Tuesday, October 20, 2020

एफएटीएफ की 'ग्रे लिस्ट’ से पाकिस्तान का फिलहाल निकल पाना मुश्किल

 

फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स (एफएटीएफ) की 21 से 23 अक्तूबर को होने वाली सालाना आम बैठक के ठीक पहले लगता है कि पाकिस्तान इसबार भी न तो ग्रे लिस्ट से बाहर आएगा और न ब्लैक लिस्ट में डाला जाएगा। भारत सरकार के सूत्रों का कहना है कि एफएटीएफ ने पाकिस्तान को जिन 27 कार्य-योजनाओं की जिम्मेदारी दी थी, उनमें से केवल 21 पर ही काम हुआ है। शेष छह पर नहीं हुआ।

इसके पहले एफएटीएफ के एशिया प्रशांत ग्रुप की रिपोर्ट गत 30 सितंबर को जारी हुई थी, जिसमें पाकिस्तान को दिए गए कार्य और उस पर अमल करने के उपायों की समीक्षा की गई। इसका सारांश है कि पाकिस्तान फिलहाल प्रतिबंधित होने वाली सूची से तो बच सकता है, लेकिन उसे अभी निगरानी सूची में ही रहना होगा। एफएटीएफ ने पाकिस्तान को गैरकानूनी वित्तीय लेन-देन, बाहर से आने वाली फंडिंग को रोकने, एनजीओ के नाम पर काम करने वाली एजेंसियों की गतिविधियों पर लगाम लगाने व पारदर्शिता लाने के लिए कार्यों की सूची सौंपी है।

पेरिस में क्या होगा?

पेरिस स्थित मुख्यालय में एफएटीएफ की 21-23 अक्टूबर को वर्च्युअल बैठक होगी। एफएटीएफ ने हाल के महीनों में पाकिस्तान सरकार की तरफ से उठाए गए कुछ कदमों की तारीफ भी की है। खासतौर पर जिस तरह से गैरसरकारी संगठनों की गतिविधियों को पारदर्शी बनाने के लिए कदम उठाए गए हैं, उनकी तारीफ की गई है। पाकिस्तान में नई व्यवस्था लागू की गई है, जिससे हजारों एनजीओ की फंडिंग की निगरानी संभव हो सकेगी।

माना जा रहा था कि इन संगठनों के जरिए तमाम आतंकी संगठनों को पैसा पहुंचाया जा रहा था। पिछले महीने प्रधानमंत्री इमरान खान ने स्वयं पाकिस्तानी संसद में उपस्थित होकर एफएटीएफ की सिफारिशों के मुताबिक विधेयकों में संशोधन करने में विपक्षी दलों से सहयोग का आग्रह किया था।

दूसरी तरफ भारत सरकार के सूत्रों का मानना है कि पाकिस्तान में 4000 से ज्यादा आतंकियों के नाम सरकारी दस्तावेजों (शिड्यूल 1वी) से गायब हो गए हैं। इसके अलावा मौलाना मसूद अज़हर और हाफिज़ सईद को सरकारी प्रश्रय मिलना जारी है। इसके अलावा पाकिस्तान का नाम इस सूची में डालने वाले चार देश अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी अभी संतुष्ट नहीं हैं। उनका मानना है कि पाकिस्तान ने अफगानिस्तान में संतोषजनक काम नहीं किया है।

जनवरी 2018 में पाकिस्तान का नाम एफएटीएफ में प्रस्तावित किया गया था और जून की बैठक में उत्तरी कोरिया और ईरान के साथ उसका नाम भी ग्रे लिस्ट में डाला गया था। उसके बाद से वह अभी उसी सूची में है। अभी लगता नहीं कि पाकिस्तान का नाम इस हफ्ते काली सूची में डाला जाएगा, पर इमरान खान पिछले दो-तीन दिन से काफी परेशान हैं। यदि उनका देश काली सूची में चला गया, तो ईरान की तरह पाकिस्तान के लिए भी अंतरराष्ट्रीय कारोबार में भाग लेना मुश्किल हो जाएगा।

क्या एफएटीएफ संरा की संस्था है?

नहीं, इसे जी-7 देशों ने बनाया है। यह संगठन सन 1989 में जी-7 देशों के पेरिस शिखर सम्मेलन की देन है। शुरू में तो यह मनी लाउंडरिंग रोकने के लिए बना था, पर 11 सितम्बर 2001 के आतंकवादी हमले के बाद से इसने सन 2001 में आतंकवादी गतिविधियों के लिए धन उपलब्ध कराने के खिलाफ भी सिफारिशें देना शुरू किया और अब यह जन-संहार के हथियारों के प्रसार के विरुद्ध भी नीति-निर्देश दे रहा है। इसकी सिफारिशों में व्यवस्था को पारदर्शी बनाने और भ्रष्टाचार को रोकने से जुड़ी सिफारिशें भी शामिल हैं।

इसके गठन के वक्त 16 देश इसके सदस्य थे, जिनकी संख्या अब 37 है। इनके अलावा दो क्षेत्रीय संगठन यूरोपियन कमीशन और गल्फ कोऑपरेशन कौंसिल इसके सदस्य हैं। भारत एफएटीएफ और एपीजी दोनों का सदस्य है। भारत के वित्तीय इंटेलिजेंस यूनिट के डायरेक्टर जनरल इसमें देश का प्रतिनिधित्व करते हैं। संगठन की सबसे महत्वपूर्ण इकाई है इसकी महासभा, जिसकी साल में तीन बैठकें होतीं हैं।

वॉच लिस्ट का मतलब?

अपनी स्थापना के बाद इसने अपनी पहली रिपोर्ट में मनी लाउंडरिंग को रोकने के लिए 40 सिफारिशें की थीं। सन 2003 में इन सिफारिशों में संशोधन किया गया। इन 40 सिफारिशों के अलावा आतंकवादियों को मिल रहे धन पर रोक लगाने वाली 9 विशेष सिफारिशें इनमें जोड़ी गईं। सन 2000 में इसने ‘नॉन कोऑपरेटिव कंट्रीज़ ऑर टेरिटरीज़ (एनसीसीटी) नाम से 15 देशों की एक सूची भी जारी की। इसके बाद 2001 में इसमें आठ और देशों के नाम शामिल हो गए। इसे आमतौर पर एफएटीएफ की काली सूची कहा जाता है। यह सूची संशोधित होती रहती है। इस सूची में इस समय दो देशों के नाम हैं। एक, ईरान और दूसरा दक्षिण कोरिया। ग्रे लिस्ट में 18 देशों के नाम हैं।

पाकिस्तानी पाखंड

पाकिस्तान की कोशिश अपनी वित्तीय संस्थाओं के खातों में हेर-फेर करके यह साबित करने की है कि हम आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे हैं। वह यह भी कहता है कि हम आतंकवाद के खुद शिकार हैं। सवाल है कि आतंकवाद की उसकी अपनी परिभाषा क्या है? उसकी न्याय-व्यवस्था में आतंकवादियों के साथ क्या सलूक किया जाता है? मुंबई कांड के 12 साल बाद भी वहाँ चल रहे मुकदमों की प्रगति क्या है? जब अमेरिका यात्रा पर जाना होता है, तो किसी के खिलाफ कार्रवाई की खबरें प्रकाशित करा दीं, एफएटीएफ की बैठक है, तो दो-चार गिरफ्तारियाँ करा दीं और फिर उन्हें छोड़ दिया।

पिछले साल के दो समाचारों को एक साथ पढ़ें तो पाकिस्तानी पाखंड की पोल खुल जाती है। एक खबर यह है कि देश के आतंक-विरोधी विभाग ने हाफिज सईद के खिलाफ 23 मुकदमे दर्ज किए हैं। दूसरी खबर यह है कि हाफिज सईद के बैंक खाते पर से पाबंदी हटाने की पाकिस्तान सरकार की प्रार्थना संरा सुरक्षा परिषद ने मंजूर कर ली। इतना ही नहीं उसे हर महीने 45,700 रुपये की पेंशन भी मिलती है। सुरक्षा परिषद से प्रतिबंधित यह कैसा आतंकवादी है, जिसपर अमेरिका ने एक करोड़ डॉलर का इनाम भी घोषित कर रखा है?  

पाकिस्तान के मीडिया और आम व्यवहार में हाफिज सईद को आतंकवादी माना भी नहीं जाता, बल्कि देशभक्त माना जाता है। जिस देश में आतंकवाद का मतलब देशभक्ति हो, उसका एफएटीएफ क्या बिगाड़ लेगा? सच यह है कि हाफिज सईद पाकिस्तान की उस विचारधारा का सच्चा प्रतिनिधि है, जिसका सिंहनाद इमरान खान पिछले साल संयुक्त राष्ट्र महासभा में करके आए थे। इमरान ने हाल में खुद कहा था कि देश में तीस से चालीस हजार प्रशिक्षित आतंकवादी मौजूद हैं।

और डबल गेम

पाकिस्तानी राज-व्यवस्था इस मामले में डबल गेम खेलती रही है। जुलाई 2017 में जब अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने बड़े गर्व के साथ घोषणा की कि दस साल की तलाश के बाद मुम्बई कांड के मास्टरमाइंड को पकड़ लिया गया है, अमेरिकी संसद की विदेशी मामलों की समिति ने ट्वीट किया कि यह बंदा 2001, 2002, 2006, 2008, 2009 और 2017 में कई बार पकड़ा गया और रिहा किया गया है। यह डबल गेम 9/11 के बाद से शुरू हुआ, जब परवेज मुशर्रफ ने अमेरिकी नाराज़गी से बचने के लिए पाकिस्तान को औपचारिक रूप से आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में शामिल कर लिया। अब इमरान खान कह रहे हैं कि उस लड़ाई में हमारा शामिल होना गलत था। यानी सच क्या है?

सच यह है कि जनरल ज़िया-उल-हक इस भस्मासुर के लिए सैद्धांतिक ज़मीन तैयार कर गए थे। इस जेहादी जुनून का परिणाम है यह आतंकी व्यवस्था। देश वहाबी विचारधारा का केंद्र बन गया है। किसी की ताकत उन्हें रोक पाने की नहीं है। पाकिस्तान का आतंकी नेटवर्क कई टुकड़ों में बँटा है। विशेषज्ञ इसे पाँच वर्गों में बाँटते हैं:-

1.साम्प्रदायिक: सुन्नी संगठन सिपह-ए-सहाबा, लश्कर-ए-झंगवी और शिया तहरीक-ए-ज़फरिया। 2.भारत-विरोधी: कश्मीर को आधार बनाकर सक्रिय गिरोह जिन्हें पाकिस्तानी सेना की खुफिया शाखा आईएसआई का समर्थन प्राप्त है। इनमें लश्करे तैयबा, जैशे मोहम्मद, हरकत-उल-मुज़ाहिदीन और हिज्ब-उल-मुज़ाहिदीन प्रमुख हैं। 3. अफगान तालिबान: मूल तालिबान जिसका नेता मुल्ला मोहम्मद उमर था। इनके साथ ही इन दिनों अमेरिका की बात चल रही है, जिसमें पाकिस्तान मध्यस्थ है। 4.अल कायदा और उसके सहयोगी: ओसामा बिन लादेन का मूल संगठन जिसका नेता आयमान अल जवाहिरी है। 5.पाकिस्तानी तालिबान: फाटा में सक्रिय गिरोहों का समूह, जिसका मुखिया मुल्ला फज़लुल्ला था, जिसे मुल्ला रेडियो के नाम से भी जाना जाता था।

पाकिस्तानी सेना इसी समूह के खिलाफ कार्रवाई कर रही है। यह समूह कट्टर इस्लामी व्यवस्था को लागू करना चाहता है। यह भी पाकिस्तानी भस्मासुरी व्यवस्था की देन है। इन समूहों के अलावा इस्लामी स्टेट, जिसे उसके अरबी नाम ‘दाएश’ से जाना है, पाकिस्तान में सक्रिय है। बदले हुए नामों से अलकायदा भी इनके साथ है। इनके अलावा पाकिस्तान का हक्कानी नेटवर्क है, जो तालिबान के साथ है।

पाकिस्तानी सेना भारत-विरोधी संगठनों को संरक्षण देती है, भले ही विश्व समुदाय उन्हें आतंकवादी मानता हो। इन समूहों के संरक्षण की व्यवस्था की लेखा-परीक्षा एफएटीएफ के मार्फत चल रही है। चूंकि पाकिस्तान इस समय आर्थिक संकट से भी जूझ रहा है, इसलिए वह किसी भी कीमत पर काली सूची से बचना चाहता है। ज्यादा बड़ा सवाल यह है कि पाकिस्तान क्या अपने आतंकवादी ताने-बाने को बनाए रखेगा? पिछले साल संरा महासभा में इमरान खान ने जिस तरह खुद को मुस्लिम उम्मा का नेता बनाने की कोशिश की और जिस तरह से उनके भाषण का देश के एक तबके ने स्वागत किया है, उससे लगता नहीं कि उनकी रीति-नीति में कोई बदलाव आएगा।

आतंकवाद का केन्द्र

पाकिस्तान ने जिस तरह से 2001 में पलटी खाई थी, उसी तरह कुछ अब होगा। वह अपने अफगानिस्तान कार्ड का इस्तेमाल करके अमेरिकी हमदर्दी प्राप्त करने की कोशिश कर रहा है। दूसरी तरफ उसे चीन का पूरा राजनयिक समर्थन हासिल है। माना जाता है कि इससे चीन की साख कम होगी, पर इससे क्या? चीन ने लम्बे समय तक मसूद अज़हर के मामले को रोक कर रखा। उससे चीन का क्या बिगड़ गया?

इस बात का जवाब देना भी आसान नहीं है। एफएटीएफ की आंतरिक संरचना में देशों की राय मायने रखती है, पर क्या सामने रखे सच की अनदेखी की जा सकती है? ज्यादा बड़ा सवाल पाकिस्तान को लेकर है। क्या वह दुनिया के आतंकी प्रतिष्ठान का केन्द्र बना रहेगा? क्या इससे उसकी आर्थिक दशा लगातार बिगड़ती नहीं जाएगी? पाकिस्तान के कुछ अखबारों ने इस बात को कहना शुरू किया है कि ऐसे संगठनों पर कार्रवाई क्यों नहीं की जाती, जिनपर दुनिया की निगाहें हैं? एक अखबार ने यह भी लिखा है कि ग्रे लिस्ट में बने रहने का भी मतलब है अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के सामने हमारी साख का गिरना। हमारी दिलचस्पी इस बात में है कि पाकिस्तान का रुख अपने जेहादी समूहों के प्रति कैसा रहता हैजब तक वहाँ जेहादियों की हरकतें जारी रहेंगी, और वे हमारे खिलाफ हिंसक गतिविधियाँ जारी रखेंगे, हमारे जीवन में भी शांति संभव नहीं है। पाकिस्तान में डॉन जैसे अखबार इस बात को लिखते रहते हैं कि आतंकी गिरोहों को प्रश्रय देना बंद किया जाए, पर मुख्यधारा की राजनीति इस बात को समझती नहीं है।

 

No comments:

Post a Comment