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Friday, November 13, 2020

मतगणना को लेकर तेजस्वी की शिकायत के पीछे वजह क्या है?

 


बिहार चुनाव परिणाम आने के बाद से चुप रहे आरजेडी नेता तेजस्वी यादव ने गुरुवार 12 नवंबर को कहा कि जनादेश महागठबंधन के पक्ष में था, लेकिन चुनाव आयोग का परिणाम एनडीए के पक्ष में आया। यह पहली बार नहीं हुआ है। 2015 में जब महागठबंधन बना था, तब वोट हमारे पक्ष में थे, लेकिन बीजेपी ने सत्ता हासिल करने के लिए बैक डोर एंट्री ली। उनका आरोप है कि हमें लोगों का समर्थन मिला, लेकिन राजग ने धन, छल और बल के जरिए चुनावी जीत हासिल की।

Wednesday, November 11, 2020

बिहार चुनाव के निहितार्थ


बिहार के चुनाव परिणामों पर डेटा-आधारित विश्लेषण कुछ समय बाद सामने आएंगे। महत्वपूर्ण राजनीति शास्त्रियों की टिप्पणियाँ भी कुछ समय बाद पढ़ने को मिलेंगी, पर आज (यानी 11 नवंबर 2020) की सुबह इंडियन एक्सप्रेस में परिणामों के समाचार के साथ चार बातों ने मेरा ध्यान खींचा। ये चार बातें चार अलग-अलग पहलुओं से जुड़ी हैं। पहला है तेजस्वी यादव पर वंदिता मिश्रा का विवेचन, दूसरे कांग्रेसी रणनीति पर मनोज जीसी की टिप्पणी, तीसरे बीजेपी की भावी रणनीति पर सुहास पालशीकर का विश्लेषण और चौथा एक्सप्रेस का बिहार के भविष्य को लेकर संपादकीय। किसी एक चुनाव के तमाम निहितार्थ हो सकते हैं। पता नहीं हमारे समाज-विज्ञानी अलग-अलग चुनावों के दौरान होने वाली गतिविधियों के सामाजिक प्रभावों का अध्ययन करते हैं या नहीं, पर मुझे लगता है कि बिहार के बदलते समाज का अध्ययन करने के लिए यह समय अच्छा होता है। बहरहाल इन चारों को विस्तार से आप एक्सप्रेस में जाकर पढ़ें। मैंने सबके लिंक साथ में दिए हैं। अलबत्ता हरेक बात का हिंदी में संक्षिप्त विवरण भी दे रहा हूँ. ताकि संदर्भ स्पष्ट रहे।

नैरेटिव विहीन तेजस्वी

वंदिता मिश्रा ने लिखा है कि बिहारी अंदाज में लमसम (Lumpsum) में कहें, तो एक या दो बातें कही जा सकती हैं। एक नीतीश कुमार का पराभव। मुख्यमंत्री के रूप में उनकी वापसी हो सकती है और नहीं भी हो सकती है, पर वे वही नीतीश कुमार नहीं होंगे। वे अब 2010 के सड़क-पुल-स्कूली लड़कियों के साइकिल हीरो नहीं हैं, जिसने राज्य में व्यवस्था को फिर से कायम किया था।  वे 2015 के सुशासन बाबू भी नहीं हैं, जिसकी दीप्ति कम हो गई थी, फिर भी जिसे काम करने वाला नेता माना जाता था। यह वह राज्य है जहाँ लालू राज ने विकास को पीछे धकेल दिया था, जिसका नारा था-सामाजिक न्याय बनाम विकास।

बीजेपी की रणनीतिक सफलता

बिहार के विधानसभा चुनावों के अलावा कुछ राज्यों के उप चुनावों के परिणामों के रुझान से एक स्पष्ट निष्कर्ष है कि भारतीय जनता पार्टी अपनी ताकत बढ़ाने में सफल हुई है। वह भी ऐसे मौके पर जब राज्य में 15 साल की एंटी-इनकंबैंसी है और कोरोना की महामारी ने घेर रखा है। इस सफलता ने उसकी रणनीति को धार प्रदान की है। बिहार में नीतीश के नेतृत्व को नहीं, बीजेपी को सफलता मिली है। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक अंतिम परिणाम नहीं आए थे, बल्कि बुधवार 11 नवंबर की सुबह तक भी चुनाव आयोग ज्यादातर क्षेत्रों में मतगणना जारी का ही संकेत दे रहा है। अलबत्ता इतना स्पष्ट हो चुका है कि एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिल गया है। यों मंगलवार की रात राष्ट्रीय जनता दल के प्रवक्ता ने परिणाम घोषित करने की प्रक्रिया को लेकर आपत्ति व्यक्त की थी। शायद वह अपनी हार की पेशबंदी थी। इस चुनाव ने बीजेपी की संगठनात्मक क्षमता का परिचय जरूर दिया है, साथ ही जेडीयू के साथ उसके कुछ अंतर्विरोधों को भी उभारा है। चिराग पासवान की पार्टी लोजपा ने अपना नुकसान तो किया ही नीतीश कुमार को भी भारी नुकसान पहुँचाया। उनकी इस रणनीति के रहस्य पर से परदा उठाने की जरूरत है। 

Sunday, October 25, 2020

चुनावी ज़ुनून में कोरोना की अनदेखी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की रैलियों के साथ बिहार विधानसभा चुनाव के पहले दौर का प्रचार चरम पर पहुँच रहा है। देश की निगाहें इस वक्त दो-तीन कारणों से बिहार पर हैं। महामारी के दौर में हो रहा यह पहला चुनाव है। चुनाव प्रचार और मतदान की व्यवस्थाओं का कोरोना संक्रमण पर असर होगा। राजनीतिक दल प्रचार के जुनून में अपनी जिम्मेदारियों की अनदेखी कर रहे हैं। चुनाव आयोग असहाय है।

पिछले साल लोकसभा चुनाव के बाद सात विधानसभाओं के चुनाव भी हुए थे। और इस साल के शुरू में दिल्ली विधानसभा के चुनाव हुए। इन चुनावों का निष्कर्ष है कि फिलहाल वोटर के मापदंड लोकसभा और विधानसभा चुनावों के लिए अलग-अलग हैं। उत्तर भारत की सोशल इंजीनियरी के लिहाज से बिहार के चुनाव बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। सन 2015 के चुनाव में बिहार ने ही महागठबंधन की अवधारणा दी थी। प्रकारांतर से भारतीय जनता पार्टी ने विरोधी दलों की उस रणनीति का जवाब खोज लिया और उत्तर प्रदेश में वह प्रयोग सफल नहीं हुआ। बिहार में भी अंततः महागठबंधन टूटा।