Showing posts with label चुनाव-2022. Show all posts
Showing posts with label चुनाव-2022. Show all posts

Sunday, December 11, 2022

चुनाव परिणामों में छिपे हैं 2024 के संकेत


गुजरात, हिमाचल प्रदेश विधानसभा और दिल्ली नगर महापालिका के चुनाव परिणामों ने इसमें शामिल तीन पार्टियों को किसी न किसी रूप में दिलासा दी है, पर फौरी तौर पर इनका राष्ट्रीय राजनीति पर कोई बड़ा प्रभाव पड़ने वाला नहीं है। फिर भी कुछ संकेत खोजे जा सकते हैं। इन चुनावों के साथ तीन सवाल जुड़े थे। पहला यह कि नरेंद्र मोदी का जादू कितना बरकरार है। दूसरे, क्या कांग्रेस फिर से अपने पैरों पर खड़े होने की स्थिति में है? और तीसरे क्या केजरीवाल राष्ट्रीय स्तर पर मोदी के मुकाबले विरोधी दलों के नेता बनकर उभरेंगे? बेशक बीजेपी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी तीनों ने किसी न किसी रूप में अपनी सफलता का दावा किया है, पर बीजेपी और आम आदमी पार्टी की सफलताएं कांग्रेस की तुलना में भारी हैं। वोट प्रतिशत को देखें, तो सबसे सफल पार्टी बीजेपी रही है और उसके बाद आम आदमी पार्टी। कुल राजनीति के लिहाज से देखें, तो कुछ दीर्घकालीन सवाल बनते हैं कि बीजेपी कब तक मोदी के मैजिक के सहारे चलेगी? पार्टी ने उत्तराधिकार की क्या व्यवस्था की है? भारतीय राजनीति में नेता का महत्व क्या हमेशा रहेगा? पार्टी संगठन, वैचारिक आधार और कार्यक्रमों का क्यों महत्व नहीं?  

मोदी का जादू

हिमाचल में पराजय के बावजूद गुजरात में बीजेपी की जीत ने मोदी के जादू की पुष्टि की है। फिलहाल राष्ट्रीय राजनीति में ऐसा कोई चेहरा नहीं है, जो उनका मुकाबला कर सके। गुजरात का चुनाव परिणाम आने के बाद बीजेपी कार्यकर्ताओं और आम जनता को संबोधित करते हुए नरेंद्र मोदी ने कहा, युवा भाजपा की विकास की राजनीति चाहते हैं। वे न जातिवाद के बहकावे में आते हैं न परिवारवाद के। युवाओं का दिल सिर्फ़ विज़न और विकास से जीता जा सकता है।… मैं बड़े-बड़े एक्सपर्ट को  याद दिलाना चाहता हूं कि गुजरात के इस चुनाव में भाजपा का आह्वान था विकसित गुजरात से विकसित भारत का निर्माण। यह वक्तव्य  2024 के चुनाव का प्रस्थान-बिंदु है। इस साल उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणाम आने के फौरन बाद नरेंद्र मोदी ने गुजरात की रुख किया था। उनकी विशेषता है एक जीत से दूसरे रणक्षेत्र की ओर देखना।

ऐतिहासिक जीत

गुजरात में लगातार सातवीं बार बीजेपी सत्ता में आई है, और रिकॉर्डतोड़ विजय के साथ आई है। इससे पहले 1985 में माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 149 सीटें जीती थीं। बीजेपी का सबसे अच्छा प्रदर्शन 2002 में 127 सीटों का था। उसने जिस तरह से एंटी-इनकंबैंसी की परिभाषा को बदला है, वह विस्मयकारी है। उसका मत प्रतिशत बढ़ कर 52.5 फीसदी हो गया है। राज्यसभा में गुजरात से बीजेपी के आठ और कांग्रेस के तीन सांसद हैं। अब इस जीत से 2026 के मध्य तक यहां की सभी 11 राज्यसभा सीटें इसके खाते में होंगी। अप्रैल 2024 में दो सीटों पर बीजेपी अपने और उम्मीदवार भेज सकेगी, वहीं जून 2026 में आख़िरी बची तीसरी सीट पर भी उसके प्रतिनिधि राज्यसभा में होंगे। यह जीत विजेता के रूप में मोदी की पहचान को और मज़बूत करेगी।

मत-प्रतिशत में सुधार

एमसीडी में भाजपा की पराजय हुई है, पर उसका मत प्रतिशत सुधरा है। उसे इस बार 39.09 फीसदी वोट मिले हैं, जबकि 2017 में 36.08 प्रतिशत मिले थे। इस चुनाव से आंशिक निष्कर्ष ही निकाले जा सकते हैं। नगरपालिका के काफी मसले स्थानीय होते हैं। लोकसभा चुनाव के मसले राष्ट्रीय होते हैं। यह बात हम 2014 और 2015 के लोकसभा और 2015 और 2020 के दिल्ली विधानसभा चुनावों में देख चुके हैं। दिल्ली विधानसभा और दिल्ली से लोकसभा सदस्यों की संरचना को देखें, तो अभी तक कहानी एकदम उलट है। 2024 की बातें तभी की जा सकेंगी, पर एक बात स्पष्ट है कि दिल्ली नगरपालिका और विधानसभा में बीजेपी के कोर-वोटर का प्रतिशत बढ़ा है। एमसीडी के चुनाव में फीका मत-प्रतिशत बता रहा है कि बीजेपी के कोर-वोटर की दिलचस्पी स्थानीय मसलों में उतनी नहीं है, जितनी आम आदमी पार्टी के वोटर की है। बीजेपी ने गुजरात और दिल्ली में अपना मत-प्रतिशत बढ़ाया है। हिमाचल में उसका मत प्रतिशत कम हुआ है, पर इस चुनाव में भी वह कांग्रेस के एकदम करीब रही है। भाजपा और कांग्रेस दोनों का मत-प्रतिशत करीब-करीब बराबर है। हिमाचल की परंपरा है कि वहाँ सत्ताधारी दल की वापसी नहीं होती है। बीजेपी की आंतरिक फूट का भी इसमें योगदान रहा होगा। कांग्रेस की जीत का आं​शिक श्रेय पुरानी पेंशन योजना को वापस लाने के वादे को भी दिया जा सकता है। हिमाचल में यह बड़ा मुद्दा था।

Sunday, March 13, 2022

‘फूल-झाड़ू’ की सफलता के निहितार्थ


घरों की सफाई में काम आने वाली ‘फूल-झाड़ू’ राजनीतिक रूपक बनकर उभरी है। पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों से तीन बातें दिखाई पड़ रही हैं। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह असाधारण विजय है, जिसकी उम्मीद उसके बहुत से समर्थकों को नहीं थी। वहीं, कांग्रेस की यह असाधारण पराजय है, जिसकी उम्मीद उसके नेतृत्व ने नहीं की होगी। तीसरे, पंजाब में आम आदमी पार्टी की असाधारण सफलता ने ध्यान खींचा है। चार राज्यों में भाजपा की असाधारण सफलता साल के अंत में होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों को भी प्रभावित और अंततः 2024 के लोकसभा चुनाव को भी। इस परिणाम को मध्यावधि राष्ट्रीय जनादेश माना जा सकता है, खासतौर से उत्तर प्रदेश में। पंजाब में आम आदमी पार्टी के पक्ष में आए इतने बड़े जनादेश के कारण राष्ट्रीय राजनीति में उसकी भूमिका बढ़ेगी। वहीं पुराने राजनीतिक दलों से निराश जनता के सामने उपलब्ध विकल्पों का सवाल खड़ा हुआ है। पंजाब में तमाम दिग्गजों की हार की अनदेखी नहीं की जा सकती। पर आम आदमी पार्टी अपेक्षाकृत नई पार्टी है। क्या वह पंजाब के जटिल प्रश्नों का जवाब दे पाएगी

उत्तर प्रदेश का ध्रुवीकरण

हालांकि पार्टी को चार राज्यों में सफलता मिली है, पर उत्तर प्रदेश की सफलता इन सब पर भारी है। उत्तर प्रदेश से लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं, जो कई राज्यों की कुल सीटों से भी ज्यादा बैठती हैं। उसे यह जीत तब मिली है, जब भाजपा-विरोधी राजनीति ने पूरी तरह कमर कस रखी थी। उसकी विफलता, बीजेपी की सफलता है। महामारी की तीन लहरों, शाहीनबाग की तर्ज पर उत्तर प्रदेश के शहरों में चले नागरिकता-कानून विरोधी आंदोलन, किसान आंदोलन, लखीमपुर-हिंसा और आर्थिक-कठिनाइयों से जुड़ी नकारात्मकता के बावजूद योगी आदित्यनाथ सरकार को लगातार दूसरी बार फिर से गद्दी पर बैठाने का फैसला वोटर ने किया है। पिछले तीन-चार दशक में ऐसा पहली बार हुआ है। बीजेपी को मिली सीटों की संख्या में पिछली बार की तुलना में करीब 50 की कमी आई है। बावजूद इसके कि वोट प्रतिशत बढ़ा है। 2017 में भाजपा को जो वोट प्रतिशत 39.67 था, वह इसबार 41.3 है। समाजवादी पार्टी का वोट प्रतिशत भी बढ़ा है। उसे 32.1 प्रतिशत वोट मिले हैं, जो 2017 में 21.82 प्रतिशत थे। यह उसके राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है। इसकी कीमत बीएसपी और कांग्रेस ने दी है। कांग्रेस का वोट प्रतिशत इस चुनाव में 2.33 प्रतिशत है, जो 2017 में 6.25 प्रतिशत था। बसपा का वोट प्रतिशत इस चुनाव में 12.8 है, जो 2017 में 22 से ज्यादा था। राष्ट्रीय लोकदल का प्रतिशत 3.36 प्रतिशत है, जो 2017 में 1.78 प्रतिशत था। ध्रुवीकरण का लाभ सपा+ को मिला जरूर, पर वह इतना नहीं है कि उसे बहुमत दिला सके।

पंजाब का गुस्सा

उत्तर प्रदेश के अलावा उत्तराखंड में भी बीजेपी को लगातार दूसरी बार सफलता मिली है, जो इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि यहाँ सीधे दो दलों के बीच मुकाबला होता है। इसे कांग्रेस के पराभव के रूप में भी देखना होगा, क्योंकि पिछले साल केरल में वाम मोर्चा ने कांग्रेस को हराकर लगातार दूसरी बार जीत हासिल की थी। इसी क्रम में पंजाब, मणिपुर और गोवा में कांग्रेस की पराजय को देखना चाहिए, जहाँ वह या तो सत्ताच्युत हुई है या उसने सबसे बड़े दल की हैसियत को खोया है। आम आदमी पार्टी ने पंजाब की 117 सीटों में से 92 पर जीत हासिल की है। कांग्रेस 18 सीट के साथ दूसरे स्थान पर रही। मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी दो सीटों से लड़े थे। दोनों में हार गए। उनके प्रतिस्पर्धी नवजोत सिंह सिद्धू भी हार गए। वहीं पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, अमरिंदर सिंह और राजिंदर कौर भट्टल को भी हार का सामना करना पड़ा। लगता है कि पंजाब की जनता परम्परागत राजनीति को फिर से देखना नहीं चाहती। आम आदमी पार्टी नई पार्टी है। फिलहाल उसकी स्लेट साफ है, पर अब उसकी परख होगी। 

Friday, March 11, 2022

राजनीतिक-व्यवहार के सामाजिक-संदेशों को पढ़िए


चुनाव परिणामों से दो निष्कर्ष आसानी से निकाले जा सकते हैं। भारतीय जनता पार्टी के लिए यह असाधारण विजय है, जिसकी उम्मीद उसके बहुत से समर्थकों को नहीं रही होगी। साथ ही कांग्रेस की यह असाधारण पराजय है, जिसकी उम्मीद उसके नेतृत्व ने नहीं की होगी। भारतीय जनता पार्टी को चार राज्यों में मिली असाधारण सफलता इस साल होने वाले गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों को भी प्रभावित करेगी। उत्तर प्रदेश के परिणाम को मध्यावधि राष्ट्रीय जनादेश माना जा सकता है। पंजाब में भारतीय जनता पार्टी का न तो कोई बड़ा दावा था और किसी ने उससे बड़े प्रदर्शन की अपेक्षा भी नहीं की थी। अब सवाल कांग्रेस के भविष्य का है। उसके शासित राज्यों की सूची में एक राज्य और कम हुआ। इन परिणामों में भाजपा-विरोधी राजनीति या महागठबंधन के सूत्रधारों के विचार के लिए कुछ सूत्र भी हैं। 

उत्तर प्रदेश का ध्रुवीकरण

हालांकि पार्टी को चार राज्यों में सफलता मिली है, पर उत्तर प्रदेश की अकेली सफलता इन सब पर भारी है। देश का सबसे बड़ा राज्य होने के कारण इस राज्य का महत्व है। माना जाता है कि दिल्ली की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है। उत्तर प्रदेश से लोकसभा की कुल 80 सीटें हैं, जो कई राज्यों की कुल सीटों से भी ज्यादा बैठती हैं। इसी वजह से भाजपा-विरोधी राजनीति ने इसबार पूरी तरह कमर कस रखी थी। उसकी विफलता, बीजेपी की सफलता है।

भारतीय और विदेशी-मीडिया और विदेशी-विश्वविद्यालयों से जुड़े अध्येताओं का एक बड़ा तबका महीनों पहले से घोषणा कर रहा था, अबकी बार अखिलेश सरकार। अब लगता है कि यह विश्लेषण नहीं, मनोकामना थी। बेशक जमीन पर तमाम परिस्थितियाँ ऐसी थीं, जिनसे एंटी-इनकम्बैंसी सिद्ध हो सकती है, पर भारतीय राजनीति का यह दौर कुछ और भी बता रहा है। आप इसे साम्प्रदायिकता कहें, फासिज्म, हिन्दू-राष्ट्रवाद या सांस्कृतिक-भावनाएं, पिछले 75 वर्ष की राजनीतिक-दिशा पर गहराई से विचार करने की जरूरत है। केवल हिन्दू-राष्ट्रवादी दृष्टिकोण को ही नहीं मुस्लिम-दृष्टिकोण और कथित प्रगतिशील-वामपंथी दृष्टिकोण पर नजर डालने की जरूरत है।

इस चुनाव के ठीक पहले कर्नाटक के हिजाब-विवाद के पीछे भारतीय जनता पार्टी की रणनीति सम्भव है, पर जिस तरह से देश के प्रगतिशील-वर्ग ने हिजाब का समर्थन किया, उससे उसके अंतर्विरोध सामने आए। प्रगतिशीलता यदि हिन्दू और मुस्लिम समाज के कोर में नहीं होगी, तब उसका कोई मतलब नहीं है।

इन परिणामों के राजनीतिक संदेशों क पढ़ने के लिए मतदान के रुझान, वोट प्रतिशत और अलग-अलग चुनाव-क्षेत्रों की प्रवृत्तियों का विश्लेषण करना होगा। खासतौर से उत्तर प्रदेश में, जहाँ जातीय और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण से जुड़े कुछ जटिल सवालों का जवाब इस चुनाव में मिला है। इसके लिए हमें चुनाव के बाद विश्लेषणों के लिए समय देना होगा।

Sunday, February 20, 2022

लोकतांत्रिक-महोत्सव बनाम चुनावी-हथकंडे


पाँच राज्यों के चुनाव अंतिम दौर में हैं। पिछले 75 वर्ष में राजनीति हमारी राष्ट्रीय संस्कृति बन चुकी है और चुनाव उसके महोत्सव। स्वतंत्र चुनाव-व्यवस्था हमारी उल्लेखनीय उपलब्धि है, पर
चुनावी हथकंडेइस उपलब्धि पर पानी फेरते हैं। हाल में सुप्रीमकोर्ट में याचिका दायर करके अनुरोध किया गया है कि निर्वाचन आयोग को उन दलों का पंजीकरण रद्द करने का निर्देश दें, जो चुनाव के पहले सार्वजनिक धन से, विवेकहीन तोहफे देने का वायदा करते हैं या बाँटते हैं। याचिका में कहा गया है कि वोट पाने के लिए के लिए इस तरह के तोहफों पर पूरी तरह पाबंदी लगनी चाहिए।

वायदों की बौछार

इन चुनावों से पहले घोषणापत्रों और चुनाव सभाओं में लोकलुभावन तोहफों के वायदों की भरमार है। कोई 300 यूनिट बिजली मुफ्त में दे रहा है और कोई 400 यूनिट, युवाओं को लैपटॉप से लेकर स्कूटी तक देने के वायदे हैं। किसानों को कर्जे माफ करने की घोषणाएं हैं, तमिलनाडु में जैसी अम्मा कैंटीनें खुली थीं, वैसी ही सस्ते भोजन की कैंटीनें और सस्ते किराना स्टोर खोलने का वायदा है। कोई पाँच लाख नए रोजगार देने का वायदा कर रहा है, तो दूसरा बीस लाख। रोजगार के अलावा, बेरोजगारी भत्ता, पेंशन योजना, कन्याधन, बसों में मुफ्त यात्रा जैसे वायदे हैं। एक नेता ने कहा कि हमारी सरकार आई, तो मोटर साइकिल पर तीन सवारी ले जाने वालों का चालान नहीं होगा।

सस्ता अनाज

वायदों के व्यावहारिक-पक्ष पर कोई ध्यान नहीं देता। द्रमुक के संस्थापक सीएन अन्नादुरै ने 1967 में वायदा किया था कि 1 रुपये में साढ़े चार किलो चावल दिया जाएगा। वे अपने वायदे से मुकर गए, क्योंकि उन्हें समझ में आ गया कि इससे राज्य पर भारी बोझ पड़ेगा। नब्बे के दशक में आंध्र में एनटी रामाराव ने दो रुपए किलो चावल देने का वादा किया। वे जीत गए, पर चुनाव के बाद वहाँ आठ रुपए किलो चावल बिका, पर दक्षिण भारत में तोहफों की राजनीति का एक नया दरवाजा खुल चुका था। सस्ते अनाज के वायदे के पीछे जन-कल्याण की भावना समझ में आती है, पर वायदों का पिटारा खुला तो खुलता ही चला गया।

रंगीन टीवी

सन 2006 में द्रमुक के एम करुणानिधि ने रंगीन टीवी देने का वायदा किया और चुनाव जीता। इसे लेकर सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य मामला हाईकोर्ट से होता हुआ सुप्रीम कोर्ट तक आया था, जिसपर 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि चुनावी घोषणा पत्र में किए वायदों को भ्रष्ट-आचरण नहीं माना जा सकता। तमिलनाडु में लैपटॉप, गैस के चूल्हे और टीवी से लेकर मंगलसूत्र तक देने के वायदे चुनाव में होते हैं। लड़कियों की शादी के समय रुपये दिए जाते हैं। चुनावी वायदे भ्रष्ट आचरण हैं या नहीं, यह विषय एक अरसे से चर्चा का विषय है। अब इसे एकबार फिर से सुप्रीम कोर्ट में उठाया गया है। पिछले साल किसी दूसरे विषय पर जनहित याचिका पर विचार करते हुए मद्रास हाईकोर्ट ने टिप्पणी की थी कि मुफ्त की चीजों ने तमिलनाडु के लोगों को आलसी बना दिया है।

पद और मर्यादा

इस चुनाव के दौरान और उसके पहले भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अपने पद पर रहते हुए राजनीतिक बयान देने के आरोप लगे हैं। संसद के बजट अधिवेशन में राष्ट्रपति के अभिभाषण पर बहस का जवाब देते हुए प्रधानमंत्री ने संसद के दोनों सदनों में कांग्रेस और नेहरू का नाम कई बार लिया। इसपर कांग्रेस पार्टी की ओर से कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की गई। राज्यसभा में तो उनके बोलने के बाद कांग्रेस सांसदों ने वॉकआउट कर दिया। विधानसभा चुनाव करीब होने के कारण इस वक्तव्य के राजनीतिक निहितार्थ स्पष्ट हैं। पर क्या संसदीय-कर्म को राजनीति से अलग किया जा सकता है? राजनीतिक-कर्म की मर्यादा रेखा होनी चाहिए, पर उसे तय कौन करेगा? राजनीति संसद से सड़क तक जाती है, पर संसद और सड़क के वक्तव्य एक जैसे नहीं हो सकते।

Tuesday, January 4, 2022

उत्तर प्रदेश में चुनावी सफलता का सूत्र है सांप्रदायिक ध्रुवीकरण

सीएसडीएस के प्रोफेसर संजय कुमार के अनुसार उत्तर प्रदेश के चुनाव में धर्म की महत्वपूर्ण भूमिका होगी। आज के मिंट में प्रकाशित उनकी रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में सांप्रदायिक ध्रुवीकरण राजनीतिक फसल काटने का अच्छा जरिया है। एक पार्टी हिंदू वोट को हथियाने का प्रयास करती है तो दूसरी पार्टी मुसलमानों के वोटर को लुभाती है। राज्य में मुस्लिम आबादी 19.3 फीसदी है।

हालांकि मुस्लिम आबादी प्रदेश के सभी हिस्सों में उपस्थित है, पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश और रूहेलखंड में उसकी उपस्थिति सबसे अच्छी है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश की 32 फीसदी और रूहेलखंड की 35 फीसदी आबादी मुसलमानों की है। राज्य की कुल 403 सीटों में से 30 सीटें ऐसी हैं, जहाँ 40 फीसदी से ज्यादा मुस्लिम आबादी है। इसके बाद 43 सीटें ऐसी हैं, जहाँ 30-40 फीसदी आबादी मुस्लिम है।

बीजेपी की दिलचस्पी बहुसंख्यक हिंदू वोटर को अपनी तरफ खींचने की होती है, तो समाजवादी पार्टी की दिलचस्पी मुस्लिम वोट को हासिल करने की होती है। पार्टी की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि मुसलमान किसका साथ देते हैं।

सीएसडीएस के चुनाव बाद के सर्वेक्षणों से प्राप्त डेटा का अध्ययन करने से निष्कर्ष प्राप्त हुआ कि 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में और 2017 के विधानसभा चुनाव में हिंदुओं के कुल वोटों में से आधे भारतीय जनता पार्टी के खाते में गए। जिन सीटों पर बीजेपी की हार हुई, उनमें भी हिंदुओं के वोट भारी संख्या में बीजेपी को मिले।

इसके विपरीत समाजवादी पार्टी को मुस्लिम वोट बड़ी संख्या में मिले। जिन क्षेत्रों में मुसलमानों के वोट कांग्रेस, बसपा और सपा के बीच बँटे, वहाँ भी सपा को सबसे ज्यादा मुस्लिम वोट मिले। 2019 के लोकसभा चुनाव में करीब मुस्लिम वोटरों ने सपा का साथ दिया, फिर भी पार्टी को भारी अंतर से पराजय का सामना करना पड़ा।

ध्रुवीकरण मददगार

एक बात यह भी स्पष्ट हुई है कि जो पार्टियाँ मुस्लिम वोटों के सहारे हैं, वे भी हिंदू वोटों की अनदेखी नहीं कर सकती हैं। सन 2017 के चुनाव में बीजेपी ने उन सब सीटों पर सफलता हासिल की, जहाँ मुसलमान 30 से 40 फीसदी हैं। बीजेपी के पक्ष में हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के कारण दूसरी पार्टियाँ केवल मुस्लिम वोट के सहारे जीत नहीं सकतीं। जिन क्षेत्रों में मुसलमान 40 फीसदी से ज्यादा है, वहाँ बीजेपी नहीं जीत सकती। 2017 में जहाँ बीजेपी ने राज्य में भारी बहुमत हासिल किया, वहीं जिन क्षेत्रों में मुस्लिम आबादी 40 फीसदी से ज्यादा है, वहाँ सपा को जीत मिली। बीजेपी ऐसी 60 फीसदी सीटों पर हारी।

स्विंग वोटर

जबर्दस्त सांप्रदायिक अभियान ऐसे वोटरों को अपनी तरफ खींचने में कामयाब होता है, जो मतदान के एक-दो दिन पहले फैसला करते हैं। स्विंग वोटर किसी पार्टी के वफादार नहीं होते, और वे प्रत्याशी या मुद्दों पर वोट देते हैं। आमतौर पर वे उसे वोट देते हैं, जिसकी जीत नजर आ रही हो। सीएसडीएस सर्वे के अनुसार उत्तर प्रदेश में करीब 25 फीसदी स्विंग वोटर हैं।

2014 के लोकसभा चुनाव में 41 फीसदी स्विंग वोटरों ने ऐसे प्रत्याशी को वोट दिया, जो उनकी निगाह में जीतता नजर आ रहा था, जबकि 8 फीसदी ने यह जानते हुए भी वोट दिया कि पार्टी हार जाएगी। जीतने वाली पार्टी के पक्ष में स्विंग मुसलमानों के बीच ज्यादा है। सर्वेक्षण के दौरान आधे से ज्यादा वोटरों ने कहा कि उन्होंने उस प्रत्याशी को वोट दिया, जो हमें लगा कि जीत जाएगा। सांप्रदायिक अभियान का एक उद्देश्य स्विंग वोटर को अपने साथ लाना भी होता है।

 

Saturday, October 9, 2021

एबीपी- सी-वोटर चुनाव-पूर्व सर्वे


एबीपी ने शुक्रवार की शाम उत्तर प्रदेश, पंजाब और गोवा समेत पांच चुनावी राज्यों की सम्भावनाओं पर सी-वोटर के सर्वेक्षण को प्रसारित किया। सर्वेक्षण के अनुसार यूपी चुनाव में सबसे ज्यादा सीटों के साथ बीजेपी फिर सरकार बना सकती है। सी-वोटर का दावा है कि इस सर्वे में 98 हजार से ज्यादा लोगों ने हिस्सा लिया। सर्वे 4 सितंबर  से 4 अक्तूबर के बीच किया गया। इसमें मार्जिन ऑफ एरर प्लस माइनस तीन से प्लस माइनस पांच फीसदी है।

सर्वेक्षण के अनुसार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी के खाते में 241 से 249 सीटें जा सकती है। समाजवादी पार्टी के हिस्से में 130 से 138 सीटें आएंगी, बीएसपी 15 से 19 के बीच और कांग्रेस 3 से 7 सीटों के बीच सिमट सकती है।  सर्वे के मुताबिक, उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में बीजेपी को 41 फीसदी, समाजवादी पार्टी को 32 फीसदी, बहुजन समाज पार्टी को 15 फीसदी, कांग्रेस को 6 फीसदी और अन्य के खाते में 6 फीसदी वोट जा सकते हैं।

माहौल बनाने की कोशिश

इस सर्वेक्षण के आधार पर उत्तर प्रदेश से जुड़े नतीजों को जब मैंने फेसबुक पर डाला, तो तीन तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आईं। कुछ लोगों ने इसे सही बताया और कहा कि बीजेपी इससे भी बेहतर प्रदर्शन करेगी। इसके विपरीत कुछ लोगों का कहना था कि जैसा बंगाल में हुआ बीजेपी बुरी तरह हारेगी। आमतौर पर ऐसा होता भी है।

कुछ लोगों का कहना था कि गोदी मीडिया की तरफ से यह सर्वे बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने के लिए है। एक ने लिखा कि यह सर्वे सी-वोटर ने किया है, इससे आप खुद निष्कर्ष निकाल लीजिए। यह सच है कि सी-वोटर के संचालक यशवंत देशमुख का परिवार अर्से से बीजेपी के साथ जुड़ा रहा है, पर हाल में बंगाल में हुए चुनाव के पहले हुए सर्वे में सी-वोटर उन कुछ सर्वेक्षकों में शामिल था, जो तृणमूल की विजय सुनिश्चित कर रहे थे। जबकि काफी सर्वे बीजेपी को जिता रहे थे।

सी-वोटर ने बंगाल के चुनाव में टाइम्स नाउ के लिए चुनाव-पूर्व सर्वे और एबीपी के लिए एग्जिट पोल किया था। बहरहाल चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों और एग्जिट पोल की साख हमारे देश में काफी कम है। एग्जिट पोल को कुछ हद तक मान भी लिया जाता है, पर चुनाव-पूर्व सर्वेक्षणों पर कोई विश्वास नहीं करता। बहरहाल उत्तर प्रदेश को लेकर कई तरह के कयास हैं। चुनाव अभी चार-पाँच महीने दूर हैं, इसलिए कोई निर्णायक बात अभी नहीं कही जा सकती है। इस सर्वेक्षण के नतीजों को याद रखा जाना चाहिए, और परिणाम आने के बाद मिलान करना चाहिए।

एबीपी की साख

एबीपी चैनल कोलकाता के आनन्द बाजार पत्रिका समूह से जुड़ा है, जिसका अंग्रेजी अखबार मोदी-विरोधी कवरेज के लिए प्रसिद्ध है। अलबत्ता हिन्दी चैनल को लेकर प्रेक्षकों की राय अलग है। सन 2018 में एबीपी न्यूज चैनल के तीन वरिष्ठ सदस्यों को इस्तीफे देने पड़े। इन तीन में से पुण्य प्रसून वाजपेयी ने बाद में एक वैबसाइट में लेख लिखा, जिसमें उस घटनाक्रम का विस्तार से विवरण दिया, जिसमें उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इस विवरण में एबीपी न्यूज़ के प्रोपराइटर के साथ, जो एडिटर-इन-चीफ भी हैं उनके एक संवाद के कुछ अंश भी थे।

संवाद का निष्कर्ष था कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की व्यक्तिगत आलोचना से उन्हें बचना चाहिए। इस सिलसिले में ज्यादातर बातें पुण्य प्रसून की ओर से या उनके पक्षधरों की ओर से सामने आई थीं। चैनल के मालिकों और प्रबंधकों ने कोई स्पष्टीकरण जारी नहीं किया।

Friday, June 11, 2021

चुनावी पृष्ठभूमि में पंजाब और उत्तर प्रदेश में राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हुईं


अगले साल के फरवरी-मार्च महीनों में उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर में विधान सभा चुनाव होंगे। उसके पहले इन सभी राज्यों में राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हो गई हैं। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ दिल्ली में हैं। गुरुवार को उनकी मुलाकात गृहमंत्री अमित शाह से हुई है और आज वे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलेंगे। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष जेपी नड्डा से भी उनकी मुलाकात होगी। कयास हैं कि केंद्रीय नेतृत्व के साथ उन्होंने मंत्रिमंडल विस्तार, पंचायत चुनाव समेत कई अन्य मुद्दों पर चर्चा की है। कांग्रेस छोड़कर भाजपा में शामिल हुए जितिन प्रसाद से भी उनकी मुलाकात हुई है।

उधर पंजाब में तेज गतिविधियाँ चल रही हैं। कांग्रेस पार्टी घोषणा कर चुकी है कि हम मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के चेहरे के साथ चुनाव मैदान में उतरेंगे, पर प्रदेश के नेतृत्व में विकल्प की भी तलाश हो रही है। इस तलाश के पीछे कैप्टन अमरिंदर सिंह और नवजोत सिंह सिद्धू के बीच चल रहे टकराव की भूमिका भी है। दोनों नेताओं के बीच राज्य में पोस्टर युद्ध चल रहा है। लगता यह भी है कि सिद्धू को बढ़ावा देने में हाईकमान की भूमिका भी है।

Saturday, January 30, 2021

आम आदमी पार्टी का फिर से विस्तार का इरादा

 


आम आदमी पार्टी ने घोषणा की है कि वह आने वाले समय में छह राज्यों के विधानसभा चुनावों में भाग लेगी। ये राज्य हैं यूपी, उत्तराखंड, गोवा, पंजाब, हिमाचल प्रदेश और गुजरात। यह घोषणा दिल्‍ली के आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल ने गुरुवार 28 जनवरी को दिल्‍ली में की। दूसरी तरफ पार्टी ने किसान आंदोलन के दौरान अपनी गतिविधियाँ बढ़ाईं और 29 जनवरी को मुजफ्फरनगर में हुई किसानों की महापंचायत में रालोद के जयंत चौधरी के अलावा आम आदमी पार्टी के संजय सिंह भी मौजूद थे और दोनों ने सभा को संबोधित किया। इसके पहले हाथरस में एक दलित बालिका से हुए बलात्कार और हत्या के बाद भी संजय सिंह उस इलाके में गए थे।

पार्टी को किसान आंदोलन भी अपने आप को लांच करने का उपयुक्त प्लेटफॉर्म लगता है। उसने किसानों का सड़क से संसद तक समर्थन करने का ऐलान किया है। साथ ही कहा है कि आप कार्यकर्ता बिना पार्टी के झंडे और टोपी के किसानों के साथ खड़े होंगे। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने धरने में किसानों के लिए दिल्ली से पानी और शौचालय की व्यवस्था कराकर हर संभव मदद का आश्वासन दिया है। प्रदेश के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसौदिया गाजीपुर बार्डर पहुंचकर हालात का जायजा ले चुके हैं।