भारत की जनगणना दुनिया की सबसे बड़ी और सबसे सफल प्रशासनिक-सांख्यिकीय गतिविधि है। इस मामले में हम अपने इलाके में यानी दक्षिण एशिया में ही नहीं, दुनिया में सर्वश्रेष्ठ हैं। पाकिस्तान में 2001 की जनगणना अभी तक नहीं हो पाई है। इसबार हमारी जनगणना में नागरिकों का रजिस्टर और पहचान संख्या बनाने की बात भी है। हमारे देश की बहुरंगी तस्वीर की झलक हमें अपनी जनगणना से मिलती है। साथ ही विकास के लिए आवश्यक सूचनाएं भी हमें मिलतीं हैं। इसबार कम से 15 पैरामीटर्स का डेटा एकत्र करने की तैयारी है। यह डेटा किस क्षेत्र का होगा, यह जानने के पहले इसबार के ज़्यादा चर्चित विषय पर बात करनी चाहिए।
हमारी जनगणना में सन 1931 तक जातियों की संख्या भी गिनी जाती थी। वह बंद कर दी गई। सन 2001 की जनगणना के पहले यह माँग उठी कि हमें जातियों की संख्या की गिनती भी करनी चाहिए। वह माँग नहीं मानी गई। सन 2009 में तमिलनाडु की पार्टी पीएम के ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की कि जनगणना में जातियों को भी शामिल किया जाय़। यह अपील नहीं मानी गई। अदालत के विचार से यह नीतिगत मामला है, और सरकार को इसे तय करना चाहिए। सरकार लगातार कहती रही है कि जातियों को शामिल करने में व्यावहारिक दिक्कतें हैं। इधर लगभग सभी पार्टियों ने जाति धारित जनगणना का समर्थन शुरू कर दिया है। इनमें ओबीसी आधारित पार्टियाँ लीड ले रहीं हैं।
संसद के चालू सत्र के आखिरी दिन 7 मई को मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया कि सरकार इस मामले में कोई फैसला जल्द करेगी। हालांकि उसी रोज़ गृहमंत्री चिदम्बरम ने कहा कि जाति आधारित जनगणना कराने में व्यावहारिक दिक्कतें हैं। फिलहाल लगता है कि जनगणना जाति आधारित होगी। इस वक्तव्य के बाद जाति आधारित जनगणना का कुछ लोगों ने विरोध किया है। उनके विचार से इससे जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा।
मुझे लगता है कि जाति आधारित जनगणना सम्भव हो तो उसे कराना चाहिए। जातिवाद या जाति-चेतना अपनी जगह है और वह जनगणना न कराने मात्र से खत्म नहीं होगी। और निकट भविष्य में वह खत्म होती लगती भी नहीं। इसके विपरीत जो लोग जाति आधारित जनगणना चाहते हैं, उनका भी कोई उद्देश्य इससे पूरा नहीं होगा। मोटे तौर पर माना जाता है कि देश मे 24-25 प्रतिशत अजा-जजा, 25 प्रतिशत सवर्ण और लगभग 50 प्रतिशत ओबीसी हैं। जनगणना के बाद लगभग यही तस्वीर सामने आएगी। बेहतर है कि जो भी तस्वीर है उसे सामने आने दीजिए। दरअसल जातीय आरक्षण के जो सवाल हैं, वे अलग हैं। संख्या उसमें बुनियादी तत्व नहीं है। दूसरी ओर जो लोग हिन्दुस्तानी लिखकर जातीय भावना को दूर करना चाहते हैं, वे हवा में सोच रहे हैं।
भारतीय संविधान धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर व्यक्ति के साथ भेदभाव न होने देने के लिए कृत संकल्प है। संविधान के 14 से 18 अनुच्छेद समानता पर केन्द्रित हैं। जातीय आरक्षण के बारे में संवैधानिक व्यवस्था की ज़रूरत तब पड़ी जब मद्रास राज्य बनाम चम्पकम दुरईराजन केस में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी आदेश को रद्द कर दिया। इसके बाद संविधान के पहले संशोधन में अनुच्छेद 15 में धारा 4 जोड़ी गई। इस धारा में समानता के सिद्धांत के अपवाद के रूप में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को या अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गईं।
संविधान में संशोधन करते वक्त अजा-जजा का नाम साफ लिखा गया। साथ ही अनुच्छेद 366(24)(25) के तहत अनुच्छेद 341 और 342 में अजा-जजा की परिभाषा भी कर दी गई। सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की परिभाषा नहीं की गई। इसे परिभाषित करने के लिए 1953 में काका कालेलकर आयोग और 1978 में बीपी मंडल की अध्यक्षता में आयोग बनाए गए। दोनों आयोगों की रपटों में पिछड़ेपन का एक महत्वपूर्ण आधार जाति है। संविधान की शब्दावली में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों का उल्लेख अपेक्षाकृत निरपेक्ष है। इसमें जाति शब्द से बचा गया है। हालांकि तबसे ज्यादातर अदालती फैसलों में जाति एक महत्वपूर्ण बिन्दु है। पर केवल मात्र जाति पिछड़ेपन का आधार नहीं है।
अदालतों की भावना यह है कि जाति भी नागरिकों का एक वर्ग है, जो समूचा सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हो सकता है। जाति का अस्तित्व है। उसका नाम और सामाजिक पहचान है, इसलिए उससे शुरूआत की जा सकती है। कई जगह गाँव का निवासी होना या पहाड़ी क्षेत्र का निवासी होना भी पिछड़ेपन का आधार बनता है। पर जाति का सवाल कानूनी सवाल नहीं है। अदालतों में जाति से जुड़े तमाम मसले पड़े हैं और अभी और मसले जाएंगे। अदालतों का काम संवैधानिक व्यवस्था देखना है। हमारी व्यवस्था में सार्वजनिक हित देखने की ज़िम्मेदारी विधायिका की है। इसलिए यह मसला राजनैतिक दलों के पास है। जनगणना का सवाल राजनैतिक दलों के दबाव में हुआ, पर यह पार्टियों का अधिकार था।
जाति से जुड़े कई सवाल अभी निरुत्तरित हैं। मसलन क्या कोई वर्ग अनंत काल तक सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा रहेगा। पूरा वर्ग न भी रहे तो क्या उसका कोई हिस्सा पिछड़ेपन से कभी उबरेगा। इस दृष्टि से मलाईदार परत की अधारणा बनी है। संसद और कार्यपालिका का यह दायित्व है कि मलाईदार परत को अलग करे।
जनगणना में जाति की पहचान होने से सिर्फ बेस डेटा मिलेगा। जातीय प्रमाणपत्र देने वाली व्यवस्था अलग है। इससे यह पता भी लगेगा कि किस जाति के लोग कहाँ पर और किस संख्या में हैं। उनके शैक्षिक और आर्थिक स्तर का पता भी लगेगा। उनके लैंगिक अनुपात की जानकारी भी मिलेगी। अब मीडिया को और राजनैतिक दलों को किसी खास चुनाव क्षेत्र की जातीय संरचना के लिए राजनैतिक पार्टियों का मुंह जोहना नहीं होगा। आमतौर पर हर राजनैतिक दल के पास इलाके के जातीय आँकड़े होते हैं। अब ये आँकड़े सरकारी स्तर पर तैयार होंगे। दूसरे बहुत सी जातीय पहचानों और उनके नेताओं की जमात भी खड़ी होगी। अजा-जजा और ओबीसी में अनेक जातियों के लोगों के अपने नेता नहीं हैं। इससे कोई सामाजिक टकराव नहीं होगा। यह वास्तविकता है, जो सरकारी आँकड़ों में भी आ जाएगी।
जातीय समरसता और एकता अलग सवाल हैं। वे अपनी जगह रहेंगे। हाल में विजातीय विवाह करने पर हत्याएं होने की खबरें मिलीं हैं। इन्हें लोग जातीय ऊँच-नीच से जोड़कर देख रहे हैं। सारे मामले ऊँच-नीच के नहीं हैं। हरियाणा में खाप के झगड़े एक ही जातीय स्तर के हैं। विजातीय होना ऊँच-नीच से नहीं जुड़ा। ब्राह्मणों के अनेक वर्ग एक-दूसरे से शादी-विवाह नहीं करते। क्षत्रिय और वैश्यों में भी ऐसा है।
ऊँच-नीच का हल तो शहरी जीवन से हो जाएगा, पर जातीय पहचान अलग चीज़ है। वह इतनी आसानी से खत्म नहीं होगी। फिर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जाति एक औपचारिक रूप ले रही है। कुछ खास पार्टियाँ, जाति विशेष का प्रितनिधित्व करतीं हैं। उत्तर में भी और दक्षिण में भी। यदि ब्राह्मणों की एक, क्षत्रियों की एक, वैश्यों की एक और ओबीसी की एक पार्टी बन पाती तो शायद राजनीति की नब्ज़ को समझा जा सकता था। ऐसा नहीं है। दलितों की सिर्फ एक पार्टी नहीं है। बीजेपी को लोग हिन्दू सवर्णों की पार्टी मानते हैं, पर उसमें ओबीसी विधायकों की भरमार है। हमें इन बातों से भागना नहीं चाहिए। समझना चाहिए।
हमारी जनगणना में सन 1931 तक जातियों की संख्या भी गिनी जाती थी। वह बंद कर दी गई। सन 2001 की जनगणना के पहले यह माँग उठी कि हमें जातियों की संख्या की गिनती भी करनी चाहिए। वह माँग नहीं मानी गई। सन 2009 में तमिलनाडु की पार्टी पीएम के ने सुप्रीम कोर्ट में अपील की कि जनगणना में जातियों को भी शामिल किया जाय़। यह अपील नहीं मानी गई। अदालत के विचार से यह नीतिगत मामला है, और सरकार को इसे तय करना चाहिए। सरकार लगातार कहती रही है कि जातियों को शामिल करने में व्यावहारिक दिक्कतें हैं। इधर लगभग सभी पार्टियों ने जाति धारित जनगणना का समर्थन शुरू कर दिया है। इनमें ओबीसी आधारित पार्टियाँ लीड ले रहीं हैं।
संसद के चालू सत्र के आखिरी दिन 7 मई को मनमोहन सिंह ने आश्वासन दिया कि सरकार इस मामले में कोई फैसला जल्द करेगी। हालांकि उसी रोज़ गृहमंत्री चिदम्बरम ने कहा कि जाति आधारित जनगणना कराने में व्यावहारिक दिक्कतें हैं। फिलहाल लगता है कि जनगणना जाति आधारित होगी। इस वक्तव्य के बाद जाति आधारित जनगणना का कुछ लोगों ने विरोध किया है। उनके विचार से इससे जातिवाद को बढ़ावा मिलेगा।
मुझे लगता है कि जाति आधारित जनगणना सम्भव हो तो उसे कराना चाहिए। जातिवाद या जाति-चेतना अपनी जगह है और वह जनगणना न कराने मात्र से खत्म नहीं होगी। और निकट भविष्य में वह खत्म होती लगती भी नहीं। इसके विपरीत जो लोग जाति आधारित जनगणना चाहते हैं, उनका भी कोई उद्देश्य इससे पूरा नहीं होगा। मोटे तौर पर माना जाता है कि देश मे 24-25 प्रतिशत अजा-जजा, 25 प्रतिशत सवर्ण और लगभग 50 प्रतिशत ओबीसी हैं। जनगणना के बाद लगभग यही तस्वीर सामने आएगी। बेहतर है कि जो भी तस्वीर है उसे सामने आने दीजिए। दरअसल जातीय आरक्षण के जो सवाल हैं, वे अलग हैं। संख्या उसमें बुनियादी तत्व नहीं है। दूसरी ओर जो लोग हिन्दुस्तानी लिखकर जातीय भावना को दूर करना चाहते हैं, वे हवा में सोच रहे हैं।
भारतीय संविधान धर्म, प्रजाति, जाति, लिंग या जन्मस्थान के आधार पर व्यक्ति के साथ भेदभाव न होने देने के लिए कृत संकल्प है। संविधान के 14 से 18 अनुच्छेद समानता पर केन्द्रित हैं। जातीय आरक्षण के बारे में संवैधानिक व्यवस्था की ज़रूरत तब पड़ी जब मद्रास राज्य बनाम चम्पकम दुरईराजन केस में सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी आदेश को रद्द कर दिया। इसके बाद संविधान के पहले संशोधन में अनुच्छेद 15 में धारा 4 जोड़ी गई। इस धारा में समानता के सिद्धांत के अपवाद के रूप में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों को या अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए विशेष व्यवस्थाएं की गईं।
संविधान में संशोधन करते वक्त अजा-जजा का नाम साफ लिखा गया। साथ ही अनुच्छेद 366(24)(25) के तहत अनुच्छेद 341 और 342 में अजा-जजा की परिभाषा भी कर दी गई। सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों की परिभाषा नहीं की गई। इसे परिभाषित करने के लिए 1953 में काका कालेलकर आयोग और 1978 में बीपी मंडल की अध्यक्षता में आयोग बनाए गए। दोनों आयोगों की रपटों में पिछड़ेपन का एक महत्वपूर्ण आधार जाति है। संविधान की शब्दावली में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों का उल्लेख अपेक्षाकृत निरपेक्ष है। इसमें जाति शब्द से बचा गया है। हालांकि तबसे ज्यादातर अदालती फैसलों में जाति एक महत्वपूर्ण बिन्दु है। पर केवल मात्र जाति पिछड़ेपन का आधार नहीं है।
अदालतों की भावना यह है कि जाति भी नागरिकों का एक वर्ग है, जो समूचा सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा हो सकता है। जाति का अस्तित्व है। उसका नाम और सामाजिक पहचान है, इसलिए उससे शुरूआत की जा सकती है। कई जगह गाँव का निवासी होना या पहाड़ी क्षेत्र का निवासी होना भी पिछड़ेपन का आधार बनता है। पर जाति का सवाल कानूनी सवाल नहीं है। अदालतों में जाति से जुड़े तमाम मसले पड़े हैं और अभी और मसले जाएंगे। अदालतों का काम संवैधानिक व्यवस्था देखना है। हमारी व्यवस्था में सार्वजनिक हित देखने की ज़िम्मेदारी विधायिका की है। इसलिए यह मसला राजनैतिक दलों के पास है। जनगणना का सवाल राजनैतिक दलों के दबाव में हुआ, पर यह पार्टियों का अधिकार था।
जाति से जुड़े कई सवाल अभी निरुत्तरित हैं। मसलन क्या कोई वर्ग अनंत काल तक सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़ा रहेगा। पूरा वर्ग न भी रहे तो क्या उसका कोई हिस्सा पिछड़ेपन से कभी उबरेगा। इस दृष्टि से मलाईदार परत की अधारणा बनी है। संसद और कार्यपालिका का यह दायित्व है कि मलाईदार परत को अलग करे।
जनगणना में जाति की पहचान होने से सिर्फ बेस डेटा मिलेगा। जातीय प्रमाणपत्र देने वाली व्यवस्था अलग है। इससे यह पता भी लगेगा कि किस जाति के लोग कहाँ पर और किस संख्या में हैं। उनके शैक्षिक और आर्थिक स्तर का पता भी लगेगा। उनके लैंगिक अनुपात की जानकारी भी मिलेगी। अब मीडिया को और राजनैतिक दलों को किसी खास चुनाव क्षेत्र की जातीय संरचना के लिए राजनैतिक पार्टियों का मुंह जोहना नहीं होगा। आमतौर पर हर राजनैतिक दल के पास इलाके के जातीय आँकड़े होते हैं। अब ये आँकड़े सरकारी स्तर पर तैयार होंगे। दूसरे बहुत सी जातीय पहचानों और उनके नेताओं की जमात भी खड़ी होगी। अजा-जजा और ओबीसी में अनेक जातियों के लोगों के अपने नेता नहीं हैं। इससे कोई सामाजिक टकराव नहीं होगा। यह वास्तविकता है, जो सरकारी आँकड़ों में भी आ जाएगी।
जातीय समरसता और एकता अलग सवाल हैं। वे अपनी जगह रहेंगे। हाल में विजातीय विवाह करने पर हत्याएं होने की खबरें मिलीं हैं। इन्हें लोग जातीय ऊँच-नीच से जोड़कर देख रहे हैं। सारे मामले ऊँच-नीच के नहीं हैं। हरियाणा में खाप के झगड़े एक ही जातीय स्तर के हैं। विजातीय होना ऊँच-नीच से नहीं जुड़ा। ब्राह्मणों के अनेक वर्ग एक-दूसरे से शादी-विवाह नहीं करते। क्षत्रिय और वैश्यों में भी ऐसा है।
ऊँच-नीच का हल तो शहरी जीवन से हो जाएगा, पर जातीय पहचान अलग चीज़ है। वह इतनी आसानी से खत्म नहीं होगी। फिर हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में जाति एक औपचारिक रूप ले रही है। कुछ खास पार्टियाँ, जाति विशेष का प्रितनिधित्व करतीं हैं। उत्तर में भी और दक्षिण में भी। यदि ब्राह्मणों की एक, क्षत्रियों की एक, वैश्यों की एक और ओबीसी की एक पार्टी बन पाती तो शायद राजनीति की नब्ज़ को समझा जा सकता था। ऐसा नहीं है। दलितों की सिर्फ एक पार्टी नहीं है। बीजेपी को लोग हिन्दू सवर्णों की पार्टी मानते हैं, पर उसमें ओबीसी विधायकों की भरमार है। हमें इन बातों से भागना नहीं चाहिए। समझना चाहिए।