कोई आपसे पूछे कि इस महामारी ने आपसे क्या छीना, तो आपके पास बताने को काफी कुछ है। अनेक प्रियजन-परिजन इस बीमारी ने छीने, आपके स्वतंत्र विचरण पर पाबंदियाँ लगाईं, तमाम लोगों के रोजी-रोजगार छीने, सामाजिक-सांस्कृतिक समारोहों पर रोक लगाई, खेल के मैदान सूने हो गए, सिनेमाघरों में सन्नाटा है, रंगमंच खामोश है। शायद आने वाली दीवाली वैसी नहीं होगी, जैसी होती थी। तमाम लोग अपने-अपने घरों में अकेले बैठे हैं। अवसाद और मनोरोगों का एक नया सिलसिला शुरू हुआ है, जिसका दुष्प्रभाव इस बीमारी के खत्म हो जाने के बाद भी बना रहेगा। जो लोग इस बीमारी से बाहर निकल आए हैं, उनके शरीर भी अब कुछ नए रोगों के घर बन चुके हैं।
यह सूची काफी लम्बी हो जाएगी। इस बात पर वर्षों तक शोध होता रहेगा कि इक्कीसवीं सदी की पहली वैश्विक महामारी का मानवजाति पर क्या प्रभाव पड़ा। सवाल यह है कि क्या इसका दुष्प्रभाव ही महत्वपूर्ण है? क्या इस बीमारी ने हमें प्रत्यक्ष या परोक्ष कुछ भी नहीं दिया? बरसों से दुनिया मौसम परिवर्तन की बातें कर रही है। प्राकृतिक दुर्घटनाओं की बातें हो रही हैं, पर ऐसी कोई दुर्घटना हो नहीं रही थी, जिसे दुनिया इतनी गहराई से महसूस करे, जिस शिद्दत से कोरोना ने महसूस कराया है। विश्व-समुदाय की भावना को अब हम कुछ बेहतर तरीके से समझ पा रहे हैं, भले ही उसे लागू करने के व्यावहारिक उपकरण हमारे पास नहीं हैं।
सामाजिक पहल
दिल्ली के मालवीय नगर इलाके में एक वृद्ध दम्पति ने भोजन सामग्री का एक ठेला लगा रखा है जिसका नाम है ‘बाबा का ढाबा।’ कोरोना काल में उनकी बिक्री एकदम कम हो गई थी। किसी ने रोते हुए बाबा का वीडियो बनाकर ट्विटर पर डाल दिया। अगली सुबह बाबा के ढाबे पर ग्राहकों की इतनी भीड़ पहुँच गई कि पूछो मत। ‘बाबा का ढाबा’ प्रकरण के बाद तमाम शहरों से लोग अपने अड़ोस-पड़ोस के ऐसे ही जरूरतमंद लोगों के वीडियो लगा रहे हैं। हालांकि यह समस्या का समाधान नहीं है, पर कोरोना काल के नए उपकरण हमें आगे आने को प्रेरित कर रहे हैं।
वीडियो कांफ्रेंसिंग के बारे में हम सुनते ज्यादा थे, देख कम पाते थे। कोरोना काल में वीडियो-टेलीफोनी ने न केवल परिवारों को जोड़कर रखा, बल्कि शिक्षा संस्थानों की शक्ल बदल दी। दफ्तरों की परिभाषा बदल गई है। ऐसी कई कम्पनियों के उदाहरण सामने हैं, जिन्होंने बड़ी इमारतों का किराया भरने के बजाय बहुत छोटे दफ्तर बना लिए हैं और अपने ज्यादातर कर्मचारियों को घर से ही काम करने का निर्देश दे दिया है।
टीवी चैनलों की डिबेट के लिए भाग लेने वालों के घर के आगे ओबी वैन खड़ी होती थीं और लम्बे-लम्बे केबल बिछाए जाते थे। अब ज़ूम, स्काइप या ऐसे ही किसी उपकरण से काम चल जाता है। केवल चैनलों की बात ही नहीं है। ज़ूम ने बाराबंकी, दिल्ली और कैलिफोर्निया में दूर-दूर बैठे बंधुओं को कुछ देर के लिए बगैर पैसा खर्च किए आमना-सामना करने का मौका दिया है।
अचानक यू ट्यूब चैनलों की भरमार हो गई है, जिनकी बहसों ने बड़े-बड़े टीवी चैनलों के कान काट लिए हैं। टीवी प्रसारण कम्पनियों ने यूट्यूब पर अपने चैनल खोल दिए हैं। उन्हें देखने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। स्ट्रीमयार्ड जैसे उपकरण इन बहसों में शामिल होने के लिए अनेक भागीदारों की विंडो खोल रहे हैं। वास्तविक दुनिया की काफी भागदौड़ आभासी दुनिया ने कम कर दी है। यह सब कोरोना की देन नहीं है, पर कोरोना ने इस काम की गति को बढ़ा दिया है।
बदलेगी व्यवस्था
जिस तरह पहले और दूसरे विश्व युद्धों ने दुनिया को बदल डाला था, क्या कोरोना वायरस भी आने वाले समय की विश्व व्यवस्था को बदलने के लिए आया है? इस बीमारी ने लोगों की जीवन शैली, सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली और उससे जुड़े विज्ञान को प्रभावित किया है। पर ज्यादा बड़ा असर वैश्विक अर्थनीति और तकनीक पर पड़ने वाला है। पिछली एक सदी की सबसे बड़ी परिघटना है प्रवासन (माइग्रेशन)। उसे फौरी तौर पर धक्का लगा है, पर प्रवासन को बढ़ावा देने वाले उपकरणों ने तमाम समस्याओं के समाधान भी खोजे हैं।
इतना होने के बावजूद सब कुछ आभासी नहीं है। अखबारों की खबरें घर से लिखी जा सकती हैं, पर सड़कें, पुल और इमारतें बनाने का काम श्रमिकों की मदद के बगैर नहीं हो सकता। मार्च-अप्रेल के महीने में भारत में प्रवासी मजदूरों का पलायन बड़ी खबर था, तो अब उनकी काम पर वापसी की खबरें हैं। बेशक अब यह हमारे समाज को देखना चाहिए कि इन प्रवासी मजदूरों को बेहतर सुरक्षा का भरोसा भी दिलाया जाए।
पिछली एक सदी में महामारियों ने तीन क्षेत्रों में दुनिया को एक पेज पर आने का मौका दिया है। ये काम हैं वायरसों को अलग करना, वैक्सीनों का विकास और वैश्विक स्वास्थ्य-डिप्लोमेसी की स्थापना। यह काम अंतरराष्ट्रीय संगठनों के विकास के समानांतर हुआ है। सौ साल पहले जब स्पेनिश फ्लू के नाम से बड़ी महामारी फैली, तब दुनिया पहले विश्वयुद्ध की परिणति का सामना कर रही थी। बताते है कि उस बीमारी से पचास करोड़ से लेकर एक अरब लोग प्रभावित हुए थे। यानी उस वक्त की चौथाई से लेकर आधी आबादी ने उस पीड़ा को झेला था। उसमें दो से पाँच करोड़ लोगों की मौत हुई थी।
कुएं के मेढक
हम इस वक्त दुनियाभर में राष्ट्रीय चेतना का उभार भी देख रहे हैं। वैश्वीकरण की लहर पीछे जा रही है। डोनाल्ड ट्रंप के अमेरिका ने मौसम में आ रहे बदलाव से चलने वाली वैश्विक लड़ाई से हाथ खींच लिया। ऐसे वक्त में बीमारी का एक नया खतरा खड़ा हो गया है। बेशक इनसान इस लड़ाई में जीत हासिल करेगा, पर कुछ सवाल हैं, जिनपर दुनिया को बैठकर विचार करना होगा। वैक्सीन बनाने में दुनिया सहयोग कर रही है, पर उसके वितरण के लिए विवेक सम्मत व्यवस्था बनानी होगी। गरीब इससे वंचित न रह जाएं। वे बीमार होंगे, तो अमीर भी बीमारी से बचे नहीं रहेंगे।
इन सारी बातों से ज्यादा महत्वपूर्ण बात यह है कि इस महामारी ने विज्ञान के प्रति इंसान का विश्वास बढ़ा है। भले ही निर्णायक रूप से नहीं कहा जा सकता कि विज्ञान ने मनुष्यों का मन जीत लिया है, पर जिस तरह से सारी दुनिया कोरोना की वैक्सीन का इंतजार कर रही है, उससे जाहिर है कि उसे भरोसा है कि इसका इलाज विज्ञान के पास ही है। आधुनिकता का सबसे महत्वपूर्ण लक्षण परिधान और कॉस्मेटिक्स नहीं हैं, बल्कि वैज्ञानिकता है। तमाम सामाजिक-सांस्कृतिक, राजनीतिक और नैतिक सवालों को जवाब हासिल करने के लिए इंसान के पास सबसे अच्छा उपकरण विज्ञान है, पर दुनिया ने उसे पूरी तरह अंगीकार नहीं किया है।
वैज्ञानिकता का उभार
वॉल स्ट्रीट जरनल में हाल में प्रकाशित अपने लेख में जॉन डब्लू टोमैक ने लिखा है कि कोविड-19 ने आम लोगों को विज्ञान से काफी हद तक जोड़ा है। वैज्ञानिक समुदाय न तो सर्वज्ञ धर्मगुरुओं जैसा व्यवहार करता है और न राजनेताओं की तरह झूठ बोलकर ठगने का काम करता है। वैज्ञानिक दृष्टि कार्य-कारण सिद्धांत पर काम करती है और अपनी गलतियों को दूर करने के लिए हमेशा तत्पर रहती है। हालांकि वैज्ञानिकों के बीच भी अवधारणाओं के स्तर पर मतभेद हो सकते हैं, पर एकबार स्थापित हो जाने के बाद सिद्धांतों पर सर्वानुमति रहती है। पिछले साल की सर्दियों में जब लोग साँस की बीमारी से घिरे तो कुछ वैज्ञानिकों ने पहले अनुमान लगाया कि यह किसी नए वायरस के कारण हो रहा है। इसके बाद उन्होंने अपनी प्रयोगशालाओं में उस वायरस को खोज भी लिया। फिर वैज्ञानिकों ने कहा कि इस रोग को रोकने वाली वैक्सीन बनाई जा सकती है।
हालांकि अभी तक वैक्सीन बनी नहीं है, पर दुनिया को यकीन है कि कुछ समय बाद वह भी बन जाएगी। वैज्ञानिक जब अनुमान लगाते हैं, तो उसके पीछे उनका वैज्ञानिक अनुभव होता है। पर वे अपने अनुमानों को तथ्यों और प्रयोगों की कसौटी पर परखते हैं। जबरन उन्हें स्वीकार करने का दबाव नहीं बनाते। वे ऐसा दावा नहीं करते कि यही ज्ञान का अंत है, बल्कि वे उसे अज्ञात की अपनी खोज की शुरुआत मानते हैं। वैज्ञानिकों ने महामारी के असर को समझने के लिए कई तरह के गणितीय मॉडल भी बनाए हैं। उनमें गलतियाँ भी होती हैं, पर वे गलतियों को सुधारते हैं। गलत डेटा, झूठा डेटा, फर्जी डेटा वगैरह की समस्याएं वहाँ भी हैं। पर यह विज्ञान का दोष नहीं है, बल्कि वैज्ञानिकता का अभाव है।
वैज्ञानिक किसी बात को जबरन सही साबित नहीं करते। वैज्ञानिकता है अवधारणाएं बनाना और फिर उनका परीक्षण करके तथ्यों के आधार पर उन्हें गलत या सही साबित करना। आपके अतीत, वर्तमान और भविष्य के बारे में जानकारियाँ देने का विज्ञान से बेहतर उपकरण कोई नहीं है। दुनिया विज्ञान के सहारे ही चल रही है, फिर भी वैज्ञानिकता हमारा जीवन-दर्शन नहीं है। इस महामारी की एक बड़ी उपलब्धि है वैज्ञानिकता की विजय। इस महामारी पर फौरी तौर पर विजय पाने के बाद शोध चलते रहेंगे। विज्ञान भविष्य के खतरों पर भी रोशनी डालेगा। अब यह दुनिया पर निर्भर करेगा कि वह किस सीमा तक वैज्ञानिकता को स्वीकार करेगी।
सुन्दर विश्लेषण।
ReplyDeleteबहुत सच बात लिखी है आपने,।
ReplyDeleteबहुत सही आद.
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