Friday, September 30, 2011

फिर प्रधानमंत्री की भूमिका क्या है?

हिन्दू में केशव का कार्टून
पिछले हफ्ते की दो खबरों को एक साथ पढ़ने का मौका मिला। एक थी प्रणब मुखर्जी और पी चिदम्बरम के बीच की खींचतान और दूसरी पूर्वी उत्तर प्रदेश में सरकारी कर्मचारियों की वसूली का विरोध करने वाले एक ड्राइवर की हत्या। दोनों खबरों में कोई रिश्ता नहीं, पर दोनों बातें हताश करती हैं। दोनों बातें बताती हैं कि सुपर पावर बनने को आतुर देश की व्यवस्था अकुशल, बचकानी और घटिया है। ये अवगुण पिछले दो दशक में विकसित हुए हैं। तिकड़म, दलाली और धंधेबाजी को जो खुलेआम सम्मान हाल के वर्षों में मिला है वह पहले नहीं था। तथ्यों को बजाय उजागर करने के उनपर पर्दा डालने की प्रवृत्ति व्यवस्था को अविश्सनीय बना रही है।

Monday, September 26, 2011

दिल्ली प्रहसन ...ब्रेक के बाद

कल्पना कीजिए यूपीए-प्रथम के कार्यकाल में नागरिकों को जानकारी पाने का अधिकार न मिला होता तो आज यूपीए-द्वितीय के सामने खड़ी अनेक परेशानियों का अस्तित्व ही नहीं होता। वही अर्जुन और वही बाण हैं। पर गोपियों को लुटने से बचा नहीं पा रहे हैं। इन बातों से आजिज आकर कॉरपोरेट मामलों के मंत्री वीरप्पा मोइली ने कहा है कि आरटीआई पर राष्ट्रीय बहस होनी चाहिए, क्योंकि यह कानून स्वतंत्र सरकारी काम-काज में दखलंदाजी को बढ़ावा दे रहा है। यूपीए-द्वितीय की परेशानियाँ इस कानून के कारण बढ़ी हैं या ‘स्वतंत्र सरकारी काम-काज‘ की परिभाषा में कोई दोष है? जिस वक्त यह कानून पास हो रहा था, तबसे अब तक फाइलों की नोटिंग-ड्राफ्टिंग और आधिकारिक पत्रों को आरटीआई के दायरे में रखने को लेकर सरकारी प्रतिरोध में कभी कमी नहीं हुई। सरकारों को स्वतंत्र और निर्भय होकर काम करना चाहिए, इस बात का विरोध किसी ने नहीं किया। पर टीप का बंद यह है कि काम पारदर्शी तरीके से होना चाहिए।

Saturday, September 24, 2011

मीडिया-भ्रष्टाचार के खिलाफ बंद !!!

ऐसा पहली बार सुनाई पड़ा है। कर्नाटक के एक कस्बे में जनता ने मीडिया के भ्रष्टाचार के विरोध में बंद रखा। आमतौर पर कन्नड़ पत्रकारों से जुड़े मीडिया ब्लॉग सैंस सैरिफ ने यह खबर कन्नड़ अखबार प्रजा वाणी के मार्फत दी है। बहरहाल अब यह पता लगाने की ज़रूरत है कि मीडिया के किस तरह के काम से जनता नाराज़ है।  एक शिकायत पक्षपात की होती है, यहाँ तो बात वसूली और आरटीआई के दुरुपयोग वगैरह की है।

सैंस सैरिफ के अनुसार उत्तरी कर्नाटक के मुधोल शहर में यह बंद पूरी तरह सफल रहा। इस बंद में दुकानदार, कर्मचारी राजनेता, सामाजिक कार्यकर्ता, यहाँ तक कि पत्रकार भी शामिल हुए। सैंस सैरिफ की रपट इस प्रकार हैः-


A town shuts down to protest media corruption!24 September 2011Unbelievable as it may sound, residents of the town of Mudhol in North Karnataka observed a bandh (shutdown) on Tuesday, September 20, to protest “blackmail journalism” and the growing number of imposters masquerading as journalists to extort money.
According to a report in the Kannada daily Praja Vani, the bandhin the town of 100,000 residents was a “complete success”.
Shops and business establishments downed their shutters for a few hours, and vehicles were off the roads.
The protestors included politicians, farmers, even journalists, and a host of other organisations. They marched to thetahsildar‘s office and presented a memorandum.
One protestor slammed weekly newspapers for bringing a bad name to the entire profession, and another targetted the misuse of the right to information (RTI) Act to ferret out information that was later used for extortion.
Mudhol town is famous for its country-bred hounds used for hunting.

सैंस सैरिफ पढ़ने के लिए क्लिक करें

पीएम जी और उनके 2जी !!!

वित्त मंत्रालय का वह नोट किस तरह बना, क्यों बना, किसने उसे माँगा और उसका अभी तक जिक्र क्यों नहीं हुआ, यह बातें अगले जो-एक रोज़ में रोचक मोड़ लेंगी। फिलहाल प्रधानमंत्री जब देश वापस आएंगे तो कुछ नई परेशानियाँ उनके सामने होंगी। पारदर्शिता का ज़माना है। आज हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून जोरदार है।  आनन्द लें


इस मामले पर फर्स्ट पोस्ट में रमन किरपाल ने लिखा है कि यह नोट किसी ह्विसिल ब्लोवर का काम है। जबकि हिन्दुस्तान टाइम्स की रपट कहती है कि यह सरकार के बचाव के लिए अच्छी तरह विचार-विमर्श के बाद तैयार किया गया नोट है। आप खुद इस नोट को पढ़ कर देखना चाहते हैं तो क्लिक करें

Friday, September 23, 2011

एटमी ऊर्जा की तस्वीर साफ होनी चाहिए

जयललिता के आश्वासन के बाद तमिलनाडु के कूडानकुलम एटमी बिजलीघर के विरोध में चल रहा आमरण अनशन स्थगित हो गया है, पर मामला कुछ और जटिल हो गया है। जयललिता ने कहा है कि प्रदेश विधानसभा प्रस्ताव पास करके केन्द्र से अनुरोध करेगी कि बिजलीघर हटा ले। जापान के फुकुशीमा हादसे के बाद नाभिकीय ऊर्जा विवाद का विषय बन गई है, पर अभी दुनिया भर में एटमी बिजलीघर चल रहे हैं और लग भी रहे हैं। चीन ने नए रिएक्टर स्थापित करने पर रोक लगाई थी, पर अब 25 नए रिएक्टर लगाने की घोषणा की है। केवल विरोध के आधार पर बिजलीघरों के मामले में फैसला नहीं होना चाहिए। हाँ सरकार को यह बताना चाहिए कि ये बिजलीघर किस तरह सुरक्षित हैं।


इस साल मार्च में जापानी सुनामी के बाद जब फुकुशीमा एटमी बिजलीघर में विस्फोट होने लगे तभी समझ में आ गया था कि आने वाले दिनों में नए एटमी बिजलीघर लगाना आसान नहीं होगा। एटमी बिजलीघरों की सुरक्षा को लेकर बहस खत्म होने वाली नहीं। रेडिएशन के खतरों को लेकर दुनिया भर में शोर है। पर सच यह भी है कि आने वाले लम्बे समय तक एटमी बिजली के बराबर साफ और सुरक्षित ऊर्जा का साधन कहीं विकसित नहीं हो पा रहा है। सौर, पवन और हाइड्रोजन जैसे वैकल्पिक ऊर्जा विकल्प या तो बेहद छोटे हैं या बेहद महंगे।

Wednesday, September 21, 2011

श्रीलाल शुक्ल और अमरकांत को ज्ञानपीठ पुरस्कार

ज्ञानपीठ पुरस्कार देश का सबसे सम्मानित पुरस्कार है। 1965 में जब यह पुरस्कार शुरू हुआ था तब उसे अंग्रेजी मीडिया में भी तवज्जोह मिल जाती थी। धीरे-धीरे अंग्रेजी मीडिया ने उस तरफ ध्यान देना बंद कर दिया। अब शेष भारतीय भाषाओं का मीडिया भी उस तरफ कम ध्यान देता है। बहरहाल आज लखनऊ के जन संदेश टाइम्स ने इस खबर को लीड की तरह छापा तो मुझे विस्मय हुआ। यह खबर एक रोज पहले जारी हो गई थी, इसलिए इसे इतनी प्रमुखता मिलने की सम्भावना कम थी। पर लखनऊ और इलाहाबाद के लिए यह बड़ी खबर थी ही। इन शहरों के लेखक हैं। क्या इन शहरों के युवा जानते हैं कि ये हमारे लेखक हैं? बहरहाल मीडिया को तय करना होता है कि वह इसे कितना महत्व दे। लेखकों, साहित्यकारों और दूसरे वैचारिक कर्मों से जुड़े विषयों की कवरेज अब अखबारों में कम हो गई है।

1965 से अब तक हिन्दी के सात लेखकों को यह पुरस्कार मिल चुका है। इनके नाम हैं- 1.सुमित्रानंदन पंत(1968), 2.रामधारी सिंह "दिनकर"(1972), 3.सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय(1978), 4.महादेवी वर्मा(1982), 5.नरेश मेहता(1992), 6.निर्मल वर्मा(1999), 7.कुंवर नारायण।

कोई लेखक, विचारक, कलाकार, रंगकर्मी क्यों महत्वपूर्ण होता है, कितना महत्वपूर्ण होता है, लगता है  इसपर विचार करने की ज़रूरत भी है। फिल्मी कलाकारों, क्रिकेट खिलाड़ियों या किसी दूसरी वजह से सेलेब्रिटी बने लोगों के सामने ये लोग फीके क्यों पड़ते हैं, यह हम सबको सोचना चाहिए। अखबारों में पुरस्कार राशि भी छपी है। यह राशि ऐश्वर्या या करीना कपूर की एक फिल्म या शाहरुख के एक स्टेज शो की राशि के सामने कुछ भी नहीं है। बहरहाल आज के जन संदेश टाइम्स के सम्पादकीय पेज पर वीरेन्द्र यादव का लेख पढ़कर भी अच्छा लगा। खुशी इस बात की है कि किसी ने इन बातों पर ध्यान दिया।

वीरेन्द्र यादव का लेख पढ़ने के लिए कतरन पर क्लिक करें

Tuesday, September 20, 2011

राष्ट्रीय पार्टियों के लिए चुनौती होंगे 2012 के चुनाव


उत्तराखंड में नेतृत्व परिवर्तन हो गया है। सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले को नरेन्द्र मोदी की विजय के रूप में भाजपा प्रचारित कर रही है। और लालकृष्ण आडवाणी की और रथयात्रा पर निकलने वाले हैं। अमेरिकी संसद के एक पेपर के निहितार्थ को लेकर विशेषज्ञ प्राइम टाइम को धन्य कर रहे हैं। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, सपा और बसपा की गतिविधियाँ तेज़ हो गईं हैं। इस इतवार को शिरोमणि गुरद्वारा प्रबंधक समिति के चुनाव में कांग्रेस और अकाली दल की ताकत का पंजाब में पहला इम्तहान होगा। 2012 के विधान सभा चुनाव पर इसका असर नज़र आएगा। कांग्रेस इस चुनाव में औपचारिक रूप से नहीं उतरी है, पर उसके प्रत्याशी और नेता मैदान में हैं। उत्तर भारत के इन तीन राज्यों के अलावा मणिपुर और गोवा में भी अगले साल चुनाव हैं। इन पाँचों राज्यों से लोकसभा की 100 सीटें है। लोकसभा और विधानसभा चुनावों के मसले अलग और वक्त भी अलग है, पर कहीं न कहीं वोटर के मिजाज़ का पता लगने लगता है। अन्ना हजारे के आंदोलन के बाद पहली बार देश के बड़े हिस्से के लोगों की राजनीतिक राय सामने आएगी। हर लिहाज़ से ये चुनाव महत्वपूर्ण साबित होंगे।

शहरयार की तस्वीर


19 सितम्बर के टाइम्स ऑफ इंडिया में अंदर के पेज पर शहरयार को ज्ञानपीठ पुरस्कार दिए जाने की तस्वीर छपी है। 20 के टाइम्स ऑफ इंडिया के पहले सफे पर लीड खबर के रूप में टाइम्स ऑफ इंडिया के सोशल इम्पैक्ट अवार्ड्स की खबर तमाम तस्वीरों के साथ छपी है। अंदर के पन्नों पर भी अच्छी कवरेज है। दोनों खबरों में कोई टकराव नहीं, पर खबर पेश करने के तरीके में अंतर है। ज्ञानपीठ पुरस्कार देने वाली संस्था भी टाइम्स ग्रुप से सम्बद्ध है। यह देश का सबसे बड़ा पुरस्कार है। एक ज़माने तक इस पुरस्कार की तस्वीरें टाइम्स ग्रुप के अखबारों में पहले सफे पर ही छपती थीं। मुझे लगता है अखबार से ज्यादा पाठकों के मन में अपने साहित्य और संस्कृति से अनुराग कम हुआ है।  

Monday, September 19, 2011

राजनीति में जिसका स्वांग चल जाए वही सफल है



दारुल-उल-उलूम देवबंद के पूर्व मोहातमिम गुलाम मुहम्मद वस्तानवी ने नरेन्द्र मोदी के बारे में क्या कहा था? यही कि नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में गुजरात का विकास हुआ है। और दूसरे यह कि जहाँ तक विकास की बात है मुसलमानों के साथ भेदभाव नहीं बरता गया। उन्होंने यह भी कहा कि 2002 के दंगे देश के लिए कलंक हैं। दोषियों को सजा मिलनी चाहिए। दंगों के दौरान पुलिस ने मुसलमानों को नहीं बचाया, क्योंकि ऊपर से राजनीतिक दबाव था। वस्तानवी ने इसके अलावा यह भी कहा कि मुसलमानों को अच्छी शिक्षा लेनी चाहिए। उनके लिए नौकरियों का बंदोबस्त तभी हो सकता है जब वे अच्छी तरह पढ़ें।

मोदी के बारे में वस्तानवी का बयान एकतरफा नहीं था। पर शायद देवबंद के प्रमुख पद पर बैठे व्यक्ति से देश के ज्यादातर मुसलमानों को ऐसी उम्मीद नहीं थी। मोदी के बारे में मुसलमानों को नरम बयान नहीं चाहिए। गुजरात में मुसलमानों का जिस तरह संहार किया गया वह क्या कभी भुलाया जा सकता है? फिर वस्तानवी ने ऐसा बयान क्यों दिया? वे तो गुजराती हैं। उन्हें तो दंगों की भयावहता की जानकारी थी। उनकी ईमानदारी पर पहले किसी को संदेह नहीं था। पर इस बयान से कहानी बदल गई। उन्हें पद से हटा दिया गया। और जब उन्हें हटाया जा रहा था तभी यह बात कही जा रही थी कि उनके हटने की वजह यह भी है कि वे गुजरात से हैं। वस्तानवी उन कुछ मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिनकी राय है कि हमें गोधरा कांड के बाद हुए दंगों से आगे बढ़ना चाहिए। बात मोदी को माफ करने या उन्हें समर्थन देने की नहीं है। बल्कि नए दौर में मुसलमानों के दूसरे सवालों को रेखांकित करने की भी है।

Sunday, September 18, 2011

चीन में जनता का विरोध


चीन में ऐसी तस्वीरें मीडिया में प्रसारित नहीं होतीं। हेनिंग, जेंगजियांग प्रांत के होंगशियाओ के तरकीबन 500 निवासियों ने जिंको सोलर कॉरपोरेशन के सामने प्रदर्शन किया और उसके आस-पास खड़ी आठ गाड़ियों को उल्टा कर दिया। यह कार उनमें से एक है। चीन की जनता नाराज होती है और उपद्रव भी करती है, इस बात पर  विस्मय होता है। यह फोटो ग्लोबल टाइम्स की वैबसाइट पर नजर आई।

Saturday, September 17, 2011

गूगल पर अनंत पै


गूगल के होम पेज पर अक्सर देशकाल के हिसाब से चित्र बदलता है। 17 सितम्बर को अनंत पै के 82 वें जन्म दिन की याद करते हुए उनका चित्र लगाया है। अनंत पै को न जाने कितने भारतीय याद रखते हैं। उनका योगदान केवल चित्रकथाएं नहीं हैं। उन्होंने अमर चित्र कथा के रूप में एक नए विषय का प्रवेश कराया। भारत में फैंटम, मैनड्रेक और फ्लैश गॉर्डन जैसे पात्रों का प्रवेश कराया और बच्चों से लेकर बूढ़ों तक के लिए सुरुचिपूर्ण सामग्री तैयार की।

बीमारी का इलाज




सन 2008-09 में वैश्विक आर्थिक मंदी की बेला में भारतीय उद्योग-व्यापार ने हाहाकार शुरू कर दिया था। इस पर सरकार ने 1.86 लाख करोड़ रु की कर राहत दी थी। वह अभी जारी है। अभी उद्योगपति और कर राहत चाहते हैं। सरकार खाद्य सुरक्षा का बिल ला रही है। इस पर काफी खर्च होगा। सरकार के पास वित्तीय घाटे को सन 2013-14 तक 3.5 प्रतिशत पर लाने का तरीका सिर्फ यही है कि उपभोक्ता पर लगने वाला टैक्स बढ़ाओ। पेट्रोल के 70 रु में 45 से ज्याद टैक्स है। पेट्रोल की कीमत बढ़ने से सिर्फ कार चलाने वालों को ही कष्ट नहीं होता। सब्जी से लेकर दूध तक महंगा हो जाता है। वही हो रहा है। हिन्दू में केशव का यह कार्टून सही इशारा कर रहा है। डीएनए में मंजुल का कार्टून कार चलाने वालों की टूटती साँस की ओर इशारा कर रहा है

Friday, September 16, 2011

प्रत्याशियों का चुनाव खर्च

जन प्रतिनिधियों के चुनाव खर्च को लेकर पिछले दो दशक में काफी दबाव बना है। व्यवस्था को पारदर्शी बनाने की तमाम कोशिशों के बावजूद अब भी जितना सामने है उससे ज्यादा छिपा रहता है। बहरहाल देश की कुछ संस्थाएं चुनाव पर नज़र रखने लगीं हैं। उनमें एक है एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर)। इसी के तहत  इलेक्शन वॉच का काम होता है।

एडीआर ने इस साल हुए पाँच राज्यों के चुनाव में प्रत्याशियों के खर्च का विवरण दिया है वह रोचक है। जिन पाँच राज्यों में चुनाव हुआ उनके नाम हैं प बंगाल, असम, केरल, तमिलनाडु और पुदुच्चेरी। इनमे पहले चार राज्यों में प्रत्याशियों के खर्च की सीमा 16 लाख रु है और पुदुच्चेरी में 9 लाख रु। प्रत्याशियों को अपने खर्च का  विवरण 30 दिन में देना होता है। इस साल 13 मई को चुनाव परिणाम घोषित हुए थे। इस प्रकार 30 जून तक प्रत्याशियों ने विवरण दिए। एक हफ्ता चुनाव आयोग को लगा। 20 जून तक चुनाव आयोग की साइट पर इनका विवरण आ गया। चुनाव घोषित होने के 45 दिन के भीतर चुनाव खर्च को लेकर चुनौती दी जा सकती है। इन चुनावों के संदर्भ में वह तारीख थी 28 जुलाई। कितने प्रत्याशियों के चुनाव को चुनौती मिली पता नहीं, पर प्रत्याशियों ने जो विवरण दिया है वह रोचक है। 


राज्य
सीटों का विवरण
खर्च की सीमा
औसत खर्च
1
असम
126
16 लाख रु
9.01 लाख रु
2
बंगाल
217
16 लाख रु
7.06 लाख रु
3
केरल
139
16 लाख रु
9.39 लाख रु
4
तमिलनाडु
234
16 लाख रु
7.12 लाख रु
5
पुदुच्चेरी
039
09 लाख रु
3.12 लाख रु

एडीआर ने कुल 746 एमएलए के खर्च का विश्लेषण किया है। इनमें से केवल 32 ने माना है कि उन्होंने खर्च की सीमा के 80 फीसदी से ज्यादा खर्च किया। 403 ने 50 फीसदी से कम खर्च किया। किसी भी एमएलए ने सीमा से ज्यादा खर्च नहीं किया। यहाँ दो बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिएः-

1. लगभग सभी दल माँग करते हैं कि चुनाव खर्च की सीमा कम है। उसे बढ़ाया जाना चाहिए। पर जब खर्च होता है तो वे सीमा से कहीं कम खर्च करते हैं।
2. चुनाव आयोग के पर्यवेक्षकों ने इस दौरान काफी नकद राशि बरामद की। अकेले तमिलनाडु में ही 60 करोड़ रु से ज्यादा बरामद हुए। यह किसका पैसा था और कौन खर्च कर रहा था? अकेले तिरुचिरापल्ली में एक बस से 5.11 करोड़ रु बरामद हुए। एक और छापे में मदुरै में 3.5 करोड़ रु बरामद हुए थे। 

आप राज्यवार विवरण पढ़ना चाहें तो यहाँ पढ़ सकते हैं। 

एडीआर की साइट पर जब आप जाएंगे तो माय नेता और इलेक्शन वॉच वगैरह के नाम दिखाई देंगे। एक जगह इंडिया अगेंस्ट करप्शन का नाम भी दिखाई देगा। सवाल है कि क्या इस विश्लेषण के पीछे कोई साजिश काम कर रही है? क्या यह राजनीति को बदनाम करने की कोशिश है? इस काम के लिए हो सकता है कुछ निजी कम्पनियों ने चंदा भी दिया हो। तब क्या इस विश्लेषण को इन कम्पनियों की साजिश मानना चाहिए? 

अगले साल के विधान सभा चुनाव में ये गतिविधियाँ बढ़ेगी। इन्हें हम नए मध्य वर्ग की जागृति मानें या देश की गरीब जनता के विरोध में खड़ा आंदोलन? हो सकता है कि कुछ लोग पूछें कि इन लोगों की जल,जंगल, जमीन वगैरह के बारे में राय क्या है। मुझे पता नहीं कि शर्मिला इरोम की जल,जंगल और जमीन के बारे में या भारत की विदेश नीति, आर्थिक नीति और औद्योगिक नीति पर राय क्या है, पर एक तबका उनका नाम लेकर सिविल सोसायटी की अवधारणा को ही खारिज करता है।  

इनकी वैब साइट से मैने इनके बारे में भी जानकारी लेकर नीचे दी है। मुझे इनका काम सकारात्मक लगता है। हमने जिस संवैधानिक-लोकतांत्रिक व्यवस्था का वरण किया है, उसमें जनता का हस्तक्षेप बुनियादी शर्त है। इन लोगों ने देश की अदालतों की मदद से चुनाव सुधार में मदद ली है। आप उचित समझें तो मैं उन तथ्यों को एकत्र कर  सकता हूँ, जिनसे पता लगता है कि देश के राजनीतिक दलों ने इस प्रकार के सुधारों का विरोध किया है।  लोकतंत्र केवल चुनाव लड़ना ही नहीं है, चुनाव की पद्धति को दुरुस्त करना भी है। बेशक भ्रष्टाचार केवल इतने से खत्म नहीं हो जाएगा। बहरहाल नीचे इनका परिचय पढ़ें, जो इन्होंने अपनी वैबसाइट में दिया है। ।  


Association for Democratic Reforms (ADR) was established in 1999 by group of professor from Indian Institute of Management (IIM) Ahmedabad. In 1999, Public Interest Litigation (PIL) was filed by them with Delhi High Court asking the disclosure of criminal, financial and educational background of the candidates contesting elections. Based on this, the Supreme Court in 2002 and subsequently in 2003, made it mandatory for all candidates contesting elections to disclose Criminal, Financial and educational background prior to the polls by filing an affidavit with Election Commission. 

The first election watch was conducted by ADR in 2002 for Gujrat Assembly Elections whereby detailed analysis of the backgrounds of candidates contesting elections was provided to the electorate in order to help the electorate make an informed choice during polls. Since then ADR has conducted Election Watches for almost all state and parliament elections in collaboration with the National Election Watch. It conducts multiple projects aimed at increasing transparency and accountability in the political and electoral system of the country.

Our Mission

Our goal is to improve governance and strengthen democracy by continuous work in the area of Electoral and Political Reforms. The ambit and scope of work in this field is enormous, Hence, ADR has chosen to concentrate its efforts in the following areas pertaining to the political system of the country:

Corruption and criminalization in the political process.
       
Empowerment of the electorate through greater dissemination of information relating to      the candidates and the parties, for a better and informed choice.
Need for greater accountability of Political Parties.
          Need for inner-party democracy and transparency in party-functioning and gaps in the disclosure of  candidate’s profile.




Monday, September 12, 2011

साम्प्रदायिक हिंसा कानून के राजनीतिक निहितार्थ


साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ प्रस्तावित कानून की भावना जितनी अच्छी है उतना ही मुश्किल है इसका व्यावहारिक रूप। यह कानून अल्पसंख्यकों की रक्षा के लिए बनाया जा रहा है। पर इसका जितना प्रचार होगा उतना ही बहुसंख्यक वर्ग इसके खिलाफ जाएगा। हो सकता है कि कांग्रेस को इससे राजनीतिक लाभ मिले, पर भाजपा को भी तो मिलेगा। इस कानून के संघीय व्यवस्था के संदर्भ में भी कुछ निहितार्थ हैं। इसका नुकसान किसे होगा? बहरहाल इस कानून की भावना जो भी हो इसे सामने लाने का समय ठीक नहीं है। 



यूपीए दो की सरकार बनने के बाद लगा कि भाजपा के दिन लद गए। अटल बिहारी वाजपेयी के नेपथ्य में जाने के बाद पार्टी के पास मंच पर कोई दूसरा नेता नहीं बचा। पिछले दो साल से पार्टी की नैया हिचकोले खा रही है। पिछले साल झारखंड में शिबू सोरेन के साथ लेन-देन के शुरूआती झटकों के बाद पार्टी के नेतृत्व में सरकार बन गई। कर्नाटक में अच्छी भली सरकार बन गई थी, पर येदियुरप्पा को रेड्डी बंधुओं की दोस्ती रास नहीं आई। सन 2009 के अंत में एकदम अनजाने से नितिन गडकरी पार्टी अध्यक्ष बने तब लगा कि इसे चलाने वालों का सिर फिर गया है। पर वक्त की बात है कि इसे प्रणवायु मिलती रही। इसमे पार्टी की अपनी भूमिका कम दूसरों की ज्यादा है। पिछले डेढ़ साल से भाजपा को यूपीए सरकार प्लेट में रखकर मौके दे रही है। पता नहीं अन्ना-आंदोलन में इनका कितना हाथ था, पर ये फायदा उठा ले गए। और अब सरकार संसद के शीत सत्र में साम्प्रदायिक हिंसा के खिलाफ जो विधेयक पेश करने वाली है, उसका फायदा कांग्रेस को मिले न मिले, भाजपा को ज़रूर मिलेगा।

Sunday, September 11, 2011

यह मीडिया का आतंकवाद है



आतंकवादी हिंसा, साम्प्रदायिक हिंसा और दूसरे किस्म के टकरावों की कवरेज को लेकर विचार करने का समय आ गया है। नवम्बर 2008 के मुम्बई हमलों के दौरान कई दिन तक चली धारावाहिक कवरेज का फायदा हमलावरों के आकाओं ने उठाया। जब तक हम समझ पाते नुकसान हो चुका था। हिंसा की कवरेज और उसके संदर्भ में होने वाले स्टूडियो डिस्कशन अक्सर माहौल को सम्हालने के बजाय बिगाड़ देते हैं। आतंवादियों का उद्देश्य हमारे मनोबल पर हमला करना होता है। अक्सर उसके इस इरादे को मीडिया से मदद मिलती है।

Friday, September 9, 2011

स्वागत कैप्टेन

पिछले एक महीने में भारतीय राजनीति और प्रशासन ने बहुत कुछ देख लिया। सागर मंथन चल रहा है। पर इसमें नया रत्न कोई निकल कर नहीं आ रहा। अलबत्ता सोनिया गांधी की वापसी पर हिन्दू में प्रकाशित यह कार्टून अच्छा है। 

आत्मविश्वास हमारा, या आतंकवादियों का?




दो दिन बाद 9/11 की दसवीं बरसी है। 9 सितम्बर 2001 को न्यूयॉर्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के अलावा दो और इमारतें ध्वस्त हो गईं थीं। सोलह एकड़ का यह क्षेत्र अमेरिकी जनता के मन में गहरा घर कर गया है। उसी रोज न्यूयॉर्क के मेयर रूडी गुइलानी, गवर्नर जॉर्ज पैटकी और राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने घोषणा की थी कि इन बिल्डिंगों को फिर से तैयार किया जाएगा। इनमें से एक 7 वर्ल्ड ट्रेड सेंटर 2006 में तैयार हो गई और बाकी दो भी तैयार हो रही हैं।

अमेरिकी मानते हैं कि इन इमारतों को नहीं बनाया जाता तो यह आतंकवादियों की जीत होती। सच यह है कि उस दिन के बाद से न्यूयॉर्क ने आतंकवादियों को दूसरी कार्रवाई का मौका नहीं दिया। अमेरिका आज़ादी का देश था। वहाँ कोई भी अपने ढंग से रह सकता था। पिछले दस साल में यह देश बदल गया। अमेरिकी सरकार ने 400 अरब डॉलर की अतिरिक्त राशि सुरक्षा व्यवस्थाओं पर खर्च की और करीब एक हजार तीन सौ अरब डॉलर इराक और अफगानिस्तान की लड़ाइयों पर, जिन्हें यह देश 9/11 से जोड़ता है। पिछले दस साल में लोगों की व्यक्तिगत आज़ादी कम हो गई है। सारा ध्यान सुरक्षा पर है। वहाँ नागरिक अधिकारों के समर्थक इस अतिशय सुरक्षा का विरोध कर रहे हैं।

Monday, September 5, 2011

राजनीति में ही है राजनीतिक संकट का हल



दो साल पहले की बात है। प्रेम प्रकाश सिंह उर्फ मुन्ना बजरंगी को किसी सिलसिले में गिरफ्तार किया गया था। तभी उन्होंने कहीं कहा कि मैं राजनीति में आना चाहता हूँ। उनकी माँ को विश्वास है कि उनका बेटा राजनीति में आकर मंत्री बनेगा। कुछ साल पहले फिल्म अभिनेत्री शिल्पा शेट्टी ने कहीं कहा था कि मैं राजनीति में कभी नहीं आना चाहूँगी। ऐसे शब्दों को हम खोजने की कोशिश करें, जिनके अर्थ सबसे ज्यादा भ्रामक हैं तो राजनीति उनमें प्रमुख शब्द होगा। व्यावहारिक अर्थ में राजनीति अंतर्विरोधों के बीच सामंजस्य बैठाने की कला है। भारत जैसे देश में जहाँ दुनिया के सबसे ज्यादा अंतर्विरोध पाए जाते हैं, इस कला की सबसे ज्यादा ज़रूरत है। संयोग से हमारे यहाँ राजनीति की कमी नहीं है, बल्कि इफरात है। फिर भी हाल के अन्ना हजारे के आंदोलन में सबसे ज्यादा फजीहत राजनीति की हुई। लोगों को लगता है कि यह आंदोलन राजनीति-विरोधी था।

Friday, September 2, 2011

जनता माने क्या, जनतंत्र माने क्या?

इस आंदोलन को अन्ना हजारे का आंदोलन नाम दिया गया है, क्योंकि हम व्यक्ति पर ज्यादा जोर देते हैं। उसकी वंदना करते वक्त और आलोचना करते वक्त भी। आरोप यह भी है कि सिविल सोसायटी ने लोकतांत्रिक संस्थाओं की मर्यादा नष्ट करते हुए तानाशाही अंदाज़ में सारा काम कराना चाहा। काफी हद तक यह बात सही है, पर क्या हमारे यहाँ जनता की भागीदारी सुनिश्चित कराने वाली लोकतांत्रिक संस्थाएं हैं? जनता को अपनी व्यवस्था में भाग लेने का अधिकार है या नहीं? जब हम राइट टु इनफॉर्मेशन की बात कर रहे थे, तब क्या यह तर्क नहीं था कि देश में तो ऑफीशियल सीक्रेट्स एक्ट है। जनता कौन होती है जानकारी माँगने वाली? आज हम यह सवाल नहीं करते। इस आंदोलन में काफी लोगों की भागीदारी थी, फिर भी काफी लोग उसमें शामिल नहीं थे या उसके आलोचक थे। ऐसा क्यों था? जनता की भागीदारी के माने क्या हैं? जनता क्या है? कौन लोग जनता हैं और कौन लोग जनता के बाहर हैं? जनता का सबसे नीचे वाला तबका (सबआल्टर्न) क्या सोचता है? ऐसी तमाम बातें हैं। हमें इनपर भी सोचना चाहिए।  
इस आंदोलन के दौरान यह बात कई बार कही गई कि जन प्रतिनिधि प्रणाली और संवैधानिक मर्यादाओं का उल्लंघन हो रहा है। यह भी कहा गया कि कोई बदलाव करना है तो चुनाव लड़िए, चुनकर आइए और बदलाव कीजिए। आपको बाहर रहकर बदलाव के लिए दबाव डालने का अधिकार नहीं है। इसकी तुलना फिल्म शोले में टंकी पर चढ़कर बसंती का हाथ माँगने वाले वीरू से की गई। पर टंकी या छत पर चढ़कर अपनी माँग मनवाने का चलन आज का नहीं है। जनता की भागीदारी का भी यह पहला आंदोलन नहीं था। अलबत्ता क्षेत्रीय, जातीय और साम्प्रदायिक मसलों पर भीड़ बेहतर जुड़ती है। ज्यादा बड़े मसलों पर जनता को जमा करना आसान नहीं होता। और वह जमा होती है तो विस्मय होता है कि ऐसा क्योंकर हो गया। उसके बाद कांसिपिरेसी थियरी जन्म लेती है।