Tuesday, October 31, 2017

सरदार पटेल से कांग्रेस का विलगाव?



आज सुबह के टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, इंडियन एक्सप्रेस और हिन्दू समेत काफी अखबारों में पहले सफे पर कांग्रेस पार्टी की ओर से जारी एक विज्ञापन में श्रीमती इंदिरा गांधी को श्रद्धांजलि दी गई है। ज्यादातर अखबारों में दूसरे पेज पर भारत सरकार के एक विज्ञापन में राष्ट्रीय एकता दिवस के रूप में सरदार वल्लभ भाई पटेल को श्रद्धांजलि दी गई है। आज श्रीमती गांधी की पुण्यतिथि थी और सरदार पटेल का जन्मदिन। किसी को आश्चर्य इस बात पर नहीं हुआ कि कांग्रेस पार्टी ने पटेल को याद क्यों नहीं किया। हालांकि कभी किसी ने नहीं कहा कि सरदार पटेल इंदिरा गांधी से कमतर नेता थे या राष्ट्रीय पुनर्गठन में उनकी भूमिका कमतर थी। पर इस बात पर ध्यान तो जाता ही है। खासतौर से इस बात पर कि बीजेपी ने सरदार पटेल को अंगीकार किया है। 

Monday, October 30, 2017

बैंक-सुधार में भी तेजी चाहिए

केंद्र सरकार ने पिछले मंगलवार को सार्वजनिक क्षेत्र के संकटग्रस्त बैंकों में 2.11 लाख करोड़ रुपये की नई पूँजी डालने की घोषणा दो उद्देश्यों से की है। पहला लक्ष्य इन बैंकों को बचाने का है, पर अंततः इसका उद्देश्य अर्थ-व्यवस्था को अपेक्षित गति देने का है। पिछले एक दशक से ज्यादा समय में देश के राष्ट्रीयकृत बैंकों ने जो कर्ज दिए थे, उनकी वापसी ठीक से नहीं हो पाई है। बैंकों की पूँजी चौपट हो जाने के कारण वे नए कर्जे नहीं दे पा रहे हैं, इससे कारोबारियों के सामने मुश्किलें पैदा हो रही हैं। इस वजह से अर्थ-व्यवस्था की संवृद्धि गिरती चली गई।

Sunday, October 29, 2017

‘मदर इंडिया’ के साठ साल बाद का भारत


फिल्म मदर इंडिया की रिलीज के साठ साल बाद एक टीवी चैनल के एंकर इस फिल्म के एक सीन का वर्णन कर रहे थे, जिसमें फिल्म की हीरोइन राधा (नर्गिस) को अपने कंधे पर रखकर खेत में हल चलाना पड़ता है। चैनल का कहना था कि 60 बरस बाद हमारे संवाददाता ने महाराष्ट्र के सतारा जिले के जावली तालुक के भोगावाली गाँव में खेत में बैल की जगह महिलाओं को ही जुते हुए देखा तो उन्होंने उस सच को कैमरे के जरिए सामने रखा, जिसे देखकर सरकारें आँख मूँद लेना बेहतर समझती हैं। गाहे-बगाहे आज भी ऐसी तस्वीरें सामने आती हैं, जिन्हें देखकर शर्मिंदगी पैदा होती है। सवाल है कि क्या देश की जनता भी इन बातों से आँखें मूँदना चाहती है?


महबूब खान की मदर इंडिया उन गिनी-चुनी फिल्मों में से एक है, जो आज भी हमारे दिलो-दिमाग पर छाई हैं। यदि मुद्रास्फीति की दर के साथ हिसाब लगाया जाए तो मदर इंडिया देश की आजतक की सबसे बड़ी बॉक्स ऑफिस हिट फिल्म है। क्या वजह है इसकी? आजादी के बाद के पहले दशक के सिनेमा की थीम में बार-बार भारत का बदलाव केंद्रीय विषय बनता था। इन फिल्मों की सफलता बताती है कि बदलाव की चाहता देश की जनता के मन में थी, जो आज भी कायम है।

Sunday, October 22, 2017

क्या कहती है बाजार की चमक

दीपावली के मौके पर बाजारों में लगी भीड़ और खरीदारी को लेकर कई किस्म की बातें एक साथ सुनाई पड़ रहीं हैं। बाजार में निकलें तो लगता नहीं कि लोग अस्वाभाविक रूप से परेशान हैं। आमतौर पर जैसा मिज़ाज गुजरे वर्षों में रहा है, वैसा ही इस बार भी है। अलबत्ता टीवी चैनलों पर व्यापारियों की प्रतिक्रिया से  लगता है कि वे परेशान हैं। इस प्रतिक्रिया के राजनीतिक और प्रशासनिक निहितार्थ भी हैं। यह भी सच है कि जीडीपी ग्रोथ को इस वक्त धक्का लगा है और अर्थ-व्यवस्था बेरोजगारी के कारण दबाव में है।

अमेरिका के अख़बार वॉशिंगटन पोस्ट में दिल्ली के चाँदनी चौक की एक मिठाई की दुकान के मालिक के हवाले से बड़ी सी खबर छपी है मेरे लिए इससे पहले कोई साल इतना खराब नहीं रहा। इस व्यापारी का कहना है कि जो लोग पिछले वर्षों तक एक हजार रुपया खर्च करते थे, इस साल उन्होंने 600-700 ही खर्च किए। अख़बार की रिपोर्ट का रुख उसके बाद मोदी सरकार के वायदों और जनता के मोहभंग की ओर घूम गया।

असमंजस के चौराहे पर देश

हम असमंजस के दौर में खड़े हैं। एक तरफ हम आधुनिकीकरण और विकास के हाईवे और बुलेट ट्रेनों का नेटवर्क तैयार करने की बातें कर रहे हैं और दूसरी तरफ खबरें आ रहीं हैं कि हमारा देश भुखमरी के मामले में दुनिया के 119 देशों में 100वें नम्बर पर आ गया है। जब हम देश में दीवाली मना रहे थे, तब यह खबर भी सरगर्म थी कि झारखंड में एक लड़की भात-भात कहते हुए मर गई। कोई दिन नहीं जाता जब हमें सोशल मीडिया पर सामाजिक-सांस्कृतिक क्रूरता की खबरें न मिलती हों।

हम किधर जा रहे हैं? आर्थिक विकास की राह पर या कहीं और? इसे लेकर अर्थशास्त्रियों में भी मतभेद हैं। कुछ मानते हैं कि हम सही राह पर हैं और कुछ का कहना है कि तबाही की ओर बढ़ रहे हैं। दोनों बातें सही नहीं हो सकतीं। जाहिर है कि दोनों राजनीतिक भाषा बोल रहे हैं। कुछ लोग इसे मोदी सरकार की देन बता रहे हैं और कुछ लोगों का कहना है कि हताश और पराजित राजनीति इन हथकंडों को अपनाकर वापस आने की कोशिश कर रही है। पर सच भी कहीं होगा। सच क्या है?

पब्लिक कुछ नहीं जानती

सवाल है कि पब्लिक पर्सेप्शन क्या है? जनता कैसा महसूस कर रही है? पर उससे बड़ा सवाल यह है कि इस बात का पता कैसे लगता है कि वह क्या महसूस कर रही है? पिछले साल नवम्बर में हुई नोटबंदी को लेकर काफी उत्तेजना रही। सरकार के विरोधियों ने कहा कि अर्थ-व्यवस्था तबाही की ओर जा रही है। कम से कम उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में जनता की नाराजगी दिखाई नहीं पड़ी। अब जीएसटी की पेचीदगियों को लेकर व्यापारियों ने जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है, वह काफी उग्र है। व्यापारी अपेक्षाकृत संगठित हैं और इसीलिए सरकार ने उनके विरोध पर ध्यान दिया है और अपनी व्यवस्था को सुधारा है। टैक्स में रियायतें भी दी हैं।

Sunday, October 15, 2017

हम सब हैं आरुषि के अपराधी

आरुषि-हेमराज हत्याकांड में राजेश और नूपुर तलवार के बरी हो जाने मात्र से यह मामला अपनी तार्किक परिणति पर नहीं पहुँचा है। और यह काम आसान लगता भी नहीं है। 26 नवंबर 2013 को जब गाजियाबाद की विशेष सीबीआई अदालत ने जब राजेश और नूपुर तलवार को उम्रकैद की सजा सुनाई थी, तभी लगता था कि सब कुछ जल्दबाजी में किया गया है। तमाम सवालों के जवाब नहीं मिले हैं। ट्रायल कोर्ट के फैसले के चार साल बाद अब जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तलवार दम्पति को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया है, तब भी कहा जा रहा है कि अंतिम रूप से न्याय तो अब भी नहीं हुआ है। न्याय तो तभी होगा जब पता लगेगा कि आरुषि की हत्या किसने की, क्यों की और हत्यारे को सज़ा मिले।

Saturday, October 14, 2017

राहुल के पुराने तरकश से निकले नए तीर


कुछ महीने पहले तक माना जा रहा था कि मोदी सरकार मजबूत जमीन पर खड़ी है और वह आसानी से 2019 का चुनाव जीत ले जाएगी। पर अब इसे लेकर संदेह भी व्यक्त किए जाने लगे हैं। बीजेपी की लोकप्रियता में गिरावट का माहौल बन रहा है। खासतौर से जीएसटी लागू होने के बाद जो दिक्कतें पैदा हो रहीं हैं, उनके राजनीतिक निहितार्थ सिर उठाने लगे हैं। संशय की इस बेला में गुजरात दौरे पर गए राहुल गांधी की टिप्पणियों ने मसालेदार तड़का लगाया है।

पिछले कुछ दिन से माहौल बनने लगा है कि 2019 के चुनाव मोदी बनाम राहुल होंगे। राहुल गांधी पार्टी अध्यक्ष बनने को तैयार हैं। पहली बार लगता है कि वे खुलकर सामने आने वाले हैं। पर उसके पहले कुछ किन्तु-परन्तु बाकी हैं। सबसे बड़ा सवाल है कि क्या गुजरात में कांग्रेसी अभिलाषा पूरी होगी? यदि हुई तो उसका परिणाम क्या होगा और नहीं हुई तो क्या होगा?

Friday, October 13, 2017

आरुषि कांड: क्या अब न्याय हो गया?

26 नवंबर 2013 को जब गाजियाबाद की विशेष सीबीआई अदालत आरुषि-हेमराज हत्याकांड के आरोप में आरुषि के माता-पिता राजेश और नूपुर तलवार को आईपीसी की धारा- 302 के तहत उम्रकैद की सज़ा सुनाई थी, तब सवाल उठा था कि क्या वास्तव में इस मामले में न्याय हो गया है? फैसले के बाद राजेश और नूपुर तलवार की ओर से मीडिया में एक बयान जारी किया गया,  'हम इस फैसले से बहुत दुखी हैं. हमें एक ऐसे जुर्म के लिए जिम्मेदार ठहराया गया है, जो हमने किया ही नहीं. लेकिन हम हार नहीं मानेंगे और न्याय के लिए लड़ाई जारी रखेंगे.' ट्रायल कोर्ट के फैसले के चार साल बाद अब जब इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तलवार दम्पति को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया है, तब फिर सवाल उठा है कि क्या अब न्याय हुआ है?

सामान्य न्याय सिद्धांत है कि कानून की पकड़ से भले ही सौ अपराधी बच जाएं, पर एक निर्दोष को सज़ा नहीं होनी चाहिए. आपराधिक मामलों में अदालतों का सबसे ज्यादा जोर साक्ष्य पर होता है. सन 2008 में 14 साल की आरुषि की मौत ने देशभर का ध्यान अपनी तरफ खींचा था. वह पहेली अब तक नहीं सुलझी है. घूम-फिरकर सवाल किया जाता है कि आरुषि की हत्या किसने की? यह मामला जाँच की उलझनों में फँसता चला गया. 

Wednesday, October 11, 2017

खेल के मैदान में लिखी है बदलते भारत की इबारत

फीफा की अंडर-17 विश्वकप फुटबॉल प्रतियोगिता के बहाने हमें बदलते भारत की कहानी देखने की कोशिश करनी चाहिए. यह जूझते भारत और उसके भीतर हो रहे सामाजिक बदलाव की कहानी है. भारत ने अपना पहला मैच 8 अक्तूबर को खेला, जिसमें अमेरिका की टीम ने हमें 3-0 से हराया. इस हार से हमें निराशा नहीं हुई, क्योंकि फुटबॉल के वैश्विक मैदान में हमारी स्थिति अमेरिका से बहुत नीचे है. हमारे लिए महत्वपूर्ण बात यह थी कि भारत की कोई टीम विश्वकप फुटबॉल की किसी भी प्रतियोगिता में पहली बार शामिल हुई और उसने बहादुरी के साथ खेला. पहले मैच ने भारतीय टीम का हौसला बढ़ाया.

Sunday, October 8, 2017

गालियों का ट्विटराइज़ेशन

चौराहों, नुक्कड़ों और भिंडी-बाजार के स्वर और शब्दावली विद्वानों की संगोष्ठी जैसी शिष्ट-सौम्य नहीं होती। पर खुले गाली-गलौज को तो मछली बाजार भी नहीं सुनता। वह भाषा हमारे सोशल मीडिया में प्रवेश कर गई है। हम नहीं जानते कि क्या करें। जरूरत इस बात की है कि हम देखें कि ऐसा क्यों है और इससे बाहर निकलने का रास्ता क्या है? सोशल मीडिया की आँधी ने सूचना-प्रसारण के दरवाजे अचानक खोल दिए हैं। तमाम ऐसी बातें सामने आ रहीं हैं, जो हमें पता नहीं थीं। कई प्रकार के सामाजिक अत्याचारों के खिलाफ जनता की पहलकदमी इसके कारण बढ़ी है। पर सकारात्मक भूमिका के मुकाबले उसकी नकारात्मक भूमिका चर्चा में है। 

Tuesday, October 3, 2017

मोदी का नया सूत्र ‘गाँव और गरीब’


पिछला हफ़्ता अर्थ-व्यवस्था को लेकर खड़े किए गए सवालों के कारण विवादों में रहा, पर बहुत कम लोगों ने ध्यान दिया कि बीजेपी ने 2019 के मद्देनजर एक महत्वपूर्ण दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। पार्टी ने अपने राष्ट्रवादी एजेंडा के साथ-साथ भ्रष्टाचार के विरोध और गरीबों की हित-रक्षा पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया है। अब मोदी का नया सूत्र-वाक्य है, गरीब का सपना, मेरी सरकार का सपना है। प्रधानमंत्री ने 25 सितम्बर को दीनदयाल ऊर्जा भवन का लोकार्पण करते हुए देश के हरेक घर तक बिजली पहुँचाने की सौभाग्य योजना का ऐलान किया, जो इस दिशा में एक कदम है। इस योजना के तहत 31 मार्च 2019 तक देश के हरेक घर तक बिजली कनेक्शन पहुँचा दिया जाएगा।

पिछले साल मई में प्रधानमंत्री उज्ज्वला योजना की घोषणा हुई थी, जो काफी लोकप्रिय हुई है। इस योजना के अंतर्गत गरीब महिलाओं को मुफ्त एलपीजी गैस कनेक्शन दिए जाते हैं। इस कार्यक्रम ने गरीब महिलाओं को मिट्टी के चूल्हे से आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। बताते हैं कि इस साल उत्तर प्रदेश के चुनावों में पार्टी को मिली जीत के पीछे दूसरे कारणों के साथ-साथ उज्ज्वला योजना की भी महत्वपूर्ण भूमिका थी। ग्रामीण महिलाओं की रसोई में अब गैस के साथ-साथ बिजली की रोशनी का और इंतजाम किया जा रहा है।

Monday, October 2, 2017

साख कायम रखनी है तो फर्जी खबरों से निपटना होगा

चुनींदा-2
समाचार मीडिया को तलाशने होंगे फर्जी खबरों से निपटने के तरीके

बिजनेस स्टैंडर्ड में वनिता कोहली-खांडेकर / 

September 29, 2017
फेसबुक ने अंग्रेजी, गुजराती और कुछ अन्य भाषाओं में जारी विज्ञापनों में फर्जी खबर की पहचान करने के बारे में सुझाव दिए हैं। इस विज्ञापन को देखकर ऐसा लगता है कि फेसबुक अपने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर फर्जी खबरों का प्रसार रोकने की अपनी जिम्मेदारी को लेकर आखिरकार सचेत हुआ है। यह एक ऐसे 'इको-चैम्बर' की तरह हो चुका है जिसके भीतर करीब 2 अरब लोग अपनी राय जाहिर करते हैं, दूसरे लोगों के विचारों, खबरों, तस्वीरों या वीडियो पर टिप्पणी करते हैं और सूचनाओं को साझा करते हैं। सोशल मीडिया का लोगों के मतदान व्यवहार, उनके खानपान और खरीदारी के तरीके तय करने में भी बड़ी भूमिका होती है। लोग इस पर भरोसा करते हैं और उनके इस भरोसे की ही वजह से फेसबुक को मोटी कमाई होती है। गूगल के साथ मिलकर फेसबुक पूरी दुनिया में डिजिटल विज्ञापन हासिल करने वाली सबसे बड़ी कंपनी है। इसके नाते उसकी जिम्मेदारी भी बनती है।