग्रेस से दूरी क्यों बना रहे हैं?

किसी ने अखिलेश से पूछा कि क्या आप प्रधानमंत्री पद के लिए मायावती का समर्थन करेंगे? उन्होंने अपनी हामी भरी और मायावती मुस्कराईं. मायावती ने कहा कि यह गठबंधन 2019 के चुनाव से आगे जाएगा. कांग्रेस को शामिल करने से गठबंधन का वोट बढ़ता, पर फसल का बँटवारा होता. दोनों के हिस्से दस-दस सीटें कम पड़तीं. त्रिशंकु संसद बनने की स्थिति में उनकी मोल-भाव की ताकत कम हो जाती. दोनों को अपनी मिली-जुली ताकत का एहसास है. उनकी दिलचस्पी चुनावोत्तर परिदृश्य में है. कांग्रेस के साथ जाएंगे, तो उसके दबाव में रहना होगा. हमारी मदद से वह 15-20 सीटें ज्यादा ले जाएगी. ताकत उसकी बढ़ेगी, हमारी कम हो जाएगी.

Sunday, January 13, 2019

गठबंधन राजनीति के नए दौर का आग़ाज़


उत्तर प्रदेश में बसपा और सपा के गठबंधन की घोषणा के साथ सन 2019 की महागठबंधन राजनीति ने एक बड़ा मोड़ ले लिया है। इस सिलसिले में लखनऊ में हुए संवाददाता सम्मेलन की दो-तीन बातें गौर करने लायक हैं, जो गठबंधन राजनीति को लेकर कुछ बुनियादी सवाल खड़े करती हैं। इस संवाददाता सम्मेलन में मायावती ने कहा कि बीजेपी के साथ-साथ कांग्रेस भी तमाम खराबियों के लिए जिम्मेदार है। दूसरे यह कि जरूरत पड़ी तो अखिलेश यादव प्रधानमंत्री पद पर मायावती का समर्थन करेंगे। तीसरे इस गठबंधन में हालांकि कांग्रेस के लिए अमेठी और रायबरेली की सीटें छोड़ी गईं हैं, पर शेष दो सीटों के बारे में कुछ स्पष्ट नहीं है कि वे किसे दी जाएंगी। एक अनुमान है कि राष्ट्रीय लोकदल को ये सीटें दी जा सकती हैं, पर क्या वह इतनी सीटों से संतुष्ट होगा?

अगले लोकसभा चुनाव में यूपी, बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र के अलावा दक्षिण के पाँचों राज्यों में गठबंधन महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगे। ज्यादातर राज्यों में तस्वीर अभी तक साफ नहीं है। इस लिहाज से उत्तर प्रदेश पहला राज्य है, जहाँ गठबंधन की योजना सामने आई है। देखना यह है कि यह गठबंधन क्या के चंद्रशेखर राव द्वारा प्रस्तावित फेडरल फ्रंट का हिस्सा बनेगा, जिसे ममता बनर्जी और नवीन पटनायक का समर्थन हासिल है। सीटों की संख्या के लिहाज से यूपी में सबसे बड़ा मुकाबला है।

Wednesday, March 4, 2015

कश्मीर में 'घोड़े और घास' की यारी!

कई प्रकार की सामाजिक-राजनीतिक वर्जनाएं राजनीति तय करती है और फिर उनके उल्लंघन का रास्ता भी वही बताती है. सन 1996 में भाजपा इस राजनीति के लिए अछूत पार्टी थी, पर सन 2004 के चुनाव के ठीक पहले जिस तरह से अनेक उदारवादी प्रतिभाएं भाजपा में शामिल हो रहीं थीं उसे देखते हुए लगता था कि कांग्रेस का जमाना गया. पर उस चुनाव में भाजपा का गणित फेल हुआ और कांग्रेस का जमाना फिर से वापस आ गया. पर उस राजनीति में भी पेच था. श्रीमती सोनिया गांधी ने 'त्याग' करने का निश्चय किया और अपेक्षाकृत अनजाने व्यक्ति को देश का प्रधानमंत्री बना दिया. यह भी एक अजूबा था. दुनियाभर की राजनीति में ऐसे अजूबे होते रहते हैं. सन 1947 के पहले कौन कह सकता था कि भारत की संसदीय प्रणाली में कम्युनिस्ट पार्टियों की भूमिका होगी. वे तो संसदीय प्रणाली के खिलाफ थीं. पर 1957 में केरल में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार चुनाव जीतकर बनी तो यह अजूबा था. दो साल बाद वह सरकार बर्खास्त की गई तो वह भी अजूबा था. जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और भाजपा की सरकार बनना भी अजब लगता है, पर यह चुनाव परिणामों की तार्किक परिणति है. वहाँ की जो परिस्थितियाँ हैं उन्हें देखते हुए भविष्य में भी ऐसी सरकारें ही बनेंगी. कम से कम तब तक बनेंगी जब तक कोई अकेली ऐसी पार्टी सामने न आए जो जम्मू और घाटी दोनों जगह समान रूप से लोकप्रिय हो. हो सकता है ऐसा भी कभी हो, पर वर्तमान स्थितियों में जो हुआ है वह कुछ लोगों को अजूबा भले लगे, पर अपरिहार्य था. 

जम्मू-कश्मीर में पीडीपी और भाजपा गठबंधन घोड़े और घास की दोस्ती जैसा लगता है. जम्मू के लोगों को लगता है कि घाटी वाले इसे कबूल नहीं करेंगे और घाटी वालों को लगता है कि यह सब तमाशा है. मुख्यमंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के बयान के बाद विघ्नसंतोषी बोले हम कहते थे न कि सब कुछ ठीक-ठाक चलने वाला नहीं है. पाकिस्तान और हुर्रियत की सकारात्मक भूमिका का जिक्र चल ही रहा था कि अफजल गुरु के अवशेषों की माँग सामने आ गई. मुफ्ती के बयान की गूँज संसद में भी सुनाई पड़ी है. गठबंधन के विरोधी तो मुखर हैं ही भाजपा के कार्यकर्ता भी उतर आए हैं. लगता है सरकार बस अब गई.

Saturday, December 21, 2013

कांग्रेस अब गठबंधन की तलाश में

चार राज्यों के विधानसभा चुनाव में भारी पराजय के बाद कांग्रेस ने 17 जनवरी को दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस समिति की बैठक बुलाई है, जिसमें लोकसभा चुनावों की रणनीति तैयार की जाएगी। संभावना इस बात की है कि उस बैठक में राहुल गांधी को औपचारिक रूप से प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी भी घोषित कर दिया जाए। पर पार्टी के विचारकों के सामने सबसे बड़ा संकट अलग-अलग राज्यों का गणित है। लोकपाल विधेयक को पास कराने की जल्दबाज़ी और इस मामले में भी राहुल गांधी की पैराट्रुपर राजनीति का मतलब यही है कि पार्टी को संजीवनी चाहिए। एआईसीसी की पिछली बैठक इस साल जनवरी में जयपुर चिंतन शिविर के साथ हुई थी। इस बैठक की घोषणा जिस दिन की गई उसके एक दिन पहले डीएमके के नेता करुणानिधि ने अगले लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ गठबंधन नहीं करने का ऐलान किया है।

Sunday, August 18, 2013

सत्ता-केन्द्र कांग्रेस-भाजपा ही रहेंगे

हमारे देश में चुनाव पूर्व सर्वेक्षण तमाम कारणों से विश्वसनीय नहीं होते। फिर भी वे सच के करीब होते हैं। सर्वेक्षणों के संचालक अक्सर अपने दृष्टिकोण आरोपित करते हैं। फिर भी धीरे-धीरे यह राय बन रही है कि सन 2014 के चुनाव परिणामों कैसे होंगे। मोटा निष्कर्ष है कि न तो यूपीए को और न एनडीए को कोई खास फायदा होगा। शायद क्षेत्रीय दलों को कुछ लाभ हो। वह भी कितना और कैसा होगा इसे लेकर भ्रम है। इस साल जनवरी में हुए इंडिया टुडे-नील्सन और एबीपी न्यूज-नील्सन के 'मूड ऑफ द नेशन' सर्वे के अनुसार देश में आज चुनाव हों तो भाजपा की अगुआई वाला एनडीए कांग्रेस के नेतृत्व में सत्तारूढ़ यूपीए-2 पर भारी पड़ेगा। फिर मई में कुछ सर्वेक्षणों से यह बात उभर कर आई कि कांग्रेस हार जाएगी। मतलब नहीं कि भाजपा जीत जाएगी। मतलब सिर्फ इतना है कि जनता आज के हालात से नाराज़ है।

Monday, April 1, 2013

विचार और सिद्धांत की अनदेखी करती राजनीति

पिछले बुधवार को तमिलनाडु विधानसभा ने एक प्रस्ताव पास करके माँग की कि केंद्र सरकार श्रीलंका के साथ मित्र राष्ट्र जैसा व्यवहार बंद करे। इसके पहले यूपीए-2 को समर्थन दे रही पार्टी डीएमके ने केन्द्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया। तमिलनाडु में श्रीलंका को लेकर पिछले तीन दशक से उबाल है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि श्रीलंका के खिलाड़ी वहाँ खेल न पाए हों। या भारतीय टीम के तमिल खिलाड़ियों को श्रीलंका में कोई परेशानी हुई हो। पर तमिलनाडु में अब श्रीलंका के पर्यटकों का ही नहीं खिलाड़ियों का प्रवेश भी मुश्किल हो गया है। मुख्यमंत्री जयललिता ने हाल में श्रीलंकाई एथलीटों का राज्य में प्रवेश रोक दिय़ा। पिछले साल सितम्बर में उन्होंने श्रीलंकाई छात्रों को चेन्नई में दोस्ताना फुटबाल मैच खेलने की अनुमति नहीं दी थी। और अब आईपीएल के मैचों में श्रीलंका के खिलाड़ी चेन्नई में खेले जा रहे मैचों में नहीं खेल पाएंगे। दूसरी ओर जब तक ममता बनर्जी की पार्टी यूपीए में शामिल थी केन्द्र सरकार की नीतियों को लागू कर पाना मुश्किल हो गया था। खासतौर से विदेश नीति के मामले में ममता ने भी उसी तरह के अड़ंगे लगाने शुरू कर दिए थे जैसे आज तमिलनाडु की राजनीति लगा रही है। ममता बनर्जी ने पहले तीस्ता पर, फिर एफडीआई, फिर रेलमंत्री, फिर एनसीटीसी और फिर राष्ट्रपति प्रत्याशी पर हठी रुख अख्तियार करके कांग्रेस को ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया था, जहाँ से पीछे हटने का रास्ता नहीं बचा था। और अंततः दोस्ती खत्म हो गई।

Tuesday, March 26, 2013

राजनीति में साल भर चलती है होली


पिछला हफ्ता राजनीतिक तूफानों का था तो अगला हफ्ता होली का होगा। संसद के बजट सत्र का इंटरवल चल है। अब 22 अप्रेल को फिर शुरू होगा, जो 10 मई तक चलेगा। पिछले हफ्ते डीएमके, समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के बीच के रिश्तों ने अचानक मोड़ ले लिया। किसी की मंशा सरकार गिराने की नहीं है, पर लगता है कि अंत का प्रारम्भ हो गया है। किसी को किसी के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाने की ज़रूरत नहीं है। शायद सरकार खुद ही तकरीबन छह महीने पहले चुनाव कराने का प्रस्ताव लेकर आए। पर उसके पहले कुछ बातें साफ हो जाएंगी। एक तो यह कि उदारीकरण के जुड़े कानून संसद के शेष दिनों में पास करा दिए जाएंगे और दूसरे चुनाव पूर्व के गठबंधन भले ही तय न हो पाएं, चुनावोत्तर गठबंधनों की सम्भावनाओं पर गहरा विमर्श हो जाएगा।

Friday, January 20, 2012

नए गठबंधनों को जन्म देगा उत्तर प्रदेश


पिछले साल का राजनीतिक समापन राज्यसभा में लोकपाल बिल को लेकर पैदा हुए गतिरोध के साथ हुआ था। वह गतिरोध जारी है। यूपीए के महत्वपूर्ण सहयोगी तृणमूल कांग्रेस के साथ शुरू हुआ टकराव अनायास नहीं था। और यह टकराव लगातार बढ़ रहा है। आने वाले वक्त की राजनीति और नए बनते-बिगड़ते समीकरणों की आहट सुनाई पड़ने लगी थी। पाँच राज्यों के चुनाव के शोर में ये आहटें नेपथ्य में चली गईं है। पर लगता है कि इस साल राष्ट्रीय राजनीति में कुछ बड़े फेरबदल होंगे, जो 2014 के लोकसभा चुनाव में उतरने वाले गठबंधनों को नई शक्ल देंगे।

इस साल राज्यसभा के द्विवार्षिक चुनाव होंगे, उसके बाद जून में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव होना है। भाजपा अध्यक्ष पद पर नितिन गडकरी का कार्यकाल भी इस साल के अंत में पूरा हो जाएगा। और यदि कांग्रेस लोकसभा चुनाव में किसी नए नेतृत्व के साथ उतरना चाहती है तो शायद प्रधानमंत्री पद पर बदलाव भी हो। इन सारे बदलावों का एक-दूसरे से कोई रिश्ता नहीं, पर इनका मिला-जुला असर देश की राजनीति और व्यवस्था पर पड़े बगैर नहीं रहेगा।