कोरोना की महामारी के इस दौर में हर रोज किसी न किसी के बीमार पड़ने या निधन के समाचार मिल रहे हैं। आना-जाना दुनिया की रीत है, फिर भी बहुत से लोगों का जाना देर तक याद रहता है। हाल में कम से कम चार ऐसी विभूतियों के निधन की खबरें मिली हैं, जिनका उल्लेख करने का मन करता है। ये चार नाम हैं कपिला वात्स्यायन, गायक एसपी बालासुब्रमण्यम, जसवंत सिंह और पत्रकार हैरल्ड इवांस। चारों के कार्यक्षेत्र अलग-अलग थे, पर चारों को याद रखने का एक कारण है वह जिजीविषा जिसने इन चारों का जीवन उल्लेखनीय बना दिया। इतिहास की पुस्तक में इनके योगदान को लम्बे समय तक याद किया जाएगा।
कपिला वात्स्यायन
कपिला वात्स्यायन का हाल में 92 वर्ष की आयु में नई दिल्ली स्थित उनके घर पर निधन हो गया। उनका अवसान राष्ट्रीय क्षति है, जिसकी पूर्ति आसान नहीं है। वे प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता की आवाज थीं। इस संस्कृति की प्रतिमूर्ति कपिला जी सही अर्थों में विदुषी थीं। संस्कृति के पारम्परिक मनीषियों से लेकर विदेशी विद्वानों तक से उनका संवाद था। भारत से बाहर वे भारतीय संस्कृति के स्वाभिमान की प्रतिनिधि थीं। उनके उच्चस्तरीय अकादमिक कार्य को वैश्विक स्वीकृति मिली हुई थी। देश के बाहर भारतीय संस्कृति के प्रसार का काम भी उन्होंने किया।
भारतीय संस्कृति
के संरक्षण के लिए कपिला जी के कार्यों को भुलाया नहीं जा सकता। उनकी दृष्टि शुद्ध
भारतीय थी। देश की परम्परागत संस्कृति, कला और दस्तकारी के संरक्षण में उनकी
अग्रणी भूमिका थी। यह भूमिका केवल प्रशासनिक स्तर पर नहीं, बल्कि अकादमिक स्तर पर
भी उन्होंने निभाई। यह सब उन्होंने किसी बड़े प्रचार के बगैर और बड़ी सादगी से
किया। वे इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में एशियाई कला परियोजना की अध्यक्ष भी थीं। संस्कृति
से जुड़ी राष्ट्रीय संस्थाओं की स्थापना और विकास में उनका योगदान था। संगीत नाटक,
ललित कला और साहित्य अकादमियों, उच्चतर तिब्बती अध्ययन संस्थान, इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केन्द्र, सांस्कृतिक स्रोत एवं प्रशिक्षण केंद्र जैसी
संस्थाओं से उनका जुड़ाव रहा। देश के दूसरे सबसे बड़े अलंकरण ‘पद्मविभूषण’ से भी
वे सम्मानित हुईं।
उनका विवाह हिन्दी
के प्रसिद्ध साहित्यकार-पत्रकार सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय से हुआ था।
उनका यह रिश्ता काफी पहले टूट गया था, पर उनकी पहचान कपिला वात्स्यायन के रूप में
ही रही। ऐसे दौर में जब पश्चिम के छोटे से छोटे लेखकों और विद्वानों से जुड़ी
खबरों पर भारतीय विचारक लम्बी प्रतिक्रियाएं देते हैं, कपिला जी का खामोशी से गुजर
जाना एक अलग प्रकार के विमर्श को आमंत्रण देता है। भारतीय मीडिया की कवरेज पर
ध्यान दें, तो लगता नहीं कि संस्कृति से जुड़ी इतनी बड़ी हस्ती सादगी के साथ हमारे
बीच रह रही थी। वे दो बार राज्यसभा की सदस्य भी रहीं, पर इस बात का केवल
सांस्कृतिक संदर्भ है। पहली बार की सदस्यता पर उन्होंने लाभ का पद होने के कारण फौरन
इस्तीफा दिया। इसके बाद उनका एक बार और मनोनयन हुआ था।
कपिला जी का जन्म
25 दिसम्बर 1928 को दिल्ली के एक पंजाबी परिवार में हुआ था। उनके पिता राम लाल
वकील थे और माँ सत्यवती मलिक साहित्यकार। वे महादेवी वर्मा और सुभद्रा कुमारी
चौहान की समकालीन थीं। वे साहित्यकार ही नहीं, समर्पित समाज-सेविका और मर्मज्ञ कला प्रेमी भी रहीं। कपिला
जी के भाई केशव मलिक अंग्रेजी के कवि थे। कपिला जी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से एमए
अंग्रेजी और अमेरिका में मिशीगन विश्वविद्यालय से शिक्षा में एमए की पढ़ाई पूरी
करने के बाद बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से पीएचडी की उपाधि प्राप्त की थी। संस्कृति
के प्राचीन-रूपों और पुरातत्व को समझने के लिए कपिला जी ने संस्कृत का अध्ययन भी
किया।
भारतीय परम्परा
में शिल्प और नृत्य के बीच सम्बन्धों पर उन्होंने शोध किया था। उन्होंने कला के
विभिन्न स्वरूपों और इतिहास पर 20 के आसपास किताबें लिखी। इनमें 'द स्क्वायर एंड द सर्कल ऑफ इंडियन आर्ट्स' (1997), इंडियन क्लैसिकल
डांस (1992), पारम्परिक भारतीय रंगमंच अनंत धारणाएं (1995), भरत द नाट्य शास्त्र'(1996), 'ट्रेडीशंस ऑफ इंडियन फोक डांस'(1987), डांस इन द इंडियन पेंटिंग (2004),
क्लैसिकल इंडियन डांस इन लिटरेचर एंड आर्ट्स (2007) शामिल हैं।
भारतीय संस्कृति और सौंदर्य शास्त्र का कोई भी शोध कपिला जी के संदर्भ के बगैर अधूरा रहेगा। संगीत, नृत्य, कला और साहित्य का सर्वांग स्वरूप देखना हो तो कपिला जी को भी पढ़ना होगा। कुछ लोग उन्हें सांस्कृतिक संस्थाओं की प्रशासक के रूप में जानते हैं, क्योंकि वे भारत सरकार और सांस्कृतिक संस्थाओं के कई पदों पर रहीं। उन्होंने मणिपुरी और कथक का प्रशिक्षण लिया और ओडिसी तथा भरतनाट्यम का अध्ययन किया।
एसपी बालासुब्रमण्यम
भारतीय सिनेमा के यशस्वी गायक एसपी बालासुब्रमण्यम के निधन के समाचार से पूरे देश के संगीत प्रेमियों को गहरा धक्का लगा। 74 वर्षीय बालासुब्रमण्यम ने चेन्नई के एमजीएम अस्पताल में अंतिम सांस ली, जहाँ उन्हें कोविड-19 के संक्रमण के बाद अगस्त में भरती करवाया गया था। हालांकि वे बीमारी पर विजय प्राप्त कर चुके थे और उनका कोविड-19 टेस्ट नेगेटिव आ गया था, पर उनकी शारीरिक स्थिति में सुधार नहीं हो पाया। उन्हें वेंटीलेटर पर रखा गया था। गत 24 सितम्बर को उनकी तबीयत काफ़ी बिगड़ गई और अगले दिन उनका निधन हो गया। उन्हें लाइफ़ सपोर्टिंग सिस्टम पर रखा गया था, पर बचाया नहीं जा सका।
दक्षिण में ‘पादुम निल्ला’ (गीत गाता
चंद्रमा) नाम से मशहूर एसपी बालासुब्रमण्यम पूरे देश के गायक थे। उन्होंने तेलुगु फिल्मों से शुरुआत
की थी, पर तेलुगु, तमिल, मलयालम, कन्नड़ और हिन्दी सहित 16 भाषाओं में 40,000 से
ज्यादा गीत गाए थे। वे वॉइस ओवर कलाकार भी थे। कमलहासन की तमिल फिल्मों के तेलुगु
संस्करणों में उनकी आवाज होती थी। कुछ फिल्मों में उन्होंने अभिनय भी
किया। दक्षिण में एमजी रामचंद्रन, शिवाजी गणेशन और जैमिनी गणेशन से लेकर आज के
तमाम कलाकारों ने फिल्मों में उनके गीतों पर अभिनय किया है।
सन 1981 में जब कमलहासन और रति अग्निहोत्री की फिल्म ‘एक दूजे के लिए’ आई, तो अपने साथ कई तरह की नई
बातें लेकर आई। हिंदी और तमिलभाषी लड़की और लड़के का प्रेम अपने आप में नया विषय
था। साथ में बालासुब्रमण्यम की आवाज ने इस पृष्ठभूमि को वैधता प्रदान की। एसपी बालासुब्रमण्यम के
रूप में दक्षिण भारत संभवतः पहली आवाज थी, जो पहली बार में ही छा गई। हिंदी सिनेमा
को एक नई आवाज का इंतजार भी था, क्योंकि मुकेश और मोहम्मद रफी जैसे दो बड़े गायकों
का निधन हो चुका था। उनकी आवाज का असर ही था कि उन्हें अपनी पहली हिंदी फिल्म पर
सहज भाव से 1981 का राष्ट्रीय पुरस्कार मिल
गया। लता मंगेशकर के साथ उनके युगल गीतों ने उन दिनों धूम मचा दी थी। तेरे मेरे
बीच में, हम तुम दोनों जब मिल जाएं, हम बने, तुम बने जैसे गीत बेहद लोकप्रिय हुए।
खासतौर से उनकी आवाज एक नई अनुभूति लेकर आई। अनुराधा पौडवाल के साथ उनके गीत मेरे
जीवन साथी ने उन्हें स्टार बना दिया। इसके बाद सलमान खान की फिल्मों में उनकी आवाज
का इस्तेमाल किया, जो सफल रहा। यों उन्होंने बहुत ज्यादा हिंदी फिल्मों में गीत
नहीं गाए, पर जब गाए, तो हिट हो गए जैसे कि ‘हम आपके हैं’ कौन का टाइटल गीत और खासतौर से ‘दीदी तेरा देवर दीवाना’। उनकी सफलता का राज़ था
मोहम्मद रफी की तरह का सहज गायन। एक पंक्ति में वे हँसते हुए गा सकते थे और दूसरी
में दुख भरे स्वर में। इतना ही नहीं उनका हिंदी का उच्चारण बहुत शुद्ध था। शायद
अपने उच्चारण कौशल के कारण वे बेहतरीन वॉइस ओवर कलाकार भी थे। वे सफल दक्षिण की
फिल्मों में सामान्यतः गीत रागों पर आधारित होते हैं, पर उन्होंने संगीत की विधिवत
शिक्षा नहीं ली थी। उन्हें संगीत की विरासत अपने पिता से मिली थी, जो तेलुगु ‘हरिकथा’ गायक थे। यह संगीतमय कीर्तन-प्रवचन की
लोक विधा है। उन्हें पहला राष्ट्रीय पुरस्कार
1979 में फिल्म शंकरभरणम के लिए मिला था। वे अपने किस्म के ऐसे कलाकार थे, जिन्हें
केवल गायन के लिए ही नहीं, संगीत निर्देशन, अभिनय डबिंग और फिल्म निर्माण के लिए भी पुरस्कार मिले। सन 2001 में उन्हें पद्मश्री और सन 2011 में पद्मभूषण का
राष्ट्रीय सम्मान भी मिला।
हालांकि उन्होंने इंजीनियर बनने के इरादे से पढ़ाई की शुरुआत की थी, पर संगीत के शौक ने उन्हें कहीं और पहुँचा दिया। उनकी प्रतिभा को संगीत निर्देशक एसपी कोठनदपनी ने एक प्रतियोगिता के दौरान पहचाना। उन्होंने ही उन्हें तेलुगु फिल्म श्री श्री मर्यादा रामन्ना में एक गीत गाने का मौका दिया। इस गीत में उनके साथ एसपी कोठनदपनी, पी सुशीला, पीबी श्रीनिवास और एलापद रघुरामैया की आवाजें हैं। इस गीत से ही वे प्रतिष्ठापित हो गए। फिल्म जगत से जुड़े लोग बताते हैं कि वे जितने अच्छे गायक थे, उतने ही सरल व्यक्ति थे। इस बात को सब मानते हैं कि उनकी आवाज में एक अलग बात थी, जो उनके हरेक गीत में देखी जा सकती है।
जसवंत सिंह
पूर्व केंद्रीय मंत्री जसवंत सिंह का गत 27 सितंबर की सुबह दिल्ली के सैनिक अस्पताल में हृदयगति रुक जाने से निधन हो गया। हालांकि सिर की चोट के कारण वे लम्बे अर्से से बेसुध थे, पर हाल में कुछ परेशानियों के कारण गत 25 जून को उन्हें अस्पताल ले जाना पड़ा था। जसवंत सिंह ने अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में अलग-अलग समय पर वित्त, रक्षा और विदेश तीन महत्वपूर्ण मंत्रालयों का कार्यभार संभाला था, जो उनकी कुशलता का प्रतीक है। नब्बे के दशक के उत्तरार्ध और इक्कीसवीं सदी में भारत के प्रवेश के बेहद संवेदनशील समय में उन्होंने इन मंत्रालयों को देखा।
वह दौर तीन महत्वपूर्ण कारणों से
हमेशा याद रखा जाएगा। इनमें पहला है भारत का नाभिकीय परीक्षण, दूसरा है करगिल
प्रकरण और तीसरा है भारत और अमेरिका के बीच नए सामरिक रिश्ते, जिनकी बुनियाद में
उनकी महत्वपूर्ण भूमिका थी। सबसे मुश्किल काम था नाभिकीय परीक्षण के बाद भारत को
वैश्विक राजनीति की मुख्यधारा में वापस लाना। खासतौर से अमेरिका और जापान के साथ
हमारे रिश्ते बहुत खराब हो गए थे, जिसके कारण न केवल उच्चस्तरीय तकनीक में हम
पिछड़ गए, बल्कि आर्थिक प्रतिबंधों के कारण परेशानियाँ खड़ी हो गई थीं।
अंतरराष्ट्रीय संगठनों में हमारी स्थिति कमजोर हो गई।
नाभिकीय परीक्षण करके भारत ने
स्वतंत्रता के बाद से भारत ने निर्भीक विदेश-नीति की दिशा में सबसे बड़ा कदम उठाया
था। उस कदम के जोखिम भी बहुत बड़े थे। ऐसे नाजुक मौके में तूफान में फँसी नैया को
किनारे लाने में विदेशमंत्री के रूप में जसवंत सिंह की बड़ी भूमिका थी। वापसी का
विकल्प था कि अमेरिका के साथ रिश्ते सुधारे जाएं। आज जापान और अमेरिका भारत के
महत्वपूर्ण मित्र देशों के रूप में उभरे हैं। नई सहस्राब्दी में स्ट्रोब टैलबॉट और जसवंत सिंह की बातचीत
ने इसकी शुरुआत की थी।
जसवंत और अमेरिकी
उप-विदेश मंत्री स्ट्रोब टैलबॉट के बीच दो साल में सात
14 बार मुलाक़ातें हुई। टैलबॉट ने अपनी किताब 'इंगेजिंग इंडिया डिप्लोमेसी, डेमोक्रेसी एंड द बॉम्ब'
में लिखा, ‘जसवंत दुनिया के उन प्रभावशाली इंसानों में से हैं जिनसे
मुझे मिलने का मौक़ा मिला है। उनकी सत्यनिष्ठा चट्टान जैसी है। । उन्होंने हमेशा
मुझसे बहुत साफ और सीधी बातें कीं।’ इन तीन बातों के अलावा उन्होंने उस
दौर में वित्त मंत्रालय का कार्यभार संभाला जब तेज आर्थिक बदलाव और विकास के द्वार
खुल रहे थे। यह भूमिका सामान्य नहीं थी। अटल बिहारी वाजपेयी के विश्वस्त मंत्रियों
में वे एक थे। संभवतः सबसे विश्वस्त।
जसवंत सिंह ने साठ के दशक में सेना
के कार्यभार से मुक्त होकर अपने गृहराज्य राजस्थान में जनसेवा और फिर राजनीति में
शामिल होने का निश्चय किया तो इसके पीछे दृढ़ इच्छा-शक्ति और कुछ आदर्श थे। सन
1980 में जब नवगठित भारतीय जनता पार्टी ने उन्हें राज्यसभा में भेजने का निश्चय
किया, तो राजनीति के लिए भी यह अपने किस्म की नई परिघटना थी। जसवंत सिंह जोधपुर से करीब 200 किलोमीटर की दूरी पर लूणी नदी के
किनारे बसे जसोल गाँव से आते थे। पाकिस्तान की सीमा से नजदीक होने की वजह से
विभाजन और उसके कारण प्रभावित व्यक्तियों
को लेकर उनका एक अलग दृष्टिकोण था।
उनके परिवार में सेना में जाने की
परंपरा है। वे भी सेना में गए, पर 1966 में वे सेना को छोड़कर वापस आ गए और कहा कि
मैं राजनीति में जाऊँगा। उस वक्त उनकी उम्र 27 साल थी, परिवार कच्चा था। कुछ समय के लिए वे जोधपुर के महाराजा गज सिंह के निजी सचिव भी रहे। कुछ समय स्वतंत्र पार्टी में। बुनियादी तौर पर वे
कांग्रेस के मुखर आलोचक थे। सन 1967 में उन्होंने पहला चुनाव निर्दलीय के रूप में
लड़ा, जिसमें वे सफल नहीं हुए। पर वे हताश नहीं हुए। इसके बाद एक लम्बा समय
उन्होंने गर्दिश में बिताया।
उनके पास साधन नहीं थे, फिर भी वे
इस रास्ते से वापस नहीं लौटे। बाद में वे भैरों सिंह शेखावत के सम्पर्क में आए,
जिनके मार्फत उनकी भेंट अटल बिहारी वाजपेयी से हुई, जिन्होंने उन्हें आगे जाने की
राह दिखाई। सन 1980 में उन्हें राज्यसभा में प्रवेश का अवसर मिला और 1989 में
उन्होंने पहला लोकसभा चुनाव जीता। जनसंघ के बाद जनता पार्टी के घटक के रूप में काम
करने के बाद एक नई व्यापक राजनीतिक दृष्टि के साथ पार्टी फिर से खड़ी हो रही थी।
जसवंत सिंह पार्टी की नवोन्मेषी दृष्टि के प्रतीक बने। सेना का कठोर
अनुशासन, कर्तव्यनिष्ठा और कार्यशैली फौजी अफसर को एक अलग धरातल पर खड़ा करती है।
इस बात को जसवंत सिंह ने साबित किया। राजनीति के दुर्गम चक्रव्यूह के भीतर जाकर
काम करना सरल नहीं है, पर उन्होंने इसके भीतर अपनी अलग जगह बनाई।
राजनीतिक जीवन में आरोप लगना आम
बात है, पर उनपर बड़े आरोप कभी नहीं लगे। हाँ, सन 1999 में आईसी 814 विमान प्रकरण
में अपहर्ताओं की रिहाई के लिए उन्हें जिम्मेदार माना जाता है। पर यह निर्णय उनका
निजी निर्णय नहीं था, बल्कि इस निर्णय के पीछे देश के विरोधी दलों की सहमति भी थी।
ऐसी परिस्थिति आ गई थी कि शायद विमान को उड़ा दिया जाता। पहले आतंकवादी 40 लोगों की रिहाई
की माँग कर रहे थे, अंततः तीन लोगों की रिहाई हुई।
जो लोग उन्हें नजदीक से जानते हैं, उनका मानना है कि वे बहुत ही सुसंस्कृत, ज्ञानी और लचीले स्वभाव के व्यक्ति थे। संभाषण कला जो उनके पास थी, कम लोगों के पास थी। अपनी काँपती हुई आवाज में वे श्रोता को मंत्रमुग्ध कर देते थे। वे धीमा बोलते और बहुत सोच-समझकर ही कुछ कहते थे। वाजपेयी जी के साथ उनकी निकटता की वजह यह भी थी कि वे उनकी विश्व-दृष्टि से पूरी तरह सहमत थे। उन दिनों जब भी बड़े निर्णय करने होते थे, उनकी राय भी ली जाती थी। किताबें पढ़ने के शौकीन जसवंत सिंह ने करीब आधा दर्जन किताबें भी लिखीं।
हैरल्ड इवांस
मैंने अपना पत्रकारिता का जीवन जब शुरू
किया, तब लाइब्रेरी में सबसे पहले ‘एडिटिंग एंड डिजाइन’ शीर्षक से हैरल्ड इवांस की पाँच किताबों का एक सेट देखा था, जिसमें अखबारों
के रूपांकन, ले-आउट, डिजाइन के आकर्षक ब्यौरे थे। इसके बाद उनकी कई किताबें देखने
को मिलीं, जो या तो सम्पादन, लेखन या डिजाइन से जुड़ी थीं। फिर 1984 में फ्रंट पेज
हिस्ट्री देखी। यह अपने आप में एक रोचक प्रयोग था। अखबारों में घटनाओं की
रिपोर्टिंग और तस्वीरों के माध्यम से ऐतिहासिक विवरण दिया गया था। उन दिनों हैरल्ड
इवांस की ज्यादातर रचनाएं पत्रकारिता के कौशल से जुड़ी हुई थीं। उसी दौरान रूपर्ट
मर्डोक के साथ उनकी कहासुनी की खबरें आईं और अंततः लंदन टाइम्स से उनकी विदाई हो
गई।
हाल में जब उनके निधन की खबर आई, तब लगा कि युग वास्तव में
बदल गया है। पत्रकारिता की परिभाषा बदल गई है और उसे संरक्षण देने वालों का नजरिया
भी। हैरल्ड इवांस उस परिवर्तन की मध्य-रेखा थे, जिनके 70 वर्षीय करियर में करीब
आधा समय खोजी पत्रकारिता को उच्चतम स्तर तक पहुँचाने में लगा। और फिर
सत्ता-प्रतिष्ठान की ताकत से लड़ते हुए वह सम्पादक, एक प्रखर लेखक और प्रकाशक बन
गया। 92 साल की वय में उन्होंने संसार को अलविदा कहा। इसके पहले उन्होंने न जाने
कितने किस्म के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक घोटालों का पर्दाफाश किया, मानवाधिकार
की लड़ाइयाँ लड़ीं और मानवीय गरिमा को रेखांकित करने वाली कहानियों को दुनिया के
सामने रखा।
हैरल्ड इवांस ने करीब 14 साल तक ‘संडे टाइम्स’ के सम्पादक के रूप में खोजी पत्रकारिता के मानक स्थापित किए। सन 1981 में
रूपर्ट मर्डोक ने अखबार को खरीद लिया और वे एक साल तक लंदन टाइम्स के दैनिक
संस्करण के सम्पादक रहे। फिर मर्डोक के साथ सम्पादकीय अधिकारों को लेकर असहमति
होने पर उन्होंने पद त्याग दिया। उनका कहना था कि ब्रिटिश सरकार ने मर्डोक को यह
अखबार खरीदने की अनुमति इस शर्त के साथ दी थी कि इसकी सम्पादकीय स्वायत्तता बनी
रहेगी। बहरहाल इसके कुछ साल बाद वे अपनी पत्रकार पत्नी टीना ब्राउन के साथ अमेरिका
आ गए।
अमेरिका में आकर उन्होंने लेखक, प्रकाशक और
विश्वविद्यालय-वक्तृताओं की एक नई भूमिका को अपनाया। इस दौरान कई किताबें लिखीं,
जिनमें ‘अमेरिकन सेंचुरी’ (1998) और उसकी पूरक ‘दे मेड अमेरिका’ (2004) लिखी
और फिर 2017 में अच्छे लेखन को लेकर ‘डू आय मेक मायसेल्फ क्लियर’ लिखी। पर
पत्रकार के रूप में 1983 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘गुड टाइम्स, बैड टाइम्स’ खासतौर से उल्लेखनीय है, जिसमें उन्होंने अखबार के मालिक
रूपर्ट मर्डोक और ब्रिटेन की तत्कालीन प्रधानमंत्री मार्गरेट थैचर के साथ अपने
रिश्तों के बारे में लिखा है। सन 2011 में ब्रिटेन के फोन हैकिंग स्कैंडल में
रूपर्ट मर्डोक की छीछालेदर के बाद इस किताब में नए प्रसंग जोड़कर इसे फिर से जारी
किया गया।
इवांस 1990 से 1997 तक रैंडम हाउस के प्रेसीडेंट और प्रकाशक
भी रहे। 1993 में वे अमेरिका के नागरिक बन गए। सन 2011 में वे रायटर्स के
एडिटर-एट-लार्ज बने। दुनियाभर के प्रतिष्ठित नागरिकों, लेखकों, राजनेताओं और
उद्योगपतियों के साथ वे संवाद भी चलाते रहे। कहने का मतलब यह कि 92 वर्ष की अवस्था
तक वे सक्रिय रहे। सन 2004 में ब्रिटेन की महारानी एलिज़ाबेथ ने उन्हें ब्रिटिश
पत्रकारिता की सेवा करने के लिए नाइट का खिताब प्रदान किया। उसके दो साल पहले
उन्हें ब्रिटिश प्रेस गजट और ब्रिटिश जर्नलिज्म रिव्यू ने सार्वकालिक श्रेष्ठतम
समाचार सम्पादक के सम्मान से अलंकृत किया था।
उनका शुमार दुनिया के सार्वकालिक
श्रेष्ठतम सम्पादकों में किया जा सकता है, पर उन्हें एक विडंबना के लिए याद किया
जाएगा। उन्होंने रूपर्ट मर्डोक जैसे मीडिया बैरन से पंगा लिया और अंततः उन्हें
ब्रिटेन छोड़कर अमेरिका जाना पड़ा। जीवन के शेष 38 साल उन्होंने अमेरिका में बिताए।
अपनी प्रतिभा और अदम्य ऊर्जा के सहारे वहाँ भी नाम कमाया, पर सम्पादक नहीं लेखक के
रूप में।
इवांस के पिता रेलवे में ड्राइवर
थे और उनकी माँ ने घर के बाहर वाले कमरे में छोटी सी दुकान लगाई थी, ताकि कुछ कमाई
होती रहे। वे चार भाइयों में सबसे बड़े थे। वे स्कूली शिक्षा की सीढ़ी यानी 11वीं
पास नहीं कर पाए, तो शॉर्टहैंड स्कूल में भरती हो गए, जो उन दिनों पत्रकारिता की
पहली सीढ़ी था। शायद वे इसी काम के लिए बने थे। सोलह साल की उम्र में उन्होंने एक
साप्ताहिक में नौकरी शुरू की। इसके बाद उन्होंने पढ़ाई का अभियान फिर शुरू किया और
उन्हें डरहम विवि में दाखिला मिल गया। सन 1952 में वे स्नातक बने। उनकी शुरुआत क्षेत्रीय अखबारों से हुई थी और उनकी दिलचस्पी शुरू से ही
पत्रकारिता के क्राफ्ट में थी। यानी कि स्टाइल, पेज ले-आउट, टाइपोग्राफी वगैरह। वे
अपने प्रतिस्पर्धी से भी कुछ सीखते थे।
जब वे ‘मैनचेस्टर ईवनिंग न्यूज’ में सब-एडिटर थे, उन्हें इंटरनेशनल प्रेस
इंस्टीट्यूट ने न्यूजपेपर तकनीक की शिक्षा देने के लिए भारत भेजा। 1955-56 में
उन्हें एक फैलोशिप मिली और अमेरिका पढ़ने चले गए। वापस आने पर ‘मैनचेस्टर ईवनिंग न्यूज’ में असिस्टेंट एडिटर के पद पर
उनकी नियुक्ति हुई। 1961 में वे क्षेत्रीय अखबार ‘नॉर्दर्न ईको’ के सम्पादक बने। इस अखबार में रहते हुए उन्होंने
मानवाधिकार और अन्याय-विरोधी अपनी पत्रकारिता शक्ल दी। सन 1966 में वे लंदन आ गए
और संडे टाइम्स के सम्पादक के सहायक बन गए। थॉमसन ऑर्गनाइजेशन ने उन्हीं दिनों वह
अखबार खरीदा था और कुछ समय ‘संडे टाइम्स’
में तत्कालीन सम्पादक डेनिस हैमिल्टन टाइम्स ग्रुप के प्रधान सम्पादक बना दिए गए।
उन्होंने ही कम्पनी बोर्ड को सुझाव दिया कि हैरल्ड इवांस को ‘संडे टाइम्स’ का सम्पादक बनाएं।
हैरल्ड इवांस के निधन के बाद लंदन
के अखबार ‘गार्डियन’ में उनके बारे में अपने लेख में ‘ऑब्ज़र्वर’ अखबार के पूर्व सम्पादक डोनाल्ड ट्रेलफोर्ड ने लिखा, ‘हैरल्ड इवांस हमारे ऑब्ज़र्वर के
सबसे जबर्दस्त प्रतिस्पर्धी थे। सम्पादक और डिप्टी-सम्पादक के रूप में उन्होंने ‘संडे टाइम्स’ में करीब 12 से 14 साल तक जैसी
इनवेस्टिगेटिव खबरें छापी, उनका जवाब नहीं। मुझे याद है सन 1967 का वह दिन हमारी
सम्पादकीय बैठक में, तत्कालीन सम्पादक डेविड एस्टर ने पूछा, कोई जानता है उसके
बारे में? मैंने हाथ उठाया और कहा, वह क्रुसेडर (योद्धा)
है। मेरे पास ‘नॉर्दर्न ईको’ में उनके काम की जानकारी थी। हैरल्ड इवांस ने टिमोथी इवांस के एक मामले को
जोरदार तरीके से उठाया था, जिसे अपनी पत्नी और बेटी की हत्या के आरोप में फाँसी पर
लटकाया गया था। और जो बाद में निर्दोष साबित हुआ और उसके खिलाफ गवाही देने वाला
सरकारी गवाह दोषी साबित हुआ था।’ उसके बाद से 1981 तक ‘संडे टाइम्स’ ने इनवेस्टिगेटिव पत्रकारिता की धूम मचा दी।
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