भारत और ब्रिटेन के बीच व्यापक आर्थिक और व्यापार समझौता हो गया, पर भारत-अमेरिका समझौता नहीं हो पाया है, जिसकी उम्मीदें लगाई जा रही थीं. हालाँकि कहा जा रहा है कि जल्द ही वह भी होगा.
अमेरिका की एक टीम अगस्त में भारत आने वाली है.
इसके बाद भारत और यूरोपियन यूनियन के समझौते की भी आशा है, जिसके लिए बातचीत चल
रही है.
इन समझौतों में इतनी बारीकियाँ होती हैं कि
उन्हें पूरी तरह समझे बिना कोई भी देश कदम आगे नहीं बढ़ाता है. कुछ बातें तब समझ
में आती हैं, जब वे लागू हो जाती हैं.
रिश्तों के पेच
इधर भारत और चीन के बीच संबंधों में सुधार की
प्रक्रिया भी चल रही है, जिसमें आर्थिक-रिश्तों की केंद्रीय भूमिका होगी. दूसरी
तरफ अमेरिका के चीन, ईयू और ब्रिटेन के साथ आर्थिक-संबंध भी हमारी अर्थव्यवस्था को
प्रभावित करेंगे.
रूस, चीन और खासतौर से ब्रिक्स के साथ भारत के
रिश्ते, अमेरिका के साथ होने वाले समझौते का हमारे लिए भी महत्व है, क्योंकि
घूम-फिरकर ये हमें भी प्रभावित करते हैं.
व्यापार के समांतर जियो-पॉलिटिक्स भी चल रही है. अमेरिका सरकार चीन के व्यापार-विस्तार को काबू करने की कोशिशें भी साथ-साथ कर रही है. इसलिए इन देशों के आपसी समझौतों और उनसे पड़ने वाले क्रॉस-प्रभावों को समझना जटिल काम है.
भारत-ब्रिटेन समझौते पर हस्ताक्षर अब हुए हैं,
पर इसकी तैयारी में कई साल लग गए थे. अब यह समझौता बेस-समझौता बनकर यूरोपियन संघ
और अमेरिका के साथ समझौतों की दिशा तय करेगा.
आम प्रवृत्ति है कि जितनी बड़ी अर्थव्यवस्था के
साथ बातचीत की जाती है, उतनी ही बड़ी रियायतें दी जाती हैं.
अमेरिका और यूरोपीय संघ अब भारत से ब्रिटेन को दी गई सहूलियतों से ज्यादा की
अपेक्षा करेंगे.
भारत-ब्रिटेन
भारत और ब्रिटेन के नेताओं को विश्वास है उनका समझौता बाज़ारों
को खोलेगा और दोनों को ही लाभ पहुँचाएगा. इसका लक्ष्य दोनों देशों के बीच
द्विपक्षीय व्यापार को वर्तमान लगभग 56 अरब डॉलर से दुगुने तक पहुँचाना है.
इस समझौते पर हस्ताक्षर के साथ ही ब्रिटेन-भारत
विज़न 2035 का अनावरण भी हुआ है, जिसमें रक्षा, तकनीक और
शिक्षा जैसे क्षेत्रों में व्यापक सहयोग की परिकल्पना की गई है, जो दोनों देशों के बीच संबंधों को और गहरा करने की इच्छा को दर्शाता है.
रिपोर्टों के अनुसार, इस
नए समझौते के तहत, ब्रिटिश उत्पादों पर औसत टैरिफ 15 प्रतिशत
से घटकर 3 प्रतिशत हो जाएगा, जिससे ब्रिटेन के निर्यात में
संभावित रूप से भारी वृद्धि हो सकती है. पश्चिमी देशों में किसी के बरक्स भारत
अपने टैरिफ में भारी कमी लाने जा रहा है.
कीमतों में गिरावट
इसके कारण बहुत सी ब्रिटिश सामग्री देश में
सस्ती होंगी, जिससे भारतीय निर्माताओं को दिक्कतें हो सकती हैं, पर इससे उपभोक्ता
को खुशी होगी, साथ ही प्रतियोगिता बढ़ेगी, तो भारतीय उत्पाद भी बेहतर होंगे. दूसरी
तरफ भारतीय वस्तुओं के लिए ब्रिटिश बाजार खुलने के अपने फायदे होंगे.
भारत के ऊँचे टैरिफ अपने उद्योग-व्यापार के
संरक्षण के लिए हैं, पर यह लंबे समय तक चलेगा नहीं. विकसित देशों के साथ और अधिक
घनिष्ठता से जुड़ने के लिए हमें अपने टैरिफ को कम करना ही होगा.
यूरोपीय संघ के साथ भी भारत की बातचीत चल रही है.
दोनों पक्ष समझौते के 23 में से सात अध्यायों पर सहमत हो गए हैं. इस मामले में ब्रिटेन
के साथ हुआ समझौता टेम्पलेट का काम करेगा.
वीज़ा-व्यवस्था
यूनाइटेड किंगडम ने भारत को भले ही अपनी लगभग 99
फीसदी टैरिफ लाइनों तक शुल्क-मुक्त पहुँच प्रदान करने पर सहमति जताई है, लेकिन कामगारों तथा पेशेवरों की आवाजाही के मामले में उसका रुख कठोर है.
उसने योग प्रशिक्षकों और शास्त्रीय संगीतकारों जैसी विशिष्ट व्यावसायिक भूमिकाओं
के लिए सिर्फ 1,800 वीजा का सालाना कोटा निर्धारित किया है.
अच्छे सौदे का संकेत यह भी होता है कि दोनों
पक्ष खुश हों. ऐसे समझौतों में एक पक्ष का नुकसान ही नुकसान और दूसरे का फायदा ही
फायदा नहीं होता.
द्विपक्षीय व्यापार को बढ़ाना दोनों देशों के
हित में है, खासकर ऐसे वक्त में जब दुनिया की सबसे बड़ी
व्यापारिक शक्तियां टैरिफ और गैर-टैरिफ बाधाओं को बढ़ा रही हैं.
यूरोप का प्रवेश-द्वार
ब्रिटेन, यूरोप का प्रमुख प्रवेश द्वार है और शेष
यूरोप भारत का बड़ा व्यापारिक साझेदार है. यूरोप जाने वाला सामान, ब्रिटेन के
रास्ते भेजा जा सकता है और शुल्क-मुक्त व्यवस्था से इस प्रवाह में वृद्धि होने की
संभावना है.
अन्य देशों की कंपनियाँ जो पहले से ही यूनाइटेड
किंगडम को निर्यात करती हैं, वे भी शुल्क-मुक्त पहुँच का
फायदा उठा सकने की गरज से भारत को एक निवेश गंतव्य के रूप में ज्यादा अनुकूल नजर
से देखना शुरू कर देंगी.
अब यह सरकार पर निर्भर है कि वह भारतीय
निर्यातकों को आगे बढ़ने और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने में मदद करे.
भारतीय चिंता
भारत-यूके समझौते के बाद ध्यान फौरन अमेरिका की
ओर जाता है, जो ज्यादा बड़ी चुनौती है. अमेरिकी सोयाबीन, मक्का,
इथेनॉल और डेयरी उत्पादों के लिए भारत अपना बाजार नहीं खोलना चाहता
है. ऐसा नहीं हुआ, तो अमेरिका भी हमारे खाद्य उत्पादों पर टैरिफ लगाएगा. इससे भारतीय
समुद्री खाद्य निर्यात को नुकसान होगा.
एक बात यह भी कही जाती है कि अमेरिकी कृषि आयात
का डर वास्तविकता से अधिक है. डेयरी को ही लें, अमेरिका, न्यूजीलैंड
और यूरोपीय संघ जैसा दूध पाउडर, मक्खन और पनीर का बड़ा
निर्यातक नहीं है. भारत ने 2024-25 के दौरान 5 अरब डॉलर से अधिक मूल्य का सोयाबीन तेल
आयात किया.
इसका बड़ा हिस्सा अर्जेंटीना और ब्राजील से था,
जिसमें अमेरिका का हिस्सा केवल 12.63 करोड़ डॉलर था. निस्संदेह,
मक्का के मामले में उसकी लागत कम है और वह दुनिया का सबसे बड़ा
उत्पादक और निर्यातक दोनों है.
मक्का मूल रूप से पशु-खाद्य है, जिसका उपयोग तेजी से जैव ईंधन फीडस्टॉक के रूप में भी किया जा रहा है.
आयात की अनुमति देने से भारत के डेयरी और पोल्ट्री किसानों को लाभ होगा, जो ईंधन इथेनॉल उत्पादन के लिए मक्का के इस्तेमाल के कारण चारे की बढ़ती
लागत से जूझ रहे हैं.
भारत को खेती में तेज सुधारों की ज़रूरत है,
ताकि इस क्षेत्र में निर्यात बढ़े और ग्रामीण-क्षेत्र में पूँजी निवेश बढ़े.
वैश्विक घटनाक्रम
नवीनतम समाचार यह है कि अमेरिका और यूरोपीय संघ
के बीच व्यापार समझौते पर सहमति बन गई है. दोनों पक्ष यूरोपीय संघ के सभी उत्पादों
पर 15 फ़ीसदी अमेरिकी टैरिफ़ लगाने पर राज़ी हुए हैं.
यह समझौता अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और
यूरोपीय संघ की अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन के बीच स्कॉटलैंड में हुई मुलाक़ात
के दौरान हुआ. यूरोपीय संघ कुछ उत्पादों पर ज़ीरो टैरिफ़ के साथ अमेरिकी
निर्यातकों के लिए अपने बाज़ार खोलेगा.
हाल में जो एक और बड़ी खबर आई, वह है
अमेरिका-जापान समझौते की. उधर दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ ऐसा कोई समझौता
नहीं हो पाया है, जिससे वे देश चीन को अपनी आपूर्ति श्रृंखलाओं और ट्रांसशिपमेंट
से हटाएँ और अंततः बीजिंग को आर्थिक रूप से अलग-थलग किया जा सके.
मंगलवार, 22 जुलाई को
राष्ट्रपति ट्रंप ने अपने ट्रुथ सोशल अकाउंट पर बताया कि जापान इस बात पर सहमत हो
गया है कि अमेरिका को निर्यात पर 15 प्रतिशत टैरिफ लगेगा, एक
आँकड़ा जिसकी पुष्टि प्रधान मंत्री इशिबा शिगेरु ने 23 जुलाई की सुबह तोक्यो में
प्रेस के सदस्यों के सामने की.
500 अरब डॉलर का कोष
समझौते में यह शर्त रखी गई है कि जापान 550 अरब
डॉलर का एक कोष बनाएगा जो राष्ट्रपति ट्रंप के विवेकाधीन निर्देशों के अधीन होगा,
और इस कोष के निवेश से होने वाले लाभ का 90 प्रतिशत अमेरिका को मिलेगा.
अमेरिकी अधिकारियों ने बताया है कि इसका उपयोग
ऊर्जा अवसंरचना, फार्मास्युटिकल्स और खनिज प्रसंस्करण सहित
विशिष्ट औद्योगिक क्षेत्रों को पुनर्जीवित करने के लिए किया जाएगा, लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि यह कैसे काम करेगा.
इस बीच, इंडोनेशिया ने
संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं—फिर से, दोनों देशों द्वारा औपचारिक हस्ताक्षर और सहमत विवरण अभी अस्पष्ट हैं—जिसमें
19 प्रतिशत की टैरिफ दर निर्धारित की गई है.
मंगलवार 23 जुलाई को जारी एक संयुक्त बयान के
अनुसार जकार्ता अपने निर्यात पर अमेरिकी टैरिफ का सामना करने के बावजूद अमेरिकी
वस्तुओं पर टैरिफ को समाप्त कर देगा. 15 अरब डॉलर के अमेरिकी ऊर्जा निर्यात और 4.5
अरब डॉलर के कृषि उत्पादों में निवेश करेगा, और अमेरिका
द्वारा खरीदी जाने वाली औद्योगिक वस्तुओं और महत्वपूर्ण खनिजों पर लगे प्रमुख
निर्यात प्रतिबंध हटाएगा.
आंतरिक-राजनीति पर असर
इंडोनेशिया का समझौता ऐसे समय में हुआ है, जब
फिलीपींस ने अमेरिका को निर्यात पर 19 प्रतिशत की समान टैरिफ दर के साथ एक समझौता
किया है, जबकि फिलीपींस को अमेरिकी निर्यात पर सभी टैरिफ हटा
दिए गए हैं.
उनके इस समझौते ने उनके अपने देश में ही काफ़ी
नाराज़गी पैदा कर दी है, ठीक वैसे ही जैसे इंडोनेशिया के
समझौते ने की है. फिलीपींस के पब्लिक-ओपीनियन सूचकांकों में इसे अमेरिका के आगे
झुकने के रूप में देखा गया है. जापान में भी कमोबेश यही स्थिति है.
जहाँ जकार्ता, मनीला और
तोक्यो ने टैरिफ़ पर अपनी ‘जीत’ का दावा किया है, वहीं उनके समझौते जनता के बीच
अलोकप्रिय हैं, जिससे उनकी सरकारों की मज़बूती के साथ-साथ
अमेरिका के दीर्घकालिक घरेलू दृष्टिकोण पर भी सवाल उठ रहे हैं.
चीन अब भी महत्वपूर्ण
जैसे-जैसे वाशिंगटन के साथ उनके नए समझौते लागू
हो रहे हैं, ये देश अन्य क्षेत्रीय शक्तियों और यूरोपीय संघ
के साथ भी आक्रामक रूप से समझौते करने की कोशिश कर रहे हैं. हालाँकि, फिलहाल चीन अब भी दक्षिण-पूर्व एशिया में प्रमुख व्यापारिक साझेदार और
वस्तुओं का स्रोत बना हुआ है.
राष्ट्रपति ट्रंप ने चीन को अलग-थलग करने के लिए
कई साझेदार देशों को शामिल करने का संकल्प किया है. इसके लिए वे चीनी माल पर अपनी
निर्भरता कम करेंगे. अपनी सप्लाई-चेन में बदलाव करेंगे ताकि वे चीन की अनुपस्थिति
में भी काम कर सकें और चीन में बने सामानों पर अपने टैरिफ लगा सकें.
हाल में, ट्रंप ने इन
साझेदारों पर ट्रांसशिपमेंट की प्रथा को समाप्त करने का दबाव भी डाला है, जिसके तहत चीनी कारखाने टैरिफ से बचने के लिए पूरी तरह से तैयार सामान या
पुर्जों को अमेरिका में निर्यात करने से पहले किसी बीच के देश में भेज देते हैं.
रूसी-चीनी सामग्री
इंडोनेशिया और फिलीपींस को उन सभी निर्यातित
वस्तुओं पर अतिरिक्त 40 प्रतिशत टैरिफ का सामना करना पड़ेगा जिनमें चीन और रूस की
सामग्री का एक ‘निश्चित प्रतिशत’ शामिल
है.
अमेरिका, दक्षिण-पूर्व एशिया में चीन के आर्थिक
लाभ को खत्म करना चाहता है, जिसका उद्देश्य अंततः चीन को
वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं से अलग-थलग करना और उसके निर्यात को कम करना है.
ट्रंप ने यूरोप, पूर्वोत्तर
एशिया और दुनिया के अन्य हिस्सों में अलगाव के इस विचार को आगे बढ़ाया है, इस
रणनीति को सबसे आक्रामक तरीके से दक्षिण पूर्व एशिया में बढ़ावा दिया है, जहाँ हाल के वर्षों में बड़ी मात्रा में ट्रांसशिपमेंट हुआ है.
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