Thursday, October 22, 2020

अब भारत में भी होगी हींग की खेती

सीएसआईआर के इंस्टीट्यूट ऑफ हिमालयन बायोरिसोर्स (IHBT), पालमपुर के वैज्ञानिक हिमालय क्षेत्र में हींग यानी ऐसाफेटिडा (Asafoetida) की खेती के मिशन पर काम कर रहे हैं। पिछले हफ्ते लाहौल घाटी के क्वारिंग गाँव में इसका पहला पौधा रोपा गया है। भारत के रसोईघरों में हींग एक जरूरी चीज है। हर साल हम करीब 600 करोड़ रुपये की हींग का आयात करते हैं। सरकारी डेटा के अनुसार ईरान, अफगानिस्तान और उज्बेकिस्तान से करीब 1200 टन हींग का आयात भारत में होता है।  
हींग एशिया में पाए जाने वाले सौंफ की प्रजाति के फेरूला फोइटिस नामक पौधे का चिकना रस है। ये पौधे-ईरान, अफगानिस्तान, तुर्की, बलोचिस्तान और अफगानिस्तान के पहाड़ी इलाकों में अधिक होते हैं। इस पौधे की टहनियाँ 6 से 10 फ़ुट ऊँची हो जाती हैं और इसपर हरापन लिए पीले रंग के फूल निकलते हैं। इसके ज्यादातर तत्व इसकी जड़ों में होते हैं। इसकी जड़ों को काटा जाता है जहाँ से एक दूधिया रस निकलता है। फिर इसे इकट्ठा कर लिया जाता है। सूखने पर ये भूरे रंग के गोंद जैसा हो जाता है जिसे हींग कहा जाता है।

ईरान और अफगानिस्तान में लगभग हर तरह के भोजन में इसका प्रयोग किया जाता है। भारत और पाकिस्तान में भी हींग का भरपूर इस्तेमाल होता है। कुछ यूरोपीय देश भी इसके औषधीय गुणों को देखते हुए अपने यहाँ मँगाते हैं। इसे संस्कृत में 'हिंगु' कहा जाता है। इसमें ओषधीय गुण भी अनेक हैं।

भारत में हींग की खेती नहीं होती है। सन 1963 से 1989 के बीच भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) के नेशनल ब्यूरो ऑफ प्लांट जेनेटिक रिसोर्सेज (एनबीपीजीआर), नई दिल्ली ने देश में ऐसाफेटिडा के बीज तैयार करने का प्रयास किया था, पर उसका परिणाम क्या हुआ, इसे कहीं प्रकाशित नहीं किया गया। सन 2017 में आईएचबीटी ने एनबीपीजीआर से सम्पर्क करके हिमालयी क्षेत्र में हींग की प्रायोगिक परियोजना शुरू करने का प्रस्ताव दिया। शोध की दृष्टि से हींग के बीज ईरान से मँगाए गए और वे एनबीपीजीआर के पास रहे। वहाँ इन बीजों के कई प्रकार के परीक्षण किए गए।

उनके रोपण के बाद खेत में उनसे किसी प्रकार का फंगल या बैक्टीरियल संक्रमण न हो जाए, या दीमक का हमला न हो जाए, इसके लिए उन्हें क्वारंटाइन किया गया। आईसीएआर से नियामक स्वीकृतियाँ प्राप्त करने के बाद 2018 से आईएचबीटी में उसपर आगे प्रयोग चले। पालमपुर के इस इंस्टीट्यूट में बीजों का अध्ययन किया गया और यह देखा गया कि प्रयोगशाला की परिस्थितियों में उनका जमीन में अंकुरण होता है या नहीं। वैज्ञानिकों के लिए चुनौती इस बात की थी कि ये बीज लम्बे समय से बगैर इस्तेमाल के पड़े थे, इसलिए उनके अंकुरण की संभावना एक प्रतिशत ही थी। बहरहाल इन बीजों के जो छह अलग-अलग हिस्से थे, सभी में जमाव नजर आया।

ये बीज लम्बे समय तक सुशुप्तावस्था का सामना कर सकें, इसके लिए उनका विशेष रासायनिक ट्रीटमेंट भी किया गया था। ईरान के अलग-अलग क्षेत्रों से लाए गए छह अलग-अलग वर्गों के इन बीजों का अंकुरण हो गया। इस साल जून में सीएसआईआर के इंस्टीट्यूट ने हिमाचल प्रदेश के कृषि मंत्रालय के साथ एक आशय पत्र पर दस्तखत किए हैं। दोनों के संयुक्त तत्वावधान में यह परियोजना अगले पाँच साल तक चलेगी।


बीबीसी हिंदी की इस रिपोर्ट को भी पढ़ें

 

 

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