Thursday, January 28, 2021

लल्लू लाल का गद्य और प्रेमसागर

 

आगरा निवासी लल्लू लाल की नियुक्ति 1800 में फोर्ट विलियम कॉलेज में ’भाखा मुंशी’ के पद पर हिंदी-ग्रंथ रचना के लिए हुई थी। ’काजम अली जवां’ और ’मजहर अली विला’ इनके दो सहायक थे। इनकी महत्त्वपूर्ण रचनाएँ आमतौर पर संस्कृत या ब्रजभाषा से खड़ी बोली में अनुवाद हैं। 1. सिंहासन बत्तीसी, 2. बैताल पचीसी (इसकी भाषा को रेख्ता कहा गया), 3. शकुंतला नाटक, 4. प्रेमसागर या नागरी दशम, 5. राजनीति (ब्रजभाषा में,1809), 6. सभा विलास, 7. माधव विलास, 8. लाल चंद्रिका नाम से बिहारी-सतसई की टीका।

लल्लू लाल के बारे में कुछ और बातें

इन्होंने संस्कृत प्रेस की स्थापना (कलकत्ता, फिर आगरा में) की थी।

वे उर्दू को ’यामिनी भाषा’ कहते थे। प्रेमसागर की रचना करते वक्त इन्होंने यामिनी भाषा छोड़ने की ओर संकेत किया था।

लल्लूलाल ने ’बजुवान-इ-रेख्ता’ शब्द का प्रयोग ’लताइफ-ए-हिंदी’ के लिए किया था।

इनकी राजनीति (1802) शीर्षक कृति हितोपदेश की कहानियों से संबंधित ब्रजभाषा गद्य में अनूदित रचना है।’लताइफ-ए-हिंदी’ खङीबोली, ब्रज और हिंदुस्तानी की 100 लघु कथाओं का संग्रह है।

लल्लू लाल रचित प्रेमसागर का  नीचे दिया गया अंश केवल उस गद्य से परिचित कराने के लिए है, जो उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में शक्ल ले रहा था। फोर्ट विलियम कॉलेज दौर के चार लेखकों से पहले भी खड़ी बोली के गद्य का विवरण मिलता है। इस बार मैंने काफी छोटा अंश लिया है। उसे पढ़ने के पहले इन चारों लेखकों के गद्य की झलक देखने से भाषा का स्वरूप समझ में आएगा। मेरी दिलचस्पी हिन्दी-उर्दू के विकास में ज्यादा है। दोनों में किस प्रकार की एकता है और क्या फर्क है। इसमें उत्तर भारत के सांप्रदायिक अलगाव की पृष्ठभूमि भी मिलेगी।  

 

ग्रंथकार की भूमिका

बिघन बिदारन विरद बर बारन बदन बिकास ।

बर दे बहु बाढ़ बिसद बानी बुद्धि बिलास ।। १ ।।

जुगल चरन जोवत जगत जपत जैन दिन तोहिं।

जगमाता सरस्वति सुमिरि युक्ति उक्ति दे मोहि ।

एक समै व्यासदेच कृत श्रीमंत भागवत के दसम स्कंध की कथा को चतुर्भुज मिश्र ने दोई चौपाई में ब्रज भाषा किया, सो पाठशाला के लिए श्रीमहाराजाधिराज सकल-गुननिधान पुन्यवान महाजन मारकिस वेलिजली गवरनर-जनरल प्रतापी के राज में

कबि पंडित मंडित किये नग भूषन पहिराय ।

गाहि गोहि बिद्या सकल बस कीनी चित चाय ।। २ ॥

 दान और चहुँ चक्र में चढ़े कबिन के चित्त ।

आवत पावत लाल मनि हय हाथी बहु वित्त ।। ४ ।।

औ श्रीयुत गुन-गाहक गुनियन-सुखदायक जान गिलकिरस्त महाशय की आज्ञा से संबत १८६०' में श्रीलल्लूजी लाल कबि ब्राह्मण गुजराती सहस्त्र-अवीच आगरेवाले ने विंसका सार ले यामनी भाषा छोड़, दिल्ली आगरे की खड़ी बोली मे कह, नाम ‘प्रेमसागर धरा, पर श्रीयुत जान गिलकिरिस्त महाशय के जाने से बना अधबना छपा अधछपा रह गया था, सो अब श्री महाराजेश्वर अति दयाल कृपाल यसस्वी तेजस्वी गिलबर्ट लार्ड मिंटो प्रतापवान के राज में श्री गुनवान२ सुखदान कृपा-निधान भाग्यवान कपतान जान उलियम टेलर प्रतापी की आज्ञा से और श्रीयुत परम सुजान दयासागर परोपकारी डाकतर उलियम हंटर नक्षत्री की सहायता से और श्री निपट प्रवीन दयायुत लिपटन अबराहम लाविट रतीवंत के कहे से उसी कवि ने संवत् १८६६ में पूरी कर छपवाया, पाठशाला के विद्यार्थियों के पढ़ने को।

 

प्रेमसागर

१ अध्याय

अथ कथा आरंभमहाभारत के अंत में जब श्रीकृष्ण अंतरध्यान हुए तब पांडव तो महा दुखी हो हस्तिनापुर का राज परीक्षित को दे हिमालय गलने गये और राजा परीक्षित सब देश जीत धर्मराज करने लगे।

कितने एक दिन पीछे एक दिन राजा परीक्षित आखेट को गये तो वहाँ देखा कि एक गाय और बैल दौड़े चले आते हैं, तिनके पीछे मूसल हाथ लिये, एक शूद्र मारता आता है। जब वे पास पहुँचे तब राजा ने शूद्र को बुलाय दुख पाय झुँझलायकर कहाअरे तू कौन है, अपना बखान कर, जो मारता है गाय औ बैल को जानकर। क्या अर्जुन को तैंने दूर गया जाना तिससे उसका धर्म नहीं पहचाना। सुन, पंडु के कुल में ऐसा किसी को न पावेगा कि जिसके सोहीं कोई दीन को सतावेगा। इतना कह राजा ने खड़ग हाथ में लिया। वह देख डरकर खड़ा हुआ, फिर नरपति ने गाय और बैल को भी निकट बुलाके पूछा कि तुम कौन हो, मुझे बुझाकर कहो, देवता हौ कै ब्राह्मन और किस लिये भागे जाते हो, यह निधड़के कहो। मेरे रहते किसी की इतनी सामर्थ नहीं जो तुम्हें दुख दे।

 

इतनी बात सुनी तब तो बैल सिर झुका बोलामहाराज, यह पाप रूप काले बरन डरावनी मूरत जो आपके सनमुख खड़ा है सो कलियुग है, इसीके आने से मैं भागा जाता हैं । यह गाय सरूप पिरथी है सो भी इसीके डर से भाग चली है। मेरा नाम है। धर्म, चार पॉव रखता हूँ-तप, सत, दया और सोच। सतयुग में मेरे चरन बीस विस्वे थे, त्रेता में सोलह, द्वापर में बारह, अब कलियुग में चार विस्वे रहे, इसलिये कलि के बीच मैं चल नहीं सकता। धरती बोली-धर्मावतार, मुझसे भी इस युग में रहा नहीं जाता, क्योकि शूद्र राजा ही अधिक अधर्म मेरे पर करेंगे, तिनका बोझ में न सह सकेंगीं इस भय से मैं भी भागती हैं । यह सुनतेही राजा ने क्रोध कर कलियुग से कहामै तुझे अभी मारता हूँ । वह घबरा राजा के चरनी पै गिर गिड़गिड़ाकर कहने लगा-पृथ्वीनाथ, अब तो मैं तुम्हारी सरन था मुझे कहीं रहने को ठौर बताइये, क्योकि तीन काल और चारों युग जो ब्रह्मा ने बनाये है सो किसी भॉति मेटे न मिटेगे । इतना बचन सुनते ही राजा परीक्षित ने कलियुग से कहा कि तुम इतनी ठौर रहो-जुए, झूठ, मद की हाट, बेस्या के घर, हत्या, चोरी और सोने में । यह सुन कलि ने तो अपने स्थान को प्रस्थान किया और राजा ने धर्म को मन में रख लिया । पिरथी अपने रूप में मिल गई । राजा फिर नगर में आये और धर्मराज करने लगे ।

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