Friday, October 2, 2020

सबके मनभावन फैसला संभव नहीं

बाबरी मस्जिद विध्वंस मामले में सीबीआई की विशेष अदालत का फैसला आने के बाद यह नहीं मान लेना चाहिए कि इस प्रकरण का पटाक्षेप हो गया है। और यह निष्कर्ष भी नहीं निकलता कि बाबरी मस्जिद को गिराया जाना अपराध नहीं था। पिछले साल नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने मंदिर-मस्जिद विवाद के जिस दीवानी मुकदमे पर फैसला सुनाया था, उसमें स्पष्ट था कि मस्जिद को गिराया जाना अपराध था। उस अपराध के दोषी कौन थे, यह इस मुकदमे में साबित नहीं हो सका। 

जिन्हें उम्मीद थी कि अदालत कुछ लोगों को दोषी करार देगी, उन्हें निराशा हुई है। इसका मतलब यह नहीं है कि हम अपनी न्याय-व्यवस्था को कोसना शुरू करें। फौजदारी के मुकदमों में दोष सिद्ध करने के लिए पुष्ट साक्ष्यों की जरूरत होती है। यह तो विधि विशेषज्ञ ही बताएंगे कि ऐसे साक्ष्य अदालत के सामने थे या नहीं। जो साक्ष्य थे, उनपर अदालत की राय क्या है वगैरह। अलबत्ता कुछ लोगों ने कहना शुरू कर दिया है कि मस्जिद गिरी ही नहीं, मस्जिद थी ही नहीं वगैरह।

विडंबना यह है कि घटना के करीब 28 साल बाद इस मामले का फैसला हुआ है। वह भी तब जब असाधारण अधिकारों का इस्तेमाल करते हुए सुनवाई की गति तेज की गई। इसके समानांतर इस मामले की जाँच के लिए 16 दिसम्बर 1992 को जस्टिस एमएस लिबरहान की अध्यक्षता में एक जाँच आयोग गठित किया गया था। इस आयोग को अपनी जाँच में 16 साल लगे। आयोग ने 30 जून 2009 को अपनी रिपोर्ट तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को सौंपी। देश की यह सबसे लम्बी अवधि में पूरी हुई जाँच रिपोर्ट थी। उससे हासिल क्या हुआ? वस्तुतः यह मामला राजनीति के इर्द-गिर्द ही सीमित रहा और भविष्य में भी रहेगा। उत्तर प्रदेश और बिहार की जातीय राजनीति इसके सहारे ही पनपी और बढ़ी। 

हमने कभी सोचा है कि अयोध्या मामले को हम जल्द से जल्द क्यों नहीं सुलझा पाए? सन 1989 में ही इसका समाधान क्यों नहीं हुआ? हो जाता, तो बाबरी-विध्वंस की नौबत नहीं आती। इस मामले से जुड़े एक पक्षकार इकबाल अंसारी ने बुधवार को सीबीआई अदालत के फैसले पर टिप्पणी करते हुए कहा कि इस मामले को 9 नवंबर, 2019 को ही खत्म हो जाना चाहिए था। पर सच यह है कि यह फैसला आने के बाद भी यह प्रकरण खत्म नहीं होगा। अभी यह दो स्तरों पर चलेगा। एक अदालत में और दूसरा राजनीति की सतह पर।

फौजदारी अदालतें बगैर साफ सबूत के किसी को अपराधी घोषित नहीं करतीं। दिसम्बर 2017 में जब सीबीआई की विशेष अदालत ने टू-जी घोटाले में अभियुक्तों को बरी किया था, तब भी यही हुआ था। उस फैसले के फौरन बाद डीएमके ने ए राजा का शॉल पहनाकर अभिनंदन कर दिया था। उसमें भी अभियुक्तों पर दोष सिद्ध नहीं हुआ था। अपराध के बारे में सोचता कौन है? उस फैसले को हाईकोर्ट में चुनौती देने में समय लगा और संयोग है कि इसी मंगलवार को अदालत ने जल्द सुनवाई की प्रार्थना को स्वीकार किया है।

अब इस फैसले के बाद भी आडवाणी जी समेत 32 आरोपियों को कुछ लोग शॉल पहनाएंगे और कुछ उन्हें कोसेंगे। पर भावनाओं में बहने से समाधान नहीं होते। बाबरी-विध्वंस के मुकदमे की सुनवाई भी जल्दी तब हुई, जब उच्चतम न्यायालय ने इसमें हस्तक्षेप किया। संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी असाधारण संवैधानिक शक्तियों का प्रयोग करते हुए, पीठ ने रायबरेली के एक मजिस्ट्रेट अदालत में लंबित एक अलग मुकदमे को स्थानांतरित किया। रोजाना ट्रायल चलाने का आदेश देते हुए मामले को दो साल के भीतर समाप्त करने का आदेश दिया सीबीआई कोर्ट के विशेष न्यायाधीश के कार्यकाल को बढ़ाने का निर्देश दिया।  

इस मामले के राजनीतिक निहितार्थ जगजाहिर हैं। इसलिए दो तरह की विपरीत प्रतिक्रियाएं हैं। कांग्रेस महासचिव और मीडिया प्रभारी रणदीप सिंह सुरजेवाला ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट के 9 नवंबर, 2019 के निर्णय के मुताबिक़ बाबरी मस्जिद को गिराया जाना अपराध था, पर विशेष अदालत ने सब दोषियों को बरी कर दिया। अदालत का निर्णय साफ़ तौर से सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के प्रतिकूल है। मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के सचिव जफरयाब जीलानी का कहना है कि सीबीआई की अदालत का फैसला सही नहीं है और हम इसे हाईकोर्ट में चुनौती देंगे।

सवाल है कि क्या सीबीआई भी चुनौती देगी? सीबीआई के अलावा किसी भी समुदाय के व्यक्ति को इसे चुनौती देने का अधिकार है। यानी कि एक और न्याय-प्रक्रिया अब शुरू होगी। अदालत ने जो फैसला सुनाया है उसमें सभी 32 आरोपियों को बरी कर दिया गया। न्यायाधीश सुरेन्द्र कुमार यादव ने कहा कि आरोपियों के खिलाफ कोई साक्ष्य नहीं हैं।

फैसले का दूसरा बिंदु यह है कि विवादित ढांचा गिराने की घटना पूर्व नियोजित नहीं थी, बल्कि यह घटना अचानक हुई थी। अदालत ने ऐसा नहीं कहा कि यह घटना नहीं हुई थी या किसी ने उसे गिराया नहीं था। अभियुक्तों के खिलाफ जो साक्ष्य थे, उनमें ज्यादातर अखबारों की कतरनें, फोटोग्राफ और ऑडियो-वीडियो प्रमाण थे। अदालत ने माना कि केवल घटनास्थल पर उपस्थिति या बयानों के आधार पर इन्हें दोषी नहीं माना जा सकता।

पिछले साल सुप्रीम कोर्ट के पाँच जजों की बेंच ने एकमत से फैसला किया और केवल एक फैसला किया। उसमें कॉमा-फुलस्टॉप का भी फर्क नहीं रखा। उसे भी  राजनीतिक नजरिए से देखा गया। अदालत ने सुनवाई पूरी होने के बाद सभी पक्षों से पूछा था, आप बताएं कि समाधान क्या हो सकता है। सभी पक्षों को मान्य कोई हल नहीं निकला। सभी पक्षों को मान्य कोई फैसला नहीं होता। यह भी नहीं होगा।  

दैनिक विश्ववार्ता में प्रकाशित

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