Tuesday, October 13, 2020

पाकिस्तान में सेना-विरोधी मोर्चा

पिछले हफ्ते पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ ने अचानक ट्विटर पर अपना हैंडल शुरू कर दिया। पाकिस्तानी सोशल मीडिया पर अचानक राजनीतिक गतिविधियाँ तेज हो गईं हैं। विरोधी दलों ने एक नए आंदोलन की शुरुआत कर दी है, जिसका निशाना इमरान खान के साथ सेना भी है। इस आंदोलन के तेवर को देखते हुए विदेशमंत्री शाह महमूद कुरैशी ने विरोधी दलों से अपील की है कि वे देश की संस्थाओं पर आरोप न लगाएं। यह देश के हित में नहीं होगा। यहाँ उनका आशय सेना से ही है। नवाज शरीफ आजकल लंदन में रह रहे हैं और लगता नहीं कि वे जल्द वापस आएंगे, पर लगता है कि वे लंदन में रहकर पाकिस्तानी राजनीति का संचालन करेंगे। उनकी बेटी मरियम देश में इस अभियान में शामिल हैं। उनके साथ बेनजीर भुट्टो के पुत्र बिलावल भुट्टो भी इमरान खान और सेना विरोधी आंदोलन में शामिल हो गए हैं।

गत 20 सितंबर को पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी (पीपीपी) की ओर से आयोजित सर्वदलीय सम्मेलन में सत्तारूढ़ पाकिस्तान तहरीके इंसाफ पार्टी को छोड़कर शेष ज्यादातर बड़े दल शामिल हुए और उन्होंने पाकिस्तान डेमोक्रेटिक मूवमेंटनाम से एक नए जनांदोलन का आह्वान किया है। दस से ज्यादा विरोधी दलों ने एक मंच पर आकर इमरान खान सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। यह मोर्चा एक तरह से सेना के खिलाफ भी है, जिसपर इमरान खान को कुर्सी पर बैठाने का आरोप है।

नवाज शरीफ ने अपने ऑनलाइन संदेश में साफ कहा कि हमारा आंदोलन इमरान खान के खिलाफ नहीं है, बल्कि उन लोगों के खिलाफ है, जिन्होंने इमरान खान को कुर्सी पर बैठाया है। करीब दो साल की चुप्पी के बाद नवाज शरीफ का पाकिस्तानी राजनीति में हस्तक्षेप एक नए दौर की शुरुआत है। लगता है कि देश में अब सन 1981 से 1984 तक चले लोकतांत्रिक आंदोलन जैसे ही एक और आंदोलन की शुरुआत हो रही है। पाकिस्तानी लोकतंत्र में सेना के बार-बार हस्तक्षेप के तमाम उदाहरण हैं। सवाल है कि क्या देश के राजनीतिक दलों ने कोई सबक सीखा है? क्या वे अपनी खोई साख वापस लाने में कामयाब होंगे?

लंदन में इलाज करा रहे नवाज शरीफ ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए विपक्ष का साझा रैली को संबोधित करते हुए कहा कि मुकाबला इमरान खान से नहीं, उन्हें सत्ता में बिठाने वाले लोगों से है। हमारा मुकाबला इमरान खान से नहीं है, मैंने चुनाव से पहले भी कहा था और आज भी कह रहा हूं, आज हमारी जद्दोजहद इमरान खान को लाने वालों के खिलाफ है, जिन्होंने इस तरह चुनाव चोरी करके ऐसे नाकाबिल बंदे को बिठाया है और मुल्क को बर्बाद कर दिया है। इमरान खान को पाकिस्तान सेना की कठपुतली के रूप में जाना जाता है। उन्हें इलेक्टेड नहीं, सिलेक्टेड प्रधानमंत्री माना जाता है।

नवाज शरीफ ने कहा, बदलाव नहीं लाया गया तो देश का ऐसा नुकसान होगा जिसकी भरपाई नहीं हो सकती है। यह बहुत जरूरी है कि सेना सरकारी सिस्टम से दूर रहे। हमारे संविधान और कायदे-आज़म के भाषण के मुताबिक लोगों की पसंद में सेना दखलअंदाजी ना करे। हमने इस देश को अपनी और दुनिया की नजरों में मज़ाक बना दिया है। मंच के लिए पीपीपी के अध्यक्ष बिलावल भुट्टो ज़रदारी को शुक्रिया कहते हुए नवाज शरीफ ने कहा, मैं देश में नहीं हूं लेकिन जानता हूं कि देश और लोग किस हालात में हैं। मैं मानता हूं कि यह निर्णायक मोड़ है। लोकतंत्र को बचाना जरूरी है और बेखौफ फैसले करने होंगे। यदि हम आज कदम नहीं उठाएंगे तो कब उठाएंगे। मैं मौलाना फज़लुर रहमान से सहमत हूं कि हमें इस कांफ्रेंस को उद्देश्यपूर्ण बनाना होगा नहीं तो लोग निराश होंगे।

पाकिस्तान मुस्लिम लीग नवाज (पीएमएल-एन) के प्रमुख नवाज शरीफ (70) को पिछले साल लाहौर उच्च न्यायालय ने इलाज के लिए चार सप्ताह के लिए विदेश जाने की अनुमति दी थी। वे नवंबर से ही लंदन में रह रहे हैं। शरीफ, उनकी बेटी मरियम और दामाद मोहम्मद सफदर को 6 जुलाई 2018 को एवनफील्ड संपत्ति मामले में दोषी करार दिया गया था।

शरीफ ने कहा कि पूर्व प्रधानमंत्री युसुफ रजा गिलानी ने एक बार कहा था कि पाकिस्तान में 'राज्य के अंदर एक राज्य है।' स्थिति और बदतर हो गई है और राज्य के ऊपर एक राज्य हो गया है। यह समानांतर सरकार की बीमारी हमारी परेशानी की मूल वजह है।

पीडीएम के सम्मेलन में नवाज शरीफ का भाषण


अफ़ग़ान
शांति-वार्ता के निहितार्थ

अफग़ानिस्तान में शांति स्थापना के लिए सरकार और तालिबान के बीच बातचीत दोहा में चल रह है। पहली बार दोनों पक्ष दोहा में आमने-सामने हैं। इस वार्ता के दौरान यह बात भी स्पष्ट होगी कि देश की जनता का जुड़ाव किस पक्ष के साथ कितना है। पिछले दो दशक से अमेरिका और यूरोप के देश काबुल सरकार का सहारा बने हुए थे, पर वे अब खुद भागने की जुगत में हैं। कहना मुश्किल है कि विदेशी सेना की वापसी के बाद की व्यवस्था कैसी होगी, पर अच्छी बात यह है कि सभी पक्षों के पास पिछले चार दशक की खूंरेज़ी के दुष्प्रभाव का अनुभव है। सभी पक्ष ज्यादा समझदार और व्यावहारिक हैं।

इस बातचीत के पीछे हालांकि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की भूमिका है, पर वास्तव में ऐतिहासिक परिस्थितियाँ दोनों को एक-दूसरे के पास लेकर आई हैं। फिर भी फौरन ही बड़े परिणामों की उम्मीद नहीं है। हाँ, इसके दूरगामी परिणाम होंगे, जिनसे पश्चिम, मध्य और दक्षिण एशिया पर असर पड़ेगा। देश में हिंसक घटनाएं अब भी जारी हैं, पर बातचीत भी चल रही है।

भारतीय दृष्टि से यह इसलिए महत्वपूर्ण है, क्योंकि झिझक के साथ वह भी इसमें भूमिका निभा रहा है। अभी तक भारत ने तालिबान के साथ किसी प्रकार के संबंध नहीं रखे थे, पर अब लगता है कि संकोच त्याग दिया गया है। बातचीत के पहले दौर की जो जानकारियाँ मिली हैं उनके अनुसार दोनों पक्ष सत्ता में भागीदारी की शर्तों पर विचार-विमर्श कर रहे हैं। दूसरी तरफ देश में हिंसक संघर्ष भी चल रहे हैं। दोनों पक्ष शायद अपनी ताकत को तोल रहे हैं।  तालिबानी आत्मघाती हमले जारी हैं और सरकारी वायुसेना उनपर बमबारी कर रही है। दोनों पक्ष लड़ाई को रोकने की सहमति भी नहीं बना पाए हैं।

बातचीत का एक हफ्ता पूरा होने के बाद तालिबान की ओर से बताया गया कि हमारी एक ही बात है, अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक सिस्टम की स्थापना होन चाहिए। इस पर हम कोई समझौता नहीं। वर्तमान व्यवस्था अवैध है और वह अमेरिका के कब्जे के कारण लागू हुई है। दूसरी तरफ औपचारिक रूप से  सरकार भी इस्लामिक व्यवस्था का दावा करती है। सन 2004 के संविधान की शुरुआत इस घोषणा के साथ हुई है कि यह देश इस्लाम के रास्ते पर चलेगा। दोनों ने एक फर्क है। बातचीत की मेज पर बैठे सरकारी पक्ष में महिलाएं भी हैं और तालिबानी पक्ष में नहीं हैं।

तालिबान मुख्यतः पश्तून इलाकों में ही असरदार हैं। ताजिक, उज्बेक और हजारा जैसे गैर-पश्तून इलाकों के साथ उनका रिश्ता कैसा रहेगा और उन इलाकों की तालिबान के प्रति दृष्टि क्या है, इसे भी समझना होगा। यहाँ की एक पारंपरिक लोकतांत्रिक-व्यवस्था भी है। अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के पश्तून इलाकों में पश्तूनवाली नाम से एक अलिखित विधान चलता है, जिसका सभी कबीले आदर करते हैं पिछले साल मई में लोया जिरगा का अधिवेशन हुआ था, जिसमें अफगानिस्तान में तालिबान के साथ मिलकर सरकार चलाने से जुड़े मसलों पर विचार किया गया यह नियमों की एक व्यवस्था है कबायली परिषद को लोया जिरगा नाम से जाना जाता है तालिबान के शासन के दौरान पश्तूनवाली के साथ-साथ शरिया कानून भी लागू किए गए थे

करीब एक सदी पुरानी इस संस्था का उपयोग अंतर्विरोधी कबायली गुटों और जातीय समूहों के बीच सहमति बनाने के लिए किया जाता है 2001 में तालिबान शासन के पतन के बाद भी इस परिषद का उपयोग किया गया था सन 2019 के पहले लोया जिरगा की बैठक 2013 में हुई थी सन 2013 के लोया जिरगा में अमेरिका के साथ किए गए द्विपक्षीय सुरक्षा समझौते को स्वीकृति दी गई थी सन 2004 में बने वर्तमान अफ़ग़ान संविधान में लोया जिरगा का उल्लेख है यह एक प्रकार का जनमत संग्रह है, जिसका असाधारण स्थितियों में ही सहारा लिया जाता है

डोनाल्ड ट्रंप ने कहा कि हमारे सैनिकों की तादाद लगातार कम होती जा रही है और अगले कुछ हफ्तों में 4,000 से भी कम रह जाएगी। अमेरिका में हाल में हुए सर्वे से पता लगा है कि वहाँ को वोटर इस शांति-वार्ता को लेकर काफी उत्साहित है। ट्रंप की दिलचस्पी चुनाव जीतने में है, अफगानिस्तान उनकी बुनियादी चिंता का विषय नहीं है। अमेरिका और तालिबान के बीच इस साल फरवरी में हुए समझौते के अनुसार अफगानिस्तान में सक्रिय गिरोहों को तालिबान से मिलने वाली मदद खत्म होगी। ऐसा हुआ, तो मई 2021 तक सेना अफगानिस्तान से वापसी के लिए तैयार हो जाएगी।

ट्रंप चाहते हैं कि अमेरिकी सेना 3 नवंबर के राष्ट्रपति चुनाव के पहले अफगानिस्तान से पूरी वापसी की योजना को अंतिम रूप दे दे। अब सवाल है कि क्या अफगानिस्तान में कोई अंतरिम व्यवस्था लागू होगी? क्या तालिबान सरकार में शामिल होंगे? क्या विदेशी सेनाओं की पूरा वापसी होगी? तालिबान यदि सरकार में शामिल हुए, तो उनकी वैचारिक भूमिका क्या होगी? इस नई व्यवस्था में पाकिस्तान कहाँ होगा? और भारत कहाँ होगा वगैरह?

दोहा में शुरू हुई वार्ता के पहले दिन भारत के विदेशमंत्री एस जयशंकर ने अपने वीडियो संदेश में कहा था कि यह वार्ता अफगान लोगों द्वारा संचालित और उनकी ही भागीदारी में हो रही है। जाहिर है कि देश की जो भी वैध-व्यवस्था होगी, भारत उसे मानेगा। जिस वक्त यह वार्ता दोहा में शुरू हुई, इसके अमेरिकी सूत्रधार जलमय खलीलज़ाद भारत और पाकिस्तान के दौरे पर थे। भारत में उन्होंने विदेशमंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल से मुलाकात की। खलीलज़ाद ने भारत की इस बात के लिए तारीफ की कि उसने तालिबान की मौजूदगी को स्वीकार किया है। उन्होंने इसे एक महत्वपूर्ण कदम बताया। खलीलजाद के बाद अफगानिस्तान के अब्दुल्ला अब्दुल्ला भी भारत की यात्रा पर आए और उन्होंने परिस्थितियों से भारत सरकार को अवगत कराया। 

मुस्लिम ब्लॉक में उलटफेर

मुस्लिम दुनिया में उलट-फेर हो रहा है। अंततः अफगान सरकार और तालिबान दोहा में आमने-सामने बैठे और भारत ने भी औपचारिक रूप से इस संवाद में भाग लिया। दूसरी तरफ गत 15 सितंबर को संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने इसरायल के साथ अपने रिश्ते सामान्य करने के लिए वॉशिंगटन में समझौते पर दस्तखत कर दिए और तीसरी तरफ पाकिस्तान इस बात को लेकर उत्साहित है कि वह एक नए मुस्लिम ब्लॉक का सूत्रधार बनने जा रहा है।

पश्चिम एशिया की राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत हो गई है। इस समझौते के साथ 1948 में इसरायल की स्थापना के बाद यूएई और बहरीन उसे मान्यता देने वाले तीसरे और चौथे अरब देश बन गए हैं। ये दोनों खाड़ी देश सऊदी अरब के सबसे क़रीबी सहयोगी हैं। पर्यवेक्षक मानते हैं कि सऊदी अरब के समर्थन के बिना ये देश इसरायल को मान्यता नहीं दे सकते। इसके पहले मिस्र और जॉर्डन ने इसरायल से रिश्ते जोड़े थे। सन 1999 में उत्तर-पश्चिम अफ्रीका में अरब लीग के एक सदस्य मॉरितानिया ने भी इसरायल के साथ राजनयिक रिश्ते जोड़े थे, लेकिन 2010 में उन्हें तोड़ दिया।

अगस्त में यूएई ने इसरायल के साथ अपने रिश्ते सामान्य करने की इच्छा जताई थी, तभी से अटकलें थीं कि बहरीन भी ऐसा ही करेगा। समझौते के बाद राष्ट्रपति ट्रंप ने उम्मीद जताई कि बाकी अरब देश भी इस दिशा में आगे बढ़ेंगे। उधर फलस्तीन के लोगों ने अरब देशों से अपील की है जब तक हमारे विवाद का फैसला नहीं होता, उन्हें इंतज़ार करना चाहिए। अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव के पहले डोनाल्ड ट्रंप कुछ बड़े काम कर देना चाहते हैं, ताकि वे वोटर के सामने अपनी उपलब्धियाँ गिना सकें। उन्हें इस साल शांति के नोबेल पुरस्कार के लिए मनोनीत भी किया गया है।

हालांकि मुस्लिम ब्लॉक पहले भी कभी बहुत एकताबद्ध नजर नहीं आया, पर कम से कम फलस्तीन के मामले में उसकी एकजुटता नजर आती थी। अब लग रहा है कि अरब देशों के साथ इसरायल के रिश्तों में बदलाव आ रहा है और इसके समांतर मुस्लिम देशों में दरार पड़ रही है। यह दरार केवल फलस्तीन या इसरायल के कारण नहीं है। ज्यादा से ज्यादा यह ट्रिगर पॉइंट है। दरार के पीछे दूसरे बड़े कारण हैं।

विश्ववार्ता में प्रकाशित

1 comment: