Monday, April 29, 2013

'नेता' का एजेंडा सेट कर गए मोदी



कर्नाटक में भाजपा ने नरेंद्र मोदी का बेहतर इस्तेमाल जान-बूझकर नहीं किया या यह पार्टी के भीतरी दबाव का परिणाम था? सिर्फ एक रैली से मोदी पार्टी के सर्वमान्य नए राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित नहीं होते.

हाँ, वे प्रादेशिक नेता के बजाय राष्ट्रीय नेता के रूप में प्रकट ज़रूर हुए हैं. उससे ज्यादा बड़ी बात यह है कि उन्होंने मौका लगते ही ‘ताकतवर नेता’ की ज़रूरत को फिर से राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बना दिया है.

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और एक पुराना लेख
क्या मोदी की मंच कला राहुल से बेहतर है

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

सतीश आचार्य का कार्टून

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

सीबीआई क्या खुद पहल करेगी?

कोल ब्लॉक आबंटन की स्टेटस रिपोर्ट के मसले में कानून मंत्री और सीबीआई डायरेक्टर दोनों ने मर्यादा का उल्लंघन किया है। पर इस वक्त सीबीआई डायरेक्टर चाहें तो एक बड़े बदलाव के सूत्रधार बन सकते हैं। इस मामले में सच क्या है, उनसे बेहतर कोई नहीं जानता। उन्हें निर्भय होकर सच अदालत और जनता के सामने रखना चाहिए। दूसरे ऐसी परम्परा बननी चाहिए कि भारतीय प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा तथा अन्य महत्वपूर्ण सेवाओं के अफसरों को सेवानिवृत्ति के बाद कम से कम पाँच साल तक कोई नियुक्ति न मिले। भले ही इसके बदले उन्हें विशेष भत्ता दिया जाए। इससे अफसरों के मन में लोभ-लालच नहीं रहेगा। सत्ता का गलियारा बेहद पेचीदा है। यहाँ के सच उतने सरल नहीं हैं, जितने हम समझते हैं। बहरहाल काफी बातें अदालत के सामने साफ होंगी। रंजीत सिन्हा के हलफनामे में जो नहीं कहा गया है वह सामने आना चाहिएः-
कुछ बातें जो अभी तक विस्मित नहीं करती थीं, शायद वे अब विस्मित करें। कोयला मामले में सीबीआई डायरेक्टर रंजीत सिन्हा के अदालत में दाखिल हलफनामे में कहा गया है कि मामले की स्टेटस रिपोर्ट का ड्राफ्ट कानून मंत्री को दिखाया गया, जिसकी उन्होंने इच्छा व्यक्त की थी। सीबीआई ने अपनी रपट 8 मार्च को दाखिल की थी। उसके बाद 12 मार्च को अटॉर्नी जनरल जीई वाहनावती ने अदालत से कहा कि हमने इस रपट को देखा नहीं था। इसके बाद अदालत ने सीबीआई के डायरेक्टर को निर्देश दिया कि वे हलफनामा देकर बताएं कि यह रिपोर्ट सरकार को दिखाई गई या नहीं। अदालत ने ऐसा निर्देश क्यों दिया? इसके बाद 13 अप्रेल के अंक में इंडियन एक्सप्रेस ने खबर दी कि सीबीआई डायरेक्टर अदालत में दाखिल होने वाले हलफनामे में इस बात को स्वीकार करेंगे कि रपट सरकार को दिखाई गई थी।

Sunday, April 28, 2013

चीनी रिश्तों की जटिलता को समझिए


भारत और चीन के बीच जितने अच्छे रिश्ते व्यापारिक धरातल पर हैं उतने अच्छे राजनीतिक मसलों में नहीं हैं। लद्दाख का विवाद कोई बड़ी शक्ल ले सके पहले ही इसका हल निकाल लिया जाना चाहए। पर उसके पहले सवाल है कि क्या यह विवाद अनायास खड़ा हो गया है या कोई योजना है। हाल के वर्षों में चीन के व्यवहार में एक खास तरह की तल्खी नज़र आने लगी है। इसे गुरूर भी कह सकते हैं। यह गुरूर केवल भारत के संदर्भ में ही नहीं है। उसके अपने दूसरे पड़ोसियों के संदर्भ में भी है। जापान के साथ एक द्वीप को लेकर उसकी तनातनी काफी बढ़ गई थी। दक्षिण चीन सागर में तेल की खोज को लेकर वियतनाम के साथ उसके रिश्तों में तल्खी आ गई है। संयोग से भारत भी उस विवाद में शामिल है। दक्षिणी चीन सागर में अधिकार को लेकर चीन का वियतनाम, फिलीपींस, ताइवान, ब्रुनेई और मलेशिया के साथ विवाद है। चीन इस पूरे सागर पर अपना दावा जताता है जिसका पड़ोसी देश विरोध करते है। चीन के सबसे अच्छे मित्रों में पाकिस्तान का नाम है। यह इसलिए है कि हमारा पाकिस्तान के साथ विवाद है या पाकिस्तान ने चीन का साथ इसलिए पकड़ा है कि वह भविष्य में भी हमारा प्रतिस्पर्धी रहेगा, कहना मुश्किल है। 

चीनी घुसपैठ गम्भीर है, चिंतनीय नहीं

चीनी के साथ हमारा सीमा विवाद जिस स्तर का है उसके मुकाबले पाकिस्तान के साथ विवाद छोटा है, बावजूद इसके चीन के साथ हमारे रिश्तों में वैसी कड़वाहट नहीं है जैसी पाकिस्तान के साथ है। बुनियादी तौर पर पाकिस्तान का इतिहास 66 साल पुराना है और चीन का कई हजार साल पुराना। वह आज से नहीं हजारों साल से हमारा प्रतिस्पर्धी है। यह प्रतिस्पर्धा पिछले कुछ सौ साल से कम हो गई थी, क्योंकि भारत और चीन दोनों आर्थिक शक्ति नहीं रहे। पर अब स्थिति बदल रही है। बेशक हमारे सीमा विवाद पेचीदा हैं, पर दोनों देश उन्हें निपटाने के लिए लम्बा रास्ता तय करने को तैयार हैं। चीन हमें घेर रहा है या हम चीन की घेराबंदी में शामिल हैं, यह बात दोनों देश समझते हैं। फिर भी लद्दाख में चीनी घुसपैठ किसी बड़े टकराव का कारण नहीं बनेगी। चीन इस वक्त जापान के साथ टकराव में है और भारत से पंगा लेना उसके हित में नहीं। 

Tuesday, April 23, 2013

हमारी निष्क्रियता हमारे पाखंड


 इन सवालों को हिन्दू या मुसलमानों के सवाल मानकर हम किसी एक तरफ खड़े हो सकते हैं पर हमें व्यावहारिक उत्तर चाहिए। टोपी पहन कर किसी एक समुदाय को और टीका लगाकर किसी दूसरे को खुश करने की राजनीति खतरनाक है। इसीलिए कश्मीरी पंडितों के जीवन-मरण के सवाल को हम साम्प्रदायिक मानते हैं और मुसलमानों की आर्थिक बदहाली को छिपाकर उनके भावनात्मक मसलों को उठाते हैं। इतिहास का पहिया उल्टा घुमाया नहीं जा सकता पर यदि आज हमारे सामने 1947 पर वापस जाने का विकल्प हो तो लाखों मुसलमान भी अपने घरों को छोड़कर जाना नहीं चाहेंगे। विभाजन ने हमें बांटा ही नहीं, राजनीतिक पाखंडों से भी लैस कर दिया है। यह खतरनाक है।
बड़ी संख्या में हिन्दू परिवार पाकिस्तान छोड़कर भागना चाहते हैं। बांग्लादेश में 1971 के अपराधियों को लेकर आंदोलन चल रहा है। और रिफ्यूजी कैम्पों में रह रहे कश्मीरी पंडित सवाल पूछ रहे हैं कि क्या हमारा भी कोई देश है। पिछले महीने राज्यसभा में गृह राज्यमंत्री आरपीएन सिंह ने स्वीकार किया कि घाटी में रहने वाले पंडितों को एक पत्र मिला है कि वे कश्मीर छोड़कर चले जाएं। घाटी में रहने वाले पंडितों की संख्या अब बेहद मामूली है। कुल मिलाकर चार हजार के आसपास। पर 1947 में उनकी संख्या डेढ़ से दो लाख के बीच थी। यानी कुल आबादी की 15 फीसदी के आसपास। 1947 की आज़ादी उनके लिए मौत का संदेश लेकर आई थी। सन 1948 के फसादों और 1950 के भूमि सुधारों के बाद तकरीबन एक लाख पंडित कश्मीर छोड़कर चले गए। उनपर असली आफत आई 1989 के बाद। 14 सितंबर, 1989 को चरमपंथियों ने भारतीय जनता पार्टी के राज्य सचिव टिक्का लाल टपलू की हत्या की। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ़्रंट के नेता मक़बूल बट को मौत की सज़ा सुनाने वाले सेवानिवृत्त सत्र न्यायाधीश नीलकंठ गंजू की हत्या उसके डेढ़ महीने बाद हुई। फिर 13 फ़रवरी, 1990 को श्रीनगर के टेलीविज़न केंद्र के निदेशक लासा कौल की हत्या हुई। तकरीबन चार लाख पंडित उस दौरान बेघरबार हुए या मारे गए। ये लोग आज शरणार्थी शिविरों में निहायत अमानवीय स्थितियों में रह रहे हैं। पंडितों को जितनी शिकायत आतंकवादियों से है उतनी भारतीय राजव्यवस्था से भी है।

Monday, April 22, 2013

गूगल का अर्थ डे डूडल

आज 22 अप्रेल है पृथ्वी दिवस। हम धीरे-धीरे महसूस कर रहे हैं अपनी धरती के महत्व को। इंटरनेट सर्च इंजन गूगल ने अपने लोगो का रचनात्मक इस्तेमाल जानकारी बढ़ाने के लिए किया है। आज उसका डूडल धरती के क्रिया-कलाप की जानकारी बड़े रोचक अंदाज़ में देता है। गूगल डूडल के बारे में मैं पहले भी लिखता आया हूँ। आपने भी ध्यान दिया होगा कि गूगल बड़े रोचक ढंग से इसका इस्तेमाल कर रहा है। मैने नीचे अपनी कुछ पुरानी पोस्ट के लिंक भी दिए हैं, जिनमें इस बात को रेखांकित किया था।  कुछ लोगों ने गूगल की तर्ज पर लोगो बनाने शुरू कर कर दिए हैं।लोगूगल ऐसी ही साइट है। 

गूगल ने उगाया अपना डूडल
सन 2012 का गूगल डूडल एनीमेटेड था। पर गूगल ने इस एनीमेशन को कम्प्यूटर पर तैयार करने के बजाय अच्छी तरह उगाया था। उस उगाने का रोचक विवरण पढ़ें यहाँ





डूडल का आयडिया कहाँ से आया और कैसे विकसित हुआ यहाँ पढ़ें

गूगल डूडल्स
डूडल फॉर गूगल प्रतियोगिता
गूगल पर अनंत पै
गूगल लोगो के बारे में पढ़ें विकीपीडिया में

ब्रेक के बाद... और अब वक्त है राजनीतिक घमासान का


बजट सत्र का उत्तरार्ध शुरू होने के ठीक पहले मुलायम सिंह ने माँग की है कि यूपीए सरकार को चलते रहने का नैतिक अधिकार नहीं है। उधर मायावती ने लोकसभा के 39 प्रत्याशियों की सूची जारी की है। दोनों पार्टियाँ चाहेंगी तो चुनाव के नगाड़े बजने लगेंगे। उधर टूजी मामले पर बनी जेपीसी की रपट कांग्रेस और डीएमके के बाकी बचे सद्भाव को खत्म करने जा रही है।  कोयला मामले में सीबीआई की रपट में हस्तक्षेप करने का मामला कांग्रेस के गले में हड्डी बन जाएगा। संसद का यह सत्र 10 मई को खत्म होगा। तब तक कर्नाटक के चुनाव परिणाम सामने आ जाएंगे। भाजपा के भीतर नरेन्द्र मोदी को लेकर जो भीतरी द्वंद चल रहा है वह भी इस चुनाव परिणाम के बाद किसी तार्किक परिणति तक पहुँचेगा।  राजनीति का रथ एकबार फिर से ढलान पर उतरने जा रहा है। 

Sunday, April 21, 2013

पाकिस्तानी न्यायपालिका में इतनी हिम्मत कहाँ से आई?

परवेज़ मुशर्रफ को पाकिस्तान की एक अदालत ने गिरफ्तार करके दो हफ्ते के लिए हिरासत में भेज दिया है। पाकिस्तान में किसी पूर्व सेनाध्यक्ष और वह भी मुशर्रफ जैसे तानाशाह को जेल भेज देना अभूतपूर्व बात है। इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। मुशर्रफ पाकिस्तान क्यों लौटे और इस मामले की तार्किक परिणति क्या होगी, इसे समझने के लिए थोड़ा इंतज़ार करना होगा। इसमे दो राय नहीं कि मुशर्रफ ने नवाज़ शरीफ का तख्ता पलटा। पर इसमें भी दो राय नहीं कि उन्होंने नवाज शरीफ को जिन्दा बाहर जाने दिया। और यही नहीं मुशर्रफ ने ही नवाज शरीफ को देश में वापस भी आने दिया। यह सब क्या सेना की कमज़ोर पड़ती और नागरिक शासन की बेहतर होती स्थिति का संकेत है? ऐसा है तो पीपीपी की गठबंधन सरकार के एक प्रधानमंत्री को इस्तीफा क्यों देना पड़ता? क्यों देश के राजदूत हुसेन हक्कानी की चिट्ठी को लेकर देश की अदालत ने बजाय नागरिक सरकार के सेना के नजरिए को तरज़ीह दी? पाकिस्तान की न्यायपालिका न्यायप्रिय है तो वह मुम्बई पर हमले के जिम्मेदार लोगों को सज़ा देने में हिचक रही है? क्या वजह है कि हाफिज़ सईद अदालती क्लीन चिट के सहारे खुले आम घूम रहे हैं? बहरहाल पाकिस्तान बड़े बदलाव के दौर से गुज़र रहा है। और उसके बारे में कोई भी राय बनाने के पहले अगले महीने हो रहे चुनाव और उसके बाद के घटनाक्रम को गौर से देखना होगा।

पप्पू बनाम फेकू यानी ट्विटरगढ़ की जंग


इस महीने चार अप्रेल को राहुल गांधी के सीआईआई भाषण के बाद ट्विटर पर पप्पूसीआईआई के नाम से कुछ हैंडल तैयार हो गए। इसके बाद 8 अप्रेल को नरेन्द्र मोदी की फिक्की वार्ता के बाद फेकूइंडिया जैसे कुछ हैंडल तैयार हो गए। पप्पू और फेकू का संग्राम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँच गया और तमाम अंतरराष्ट्रीय वैबसाइटों पर पप्पू और फेकू का मतलब बताने वालों की लाइन लगी रही। ट्विटर से फेसबुक पर और फेसबुक से ब्लॉगों पर राजनीतिक घमासान शुरू हो गया है। लगता है अगली चुनावी लड़ाई सोशल मीडिया पर ही लड़ी जाएगी। वोटरों, लेखकों और पत्रकारों के नज़रिए से देखें तो ऐसा ही लगता है। पर राजनेता शायद अभी इसके लिए तैयार नहीं हैं।

Monday, April 15, 2013

सज़ा नहीं हत्या है फाँसी


मौत की सज़ा क्या सोची-समझी ऐसी हत्या नहीं है, जिसकी तुलना हम किसी भी सुविचारित अपराध से नहीं कर सकते? तुलना करनी ही है तो यह उस अपराधी को दी गई सजा है, जिसने अपने शिकार को पहले से बता दिया हो कि मैं फलां तारीख को तुझे मौत की नींद सुला दूँगा। और उसका शिकार महीनों तक उस हत्यारे की दया पर जीता हो। ऐसे वहशी सामान्य जीवन में नहीं मिलते। -अल्बेर कामू

इस साल हम फ्रांसीसी साहित्यकार पत्रकार अल्बेयर कामू की जन्मशती मना रहे हैं। कामू का जन्म फ्रांसीसी उपनिवेश अल्जीरिया में हुआ था। वहीं उनकी शुरूआती पढ़ाई भी हुई। सन 1957 में कामू को नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उसी साल कामू और आर्थर कोस्लर ने मिलकर मौत की सजा के खिलाफ एक लम्बा निबंध लिखा। यह निबंध मनुष्य की प्रकृति का विवेचन करता है। अलबेयर कामू मानवाधिकारों को लेकर बेहद संवेदनशील थे। वामपंथी झुकाव के बावज़ूद उन्हें वामपंथियों की आलोचना का विषय बनना पड़ा। व्यष्टि और समष्टि की इस दुविधा के कारण उन्होंने बहुत से मित्रों को दुश्मन बना लिया। मानवाधिकार को लेकर उन्होंने सोवियत रूस, पोलैंड और जर्मनी की सरकारों के कई निर्णयों की खुलकर आलोचना की। जब कामू लिख ही रहे थे तभी 1954 में अल्जीरिया का स्वतंत्रता संग्राम शुरू हो गया। यहाँ कामू की दुविधाएं सामने आईं। बहरहाल विचार का वह अलग विषय है। मृत्युदंड पर अपने निबंध की शुरूआत कामू एक व्यक्ति की सरेआम गर्दन काटे जाने के प्रसंग से करते हैं, जिसे उनके पिता देखकर आए थे। उस व्यक्ति को एक परिवार की हत्या के कारण मौत की सजा दी गई थी। उसने महिलाओं-बच्चों समेत परिवार के सभी लोगों को मार डाला था। जब पिता इस सजा को देखकर वापस आए तो वे बेहद व्यथित थे। उनके मन में मारे गए बच्चों की छवि नहीं थी बल्कि वह शरीर था, जिसकी गर्दन काटने के लिए उसे एक बोर्ड से नीचे गिराया गया था। कामू ने लिखा राजव्यवस्था के हाथों हुई यह नई हत्या मेरे पिता के मन पर भयानक तरीके से हावी रही। राजव्यवस्था ने एक खराबी के जवाब में दूसरी खराबी को जन्म दिया। यह मान लिया गया कि सजा पाने वाले ने समाज से किए गए अपने अपराध की कीमत चुका दी और न्याय हो गया। यह सामाजिक प्रतिशोध है।

अगले चुनाव के बाद खुलेगी राजनीतिक सिद्धांतप्रियता की पोल


जिस वक्त गुजरात में दंगे हो रहे थे और नरेन्द्र मोदी उन दंगों की आँच में अपनी राजनीति की रोटियाँ सेक रहे थे उसके डेढ़ साल बाद बना था जनता दल युनाइटेड। अपनी विचारधारा के अनुसार नीतीश कुमार, जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव किसी की नरेन्द्र मोदी की रीति-नीति से सहमति नहीं थी। नीतीश कुमार उस वक्त केन्द्र सरकार में मंत्री थे। वे आसानी से इस्तीफा दे सकते थे। शायद उन्होंने उस वक्त नहीं नरेन्द्र मोदी की महत्ता पर विचार नहीं किया। सवाल नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने या न बनने का नहीं। प्रत्याशी बनने का है। उनके प्रत्याशी बनने की सम्भावना को लेकर पैदा हुई सरगर्मी फिलहाल ठंडी पड़ गई है।

Sunday, April 14, 2013

नीतीश के लिए आसान नहीं है एनडीए से अलगाव की डगर


फिलहाल जेडीयू ने भारतीय जनता पार्टी से प्रधानमंत्री पद के अपने प्रत्याशी का नाम घोषित करने का दबाव न डालने का फैसला किया है। पर यदि दबाव डाला भी होता तो यह एक टैक्टिकल कदम होता। दीर्घकालीन रणनीति नहीं। यह धारणा गलत है कि बिहार में एनडीए टूटने की शुरूआत हो गई है। सम्भव था कि जेडीयू कहती, अपने प्रधानमंत्री-प्रत्याशी का नाम बताओ। और भाजपा कहती कि हम कोई प्रत्याशी तय नहीं कर रहे हैं। नरेन्द्र मोदी का पार्टी के संसदीय बोर्ड में आना या प्रचार में उतरना प्रधानमंत्री पद की दावेदारी तो नहीं है। बहरहाल यह सब होने की नौबत नहीं आई। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने नीतीश कुमार और शरद यादव से फोन पर बात की कि भाई अभी किसी किस्म का दबाव मत डालो। यह न आप के लिए ठीक होगा और न हमारे लिए। और बात बन गई।

Friday, April 12, 2013

बेकाबू क्यों हो रहा है उत्तर कोरिया?



जब हम विश्व समुदाय की बात करते हैं तो इसका एक मतलब होता है अमेरिका और उसके दोस्त। और जब हम उद्दंड या दुष्ट देश यानी रोग स्टेट्स कहते हैं तो उसका मतलब होता है उत्तर कोरिया, ईरान और सीरिया और एक हद तक वेनेजुएला। सन 1990 के दशक से दुनिया को शीत-युद्ध से भले मुक्ति मिल गई, पर अमेरिका और इन उद्दंड देशों के बीच तनातनी का नया दौर शुरू हो गया है। अमेरिका का कहना है कि उत्तर कोरिया किसी भी वक्त दक्षिण कोरिया या प्रशांत महासागर में स्थित अमेरिकी अड्डों पर मिसाइलों से हमला कर सकता है। सुदूर पूर्व पर नज़र रखने वालों का कहना है कि उत्तर कोरिया हमला नहीं करेगा। परमाणु बम का प्रहार करने की स्थिति में वह नहीं है। उसके पास एटमी ताकत है ज़रूर, पर डिलीवरी की व्यवस्था नहीं है। हो सकता है वह किसी मिसाइल का परीक्षण करे या एटमी धमाका। अलबत्ता यह विस्मय की बात है कि सायबर गाँव में तब्दील होती दुनिया में कोरिया जैसी समस्याएं कायम हैं। दोनों कोरिया एक भाषा, एक संस्कृति, एक राष्ट्र के बावजूद राजनीतिक टकराव के अजब-गजब प्रतीक है।

Monday, April 8, 2013

धा धा धिन्ना, नमो नामो बनाम राग रागा



लालकृष्ण आडवाणी का कहना है कि मैं एक सपने के सहारे राजनीति में सक्रिय हूँ। उधर नरेन्द्र मोदी गुजरात का कर्ज़ चुकाने के बाद भारत माँ का कर्ज़ चुकाने के लिए दिल्ली आना चाहते हैं। दिल्ली का कर्ज़ चुकाने के लिए कम से कम डेढ़ दर्जन सपने सक्रिय हो रहे हैं। ये सपने क्षेत्रीय राजनीति से जुड़े हैं। उन्हें लगता है कि प्रदेश की खूब सेवा कर ली, अब देश-सेवा की घड़ी है। बहरहाल आडवाणी जी के सपने को विजय गोयल कोई रूप देते उसके पहले ही उनकी बातों में ब्रेक लग गया। विजय गोयल के पहले मुलायम सिंह यादव ने आडवाणी जी की प्रशंसा की थी। भला मुलायम सिंह आडवाणी की प्रशंसा क्यों कर रहे हैं? हो सकता है जब दिल्ली की गद्दी का फैसला हो रहा हो तब आडवाणी जी काम आएं। मुलायम सिंह को नरेन्द्र मोदी के मुकाबले वे ज्यादा विश्वसनीय लगते हैं। कुछ और कारण भी हो सकते हैं। मसलन नरेन्द्र मोदी यूपी में प्रचार के लिए आए तो वोटों का ध्रुवीकरण होगा। शायद मुस्लिम वोट फिर से कोई एक रणनीति तैयार करे। और इस रणनीति में कांग्रेस एक बेहतर विकल्प नज़र आए। उधर आडवाणी जी लोहिया की तारीफ कर रहे हैं। क्या वे भी किसी प्रकार की पेशबंदी कर रहे हैं? आपको याद है कि आडवाणी जी ने जिन्ना की तारीफ की थी। उन्हें लगता है कि देश का प्रधानमंत्री बनने के लिए अपनी छवि सौम्य सभी वर्गों के लिए स्वीकृत बनानी होती है। जैसी अटल बिहारी वाजपेयी की थी।

Sunday, April 7, 2013

अलोकप्रियता के ढलान पर ममता की राजनीति

राजनेता वही सफल है जो सामाजिक जीवन की विसंगतियों को समझता हो और दो विपरीत ताकतों और हालात के बीच से रास्ता निकालना जानता हो। ममता बनर्जी की छवि जुनूनी, लड़ाका और विघ्नसंतोषी की है। संसद से सड़क तक उनके किस्से ही किस्से हैं। पिछले साल रेल बजट पेश करने के बाद दिनेश त्रिवेदी को उन्होंने जिस तरह से हटाया, उसकी मिसाल कहीं नहीं मिलती। उनकी तुलना जयललिता, मायावती और उमा भारती से की जाती है। कई बार इंदिरा गांधी से भी। मूलतः वे स्ट्रीट फाइटर हैं। उन्हें इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने वाम मोर्चा के 34 साल पुराने मजबूत गढ़ को गिरा कर दिखा दिया। पर लगता है कि वे गिराना जानती हैं, बनाना नहीं। इन दिनों बंगाल में अचानक उनकी सरकार के खिलाफ आक्रोश भड़क उठा है। सीपीएम की छात्र शाखा एसएफआई के नेता सुदीप्तो गुप्ता की मौत इस गुस्से का ट्रिगर पॉइंट है। यह सच है कि वे कोरी हवाबाजी से नहीं उभरी हैं। उनके जीवन में सादगी, ईमानदारी और साहस है। वे फाइटर के साथ-साथ मुख्यमंत्री भी हैं और सात-आठ मंत्रालयों का काम सम्हालती हैं। यह बात उनकी जीवन शैली से मेल नहीं खाती। फाइलों में समय खपाना उनका शगल नहीं है। उन्होंने सिर्फ अपने बलबूते एक पार्टी खड़ी कर दी, यह बात उन्हें महत्वपूर्ण बनाती है, पर इसी कारण से उनका पूरा संगठन व्यक्ति केन्द्रित बन गया है।  

Monday, April 1, 2013

विचार और सिद्धांत की अनदेखी करती राजनीति

पिछले बुधवार को तमिलनाडु विधानसभा ने एक प्रस्ताव पास करके माँग की कि केंद्र सरकार श्रीलंका के साथ मित्र राष्ट्र जैसा व्यवहार बंद करे। इसके पहले यूपीए-2 को समर्थन दे रही पार्टी डीएमके ने केन्द्र सरकार से समर्थन वापस ले लिया। तमिलनाडु में श्रीलंका को लेकर पिछले तीन दशक से उबाल है, पर ऐसा कभी नहीं हुआ कि श्रीलंका के खिलाड़ी वहाँ खेल न पाए हों। या भारतीय टीम के तमिल खिलाड़ियों को श्रीलंका में कोई परेशानी हुई हो। पर तमिलनाडु में अब श्रीलंका के पर्यटकों का ही नहीं खिलाड़ियों का प्रवेश भी मुश्किल हो गया है। मुख्यमंत्री जयललिता ने हाल में श्रीलंकाई एथलीटों का राज्य में प्रवेश रोक दिय़ा। पिछले साल सितम्बर में उन्होंने श्रीलंकाई छात्रों को चेन्नई में दोस्ताना फुटबाल मैच खेलने की अनुमति नहीं दी थी। और अब आईपीएल के मैचों में श्रीलंका के खिलाड़ी चेन्नई में खेले जा रहे मैचों में नहीं खेल पाएंगे। दूसरी ओर जब तक ममता बनर्जी की पार्टी यूपीए में शामिल थी केन्द्र सरकार की नीतियों को लागू कर पाना मुश्किल हो गया था। खासतौर से विदेश नीति के मामले में ममता ने भी उसी तरह के अड़ंगे लगाने शुरू कर दिए थे जैसे आज तमिलनाडु की राजनीति लगा रही है। ममता बनर्जी ने पहले तीस्ता पर, फिर एफडीआई, फिर रेलमंत्री, फिर एनसीटीसी और फिर राष्ट्रपति प्रत्याशी पर हठी रुख अख्तियार करके कांग्रेस को ऐसी स्थिति में पहुँचा दिया था, जहाँ से पीछे हटने का रास्ता नहीं बचा था। और अंततः दोस्ती खत्म हो गई।