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Saturday, December 26, 2020

कांग्रेस पर चले शिवसेना के तीर

 मुंबई कांग्रेस के नवनियुक्त अध्यक्ष अशोक उर्फ ​​भाई जगताप ने रविवार 20 दिसंबर को संकेत दिया था कि पार्टी 2022 के मुंबई नगर निकाय चुनाव में सभी 227 सीटों पर लड़ेगी। इस प्रतिक्रिया का असर है कि शिवसेना ने यूपीए अध्यक्ष को बदलने की मांग की है। शिवसेना के मुखपत्र सामना के संपादकीय में इशारों में कहा गया है कि यूपीए की कमान शरद पवार को सौंपी जानी चाहिए। वर्तमान में सोनिया गांधी यूपीए की अध्यक्ष हैं।

सामना में छपे संपादकीय में लिखा है कि सोनिया ने अब तक यूपीए अध्यक्ष की भूमिका बखूबी निभाई, लेकिन अब बदलाव करना होगा। दिल्ली में आंदोलन कर रहे किसानों का साथ देने के लिए आगे आना होगा। संपादकीय में लिखा गया है कि कई विपक्षी दल हैं जो यूपीए में शामिल नहीं हैं। उन दलों को साथ लाना होगा। कांग्रेस का अलग अध्यक्ष कौन होगा, यह साफ नहीं है। राहुल गांधी किसानों के साथ खड़े हैं, लेकिन कहीं कुछ कमी लग रही है। ऐसे में शरद पवार जैसे सर्वमान्य नेता को आगे लाना होगा।

सामना में लिखा गया कि अभी जिस तरह की रणनीति विपक्ष ने अपनाई है, वह मोदी और शाह के आगे बेअसर है। सोनिया गांधी का साथ देने वाले मोतीलाल वोरा और अहमद पटेल जैसे नेता अब नहीं रहे। इसलिए पवार को आगे लाना होगा।

दिल्ली की सीमा पर किसानों का आंदोलन शुरू है। इस आंदोलन को लेकर दिल्ली के सत्ताधीश बेफिक्र हैं। सरकार की इस बेफिक्री का कारण देश का बिखरा हुआ और कमजोर विरोधी दल हैं। फिलहाल, लोकतंत्र में जो गिरावट आ रही है, उसके लिए भाजपा या मोदी-शाह की सरकार नहीं, बल्कि विरोधी दल सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं। वर्तमान स्थिति में सरकार को दोष देने की बजाय विरोधियों को आत्मचिंतन करने की आवश्यकता है।

Saturday, May 9, 2015

‘दस’ बनाम ‘एक’ साल

 मई 2005 में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का एक साल पूरा होने पर 'चार्जशीट' जारी की थी। एनडीए का कहना था कि एक साल के शासन में यूपीए सरकार ने जितना नुक़सान लोकतांत्रिक संस्थाओं को पहुँचाया है, उतना नुक़सान इमरजेंसी को छोड़कर किसी शासन काल में नहीं हुआ। एनडीए ने उसे 'अकर्मण्यता और कुशासन का एक वर्ष' क़रार दिया था। सरकार ने अपनी तारीफ के पुल बाँधे और समारोह भी किया, जिसमें उसके मुख्य सहयोगी वाम दलों ने हिस्सा नहीं लिया।

पिछले दस साल में केंद्र सरकार को लेकर तारीफ के सालाना पुलों और आरोप पत्रों की एक नई राजनीति चालू हुई है। मोदी सरकार का एक साल पूरा हो रहा है। एक साल में मंत्रालयों ने कितना काम किया, इसे लेकर प्रजेंटेशन तैयार हो रहे हैं। काफी स्टेशनरी और मीडिया फुटेज इस पर लगेगी। इसके समांतर आरोप पत्रों को भी पर्याप्त फुटेज मिलेगी। सरकारों की फज़ीहत में मीडिया को मज़ा आता है। मेक इन इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छ भारत, बेटी पढ़ाओ, बेटी बढ़ाओ, स्मार्ट सिटी वगैरह-वगैरह फिर से सुनाई पड़ेंगे। दूसरी ओर काला धन, महंगाई, रोज़गार और किसानों की आत्महत्याओं पर केंद्रित कांग्रेस साहित्य तैयार हो रहा है। सरकारी उम्मीदों के हिंडोले हल्के पड़ रहे हैं। मोदी सरकर के लिए मुश्किल वक्त है, पर संकट का नहीं। उसके हाथ में चार साल हैं। यूपीए के दस साल की निराशा के मुकाबले एक साल की हताशा ऐसी बुरी भी नहीं।

Sunday, September 1, 2013

संकट नहीं, हमारी अकुशलता है

मीडिया की कवरेज को देखने से लगता है कि देश सन 1991 के आर्थिक संकट से भी ज्यादा बड़े संकट से घिर गया है। वित्त मंत्री और उनके बाद प्रधानमंत्री ने भी माना है कि संकट के पीछे अंतरराष्ट्रीय घटनाक्रम के अलावा राष्ट्रीय कारण भी छिपे हैं। राज्यसभा में शुक्रवार को प्रधानमंत्री तैश में भी आ गए और विपक्ष के नेता अरुण जेटली के साथ उनकी तकरार भी हो गई। पर उससे ज्यादा खराब खबर यह थी कि इस साल की पहली तिमाही में अर्थव्यवस्था की संवृद्धि की दर 4.4 फीसदी रह गई है, जो पिछले चार साल के न्यूनतम स्तर पर है। रुपए का डॉलर के मुकाबले गिरना दरअसल संकट नहीं संकट का एक लक्षण मात्र है। यदि हमारी अर्थव्यवस्था निर्यातोन्मुखी होती तो रुपए की कमजोरी हमारे फायदे का कारण बनती। पर हम दुर्भाग्य से आयातोन्मुखी हैं। पेट्रोलियम से लेकर सोने और हथियारों तक हम आयात के सहारे हैं।

Thursday, August 29, 2013

यूपीए का आर्थिक राजनीति शास्त्र

देश का राजनीतिक अर्थशास्त्र या आर्थिक राजनीति शास्त्र एक दिशा में चलता है और व्यावहारिक अर्थ व्यवस्था दूसरी दिशा में जाती है। सन 1991 में हमने जो आर्थिक दिशा पकड़ी थी वह कम से कम कांग्रेस की विचारधारात्मक देन नहीं थी। मनमोहन सिंह ने विश्व बैंक के 'वॉशिंगटन कंसेंसस' के अनुरूप ही अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाया। वह दौर वैश्वीकरण का शुरूआती दौर था। ऐसा कहा जा रहा था कि भारत इस दौड़ में चीन से तकरीबन डेढ़ दशक पीछे है, जापान और कोऱिया से और भी ज्यादा पिछड़ गया है। बहरहाल तमाम आलोचनाओं के उदारीकरण की गाड़ी चलती रही। एनडीए सरकार भी इसी रास्ते पर चली। सन 2004 में यूपीए सरकार ने दो रास्ते पकड़े। एक था सामाजिक कल्याण पर खर्च बढ़ाने की राह और दूसरी उदारीकरण की गाड़ी को आगे बढ़ाने की राह। 2009 के बाद यूपीए का यह अंतर्विरोध और बढ़ा। आज जिस पॉलिसी पैरेलिसिस का आरोप मनमोहन सिंह पर लग रहा है वह वस्तुतः सोनिया गांधी के नेतृत्व के कारण है। यदि वे मानती हैं कि उदारीकरण गलत है तो प्रधानमंत्री बदलतीं। आज का आर्थिक संकट यूपीए के असमंजस का संकट भी है। यह असमंजस एनडीए की सरकार में भी रहेगा। भारत की राजनीति और राजनेताओं के पास या तो आर्थिक दृष्टि नहीं है या साफ कहने में वे डरते हैं। 

जिस विधेयक को लेकर राजनीति में ज्वालामुखी फूट रहे थे वह खुशबू के झोंके सा निकल गया. लेफ्ट से राइट तक पक्षियों और विपक्षियों में उसे गले लगाने की ऐसी होड़ लगी जैसे अपना बच्चा हो. उसकी आलोचना भी की तो जुबान दबाकर. ईर्ष्या भाव से कि जैसे दुश्मन ले गया जलेबी का थाल. यों भी उसे पास होना था, पर जिस अंदाज में हुआ उससे कांग्रेस का दिल खुश हुआ होगा. जब संसद के मॉनसून सत्र के पहले सरकार अध्यादेश लाई तो वृन्दा करात ने कहा था, हम उसके समर्थक हैं पर हमारी आपत्तियाँ हैं. हम चाहते हैं कि इस पर संसद में बहस हो. खाद्य सुरक्षा सार्वभौमिक होनी चाहिए. सबके लिए समान. मुलायम सिंह ने कहा, यह किसान विरोधी है. नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी कि मुख्यमंत्रियों से बात कीजिए. पर लगता है उन्होंने अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं से बात नहीं की. भाजपा के नेता इन दिनों अलग-अलग सुर में हैं. दिल्ली में विधान सभा चुनाव होने हैं और पार्टी संग्राम के मोड में है. बिल पर संसद में जो बहस हुई, उसमें तकरीबन हरेक दल ने इसे चुनाव सुरक्षा विधेयक मानकर ही अपने विचार व्यक्त किए. सोमवार की रात कांग्रेसी सांसद विपक्ष के संशोधनों को धड़ाधड़ रद्द करने के चक्कर में सरकारी संशोधन को भी खारिज कर गए. इस गेम चेंजर का खौफ विपक्ष पर इस कदर हावी था कि सुषमा स्वराज को कहना पड़ा कि हम इस आधे-अधूरे और कमजोर विधेयक का भी समर्थन करते हैं. जब हम सत्ता में आएंगे तो इसे सुधार लेंगे.  

Sunday, August 25, 2013

रुपए की नहीं गवर्नेंस की फिक्र कीजिए

डॉलर के मुकाबले रुपए की कीमत गिरने का मतलब कितने लोग जानते हैं? कितने लोग यह जानते हैं कि यह कीमत तय कैसे होती है? और कितने लोग जानते हैं कि इसका हमारी जिन्दगी से वास्ता क्या है? हम महंगाई को जानते हैं बाजार में चीजों की उपलब्धता को पहचानते हैं और अपनी आय को कम या ज्यादा होने की प्रक्रिया को भी समझते हैं। विश्व की मुद्राओं की खरीद-फरोख्त का बाजार है विदेशी मुद्रा बाजार। दूसरे वित्तीय बाजारों के मुकाबले यह काफी नया है और सत्तर के दशक में शुरू हुआ है। फिर भी कारोबार के लिहाज से यह सबसे बड़ा बाजार है। विदेशी मुद्राओं में प्रतिदिन लगभग चार हजार अरब अमेरिकी डालर के बराबर कामकाज होता है। दूसरे बाजारों के मुकाबले यह सबसे ज्यादा स्थायित्व वाला बाजार है। फिर भी इसमें इन दिनों हो रहे बदलाव से हम परेशान हैं। यह बदलाव लम्बा नहीं चलेगा। एक जगह पर जाकर स्थिरता आएगी। वह बिन्दु कौन सा है यह अगले कुछ दिनों में साफ हो जाएगा।

Sunday, May 26, 2013

सूने शहर में शहनाई का शोर


यूपीए-2 की चौथी वर्षगाँठ की शाम भाजपा और कांग्रेस के बीच चले शब्दवाणों से राजनीतिक माहौल अचानक कड़वा हो गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार की उपलब्धियों को गिनाया, पर कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने उपलब्धियों के साथ-साथ दो बातें और कहीं। एक तो यह कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को उनका पूरा समर्थन प्राप्त है और दूसरे इस बात पर अफसोस व्यक्त किया कि मुख्य विपक्षी पार्टी ने संवैधानिक भूमिका को नहीं निभाया, जिसकी वजह से कई अहम बिल पास नहीं हुए। इसके पहले भाजपा की नेता सुषमा स्वराज और अरुण जेटली ने सरकार पर जमकर तीर चलाए। दोनों ने अपने संयुक्त संवाददाता सम्मेलन में कहा कि सरकार पूरी तरह फेल है। दोनों ओर से वाक्वाण देर रात तक चलते रहे।


पिछले नौ साल में यूपीए की गाड़ी झटके खाकर ही चली। न तो वह इंदिरा गांधी के गरीबी हटाओ जैसी तुर्शी दिखा पाई और न उदारीकरण की गाड़ी को दौड़ा पाई। यूपीए के प्रारम्भिक वर्षों में अर्थव्यवस्था काफी तेजी से बढ़ी। इससे सरकार को कुछ लोकलुभावन कार्यक्रमों पर खर्च करने का मौका मिला। इसके कारण ग्रामीण इलाकों में उसकी लोकप्रियता भी बढ़ी। पर सरकार और पार्टी दो विपरीत दिशाओं में चलती रहीं। 

Monday, May 13, 2013

अब दलदल में हैं मनमोहन


कांग्रेस ने स्पष्ट किया है कि पवन बंसल और अश्विनी कुमार को पद से हटाने का फैसला पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का संयुक्त निर्णय था केवल सोनिया गांधी का नहीं। इस स्पष्टीकरण की ज़रूरत इसलिए पड़ी, क्योंकि मीडिया में इस बात का चर्चा था कि सोनिया गांधी के हस्तक्षेप से मंत्री हटे। आडवाणी जी ने अपने ब्लॉग में मनमोहन सिंह को उलाहना भी दिया कि अब पद पर बने रहने के क्या माने हैं? बहरहाल इतना ज़रूर स्पष्ट हो रहा है कि विपक्ष का निशाना अब सीधे मनमोहन सिंह बनेंगे।

पवन बंसल और अश्विनी कुमार की छुट्टी के बाद भी यूपीए-2 का संकट खत्म नहीं होगा। मंत्रियों के इस्तीफों के पीछे सोनिया गांधी का हाथ होने की बात मीडिया में आने के कारण जहाँ पार्टी अध्यक्ष की स्थिति बेहतर हुई है वहीं प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की स्थिति बिगड़ी है। 

कोल ब्लॉक आबंटन तब हुआ जब कोयला मंत्रालय का प्रभार भी प्रधानमंत्री के पास था। इसलिए कोयले की कालिख अब सीधे प्रधानमंत्री पर लगेगी। सुप्रीम कोर्ट के सामने सीबीआई की जो स्टेटस रिपोर्ट पेश हुई है उसके अनुसार सन 2006 से 2009 के बीच कोल ब्लॉक आबंटनों के सिलसिले में अनाम अधिकारियों के खिलाफ 11 एफआईआर दायर की गई हैं।

कौन हैं वे अधिकारी? उनका नाम पता  लगाने के पहले यह बताना ज़रूरी होगा कि उस वक्त कोयला मंत्रालय मनमोहन सिंह के पास था।

Sunday, May 12, 2013

आज़ादी चाहता है ‘पिंजरे में कैद तोता’


सुप्रीम कोर्ट ने सीबीआई को सरकार के पिंजड़े में कैद तोता ही नहीं बताया, उसकी आज़ादी का रास्ता भी साफ कर दिया है। रेलमंत्री पवन कुमार बंसल और कानून मंत्री अश्विनी कुमार को हटा दिया गया है। 

मंत्रियों का रहना या हटना मूल समस्या नहीं है। समस्या का लक्षण है। इन दोनों मंत्रियों के साथ दो अलग-अलग किस्म के मामले जुड़े हैं। पर एक साम्य है। वह है सीबीआई की भूमिका।

 पिछले हफ्ते सीबीआई को लेकर एक महत्वपूर्ण पहल सुप्रीम कोर्ट ने की है। उसने सरकार को प्रकारांतर से निर्देश दिया कि जाँच एजेंसी को बाहरी हस्तक्षेप से बचाने के लिए कानून बनाया जाए। 

यह काम इस मामले पर अगली सुनवाई यानी 10 जुलाई के पहले-पहले कर लिया जाना चाहिए और इसके लिए संसद की स्वीकृति का इंतज़ार नहीं करना चाहिए। यानी अध्यादेश जारी करके यह काम किया जा सकता है।

Monday, April 22, 2013

ब्रेक के बाद... और अब वक्त है राजनीतिक घमासान का


बजट सत्र का उत्तरार्ध शुरू होने के ठीक पहले मुलायम सिंह ने माँग की है कि यूपीए सरकार को चलते रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। उधर मायावती ने लोकसभा के 39 प्रत्याशियों की सूची जारी की है। दोनों पार्टियाँ चाहेंगी तो चुनाव के नगाड़े बजने लगेंगे। उधर टूजी मामले पर बनी जेपीसी की रपट कांग्रेस और डीएमके के बाकी बचे सद्भाव को खत्म करने जा रही है।  कोयला मामले में सीबीआई की रपट में हस्तक्षेप करने का मामला कांग्रेस के गले में हड्डी बन जाएगा। संसद का यह सत्र 10 मई को खत्म होगा। तब तक कर्नाटक के चुनाव परिणाम सामने आ जाएंगे। भाजपा के भीतर नरेन्द्र मोदी को लेकर जो भीतरी द्वंद चल रहा है वह भी इस चुनाव परिणाम के बाद किसी तार्किक परिणति तक पहुँचेगा।  राजनीति का रथ एकबार फिर से ढलान पर उतरने जा रहा है। 

Sunday, April 7, 2013

अलोकप्रियता के ढलान पर ममता की राजनीति

राजनेता वही सफल है जो सामाजिक जीवन की विसंगतियों को समझता हो और दो विपरीत ताकतों और हालात के बीच से रास्ता निकालना जानता हो। ममता बनर्जी की छवि जुनूनी, लड़ाका और विघ्नसंतोषी की है। संसद से सड़क तक उनके किस्से ही किस्से हैं। पिछले साल रेल बजट पेश करने के बाद दिनेश त्रिवेदी को उन्होंने जिस तरह से हटाया, उसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती। उनकी तुलना जयललिता, मायावती और उमा भारती से की जाती है। कई बार इंदिरा गांधी से भी। मूलतः वे स्ट्रीट फाइटर हैं। उन्हें इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने वाम मोर्चा के 34 साल पुराने मजबूत गढ़ को गिरा कर दिखा दिया। पर लगता है कि वे गिराना जानती हैं, बनाना नहीं। इन दिनों बंगाल में अचानक उनकी सरकार के खिलाफ आक्रोश भड़क उठा है। सीपीएम की छात्र शाखा एसएफआई के नेता सुदीप्तो गुप्ता की मौत इस गुस्से का ट्रिगर पॉइंट है। यह सच है कि वे कोरी हवाबाजी से नहीं उभरी हैं। उनके जीवन में सादगी, ईमानदारी और साहस है। वे फाइटर के साथ-साथ मुख्यमंत्री भी हैं और सात-आठ मंत्रालयों का काम सम्हालती हैं। यह बात उनकी जीवन शैली से मेल नहीं खाती। फाइलों में समय खपाना उनका शगल नहीं है। उन्होंने सिर्फ अपने बलबूते एक पार्टी खड़ी कर दी, यह बात उन्हें महत्वपूर्ण बनाती है, पर इसी कारण से उनका पूरा संगठन व्यक्ति केन्द्रित बन गया है।  

Saturday, January 26, 2013

राजनीति का चिंताहरण दौर


भारतीय राजनीति की डोर तमाम क्षेत्रीय, जातीय. सामुदायिक, साम्प्रदायिक और व्यक्तिगत सामंती पहचानों के हाथ में है। और देश के दो बड़े राष्ट्रीय दलों की डोर दो परिवारों के हाथों में है। एक है नेहरू-गांधी परिवार और दूसरा संघ परिवार। ये दोनों परिवार इन्हें जोड़कर रखते हैं और राजनेता इनसे जुड़कर रहने में ही समझदारी समझते हैं। मौका लगने पर दोनों ही एक-दूसरे को उसके परिवार की नसीहतें देते हैं। जैसे राहुल गांधी के कांग्रेस उपाध्यक्ष बनने पर भाजपा ने वंशवाद को निशाना बनाया और जवाब में कांग्रेस ने संघ की लानत-मलामत कर दी। जयपुर चिंतन शिविर में उपाध्यक्ष का औपचारिक पद हासिल करने के बाद राहुल गांधी ने भावुक हृदय से मर्मस्पर्शी भाषण दिया। इसके पहले सोनिया गांधी ने पार्टी कार्यकर्ताओं को सलाह दी थी कि समय की ज़रूरतों को देखते हुए वे आत्ममंथन करें। नगाड़ों और पटाखों के साथ राहुल का स्वागत हो रहा था। पर उसके पहले गृहमंत्री सुशील कुमार शिन्दे के एक वक्तव्य ने विमर्श की दिशा बदल दी। इस हफ्ते बीजेपी के अध्यक्ष का चुनाव भी तय था। चुनाव के ठीक पहले गडकरी जी से जुड़ी कम्पनियों में आयकर की तफतीश शुरू हो गई। इसकी पटकथा भी किसी ने कहीं लिखी थी। इन दोनों घटनाओं का असर एक साथ पड़ा। गडकरी जी की अध्यक्षता चली गई। राजनाथ सिंह पार्टी के नए अध्यक्ष के रूप में उभर कर आए हैं। पर न तो राहुल के पदारोहण का जश्न मुकम्मल हुआ और न गडकरी के पराभव से भाजपा को कोई बड़ा धक्का लगा।

Friday, January 25, 2013

कोई बताए हमारा आर्थिक मॉडल क्या हो


समकालीन सरोकार, जनवरी 2013  में प्रकाशित 

सन 2013 का पहला सवाल है कि क्या इस साल लोकसभा चुनाव होंगे? लोकसभा चुनाव नहीं भी हों, आठ विधान सभाओं के चुनाव होंगे। इनमें मध्य प्रदेश, राजस्थान, दिल्ली और कर्नाटक का अलग-अलग कारणों से राजनीतिक महत्व है। सवाल है क्या दिल्ली की गद्दी पर गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा सरकार आने की कोई सम्भावना बन रही है? संसद के शीतकालीन सत्र में सरकार ने एफडीआई के मोर्चे पर एक महत्वपूर्ण राजनीतिक सफलता हासिल की है। इसके अलावा बैंकिग विधेयक लोकसभा से पास भी करा लिया है। अभी इंश्योरेंस, पेंशन और भूमि अधिग्रहण कानूनों को पास कराना बाकी है। और जैसा कि नज़र आता है कांग्रेस और भाजपा आर्थिक उदारीकरण के एजेंडा को मिलकर पूरा कराने की कोशिश कर रहे हैं। यह बात विचित्र लगेगी कि एक दूसरे की प्रतिस्पर्धी ताकतें किस तरह एक-दूसरे का सहयोग कर रही है, पर बैंकिंग विधेयक में दोनों का सहयोग साफ दिखाई पड़ा। खुदरा बाज़ार में एफडीआई को लेकर सरकार पहले तो नियम 184 के तहत बहस कराने को तैयार नहीं थी, पर जैसे ही उसे यह समझ में आया कि सरकार गिराने की इच्छा किसी दल में नहीं है, वह न सिर्फ बहस को तैयार हुई, बल्कि उसपर मतदान कराया और जीत हासिल की। सीपीएम के नेता सीताराम येचुरी इसे मैन्युफैक्चरिंग मेजॉरिटी कहते हैं, पर संसदीय लोकतंत्र यही है। सन 1991 में आई पीवी नरसिंह राव की सरकार कई मानों में विलक्षण थी। हालांकि आज़ादी के बाद से हर दशक ने किसी न किसी किस्म के तूफानों को देखा है, पर नरसिंह राव की सरकार के सामने जो चुनौतियाँ थी वे आसान नहीं थीं। उनके कार्यकाल में बाबरी मस्जिद को गिराया गया, जिसके बाद देश भर में साम्प्रदायिक हिंसा का जबर्दस्त दौर चला। मुम्बई में आतंकी धमाकों का चक्र उन्ही दिनों शुरू हुआ। कश्मीर में सीमापार से आतंकवादी कार्रवाइयों का सबसे ताकतवर सिलसिला तभी शुरू हुआ। पर हम नरसिंह राव सरकार को उन आर्थिक उदारवादी नीतियों के कारण याद रखते हैं, जिनका प्रभाव आज तक है। भारत में वैश्वीकरण की गाड़ी तभी से चलनी शुरू हुई है। वर्तमान प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उस सरकार के वित्त मंत्री थे। जब पहली बार आर्थिक उदारीकरण की नीतियों को लागू किया गया था तब कई तरह की आशंकाएं थीं। मराकेश समझौते के बाद जब 1995 में भारत विश्व व्यापार संगठन का सदस्य बना तब भी इन आशंकाओं को दोहराया गया। पिछले इक्कीस साल में इन अंदेशों को बार-बार मुखर होने का मौका मिला, पर आर्थिक उदारीकरण का रास्ता बंद नहीं हुआ। दिल्ली में कांग्रेस के बाद संयुक्त मोर्चा और एनडीए की सरकारें बनीं। वे भी उसी रास्ते पर चलीं। बंगाल और केरल में वाम मोर्चे की सरकारें आईं और गईं। उन्होंने भी उदारीकरण की राह ही पकड़ी। मुख्यधारा की राजनीति में उदारीकरण की बड़ी रोचक तस्वीर बनी है। ज्यादातर बड़े नेता उदारीकरण का खुला समर्थन नहीं करते हैं, बल्कि विरोध करते हैं। पर सत्ता में आते ही उनकी नीतियाँ वैश्वीकरण के अनुरूप हो जाती हैं। एफडीआई पर संसद में हुई बहस की रिकॉर्डिंग फिर से सुनें तो आपको परिणाम को लेकर आश्चर्य होगा, पर राजनीति इसी का नाम है। उदारीकरण के दो दशकों का अनुभव यह है कि हम न तो उसके मुखर समर्थक हैं और न व्यावहारिक विरोधी। इस अधूरेपन का फायदा या नुकसान भी अधूरा है।

Friday, December 7, 2012

बड़े मौके पर काम आता है 'साम्प्रदायिकता' का ब्रह्मास्त्र

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मंजुल का कार्टून
हिन्दू में केशव और सुरेन्द्र के कार्टून

सतीश आचार्य का कार्टून
                                     
जब राजनीति की फसल का मिनिमम सपोर्ट प्राइस दे दिया जाए तो कुछ भी मुश्किल नहीं है। खुदरा कारोबार में विदेशी निवेश पर संसद के दोनों सदनों में हुई बहस के बाद भी सामान्य व्यक्ति को समझ में नहीं आया कि हुआ क्या? यह फैसला सही है या गलत? ऊपर नज़र आ रहे एक कार्टून में कांग्रेस का पहलवान बड़ी तैयारी से आया था, पर उसके सामने पोटैटो चिप्स जैसा हल्का बोझ था। राजनेताओं और मीडिया की बहस में एफडीआई के अलावा दूसरे मसले हावी रहे। ऐसा लगता है कि भाजपा, वाम पंथी पार्टियाँ और तृणमूल कांग्रेस की दिलचस्पी एफडीआई के इर्द-गिर्द ही बहस को चलाने की है, पर उससे संसदीय निर्णय पर कोई अंतर पड़ने वाला नहीं। समाजवादी पार्टी और बसपा दोनों ने ही एफडीआई का विरोध किया है, पर विरोध का समर्थन नहीं किया। इसका क्या मतलब है? यही कि देश में 'साम्प्रदायिकता' का खतरा 'साम्राज्यवाद' से ज्यादा बड़ा है। 

Friday, November 30, 2012

बड़े राजनीतिक गेम चेंजर की तलाश

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून
 कांग्रेस पार्टी ने कंडीशनल कैश ट्रांसफर कार्यक्रम को तैयार किया है, जिसे आने वाले समय का सबसे बड़ा गेम चेंजर माना जा रहा है। सन 2004 में एनडीए की पराजय से सबक लेकर कांग्रेस ने सामाजिक जीवन में अपनी जड़ें तलाशनी शुरू की थी, जिसमें उसे सफलता मिली है। ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना ने उसे 2009 का चुनाव जिताया। उसे पंचायत राज की शुरूआत का श्रेय भी दिया जा सकता है। सूचना के अधिकार पर भी वह अपना दावा पेश करती है, पर इसका श्रेय विश्वनाथ प्रताप सिंह को दिया जाना चाहिए। इसी तरह आधार योजना का बुनियादी काम एनडीए शासन में हुआ था। सर्व शिक्षा कार्यक्रम भी एनडीए की देन है। हालांकि शिक्षा के अधिकार का कानून अभी तक प्रभावशाली ढंग से लागू नहीं हो पाया है, पर जिस दिन यह अपने पूरे अर्थ में लागू होगा, वह दिन एक नई क्रांति का दिन होगा। भोजन के अधिकार का मसौदा तो सरकार ने तैयार कर लिया है, पर उसे अभी तक कानून का रूप नहीं दिया जा सका है। प्रधानमंत्री ने हाल में घोषणा भी की है कि अगली पंचवर्षीय योजना से देश के सभी अस्पतालों में जेनरिक दवाएं मुफ्त में मिलने लगेंगी। सामान्य व्यक्ति के लिए स्वास्थ्य सबसे बड़ी समस्या है। कंडीशनल कैश ट्रांसफर योजना का मतलब है कि सरकार नागरिकों को जो भी सब्सिडी देगी वह नकद राशि के रूप में उसके बैंक खाते में जाएगी।

Sunday, November 25, 2012

कांग्रेस का बढ़ता आत्मविश्वास

हिन्दू में केशव का कार्टून
कांग्रेस पार्टी ने सिर्फ चार महीने में राजनीति बदल कर रख दी है। राष्ट्रपति चुनाव के पहले लगता था कि कांग्रेस पार्टी अपने प्रत्याशी को जिता ही नहीं पाएगी। जिताना तो दूर की बात है अपना प्रत्याशी घोषित ही नहीं कर पाएगी। ऐन मौके पर ममता बनर्जी ने ऐसे हालात पैदा किए कि कांग्रेस ने आनन-फानन प्रणव मुखर्जी का नाम घोषित कर दिया। कांग्रेस के लिए ममता बनर्जी का साथ जितना कष्टकर था उतना ही उसे फिर से जगाने में काम आया। ममता बनर्जी ने पहले तीस्ता पर, फिर एफडीआई, फिर रेलमंत्री, फिर एनसीटीसी और फिर राष्ट्रपति प्रत्याशी पर हठी रुख अख्तियार करके खुद को अलोकप्रिय बनाया। कांग्रेस ने उनकी पार्टी को सही समय पर हैसियत बताकर दो तीर एक साथ चलाए। एक तो ममता को किनारे किया, दूसरे एकताबद्ध होकर भविष्य की रणनीति तैयार की। पार्टी ने अपने आर्थिक सुधार के एजेंडा पर वापस आकर कुछ गलत नहीं किया। यह बात चुनाव के वक्त पता लगेगी।

Monday, November 19, 2012

दिल्ली धमाका! तैयारी विंटर सेल की!


यह हफ्ता काफी नाज़ुक साबित होने वाला है। कांग्रेस पार्टी ने देर से, लेकिन अपेक्षाकृत व्यवस्थित तरीके से महीने की शुरूआत की है, पर 22 तारीख से शुरू हो रहे संसद के सत्र में साफ हो जाएगा कि अगले लोकसभा चुनाव 2014 में होंगे या 2013 में। मनमोहन सिंह ने डिनर पर मुलायम सिंह से और लंच पर मायावती से मुलाकात कर ली है। किसी को भी समझ में आता है कि बात लोकसभा के फ्लोर मैनेजमेंट को लेकर हुई होगी। मतदान की नौबत आई तो क्या करेंगे? संगठन के स्तर पर भी बात हुई होगी। पर प्रधानमंत्री की मुलाकात का मतलब समझ में आता है। उन्होंने सरकारी नीतियों को स्पष्ट किया होगा या गलतफहमियों को दूर करने की कोशिश की होगी। सपा और बसपा पर दारोमदार है। सहयोगी दलों के अलावा बीजेपी के साथ भी कांग्रेस का बैकरूम संवाद चल रहा है। आर्थिक उदारीकरण के सवाल पर दोनों पार्टियों में वैचारिक सहमति है।

Saturday, November 17, 2012

मुलायम क्या जल्दी चुनाव चाहते हैं?

उत्तर प्रदेश की 80 में से 55 लोकसभा सीटों के लिए प्रत्याशी घोषित करके क्या मुलायम सिंह ने चुनाव का बिगुल बजा दिया है? हालांकि यह बात उनकी राजनीति से असंगत नहीं है और इस साल विधानसभा चुनाव में विजय पाने के बाद उन्होंने कहा था कि जल्द ही लोकसभा चुनाव के लिए तैयार रहें। ऐसा माना जाता है कि आने वाले लोकसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, अन्ना द्रमुक, अकाली दल जैसे क्षेत्रीय दलों को फायदा मिलेगा। पर जल्द चुनाव के  माने क्या हैं? क्या लोकसभा के इसी सत्र में यह फैसला होगा? या सरकार बजट पेश करने के बाद चुनाव की घोषणा करेगी? करेगी भी तो क्यों करेगी? क्या जल्दी चुनाव कराने से कांग्रेस का कुछ भला होने वाला है?

Monday, November 5, 2012

राहुल, रिफॉर्म और भैंस के आगे बीन





गारंटी के साथ नहीं कहा जा सकता कि कांग्रेस को इस रैली से फायदा होगा, पर इससे नुकसान भी कुछ नहीं होने वाला। पार्टी के पास अब आक्रामक होने के अलावा विकल्प भी नहीं बचा था। उसकी अतिशय रक्षात्मक रणनीति के कारण पिछले लगभग तीन साल से बीजेपी की राजनीति में प्राण पड़ गए थे, अन्यथा जिस वक्त आडवाणी जी को हटाकर गडकरी को लाया गया था, उसी वक्त बीजेपी ने अपना भविष्य तय कर लिया था। रविवार को जब कांग्रेस रामलीला मैदान में रैली कर रही थी, तब दिल्ली में मुरली मनोहर जोशी कुछ व्यापारियों के साथ भैस के आगे बीन बजा रहे थे। खुदरा बाजार में विदेशी निवेश को लेकर बीजेपी ने जो स्टैंड लिया है वह नकारात्मक है सकारात्मक नहीं। हमारी राजनीति में कांग्रेस भी ऐसा ही करती रही है। ज़रूरत इस बात की है कि सकारात्मक राजनीति हो। बहरहाल कांग्रेस को खुलकर अपनी बात सामने रखनी चाहिए। यदि राजनीति इस बात की है कि तेज आर्थिक विकास हमें चाहिए ताकि उपलब्ध साधनों को गरीब जनता तक पहुँचाया जा सके तो इस बात को पूरी शिद्दत से कहा जाना चाहिए। गैस के जिस सिलेंडर को लेकर हम बहस में उलझे हैं, उसका सबसे बड़ा उपभोक्ता मध्य वर्ग है। शहरी गरीब आज भी महंगी गैस खरीदते हैं, क्योंकि उनके पास केवाईसी नहीं है। घर के पते का दस्तावेज़ नहीं है। वे अपने नाम कनेक्शन नहीं ले सकते हैं और मज़बूरन छोटे सिलंडरों में बिकने वाली अवैध गैस खरीदते हैं। राहुल गांधी ने जिस सिस्टम की बात कही है, वह वास्तव में गरीबों का सिस्टम नहीं है। आम आदमी की पहुँच से काफी दूर है। पिछले साल दिसम्बर में सरकार ने संसद में Citizen's Charter and Grievance Redressal Bill 2011 पेश किया था। यह बिल समय से पास हो जाता तो नागरिकों को कुछ सुविधाओं को समय से कराने का अधिकार प्राप्त हो जाता। अन्ना हजारे आंदोलन के कारण कुछ हुआ हो या न हुआ हो जनता का दबाव तो बढ़ा ही है। यह आंदोलन व्यवस्था-विरोधी आंदोलन था। कांग्रेस ने इसे अपने खिलाफ क्यों माना और अब राहुल गांधी वही बात क्यों कह रहे हैं?

Friday, November 2, 2012

ब्रेक के उस पार है रोचक तमाशा

कुछेक साल पुराना कार्टून जो हमेशा ताज़ा लगेगा
इस बात की सम्भावना है कि संसद का शीत सत्र 22 नवम्बर से शुरू होकर 20 दिसम्बर तक चलेगा। उस दौरान गुजरात विधान सभा के चुनाव का मतदान भी हो रहा होगा। जैसी कि उम्मीद है सरकार पेंशन और इंश्योरेंस से जुड़े कानूनों में संशोधन के अलावा भूमि अधिग्रहण विधेयक भी इस दौरान पास कराना चाहेगी। कम्पनी कानून में बदलाव का विधेयक भी इस दौरान आएगा। 

संसद के पिछले सत्र में बीजेपी ने कोल ब्लॉक्स को लेकर प्रधानमंत्री के इस्तीफे की माँग की थी और सदन में कार्य नहीं होने दिया था। क्या इस बार यह पार्टी संसदीय कार्य में हिस्सा लेगी? तृणमूल कांग्रेस का कहना है कि  सरकार अल्पमत में है, उसे सदन का विश्वास हासिल करना चाहिए। यह टेस्ट विधेयकों के पास होते समय भी किया जा सकता है। उस स्थिति में समाजवादी पार्टी और बसपा पर काफी कुछ निर्भर करेगा। दोनों पार्टियों ने फिलहाल सरकार गिराने का इरादा ज़ाहिर नहीं किया है। बसपा ने फैसला अपनी नेता पर छोड़ दिया है, जो बहुजन समाज के हित को देखते हुए उचित निर्णय करेंगी। 

अन्ना हज़ारे और उनके साथ आए जनरल वीके सिंह संसद के घेराव की योजना बना रहे हैं। ममता बनर्जी भी कह रहीं हैं कि संसद भंग कर दो। कुछ लोगों को लगता है कि इस सत्र के दौरान सरकार की छुट्टी हो जाएगी, पर मुझे यह बात समझ में नहीं आती। कोई भी पार्टी अभी चुनाव के लिए तैयारदिखाई नहीं पड़ती। कोई सांसद यों भी अपनी सदस्यता डेढ़ साल पहले छोड़ना नहीं चाहेगा। अगले चुनाव में जीतने की कोई गारंटी नहीं है। संसद का कार्यक्रम घोषित होने के बाद पार्टियों के वक्तव्यों पर ध्यान देंगे तो राजनीति के अनेक रोचक अंतर्विरोध सामने आएंगे। तमाशा देखने लायक होगा। 

Monday, September 24, 2012

आर्थिक नहीं, संकट राजनीतिक है

बारहवीं योजना के दस्तावेज़ में से क्रोनी कैपीटलिज़्म शब्द हटाया जा रहा है। इसका ज़िक्र भारतीय आर्थिक व्यवस्था और हाल के घोटालों के संदर्भ में हुआ था। इस पर कुछ मंत्रियों का कहना था कि इस शब्द का इस्तेमाल नहीं होना चाहिए, क्योंकि इससे क्रोनी कैपीटलिज़्म का भारतीय व्यवस्था में चलन साबित होगा। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह कई बार क्रोनी कैपीटलिज़्म के खतरों की ओर आगाह कर चुके हैं। इसी 12 सितम्बर को उन्होंने हाइवे प्रोजेक्ट्स में पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप को लेकर क्रोनी कैपीटलिज़्म के खतरों की ओर चेताया था। मनमोहन सिंह सन 2007 में इस प्रवृत्ति के खतरों की ओर चेता चुके हैं। आप कहेंगे वे खुद प्रधानमंत्री हैं और खुद सवाल उठा रहे हैं। पर सच यह है कि मनमोहन सिंह ने भारतीय पूँजी और राजनीति के रिश्तों पर कई बार ऐसी टिप्पणियाँ की हैं। हालांकि उदारीकरण का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर फूटता है, पर यह काजल की कोठरी है और इसमें बगैर दाग वाली कमीज़ किसी ने नहीं पहनी है। बहरहाल क्या हम योजना आयोग के दस्तावेज़ से यह शब्द हटाकर व्यवस्था को पारदर्शी बना सकते हैं? पिछले कुछ दिनों में यह बात बार-बार सामने आ रही है कि उदारीकरण का मतलब संसाधनों का कुछ परिवारों के नाम स्थानांतरण नहीं है। हमारा आर्थिक विकास रोज़गार पैदा करने में विफल रहा है। पर क्या ममता बनर्जी, मुलायम सिंह, मायावती और बीजेपी व्यव्स्था को पारदर्शी बनाना चाहते हैं? क्या उनके विरोध के पीछे कोई आदर्श है? या यह सब ढोंग है? 

प्रधानमंत्री का कहना है कि पैसा पेड़ों में नहीं उगता। क्या ममता, मुलायम और मायावती समेत लगभग सारे दलों को लगता है कि उगता है? आज बंगाल सरकार 23,000 करोड़ रुपए के जिस कर्ज़ को माफ कराना चाहती है, वह रुपया भी पेड़ों नहीं उगा था, पर वाम मोर्चा सरकार ने रुपया लाने के तरीकों के बारे में नहीं सोचा। कांग्रेस को छोड़ लगभग हर पार्टी ने मनमोहन सिंह सरकार के आर्थिक सुधारों का विरोध किया है। कांग्रेस के भीतर भी मनमोहन सिंह समर्थक लगभग न के बराबर हैं। हाल में समाजवादी पार्टी के नेता मोहन सिंह ने कोयला मामले के संदर्भ में कहा था कि पार्टी के भीतर ही बहुत से लोग चाहते हैं कि मनमोहन सिंह हटें। आर्थिक सुधारों को लेकर सोनिया गांधी ने जनता के बीच जाकर कभी कुछ नहीं कहा। बल्कि उन्होंने राष्ट्रीय सलाहकार परिषद बनाई, जिसकी अधिकतर सलाहों से सरकार सहमत नहीं रही। पार्टी के आर्थिक और राजनीतिक विचारों में तालमेल नज़र नहीं आता। सवाल दो हैं। पहला यह कि सरकार को अचानक आर्थिक सुधारों की याद क्यों आई? और क्या वह मध्यावधि चुनाव के लिए तैयार है? इन सब सवालों के साथ एक सवाल यह भी है कि क्या बीजेपी अपने ‘इंडिया शाइनिंग’ को भुलाकर जिस लोकलुभावन राजनीति के रास्ते पर जा रही है, क्या उसमें पैसा पेड़ों पर उगता है?