चीन को लेकर आमतौर पर हमेशा ही कुछ खबरें हवा में रहती हैं. इन दिनों भी दो-तीन खबरें चर्चा में हैं. एक, अमेरिका के साथ व्यापार समझौते पर है, जिसके पीछे सनसनी नहीं है, पर उसका राजनीतिक महत्व ज़रूर है.
दूसरी चीन की आंतरिक-राजनीति को लेकर है. हाल
में वहाँ सेना के कुछ महत्वपूर्ण अधिकारियों की तनज़्ज़ुली या बर्खास्तगी हुई है,
वहीं कुछ समय से राष्ट्रपति शी चिनफिंग की सार्वजनिक-कार्यक्रमों में अनुपस्थिति
ने ध्यान खींचा है. हाल में ब्राज़ील में हुए ब्रिक्स के शिखर सम्मेलन में उन्होंने
शामिल न होने का फ़ैसला किया, जिससे अटकलें बढ़ीं.
उनके 13 साल के शासनकाल में ऐसी ही अफवाहें
बार-बार उड़ी हैं, और हर बार झूठी साबित हुई हैं. शायद इसबार की चर्चाएँ भी
निराधार हैं, पर लगता है कि वहाँ शी चिनफिंग के उत्तराधिकार को लेकर कुछ चल रहा
है. शायद वे खुद उत्तराधिकार की व्यवस्था को कोई शक्ल दे रहे हैं.
विश्लेषकों का कहना है कि सत्ता में बने रहने या
सत्ता साझा करने की उनकी योजना 2027 में होने वाली पार्टी की
अगली पाँच-वर्षीय कांग्रेस से पहले या उसके दौरान लागू हो जाएगी, तब तक उनका तीसरा
कार्यकाल समाप्त हो जाएगा.
व्यवस्था-परिवर्तन
बात केवल नेतृत्व परिवर्तन की नहीं है, बल्कि
व्यवस्था-परिवर्तन या उसमें संशोधन की भी है. शी ने 2022 में अपने तीसरे और संभवतः
आजीवन कार्यकाल की शुरुआत लोहे के दस्ताने पहन कर की थी. उस वक्त उन्होंने देश की आर्थिक,
विदेश और सैनिक नीतियों में बदलाव का इशारा भी किया था.
देश की अर्थव्यवस्था के विस्तार ने विसंगतियों को जन्म दिया है. असमानता का स्तर बढ़ा है. एक तरफ तुलनात्मक गरीबी है, वहीं एक नया कारोबारी समुदाय तैयार हो गया है, जो सरकारी नीतियों के बरक्स दबाव-समूहों का काम करने लगा है.
निजी कारोबार ने लोगों की आमदनी बढ़ाई है.
ऐशो-आराम और मौज-मस्ती का हामी यह समूह कम्युनिस्ट-व्यवस्था से बेमेल है. जनवरी
2021 में पोलित ब्यूरो की बैठक में ‘पूँजी के बेतरतीब विस्तार को रोकने’ की बातें
हुईं. शी चिनफिंग अनेक मौकों पर इसे रोकने की बात कह चुके हैं.
शायद वे पूँजीवादी-विकास के पहिए को उल्टी दिशा
में घुमाना चाहते हैं. बढ़ते कर्ज, सट्टेबाजी और धन्नासेठों
की बढ़ती संख्या से उन्हें डर लगने लगा है. डर है कि जिस कारोबार को राज-व्यवस्था
चला रही थी, कहीं वह राज-व्यवस्था को चलाने न लगे. लोकतंत्र
और तानाशाही को लेकर जिस वैचारिक बहस का अंदेशा सत्तर के दशक में तब था, जब चीन पूँजीवाद के रास्ते पर जा रहा था, शायद वह अब
शुरू होगी.
बढ़ता कद
2022 की पार्टी कांग्रेस के चार बड़े संदेश थे. पहला,
शी चिनफिंग उम्रभर के लिए सर्वोच्च नेता बन गए. दूसरे नंबर के नेता
ली खछ्यांग हटाए गए और तीसरे पोलितब्यूरो के सात में से चार पुराने सदस्यों को
हटाकर चार नए नेताओं को पदोन्नति दी गई. और चौथा, भविष्य की
आर्थिक-सामाजिक नीतियाँ.
माओ ज़ेदुंग आजीवन महासचिव थे, पर 1976 में उनके निधन के बाद आए देंग श्याओ पिंग ने देश में सत्ता
परिवर्तन की एक अनौपचारिक व्यवस्था बनाई थी कि पार्टी का शीर्ष नेतृत्व दो
कार्यकाल से ज्यादा काम नहीं करेगा. देंग के दो पसंदीदा उत्तराधिकारियों जियांग
ज़ेमिन और हू जिनताओ ने इस नियम को अपने ऊपर लागू किया था.
शी चिनफिंग ने न केवल इस व्यवस्था को खत्म कर
दिया, साथ ही अभी तक अपने किसी उत्तराधिकारी को भी तैयार नहीं किया है. शीर्ष
नेताओं के रिटायर होने की उम्र अभी तक 68 वर्ष थी, पर 72 के
शी रिटायर होने को तैयार नहीं हैं और उनकी टीम में 60 से कम का कोई भी नेता नहीं
है. अब लगता है कि बदलाव की प्रक्रिया फिर शुरू हुई है.
सेना में बदलाव
ज़्यादातर गतिविधियाँ सेना में हुई हैं, जिससे कुछ लोग निष्कर्ष निकाल रहे हैं कि शी सशस्त्र बलों पर नियंत्रण खो
रहे हैं, लेकिन सभी विश्लेषक इस आकलन से सहमत नहीं हैं. कुछ लोग इसे शी जिनपिंग की
सत्ता के और मज़बूत होने या उनके अधीनस्थों के बीच चल रही अंदरूनी कलह के रूप में
देखते हैं.
हाल में हाई-प्रोफाइल बर्खास्तगी पीएलए नौसेना
(पीएलएएन) के चीफ ऑफ स्टाफ वाइस एडमिरल ली हानजुन की हुई है, जिन्हें चीन की 14वीं नेशनल पीपुल्स कांग्रेस से हटाने की घोषणा 27 जून को
की गई थी.
ली, बहुत सम्मानित व्यक्ति
हैं, उन्हें पीपुल्स लिबरेशन आर्मी नेवी की प्रशिक्षण-व्यवस्था को आकार देने का
श्रेय दिया जाता है. उनके अचानक निष्कासन को राजनीतिक कार्य विभाग के निदेशक
एडमिरल मियाओ हुआ के पतन से जोड़ा जा रहा है, जिन्होंने ली
की मदद की थी.
परमाणु शस्त्रागार के लिए ज़िम्मेदार पीएलए
रॉकेट फ़ोर्स पर भी इसका असर पड़ा है, और माना जा रहा है कि अगस्त
तक इसका लगभग पूरा शीर्ष नेतृत्व बदल जाएगा. थल सेना और नौसेना सहित अन्य सेवाओं
में भी कई शीर्ष अधिकारियों की बर्खास्तगी देखी गई है, जैसे
वाइस एडमिरल ली पेंगचेंग और प्रमुख थिएटर कमांड के कमांडर.
सफल-प्रशासन
शी के प्रशासन में ऐसी कोई गलती नहीं हुई है,
जिसके कारण उनके साथ के लोगों को लगे कि वे बोझ बन गए है. 2022 में उनकी कोविड-19 को
लेकर कुछ सवाल ज़रूर उठे थे, पर वह तो पुरानी बात हो गई. शी को दंडित करने के बजाय,
पार्टी ने उन्हें एक मिसाल कायम करते हुए तीसरा कार्यकाल दिया और
उन्हें अपना नियंत्रण और मज़बूत करने का मौका दिया.
चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) उन्हें सफल
नेता मानती है, जिन्होंने चीन को वैश्विक महाशक्ति के रूप में उभारा है. उन्होंने माओ
के बाद किसी भी नेता की तुलना में समाज पर पार्टी के नियंत्रण को और भी व्यापक रूप
से स्थापित किया है.
अर्थव्यवस्था और अमेरिका-चीन संबंधों को संभालने
के उनके तरीके की कुछ आलोचना हुई है, लेकिन बहुत कम लोग
मानते हैं कि उनके हटने से अमेरिकी टैरिफ़ हट जाएँगे या वैश्विक स्थिति में सुधार
हो जाएगा. सच यह है कि शी जिनपिंग को हाल के व्यापार गतिरोध में अमेरिका को फिर से
बातचीत की मेज पर लाने का श्रेय उन्हें दिया जाता है.
कुछ रिपोर्टों का दावा किया गया है कि केंद्रीय
सैन्य आयोग के उपाध्यक्ष और शी जिनपिंग के लंबे समय से सहयोगी झांग यूशिया,
उन्हें हटाने की साजिश रच रहे हैं. सवाल है कि झांग उनका विरोध
क्यों करेंगे, खासकर तब जब शी ने ही उन्हें 2022 में पद पर बनाए रखा, जबकि झांग की सेवानिवृत्ति की उम्र पारंपरिक रूप से पार हो चुकी है.
राजनीतिक-स्थिरता
माओ के बाद सबसे शक्तिशाली चीनी नेता को हटाना
शायद राजनीतिक उथल-पुथल के पिछले दौरों जैसा होगा, जिसमें
पार्टी के कुछ सबसे वरिष्ठ नेता पहले पद से हटे थे. उदाहरण के लिए, माओ-युग में, पार्टी के उपाध्यक्ष ल्यू शाओची को पद
से हटा दिया गया और तुरंत नज़रबंद कर दिया गया.
उनके उत्तराधिकारी, लिन
बियाओ–-जो कभी माओ के ‘सबसे करीबी सहयोगी’ थे–-देश से भागते समय एक संदिग्ध
विमान दुर्घटना में मारे गए. विवादास्पद घटनाओं की श्रृंखला के केवल ये दो उदाहरण
हैं, जो ध्यान खींचते हैं.
आज का चीन अपेक्षाकृत स्थिर दिखाई पड़ता है. शी
जिनपिंग के तीसरे कार्यकाल के दौरान हटाए गए सबसे वरिष्ठ व्यक्ति ही वेइदोंग हैं,
जो पोलित ब्यूरो के सदस्य और केंद्रीय सैन्य आयोग के उपाध्यक्ष हैं,
और मार्च के बाद से नज़र नहीं आए हैं.
चुनौतियाँ भी हैं
चीन के सामने घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कई
चुनौतियाँ हैं. विकास दर धीमी है और बेरोज़गारी बढ़ रही है. व्यापार युद्ध ने
घरेलू हालात को और बिगाड़ दिया है.
अनुमान है कि शी व्यवस्थित सत्ता-हस्तांतरण की
नींव रख रहे हैं या फिर संभावित सेवानिवृत्ति की तैयारी में अपनी भूमिका को कम कर
रहे हैं. सत्ता हस्तांतरण को लेकर अटकलें तब तेज हुईं, जब सरकारी समाचार एजेंसी शिनहुआ
ने खबर दी कि पार्टी के 24 सदस्यीय राजनीतिक ब्यूरो ने 30 जून को अपनी बैठक में पार्टी के संस्थानों के कामकाज पर नए नियमों की
समीक्षा की.
ये नियम क्या हैं, यह तभी
स्पष्ट होगा जब पार्टी इन्हें सार्वजनिक करेगी. 2024 के अंत तक 10 करोड़ से
ज़्यादा सदस्यों के साथ, सीसीपी दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी
राजनीतिक पार्टी है.
पार्टी की उपलब्धियाँ
चीन दुनिया का अकेला देश है, जहाँ कम्युनिस्ट
पार्टी मज़बूती से फल-फूल रही है. इसने लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकाला है और
चीन को आर्थिक और सैन्य महाशक्ति बनाया है. उत्तरी कोरिया या क्यूबा के नाम भी आप
ले सकते हैं, पर चीन के साथ उनकी तुलना संभव नहीं.
चीनी व्यवस्था की हम कितनी भी आलोचना करें,
दो बातों की अनदेखी नहीं कर सकते. एक 1949 से, जब से नव-चीन का उदय हुआ है, उसकी नीतियों में
निरंतरता है. यह भी सही है कि लंबी छलाँग और सांस्कृतिक क्रांति के कारण साठ के
दशक में चीन ने संकटों का सामना किया.
इस दौरान देश ने कुछ जबर्दस्त दुर्भिक्ष का
सामना भी किया. सत्तर के दशक में पार्टी के भीतर वैचारिक मतभेद भी उभरे. देश के
वैचारिक दृष्टिकोण में बुनियादी बदलाव आया.
माओ के समकालीन नेताओं में चाऊ एन लाई
अपेक्षाकृत व्यावहारिक थे, पर माओ के साथ उनका स्वास्थ्य भी
खराब होता गया. माओ के निधन के कुछ महीने पहले उनका निधन भी हो गया. उनके पहले
ल्यू शाओ ची ने पार्टी की सैद्धांतिक दिशा में बदलाव का प्रयास किया, पर उन्हें कैपिटलिस्ट रोडर कह कर अलग-थलग कर दिया गया और उनकी 1969 में
संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई.
उसके बाद 1971 में लिन बियाओ माओ के खिलाफ बगावत
की कोशिश में मारे गए. 1976 में माओ जे दुंग के निधन के बाद आए ह्वा ग्वो फेंग और
देंग श्याओ फेंग पर ल्यू शाओ ची की छाप थी. देंग देश को उसी रास्ते पर ले गए,
जिस पर ल्यू शाओ ची जाना चाहते थे.
नया रास्ता
चीन का यह रास्ता है आधुनिकीकरण और समृद्धि. कुछ
लोग मानते हैं कि चीन पूँजीवादी देश हो गया है. वे पूँजीवाद का मतलब निजी पूँजी,
निजी कारखाने और बाजार व्यवस्था को ही मानते हैं. पूँजी सरकारी हो
या निजी इससे क्या फर्क पड़ता है?
यह बात सोवियत संघ में दिखाई पड़ी जहाँ व्यवस्था
का ढक्कन खुलते ही अनेक पूँजीपति घराने सामने आ गए. इनमें से ज्यादातर या तो
पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हैं या कम्युनिस्ट शासन से अनुग्रहीत लोग.
1991 में सोवियत संघ के टूटने के बावजूद चीन की
शासन-व्यवस्था ने खुद को कम्युनिस्ट कहना बंद नहीं किया. वहाँ का नेतृत्व लगातार
शांतिपूर्ण तरीके से बदलता जा रहा है. इसका मतलब यह हुआ कि वहाँ पार्टी का बड़ा
तबका प्रभावशाली है, केवल कुछ व्यक्तियों की व्यवस्था नहीं
है.
नए सवाल
एक बहस है कि इस मार्केट सोशलिज़्म को पारदर्शी
भी होना चाहिए. 1978 में चीन में चार आधुनिकीकरण कार्यक्रम शुरू हुआ था. तब छात्र
नेता वेंग जिंगशेंग ने दीवार पोस्टर के माध्यम से सवाल उठाया, ‘लोकतंत्र नहीं तो आधुनिकीकरण नहीं. पाँचवाँ आधुनिकीकरण लोकतंत्र.’
यह सवाल उठाने पर वेंग को पंद्रह साल की सजा हुई.
तब से यह सवाल कई बार उठा है. 1989 में तिएन अन मन चौक के आंदोलन में यह सवाल पूरी
शिद्दत के साथ उठा था और उस आंदोलन को बुरी तरह कुचल दिया गया. पर सवाल खत्म नहीं
हुआ.
उसका आर्थिक-विकास अब गिरावट की ओर है. स्वास्थ्य
सेवाओं, शिक्षा और सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों पर सरकारी
खर्च में कमी आ रही है. आर्थिक विषमता का ग्राफ बढ़ने लगा है. आज इंटरनेट के दौर
में सवाल भी उठने लगे हैं. इस चुनौती से चीन किस तरह निपटेगा यह देखना होगा.
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