Saturday, October 31, 2020

स्वतंत्र अभिव्यक्ति ही कट्टरपंथ से लड़ाई है


फ्रांस को लेकर दुनियाभर में जो कुछ हो रहा है, उसे कम से कम दो अलग वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। इस्लामोफोबिया से शुरू होकर सभ्यताओं के टकराव तक एक धारा जाती है। दूसरे, धर्मनिरपेक्षता, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और धार्मिक भावनाओं के सिद्धांत और उनके अंतर्विरोध हैं। दोनों मसले घूम-फिरकर एक जगह पर मिलते भी हैं। इनकी वजह से जो सामाजिक ध्रुवीकरण हो रहा है, वह दुनिया को अपने बुनियादी मसलों से दूर ले जा रहा है।

तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैयब एर्दोआन, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और मलेशिया के पूर्व प्रधानमंत्री महातिर मोहम्मद ने फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों पर मुसलमानों के दमन का आरोप लगाया है। दुनिया के मुसलमानों के मन में पहले से नाराजगी भरी है, जो इन तीन महत्वपूर्ण राजनेताओं के बयानों के बाद फूट पड़ी है।

यह सब ऐसे दौर में हो रहा है, जब दुनिया के सामने महामारी का खतरा है। इसका मुकाबला करने की जिम्मेदारी विज्ञान ने ली है, धर्मों ने नहीं। बहरहाल इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक का विमर्श जिस मुकाम पर है, उसे लेकर हैरत होती है। क्या मैक्रों वास्तव में मुसलमानों को घेरने, छेड़ने, सताने या उनका मजाक बनाने की साज़िश रच रहे है? या देश के बिगड़ते अंदरूनी हालात से बचने का रास्ता खोज रहे हैं या वे यह साबित करना चाहते हैं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बुनियादी तौर पर जरूरी है?

बेअदब आलोचना

सवाल यह भी है कि यह अभिव्यक्ति क्या कुरूप, विद्रूप और अभद्र होनी चाहिए? जवाब है कि कार्टून तो तस्वीर का विरूपण ही होता है। उसका लक्ष्य ही भक्ति-भाव को ठेस पहुँचाने का होता है। सायास बेअदबी। बहरहाल इस विमर्श में भागीदारी मुसलमानों की भी होनी चाहिए। और यह काम मुस्लिम देशों के भीतर होना चाहिए। कौन बाँधेगा घंटी?

मैक्रों ने कहा है कि फ़्रांस के अनुमानित 60 लाख मुसलमानों के एक छोटे तबक़े से काउंटर-सोसाइटी पैदा होने का ख़तरा है। यानी ऐसा तबका जो देश की मूल संस्कृति से अलग हो। बहरहाल सितंबर 2005 में डेनमार्क की एक पत्रिका ने जब कार्टूनों के प्रकाशन की घोषणा की थी, तभी समझ में आ गया था कि यह सोच-समझकर बर्र के छत्ते में हाथ डालने वाला काम है। अभी वह बहस शुरू नहीं हुई है, जिसका यह ट्रिगर पॉइंट है।

सबसे पहले इस सवाल का जवाब खोजें की मैक्रों क्या मुसलमानों का दमन चाहते हैं? मुसलमानों की संवेदनशीलता की क्या उन्हें समझ नहीं है? जैसाकि इमरान खान ने कहा है कि पश्चिमी देश इस्लाम, पैग़ंबर और मुसलमानों के संबंध को नहीं समझ सकते। उनके पास वे किताबें नहीं हैं, जो हमारे पास हैं। वे इसे नहीं समझ सकते हैं।

सब क्यों बदल रहा है?

पर इमरान खान क्या उसी इस्लाम की बात कर रहे हैं, जिसकी पहचान इल्म, इंसान-परस्ती और इंसाफ से होती है?  क्या वे फ्रांस की संस्कृति को समझते हैं, करीब 60 लाख मुसलमान जहाँ के निवासी हैं? क्या वजह है कि करीब सौ साल बाद अतातुर्क कमाल पाशा के तुर्की का रूपांतरण हो गया है? कट्टरपंथ ईसाईयत में भी है, पर यूरोप को इसबात का श्रेय जाता है कि उसने वैज्ञानिक क्रांति को होने दिया।

फ्रांसीसी मूल संस्कृति की अपनी कुछ विशेषताएं हैं। कई मायनों में यह देश यूरोप के बाकी देशों से भी कुछ हटकर है। धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था चीन में भी है। पर चीनी धर्मनिरपेक्षता के साथ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता नत्थी नहीं है। हैरत इस पर है कि सामाजिक कल्याण, व्यक्ति के अधिकार, आर्थिक गतिविधियों, सार्वजनिक स्वास्थ्य, पर्यावरण और वैज्ञानिकता से जुड़े जिस विमर्श को आज दुनिया में सबसे ऊपर होना चाहिए था, वह सबसे पीछे है शायद यह बड़े बदलाव की प्रतिक्रिया है, इसलिए घबराने की नहीं, बदलाव के बारे में सोचने की जरूरत है।

फ्रांस सरकार धर्मनिरपेक्षता से जुड़े कुछ कानूनी बदलाव करने जा रही है। इसके तहत बच्चों को स्कूल भेजने और संदेहास्पद धर्मस्थलों को बंद करने का विचार है। जाहिर है कि यह सब एकतरफा नहीं होगा। इसमें सामुदायिक भागीदारी की जरूरत भी होगी। फ्रांस में सन 1958 से लागू वर्तमान संविधान के अनुसार, फ्रांस अविभाज्य, सेक्युलर, लोकतांत्रिक और सामाजिक गणतंत्र है, जो अपने नागरिकों को कानून के सामने बराबर मानता है, भले ही वे किसी भी नस्ल या धर्म से वास्ता रखते हों, और सभी धार्मिक मान्यताओं का सम्मान करता है।

देश में सन 1905 में चर्च और राज्य को अलग करने का कानून लागू हुआ, जो धर्म को राज्य का विषय नहीं मानता। यानी सार्वजनिक रूप से राज्य धर्मनिरपेक्ष है। सेक्युलर सिद्धांतों को लागू करने की दिशा में 15 मार्च 2004 को एक और कानून पास किया गया, जिसके तहत स्कूलों में ऐसे परिधान नहीं पहने जा सकते, जिनसे किसी धर्म का प्रदर्शन होता हो।

संस्कृति पर हमला

फ्रांस का सांस्कृतिक महत्व है। जनवरी और नवंबर 2015 में वहाँ दो बड़े हत्याकांड हुए थे, तब ठीकरा इस्लामिक स्टेट के सिर फूटा था। मुस्लिम विद्वानों ने आईसिस के हमले को इस्लाम विरोधी बताया। पर आज गर्दन काटने से ज्यादा बातें धार्मिक अपमान पर केंद्रित हैं। नवंबर 2015 में हमलावरों ने उन जगहों को निशाना बनाया था, जहां सप्ताहांत में युवा जाते हैं। हमलावरों ने बाद में घोषणा भी की कि हमें इस गलीज संस्कृति से ही नफरत है।

पेरिसवासी कैफे, रेस्त्रांओं और बारों में जाकर खाने-पीने और गीत-संगीत के शौकीन हैं। पेरिस हत्याकांड में जेहादियों ने खासतौर से ऐसी जगहों को निशाना बनाया था। मरने वालों में ज्यादातर या तो खा-पी रहे थे या संगीत का आनन्द ले रहे थे। तीन दिन का शोक पूरा होने के बाद पेरिसवासियों ने ऐसी जगहों पर बड़ी संख्या में एकत्र होकर अपने प्रतिरोध को व्यक्त किया।

वह भी आंदोलन था, ‘जे सुई एंतेरेसे’ (आय एम ऑन द कैफे टैरेस)। उनका कहना था, आज हम टैरेस पर नहीं बैठेंगे तो कभी नहीं बैठ पाएंगे। यह हमारी जीवनशैली पर हमला है। हम जीना बंद नहीं करेंगे। मशहूर पेरिस ऑपेरा इस हमले के बाद बंद कर दिया गया था। वह भी खोल दिया गया।

‘शार्ली एब्दो’ पर हुए हमले के बाद आतंकवाद की निंदा करने के अलावा कुछ लोगों ने यह सवाल भी उठाया था कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की सीमा क्या हो? क्या किसी की धार्मिक मान्यताओं को ठेस पहुँचाई जानी चाहिए? फ्री स्पीच के मायने क्या कुछ भी बोलने की स्वतंत्रता है? कार्टून और व्यंग्य को लेकर खासतौर से यह सवाल है।

अभिव्यक्ति की सीमा

यदि अभिव्यक्ति एबसल्यूट नहीं है, तो क्या आस्था असीमित है? धर्म-विरोधी विचारों को सामने आने का हक क्यों नहीं है? पेरिस की कार्टून पत्रिका शार्ली एब्दो केवल इस्लाम पर ही व्यंग्य नहीं करती है। उसके निशाने पर सभी धर्म हैं। उसका अंदाज़ बेहद तीखा है, पर सवाल दूसरा है। धर्मों को व्यंग्य का विषय क्यों नहीं बनाया जा सकता?

कार्टून का जवाब कार्टून है, पर चूंकि हम कार्टून नहीं बना सकते इसलिए जवाब उस औजार से देंगे जिसका इस्तेमाल हम जानते हैं। हत्याएं कार्टूनकारों की नहीं हुईं हैं। लेखकों, कलाकारों की भी हुई हैं। सन 2004 में फिल्म निर्देशक थियो वैनगॉफ की हत्या की गई। उन्होंने सोमालिया में जन्मी लेखिका अयान हिर्सी अली के साथ मिलकर फिल्म ‘सब्मिशन’ बनाई थी। वे इस्लामी दुनिया में स्त्रियों के प्रति किए जा रहे व्यवहार को लेकर आवाज़ उठा रहे थे। उनपर भी यही आरोप था कि वे मुसलमानों को उकसा रहे थे।

जो केवल कलम का इस्तेमाल करता है या ब्रश से अपनी बात कहता है उसका जवाब क्या बंदूक से दिया जाना चाहिए? यह बात केवल इस्लामी कट्टरता से नहीं जुड़ी है। हर रंग की कट्टरता से जुड़ी है। सन 2011 में नॉर्वे के 32 वर्षीय नौजवान का एंडर्स बेहरिंग ब्रीविक ने एक सैरगाह में यूथ कैम्प पर गोलियाँ चलाकर तकरीबन 80 लोगों की जान ले ली थी। नॉर्वे जैसे शांत देश में वह हिंसा क्यों हुई थी? ईसाई आतंकवादी भी दुनिया में हैं। नव-नाज़ी भी हैं। क्या कट्टरपंथी हिन्दुत्व भी हिंसक नहीं है? क्या यह मध्य युग की वापसी है जब धार्मिक विचारों को लेकर बड़े-बड़े हत्याकांड हो रहे थे?

अभिव्यक्ति पर बंदिश लगाने वाले सामाजिक जीवन की समरसता तोड़ने और ध्रुवीकरण बढ़ाने में कामयाब होते हैं। वे मानते हैं कि धार्मिक मसलों पर किसी को कुछ भी कहने का अधिकार नहीं है। इससे वे एक की भावनाओं को भड़काते हैं और दूसरे को अपने से अलग साबित करते हैं। जब पूरा समुदाय कुंठित महसूस करता है, तब टकराव पैदा होता है। क्रिया की प्रतिक्रिया होती है।

कितनी स्वतंत्रता?

शार्ली एब्दो जैसी स्वतंत्रता क्या हम अपने कार्टूनिस्टों को दे सकते हैं? मकबूल फिदा हुसेन को निर्वासन के लिए किसने मजबूर किया? शार्ली एब्दो के एक कार्टूनिस्ट जॉर्जेस वोलिंस्की यहूदी थे। इसरायली अखबार 'हारेट्ज़' में प्रकाशित लेख में वहाँ के कलाकार इदो अमीन ने लिखा कि शार्ली एब्दो का प्रकाशन इसरायल में सम्भव नहीं है, क्योंकि वहाँ के कानून धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के खिलाफ हैं।

फ्रांस के कानून व्यक्तिगत रूप से लोगों को हेट स्पीचके विरुद्ध संरक्षण देते हैं, पर वहाँ ईशनिंदा अपराध नहीं है। फ्रांस ने 1791 में इसे अपराध के दायरे से बाहर कर दिया था। यूरोप का मानवाधिकार न्यायालय भी जिन मामलों पर सजा देता है, उन्हें भी फ्रांस में सजा नहीं दी जा सकती। फ्रांस की अदालत ने शार्ली एब्दो को दोषी नहीं माना।

इस साल फरवरी में मिला नाम की एक लड़की का मामला सामने आया था, जिसने सोशल मीडिया पर एक लाइव वीडियो जारी करके इस्लाम की आलोचना की थी। उसे जान से मारने की धमकियाँ मिलीं। राष्ट्रपति मैक्रों ने कहा कि हमारे यहाँ व्यक्ति को ईशनिंदा का अधिकार प्राप्त है।

वहाँ धर्म की आलोचना की जा सकती है, पर किसी व्यक्ति या समुदाय के प्रति नफरत फैलाने का अधिकार नहीं है। यानी कि वहाँ यह कहा जा सकता है कि ईसाईयत खराब है, पर यह नहीं कि ईसाई लोग खराब हैं। यह सैद्धांतिक बात है। व्यावहारिक सच यह है कि फ्रांस में भी यूरोप के दूसरे देशों की तरह नस्ली भावनाएं हैं।

सन 2011 में नॉर्वे के 32 वर्षीय नौजवान का एंडर्स बेहरिंग ब्रीविक ने एक सैरगाह में यूथ कैम्प पर गोलियाँ चलाकर तकरीबन 80 लोगों की जान ले ली थी। नॉर्वे जैसे शांत देश में वह हिंसा हुई। पिछले साल मार्च में न्यूजीलैंड के क्राइस्टचर्च में एक हत्यारे ने दो मस्जिदों पर हमला करके 50 से ज्यादा लोगों की हत्या कर दी। ऐसी घटनाओं की प्रतिक्रिया होती है। ऐसे दौर में जब मीडिया प्रकाश की गति से भागता है, इन बातों का चमत्कारिक प्रभाव होता है।

सत्य हिन्दी में प्रकाशित

 

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1 comment:

  1. अभिव्यक्ति सीख रहे हैं समझ रहे हैं। वो तो पक्का नहीं होती है जो अपनी समझ में होती है।

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