संयुक्त राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन (एफएओ) की 75वीं वर्षगांठ और ‘विश्व खाद्य दिवस’ के मौके पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भारत के किसानों, कृषि वैज्ञानिकों, आंगनबाड़ी-आशा कार्यकर्ताओं वगैरह को बधाई दी। महामारी के इस दौर में भारत की सबसे बड़ी उपलब्धि है हमारा अन्न भंडार। दूसरी उपलब्धि है देश का खाद्य सुरक्षा कार्यक्रम, जो हर नागरिक को वहनीय मूल्यों पर अच्छी गुणवत्ता के अन्न की पर्याप्त मात्रा पाने का अधिकार देता है।
पहली नजर में ‘विश्व खाद्य दिवस’ एक औपचारिक कार्यक्रम है। गहराई से देखें, तो यह हमारी बुनियादी समस्या से जुड़ा है। चाहे व्यापक वैश्विक और राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें या निजी जीवन में। संयोग से कोरोना-काल में हमने मजबूरन अपने आहार-व्यवहार पर ध्यान दिया है। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि जब विश्व कोविड महामारी से जूझ रहा था तो सरकार ने 80 करोड से अधिक लोगों के लिए पौष्टिक आहार उपलब्ध कराया। प्रधानमंत्री ने नवंबर तक देश के 80 करोड़ लोगों को मुफ्त अनाज देने की घोषणा की थी। यह कार्यक्रम अभी जारी है। इसे आगे बढ़ाने पर भी विचार किया जाना चाहिए।
अस्सी करोड़
लोगों तक मुफ्त अनाज पहुँचाना बड़ी उपलब्धि है,
पर इस कार्यक्रम
के क्रियान्वयन को कई सवाल भी हैं। मार्च-अप्रेल में शहरों में रह रहे उन प्रवासी
मजदूरों के सामने भोजन का संकट खड़ा हो गया था,
जिनके रोजगार
अचानक छिन गए। तमाम लोग उस अन्न से इसलिए वंचित रहे, क्योंकि या तो
उनके पास राशन कार्ड नहीं थे या गरीबी या उम्र की पात्रता नहीं थी। केंद्र और
राज्य सरकारों के बीच समन्वय नहीं हो पाने के कारण भी समस्याएं खड़ी हुईं। हमारे
पास पर्याप्त अन्न है और हमने उसके निशुल्क वितरण की योजना भी बनाई, पर कुछ लोग यह लाभ उठाने से वंचित रह गए।
हमारे खाद्य
सुरक्षा कार्यक्रम का उद्देश्य केवल भोजन उपलब्ध कराना नहीं है, बल्कि कुपोषण से लड़ना भी है। पिछले साल के अंत में जारी
किए गए राष्ट्रीय पोषण सर्वेक्षण ने एक भयावह सत्य का उद्घाटन किया। देश में 6 से 23 महीने की उम्र के केवल 6.4 प्रतिशत बच्चों को ही वह ‘न्यूनतम स्वीकार्य पोषण’ मिल
पाता है, जिसकी सिफारिश विश्व स्वास्थ्य संगठन ने की है।
विडंबना है कि यह समस्या केवल गरीबी के कारण ही नहीं है। संपन्न और शिक्षित परिवार
भी बच्चों के पोषण को लेकर सजग नहीं।
इस सर्वे का सबसे
ज्यादा चौंकाने वाला तथ्य यह है कि आर्थिक,
शैक्षिक और विकास
के पैमानों पर ऊँची पायदान पर खड़े राज्यों की स्थिति ज्यादा खराब है। इसका मतलब
है कि पोषण को लेकर जागरूकता का अभाव है। इस सर्वे के अनुसार आंध्र में मात्र 1.3 प्रतिशत शिशु उपयुक्त पोषण पाते हैं, जबकि महाराष्ट्र में सिर्फ 2.2, गुजरात, तेलंगाना और कर्नाटक में मात्र 3.8 और तमिलनाडु में 4.2 प्रतिशत। सबसे बेहतर
सिक्किम है जहां 35.2 प्रतिशत शिशु समुचित पोषण हैं और दूसरे स्थान
पर केरल (32.6) है।
यह केवल गरीबी और
अशिक्षा से जुड़ी समस्या नहीं है। तमाम पढ़े-लिखे लोग भी नहीं जानते कि उनके शिशु
को किस प्रकार के पोषण की जरूरत है। वे या तो बाजार के विज्ञापनों से प्रभावित
होते हैं या बच्चों को पोषण की जिम्मेदारी आयाओं पर छोड़ देते हैं। कुपोषण के दो
रूप होते हैं। पहला है अपर्याप्त पोषण और दूसरा है अनावश्यक पोषण, जो मोटापे जैसी बीमारी को बढ़ावा देता है। दोनों
परिस्थितियाँ हानिकारक हैं।
देश का भविष्य
पोषण पर निर्भर करता है। बच्चों को अपने जीवन के शुरुआती समय में सही पोषण नहीं
मिलेगा, तो भविष्य में उनका शारीरिक-मानसिक विकास
प्रभावित होगा। इससे उनकी कार्य-क्षमता प्रभावित होगी। उनकी उत्पादकता कम होगी
जिसका असर राष्ट्रीय उत्पादकता पर पड़ेगा। किसी देश के नागरिकों की
बौद्धिक-शारीरिक क्षमता कम होने के कारण वहां के सकल घरेलू उत्पाद में गिरावट आती
है। इसलिए खाद्य कार्यक्रम को केवल गरीबों तक भोजन पहुँचाने तक सीमित नहीं मान
लेना चाहिए। इसके लिए एक वृहत और व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की जरूरत है।
आर्थिक रूप से
संपन्न वर्ग का हर आठवां बच्चा स्थूल पाया गया और हर दसवें बच्चे में मधुमेह-पूर्व
के लक्षण मिले। यानी कि डायबिटीज होने का खतरा है। रिपोर्ट के अनुसार आज भी देश का
हर तीसरा बच्चा विकास-रुद्ध यानी नाटा (स्टंटेड) है। इसका अर्थ होता है अपनी उम्र
के लिहाज से कम लंबाई वाला। इसी तरह लगभग हर तीसरा बच्चा उम्र के अनुसार कम वजन का
है, जबकि हर छठा बच्चा दुबले शरीर का यानी लंबाई के
हिसाब से कम वजन का होता है। हालांकि स्थिति सुधरी है। इसके पहले के राष्ट्रीय
पारिवारिक स्वास्थ्य सर्वे के अनुसार देश के आधे बच्चे स्टंटेड थे।
एमआईटी-अर्थशास्त्रियों
अभिजित बनर्जी और एस्थर ड्यूफ्लो ने अपनी किताब ‘पुअर इकोनॉमिक्स’ में गरीबी की
विवेचना की है। उन्होंने जानने की कोशिश की है कि भारत के बल्कि दक्षिण एशिया के
लोगों की काठी छोटी क्यों हैं? हमारे लोग ओलिम्पिक खेलों
में कम मेडल क्यों लाते हैं? क्या यह दक्षिण एशिया की
जेनेटिक विशेषता है? इंग्लैंड और अमेरिका में दक्षिण एशियाई
प्रवासियों के बच्चे कॉकेशियन और ब्लैक बच्चों की तुलना में छोटे होते हैं।
पश्चिमी देशों में दो पीढ़ियों के निवास के बाद और अन्य समुदायों के साथ वैवाहिक
सम्पर्कों के बगैर भी दक्षिण एशियाई लोगों के नाती-पोते उसी कद के हो जाते हैं
जैसे दूसरे समुदायों के बच्चे। यानी मामला जेनेटिक्स का नहीं कुपोषण का है। सरकार
चाहती है कि 2022 तक कुपोषण से बच्चों को पूरी तरह छुटकारा
दिलाया जाए, पर जागरूकता के अभाव में ऐसा होता दिखाई नहीं
पड़ता।
इस साल संयुक्त
राष्ट्र खाद्य एवं कृषि संगठन के ‘विश्व खाद्य कार्यक्रम’ को शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया है। इस पुरस्कार
को केवल औपचारिकता के रूप में नहीं देखना चाहिए। महामारी के साल का यह पुरस्कार
इशारा कर रहा है कि हमें महामारी के बाद की दुनिया के बारे में विचार करना चाहिए।
यानी दुनिया को कम से कम हरेक नागरिक के भोजन को सुनिश्चित करना होगा। बेशक इसके
लिए पहला कदम है गरीबी को दूर करना। याद रखें गरीबी केवल असमानता का नाम नहीं है।
गरीबी एक फंदा है, जो लोगों को एक वात्याचक्र में फँसा कर रखता
है। वे शिक्षा, स्वास्थ्य और अवसर की स्वतंत्रता का इस्तेमाल
तभी कर सकते हैं, जब इस फंदे से बाहर निकलें। दुर्भाग्य से हम इस
दिशा में जागरूक नहीं हैं।
इंडियन
एक्सप्रेस में प्रकाशित इस आलेख को भी पढ़ें
https://indianexpress.com/article/explained/explained-ideas-why-nobel-peace-prize-to-world-food-programme-matters-6722546/
"याद रखें गरीबी केवल असमानता का नाम नहीं है। गरीबी एक फंदा है, जो लोगों को एक वात्याचक्र में फँसा कर रखता है। वे शिक्षा, स्वास्थ्य और अवसर की स्वतंत्रता का इस्तेमाल तभी कर सकते हैं, जब इस फंदे से बाहर निकलें। दुर्भाग्य से हम इस दिशा में जागरूक नहीं हैं।"
ReplyDeleteपूर्णतह सहमत।
ji aapne bhut achchhi jankariya btayi hai is post ke madhym se dhanywad aapka
ReplyDeletehelpful